Tuesday 5 November 2024

‘अपार’: ‘डाटा पर डाका और शिक्षा पर ताला’ नीति का ताज़ा संस्करण



लोक शिक्षक मंच इस समय देशभर के स्कूलों में तमाम उम्र व श्रेणियों के विद्यार्थियों को 'अपार' नामक डिजिटल पहचान के अंतर्गत लाने के लिए चलाई जा रही प्रक्रिया पर अपनी चिंताएँ व आलोचना साझा कर रहा है। इस संदर्भ में हम अपना पक्ष निम्नलिखित तथ्यों व तर्कों के आधार पर रख रहे हैं।

1. जबकि 'अपार' में विद्यार्थी की निजी जानकारी साझा करने के लिए माता-पिता/अभिभावक द्वारा सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर करने की ज़रूरत से ही यह स्पष्ट होता है कि यह अनिवार्य नहीं है, फिर भी प्रशासन द्वारा स्कूलों, शिक्षकों, विद्यार्थियों व उनके माता-पिता/अभिभावकों तक इसे दबाव बनाकर यह संप्रेषित किया जा रहा है जैसे कि यह अनिवार्य हो। दबाव की इन परिस्थितियों में विद्यार्थियों के माता-पिता को अँधेरे में रखकर या उन्हें विश्वास में न लेकर उनकी सहमति को दर्ज करने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। 

2. वैसे भी, एक आम व्यक्ति के लिए 'अपार' के लिए जारी सहमति-पत्र की भाषा को, चाहे वो अंग्रेज़ी में हो या हिंदी में, समझना आसान नहीं है। ख़ुद शिक्षकों के लिए यह समझना, और फिर विद्यार्थियों के माता-पिता को समझाना, आसान नहीं है कि आख़िर ‘अपार’ में शामिल होने से दाँव पर क्या लग रहा है। डिजिटल पहचान व निजी डाटा-संबंधी विषय होने के नाते, इसके निहितार्थों को समझना उस वर्ग के लिए तो और भी दुरूह है जिसे इस विषय की समझ से वंचित रखा गया है। ऐसे में स्कूलों के माध्यम से करोड़ों बच्चों को ऐसी बारीक, अनजान व निजता के अधिकार का उल्लंघन करने वाली प्रक्रिया के अधीन लाना, विद्यार्थियों के माता-पिता और विद्यालयों व शिक्षकों के बीच के सहज-मासूम विश्वास व भरोसे के रिश्ते का दुरुपयोग करना है।      

3. शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 के तहत तो 8वीं कक्षा तक 'अपार' (या, काग़ज़ी या डिजिटल, किसी भी तरह की पहचान व उसके दस्तावेज़) को वैसे भी अनिवार्य नहीं किया जा सकता है। 

4. बरसों से शिक्षा जगत में यह एक गंभीर विमर्श का पहलू रहा है कि विद्यार्थियों को कक्षाई रोल नंबर व स्कूली प्रवेश संख्या जैसी अंकों की पहचान तक सीमित न किया जाए, बल्कि प्रत्येक बच्चे-बच्ची को उसके संपूर्ण व असीम मानवीय अस्तित्व के साथ बरता जाए। इस संवेदना के विपरीत हम देख यह रहे हैं कि विद्यार्थियों को पहले राजकीय शिक्षा विभाग के पटल पर एक संख्या की पहचान के तहत लाया गया, फिर यू-डाइस (UDISE) में PEN के अधीन लाया गया; और जैसे कि इतना-ही काफ़ी नहीं था, अब उन्हें एक और पहचान-संख्या अपनाने के लिए कहा जा रहा है। ‘आधार’ और बैंक खातों की संख्यात्मक पहचान तो अलग है ही। लगता है कि यह व्यवस्था स्कूली बच्चों को संख्याओं की भावनाशून्य पहचान में ढालकर, उन्हें छोटी उम्र से ही, बिना सवाल- जवाब किए, एक निरंकुश व सर्वव्यापी निगरानी तंत्र के अधीन सौंपने पर आमादा है।  

