वर्ष 2013 के बाद से, जब लोक शिक्षक मंच द्वारा लिखित और किशोर भारती द्वारा प्रकाशित ‘स्कूलों का एनजीओकरण – नवउदारवाद का एक और चेहरा’ पुस्तिका छपी थी, देश के प्रशासन के स्तर पर और खुद हमारे कार्यक्षेत्र व अनुभवों में कई ऐसी चीज़ें घटी हैं जिनपर बात करना ज़रूरी है। केंद्र में भाजपा के नेतृत्व में एन डी ए सरकार के गठन के बाद ख़ुफ़िया एजंसियों की चुनिंदा (लीक की गईं) रपटों को आधार बनाकर कुछ राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय नामी-गिरामी एनजीओ - ग्रीनपीस, अनहद आदि - के खिलाफ सरकार द्वारा व्यापक अभियान चलाया गया। इनके कामों पर तरह-तरह से रोक लगाने की कोशिशें भी जारी हैं। इन बदले की भावना से प्रेरित कार्रवाइयों का उद्देश्य सत्ताधारी दल द्वारा प्रशासनिक मशीनरी का दुरुपयोग करके राजनैतिक विरोध को उत्पीड़ित करना और पर्यावरण से लेकर मानवाधिकारों के अपराधों के विरुद्ध काम कर रहे चुने हुए कार्यकर्ताओं/संस्थाओं (एनजीओ) को कुचलना है। हम यह बात इसलिए दर्ज कर रहे हैं क्योंकि एनजीओ की राजनीति से विरोध रखने के बावजूद हम सरकार द्वारा प्रायोजित इन कार्रवाइयों का संदर्भ व चरित्र समझते हुए न सिर्फ इन कार्रवाइयों का स्वागत नहीं करते हैं बल्कि इनके प्रति अपनी असहमति भी जताते हैं। निश्चित ही शिक्षा सहित लगभग सभी सार्वजनिक क्षेत्रों में कॉरपोरेट व संघी विचारधारा के एनजीओ की बढ़ती भूमिका सरकार के खतरनाक इरादों को और स्पष्ट कर देती है और हमें इस बात का कोई भ्रम नहीं पालने देती है कि सरकार को एनजीओ के साम्राज्यवादी-पूँजीवादी चरित्र से कोई ऐतराज़ या समस्या है।राज्य के स्तर पर चाहे वो पीपीपी की नीति हो या सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी) का मॉडल, केंद्र से लेकर दिल्ली सरकार और नगर निगम के स्तर तक हम अपने स्कूलों में एनजीओ के माध्यम से पूँजी की बढ़ती कब्जेदारी देख रहे हैं। जहाँ दिल्ली के तीनों निगमों के स्कूलों में काम कर रहे एनजीओ की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है, वहीं दिल्ली सरकार के स्कूलों में भी इन्हें पहली बार बड़ा प्रवेश दिया गया है। दक्षिणी दिल्ली नगर निगम ने अपने लाजपत नगर के एक स्कूल को दो वर्षों के लिए आर्क फाउंडेशन नाम के एनजीओ को सौंप दिया है और इस संबंध में अखबारों में लगातार ये प्रचारी खबरें छपवाई हैं कि एनजीओ के हाथों में जाने के बाद नामांकन में ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई है। इसके विपरीत हमको नामांकन संबंधी आरटीआई अर्जियों के जवाब नहीं भेजे गए हैं। इन दोनों तथ्यों से हमारा यह विश्वास पुख्ता होता है कि हमारे साथी-सूत्र की यह बात सच है कि एनजीओ को स्कूल देने का फैसला पहले ही कर लिया गया था - नामांकन का हवाला देना तो एक बहाना था - तथा अगले सत्रों में और स्कूल ऑउटसोर्स किये जाएँगे। दिल्ली सरकार ने तो न सिर्फ टीच फॉर इंडिया नामक एनजीओ को 25% पाठ्यकर्म कम करने जैसे विशुद्ध अकादमिक काम में भूमिका प्रदान की, बल्कि 54 स्कूलों में 'प्रथम' को बच्चों के (गणित व भाषा) सीखने के स्तर को मापने और उसमें 'सुधार' लाने के लिए समय व सामग्री के सुनियोजित हस्तक्षेप की