5. न केवल यह एक अनावश्यक क़दम है, बल्कि हम इसे निजता, स्कूलों-शिक्षकों की कार्यकुशलता, विद्यार्थियों की अपनी निजी जानकारी व दस्तावेज़ों पर नियंत्रण आदि के संदर्भों में घातक समझते हैं। हमारा अनुभव गवाह है कि जैसे-जैसे शिक्षा व्यवस्था में प्रक्रियाएँ व प्रणाली अनिवार्य रूप से डिजिटल की गई हैं, वैसे-वैसे विद्यार्थियों, उनके माता-पिता, शिक्षकों व स्कूलों की मुश्किलें बढ़ी हैं, पारदर्शिता कम हुई है, ग़ैर-शैक्षणिक/अनावश्यक काम बढ़ा है तथा रास्ते जटिल हुए हैं। इस बिना पर हमारी आशंका है कि 'अपार' के आने से शिक्षकों-स्कूलों का ग़ैर-शैक्षणिक काम बढ़ेगा और, विशेषकर वंचित-मेहनतकश वर्गों से आने वाले, विद्यार्थियों व उनके माता-पिता के लिए व्यवस्था को समझना, सामान्य शैक्षिक हक़ों को प्राप्त करना तथा सरल-सहज व ज़रूरी कामों से गुज़रना और भी पेचीदा होता जाएगा। 

6. 'अपार' के लिए 'आधार' के अलावा मोबाइल नंबर व माता तथा पिता, दोनों के नामों को अनिवार्य किया गया है। 'आधार' अधिनियम के अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय के कई फ़ैसलों में यह स्पष्ट किया गया है कि 'आधार' सब्सिडी के लिए ही अनिवार्य है, संसद या संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार (जिसमें 14 साल तक के बच्चों के लिए 8वीं कक्षा तक की शिक्षा शामिल है) की प्राप्ति के लिए नहीं। भारत में न कोई क़ानून मोबाइल फ़ोन रखना अनिवार्य करता है और न ही राज्य स्तर पर ऐसा कोई आँकड़ा उपलब्ध है जो साबित करता हो कि देश के 100 प्रतिशत परिवार अब एक सुचारु मोबाइल फ़ोन रखते हैं। इसी तरह, विभिन्न फ़ैसलों में संवैधानिक न्यायालय यह आदेश कई बार जारी कर चुके हैं कि विशेषकर एकल माँ के बच्चों के दस्तावेज़ों में पिता का नाम अनिवार्य नहीं किया जा सकता है। इन तीनों संदर्भों में 'अपार' के लिए इन जानकारियों को अनिवार्य करना अनुचित है एवं तब तक ही स्वीकार्य हो सकता है जब तक कि 'अपार' स्वयं वैकल्पिक/ऐच्छिक है। 

7. सहमति पत्र में यह तो लिखा है कि 'अपार' की अनुमति वापस ली जा सकती है (जिससे भी यह साफ़ होता है कि कम-से-कम वैधानिक रूप से या उसूलन यह अनिवार्य नहीं है), लेकिन इसका कोई उल्लेख नहीं किया गया है कि अनुमति वापस लेने की प्रक्रिया क्या होगी। बहुत मुमकिन है कि या तो अभी तक इसे निर्मित ही न किया गया हो या इसे इतना जटिल रखा जाए कि ज़्यादातर लोग, यह समझ न पाने की स्थिति में कि क्या और कैसे करना है, थक-हार कर बैठ जाएँ। कुल मिलाकर, इससे ‘अपार’ की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आती है।