जगह दी है, सीएसफ - जिसका परिचय कहता है कि कॉरपोरेट व धर्मार्थ क्षेत्रों में निवेश के निर्णय लेना ही उनका मज़बूत पक्ष है - से जुड़े क्रिएटनेट एजुकेशन नाम के एनजीओ को शिक्षा निदेशालय व एस सी ई आर टी, दिल्ली के साथ स्कूलों के प्रधानाचार्यों के 'नेतृत्व विकास' पर काम करने को कहा है और 'साझा' नामक एनजीओ को स्कूल प्रबंधन समितियों को अधिक प्रभावी बनाने की ज़िम्मेदारी दी है। साथ ही, एक ओर जहाँ बच्चों और शिक्षा के विरुद्ध 'नो डिटेंशन नीति' को हटाने का विधेयक पारित किया गया है वहीं दूसरी ओर देशभर में हो रहे मज़दूरों के हक़ों के हनन की तर्ज पर शिक्षकों के वेतन को कम करने का निजी-प्रबंधन हितैषी विधेयक भी पारित करके दिल्ली सरकार ने अपनी राजनीति और स्पष्ट कर दी है। उधर नगर निगम के स्कूलों में एक तरफ तेज़ी से टीच फॉर इंडिया को दखल दिया गया है और दूसरी तरफ स्कूलों को बंद करने, 'मर्ज' करने और उनके प्रांगणों को कोचिंग सेंटर व व्यावसायिक संस्थाओं के इस्तेमाल के लिए देने के खतरनाक निर्णयों की घोषणाएँ भी हुई हैं। यहाँ तक कि दिल्ली नगर निगम अपने स्कूलों में बैंकों को एटीएम लगाने के लिए जगह देने पर भी विचार कर रही है। इस दौरान, दलगत कारणों से निगम व राज्य सरकार के बीच हो रही खींचातानी के चलते, निगम शिक्षकों को कई महीनों से वेतन का भुगतान नहीं किया गया है। यह आशंका निराधार नहीं है कि शिक्षकों को वेतन नहीं दे पाने की स्थिति को स्कूलों के निजीकरण और एनजीओकरण के पक्ष में इस्तेमाल किया जाएगा। जब बढ़ते सकल घरेलू उत्पाद, शिक्षा पर लगे उपकर, बंद होते स्कूल और अन्य कर्मचारियों की तरह शिक्षकों के बढ़ते ठेकाकरण के बावजूद शिक्षकों की तनख्वाहें देने में असमर्थता जताई जा रही हो तो इसे वित्तीय संकट नहीं बल्कि राजनैतिक नीयत के धरातल पर ही समझना तथा लड़ना होगा।इस बीच केंद्र सरकार के स्तर पर जहाँ बेहद कृत्रिम व पूर्व-नियोजित अफसरशाही ढंग से नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाने की कवायद चलाई गई है, वहीं तमाम संस्थानों में अकादमिक रूप से घटिया व विचारधारात्मक रूप से दक्षिणपंथी/फासीवादी व्यक्तियों की नियुक्तियाँ करके, नॉन-नेट वज़ीफ़े पर कुठाराघात करके और आन्दोलनरत विद्यार्थियों का प्रशासनिक दमन व पुलिसिया उत्पीड़न करके सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद करने की योजनाबद्ध प्रक्रिया को और खतरनाक रूप दिया गया है। देशभर में हुए विरोध के बावजूद हाल ही में सम्पन्न विश्व व्यापार संगठन के नैरोबी सम्मेलन में उच्च-शिक्षा को विश्व-व्यापार के हवाले करने के निर्णय को वापस न लेना और साम्राज्यवादी-पूँजीवादी हितों के मुताबिक़ वार्ताओं को गोपनीय बनाए रखना व घुटने टेक देना सरकार की इसी पक्षधरता को प्रकट करता है।इन सबके बावजूद हमारे पास उत्साहित होने और प्रेरणा लेने के कारण भी हैं। पिछले वर्षों की तुलना में लोक स्तर पर और विभिन्न सामाजिक समूहों में, विशेषकर दलित कार्यकर्ताओं, लेखकों व चिंतकों के बीच, एनजीओ की राजनीति तथा परिघटना पर सवाल खड़े होने शुरु हुए हैं। अक्टूबर 2015 में हरियाणा के सिरसा ज़िले की दलित पृष्ठभूमि की छात्रा ज्योति द्वारा अपनी कॉलेज की पढ़ाई जारी रखने के लिए तीन साल तक यात्रा पर आने वाले खर्चे के लिए एक एनजीओ की 63,000 रुपये की पेशकश को सरकार से बस-पास के हक़ की माँग के पक्ष में ठुकराना इसी चेतना का बेहतरीन उदाहरण है। इसी तरह भारत की स्थापित पत्रकारिता व प्रिंट माध्यम में भी अंतर्राष्ट्रीय पूँजी के 'परोपकारी' निवेश पर गंभीर सवाल खड़े किये जा रहे हैं। 17 अक्टूबर 2015 के ईपीडब्लू में जाह्नवी सेन का 'कमोडिफिकेशन ऑफ़ गिविंग बैक इन अ निओ-लिबरल वर्ल्ड' और 6 दिसंबर 2015 के द हिन्दू में जी सम्पथ का 'द आर्ट ऑफ़ प्रॉफिटेबल गिविंग' इसी कड़ी के दो ताज़ा उदाहरण हैं। स्कूलों के संदर्भ में हमारा अनुभव भी बताता है कि शिक्षकों तथा विद्यार्थियों के बीच हम इस मुद्दे को ले जा पाने और इस पर एक समझ बनाने में कुछ हद तक सफल हुए हैं।इस दौरान हम 'नन्हीं कली' कार्यक्रम को न सिर्फ अपने स्कूलों में औपचारिक प्रवेश मिलने से रोकने में सफल रहे हैं, बल्कि इस विषय पर अन्य शिक्षक साथियों के साथ चलते रहे संवाद के कारण ही इसके प्रबंधकों द्वारा 'मदद' के नाम पर स्कूल में अनौपचारिक घुसपैठ करने की योजना को भी नाकाम किया गया है। 2014 में भोपाल गैस त्रासदी की 30वीं वर्षगांठ के अवसर पर हमारे द्वारा इलाक़े में बाँटे गए पर्चों से बौखलाकर 'नन्हीं कली' प्रबंधकों ने अपने एक प्रायोजित एनजीओ के माध्यम से स्कूल प्रशासन के समक्ष लोक शिक्षक मंच के एक शिक्षक साथी के खिलाफ मनगढ़ंत आरोप लगवाए। हमने एक तरफ स्कूल प्रशासन द्वारा खुली जाँच को आमंत्रित किया और दूसरी तरफ अभिभावकों, पुराने विद्यार्थियों तथा अन्य स्थानीय लोगों के बीच एनजीओ की इस घिनौनी-झूठी कारस्तानी का पर्दाफाश करने का अभियान चलाया। इसका असर यह हुआ कि जहाँ जाँच में आरोप बेबुनियाद पाये गए, वहीं लोगों में एनजीओ के प्रति अविश्वास और बढ़ गया। यही वजह है कि इस इलाक़े में आज बहुत कम छात्राएँ इस कार्यक्रम में भाग ले रही हैं - तथा इसमें नामांकित छात्राओं की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है - और प्रबंधकों को मजबूरी में अपनी मुफ्त किट भी लड़कों (छात्रों) व यहाँ तक कि वयस्कों में 'बाँटनी' पड़ रही हैं! इसी तरह हम मैजिक बस जैसे उस एनजीओ को, जो आज से पहले स्कूल में बिना इजाज़त और बे-रोकटोक काम कर रहा था, आर टी आई व राजनैतिक संवाद के बल पर मिले स्कूल प्रशासन व शिक्षक साथियों के सहयोग से बाहर करने में कामयाब हुए हैं। इन हौसला बढ़ाने वाली सफलताओं के बावजूद हमें स्थिति की गंभीरता का भली-भाँति अंदाज़ा है। आखिर आज हालत यह है कि कोलगेट की तरह कोई भी कम्पनी बिना किसी औपचारिक प्रक्रिया अपनाए या इजाज़त लेने की ज़हमत उठाए बिना हमारे स्कूलों में आकर नियमित दिनचर्या में अनिधिकृत परन्तु आदेशपरक लहजे में हस्तक्षेप करके, बच्चों की सूची बनवाकर उन्हें (व शिक्षकों को) मुफ्त टूथपेस्ट-ब्रश बाँटकर आसानी से अपने धंधे के पक्ष में सामाजिक-नैतिक वैधता निर्मित कर सकती है। टीवी पर भी कोका कोला, उषा और एनडीटीवी जैसे नामी कॉरपोरेट ब्रांडों द्वारा 'ग़रीब बच्चों की शिक्षा' प्रायोजित करने के परोपकारी प्रचार देखे जा सकते हैं। सोशल मीडिया पर तो ऐसे देशी-विदेशी प्रचारों की