8. जब हम यह पढ़ते हैं कि 'अपार' में दर्ज तमाम सूचनाओं का अन्य पटलों पर दर्ज सूचनाओं से मेल होने व उसके 'अपडेटेड' होने की ज़िम्मेदारी माता-पिता, स्कूल व शिक्षक की है, तब हमारी यह आशंका स्वाभाविक हो जाती है कि आने वाले समय में 'अपार' में नामांकन व इसकी पहचान संख्या को प्रवेश से लेकर परिणाम तथा वज़ीफ़ों, यानी कि विद्यार्थियों के सभी ज़रूरी हक़ों के लिए अनिवार्य बना दिया जाएगा। इससे 'आधार' वाली वो त्रासदी फिर दोहराई जाएगी जिसमें लाखों बच्चों को प्रवेश से मना कर दिया गया व उनके शैक्षिक वर्ष सिर्फ़ इसलिए बर्बाद कर दिए गए कि उनके पास यह पहचान नहीं थी या बायो-मेट्रिक मशीन उनकी आँखों या उँगलियों की छाप लेने में सक्षम नहीं थी या उसमें दर्ज कोई जानकारी कहीं और दर्ज या माँगी जा रही जानकारी से हू-ब-हू मेल नहीं खाती थी। ऐसे में जबकि ‘आधार’ की शर्त के कारण लाखों बच्चों को पहुँचे शैक्षिक नुक़सान का ही कभी ऑडिट नहीं किया गया है, ‘अपार’ को लागू करना लाखों बच्चों के लिए एक और दुःस्वप्न साबित होगा। भारत के बच्चों को इस बात के लिए तैयार किया जा रहा है कि अब उनके मानवीय व संवैधानिक हक़ों की प्राप्ति एक अबूझ, अपारदर्शी व बहिष्कारवादी तंत्र की कृपा पर निर्भर है जो न उनकी चीख़-पुकार, रोना या आक्रोश की आवाज़ सुनता है और न ही किसी न्यायसम्मत, लोकतांत्रिक तर्क को स्वीकार करता है।   
 
9. एक विडंबना यह भी है कि जो व्यवस्था हमसे हमारी और बच्चों की तमाम तरह की निजी जानकारी इकट्ठा करती है, वो सूचना के अधिकार क़ानून के तहत भी माँगने पर ख़ुद कोई जानकारी नहीं देती है, ज़रूरी जानकारी को जनता से छुपाती है और स्वतंत्र पत्रकारों एवं शोधार्थियों के ज़मीनी अध्ययन की कोशिशों को दबाती है। इधर हम विद्यार्थियों को संविधान और सच्चाई के पाठ पढ़ाते रहते हैं, और उधर सरकारें ख़ुद ही संविधान द्वारा प्रदत्त व न्यायालयों द्वारा संरक्षित अधिकारों को कुचलती रहती हैं। जो हम पढ़ते थे, साँच को आँच क्या, वो या तो अब हमें शर्मिंदा करता है या व्यवस्था के निर्लज्ज ढोंग की हक़ीक़त बयान करता है। 

10. आज हमारे स्कूलों के अधिकांश शिक्षक घोर निराशा से गुज़र रहे हैं क्योंकि 'अपार' जैसे तमाम आकस्मिक कामों के चलते न तो वो सही मायनों में पढ़ा पा रहे हैं और न ही अपने विद्यार्थियों की समस्याओं के लिए ज़रूरी वक़्त निकाल पा रहे हैं। स्कूलों में शिक्षकों की इन कार्य-परिस्थितियों के नतीजतन, कई शिक्षक घोर तनाव व अवसाद का शिकार हो रहे हैं। आज सत्ता की मनमर्ज़ी एवं शिक्षा-विरोधी कार्यक्रमों के आदेशों की डिजिटल बाढ़ में हमारे स्कूलों का दम घुट रहा है। इसका नतीजा यह है कि होनहार-से-होनहार व कर्मठ-से-कर्मठ शिक्षक भी यह महसूस कर रहे हैं कि वो अपने विद्यार्थियों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी पूरी नहीं कर पा रहे हैं। शिक्षकों के एक बड़े वर्ग में इस बात को लेकर हताशा घर कर रही है कि न तो हम अकादमिक कर्म व शिक्षक-छात्र रिश्तों को समुचित वक़्त व गहराई दे पा रहे हैं और न ही, सब देखते-समझते हुए भी, अव्यवस्थित व आपसी बातचीत में कुंठा व आलोचना व्यक्त करने के अलावा, अपनी आँखों के सामने हो रहे इस अपराध और अन्याय के ख़िलाफ़ एकजुट होकर आवाज़ उठा पा रहे हैं। यह अमानवीय तंत्र हमें अपने कर्म और अपने विद्यार्थियों के प्रति बेईमान बना रहा है।      
                                