भरमार ही है जोकि संभावित मध्यमवर्गी पाठकों/दर्शकों व दानदाताओं को 'ग़रीब' बच्चों को गोद लेने और उनकी शिक्षा प्रायोजित करने को आमंत्रित करते हैं। स्वयं सरकार के स्तर पर केंद्र से लेकर राज्यों तक कॉरपोरेट घरानों से अपील की जा रही है कि वे सार्वजनिक स्कूलों को 'गोद' लेकर चलाएँ। गुजरात में तो मिड-डे-मील को स्थानीय रईसों द्वारा प्रायोजित कराकर देश के बच्चों को सदाशयी सामंती वर्गों के परोपकार के अधीन करने की नीति लागू की जा चुकी है। कहना मुश्किल है कि इस 'गोद' लेने/देने की भाषा में किसने किसका अनुसरण किया है। अंततः चाहे जबरन व प्रत्यक्ष हिंसा से संसाधन कब्जाने का मामला हो, चाहे भूमि-अधिग्रहण व श्रम क़ानूनों में संशोधनों के ज़रिये लूट बढ़ाने के उदाहरण हों या फिर सामंती-वैश्विक पूँजी की छद्म-परोपकारिता के हथकंडे हों, इन प्रक्रियाओं में हम पृथ्वी पर समस्त सामाजिक जीवन को मुनाफे के लिए नियंत्रित करने व ग़ुलाम बनाने की कवायद देख रहे हैं।एक शब्द निजता की उस चिंता के बारे में भी कहना ज़रूरी है जिसे हमने 'नन्हीं कली' के विरुद्ध लड़ते हुए व रपट लिखते हुए रेखांकित किया था। इस बिंदु पर भी पिछले दो-तीन वर्षों में परेशान होने के कारणों में इज़ाफ़ा ही हुआ है। निजता, 'सूचित सहमति' ('इंफॉर्म्ड कंसेंट'), आज़ादी और आत्म-सम्मान के जिन उसूलों को हमने एनजीओ के माध्यम से निजी पूँजी द्वारा धड़ल्ले से रौंदे जाते देखा था आज हम राज्य द्वारा भी उनका मखौल उड़ाए जाने के गवाह हैं। कहीं स्कूलों में 'आधार' में नामांकित हुए बिना बच्चों को प्रवेश नहीं दिया जाता तो कहीं इस बिना पर विद्यार्थियों का वज़ीफ़ा रोक लिया जाता है और इस तरह उन्हें जबरन 'आधार' में नामांकित होने को मजबूर किया जाता है। दिल्ली सरकार से पास हुए विद्यार्थियों के फोन नंबर रहस्यमयी ढंग से निजी संस्थानों को मिल जाते हैं जो फिर फोन कर-करके विद्यार्थियों को अपनी दुकानों में प्रवेश लेने का निरंतर दबाव बनाते हैं। ज़ाहिर है कि बच्चों का डाटाबेस, जिसे संरक्षित रखने के भरोसे ही राज्य की इकाइयों को सौंपा जाता है, व्यावसायिक स्वार्थों के हवाले किया जा रहा है। जब देश का प्रधानमंत्री ही, सर्वोच्च-न्यायालय के कई आदेशों की लगातार अवमानना करते हुए, जे ए एम (जिसमें ए का अर्थ 'आधार' है) के अपने मनमाने और अवैधानिक सूत्र का ढोल पीटता जाए तो ऐसे में बाक़ी प्रशासन तक जानबूझकर भेजे जाने वाले अलोकतांत्रिक संदेश को अच्छी तरह समझा जा सकता है। रही बात सर्वोच्च न्यायालय की, तो हाल ही में हरियाणा सरकार द्वारा पारित घोर अलोकतांत्रिक पंचायती राज (संशोधन) अधिनियम को वैध ठहराकर उसने भी बहुत उम्मीद न रखने का साफ़ संदेश दे दिया है। घोर सामाजिक-आर्थिक उत्पीड़न व विषमता की परिस्थितियों तथा देशभर में विभिन्न राज्यों में बंद किये जा रहे लाखों सार्वजनिक स्कूलों की परिघटना से आँखें मूँदते हुए न्यायालय ने यह साफ़ कर दिया कि अगर कोई स्कूल नहीं जा पाती है, पढ़ाई जारी नहीं रख पाती है, पढ़ाई 'पूरी' नहीं कर पाती है तो यह राज्य की नहीं बल्कि उसकी अपनी व्यक्तिगत असफलता है, उसका स्वयं का दोष है।
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