असल ज़रूरत शिक्षा के अधिकार को बढ़ाकर 12वीं कक्षा तक करने, सामाजिक न्याय पर आधारित छात्रवृत्तियां बढ़ाने, उनकी शर्तें व प्रक्रिया सरल करने, राशि बढ़ाने, प्रवेश प्रक्रिया सुगम बनाने, व्यवस्था को लोकतांत्रिक, विकेन्द्रीकृत व जनता के प्रति जवाबदेह बनाने, शिकायत तंत्र को पारदर्शी व मज़बूत करने आदि की है; नाकि विद्यार्थियों, परिवारों, शिक्षकों व स्कूलों को एक केंद्रीकृत डिजिटल मकड़जाल में उलझाने की।  

‘अपार’ के तहत ‘एक देश, एक छात्र पहचान' को एक लुभावने नारे की तरह पेश व इस्तेमाल किया जा रहा है, जैसे कि यह किसी गंभीर समस्या का समाधान हो या विद्यार्थियों की माँग हो। जबकि हक़ीक़त यह है कि निजी-सरकारी स्कूलों की पहले-से मौजूद अन्यायपूर्ण खाई बढ़ती जा रही है, PM-SHRI या स्कूल्स ऑफ़ एक्ससेलेन्स के नाम पर सरकारें खुद सरकारी व्यवस्था के भीतर ही असमानता को बढ़ाने वाली और देश को ऊँच-नीच व आम-ख़ास में बाँटने वाली तरह-तरह की परतें खड़ी कर रही हैं, शिक्षा के बजटीय आवंटन में कटौती की जा रही है, उच्च-शिक्षा के राज्य-पोषित संस्थानों तक में सेल्फ-फाईनेन्स कोर्सों को बढ़ावा दिया जा रहा है व फ़ीस की बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है, नियमित व पर्याप्त संख्या में भर्तियाँ नहीं की जा रही हैं, छात्रवृत्तियों को सामाजिक न्याय से काटा जा रहा है, उनकी प्रक्रिया व शर्तें जटिल की जा रही हैं और राशि को ज़रूरत के हिसाब से बढ़ाया नहीं जा रहा है। दूसरी तरफ़, विशेषकर सरकारी स्कूलों में शिक्षकों को तरह-तरह के ग़ैर-शैक्षणिक कामों में उलझा कर और पाठ्यचर्या के साथ नियमित व नित नए खिलवाड़ करके मेहनतकश-मज़दूर वर्ग के बच्चों की शिक्षा को कमज़ोर किया जा रहा है। ऐसे विषम हालातों में जब शिक्षा व्यवस्था में अमीर-ग़रीब के बच्चों के बीच इतना सुनियोजित भेदभाव व असमानता है, 'वन नेशन, वन स्टूडेंट आईडी' का नारा एक छल से ज़्यादा कुछ भी नहीं है।         

होगा ये कि - जैसा कि 'आधार' के साथ हुआ था, जिसे ऐच्छिक कहकर लाया गया था और जो अब जनता के गले में पैसे, वक़्त और अधिकारों की बलि रूपी फाँसी के फंदे की तरह पड़ गया है - धीरे-धीरे इस 'ऐच्छिक' 'अपार' के बिना विद्यार्थियों के प्रवेश, ट्रांसफर, परिणाम, वज़ीफ़े, खाते आदि रोक दिए जाएँगे और फिर उन्हें व शिक्षकों-स्कूलों को एक मजबूरी की स्थिति में लाकर इसे सफल घोषित कर दिया जाएगा। चाहे इसमें कितना वक़्त बर्बाद हो या कितने-ही विद्यार्थियों की पढ़ाई छूट जाए। हमारा मानना है कि, अपनी श्रेष्ठ संभावना में भी, 'अपार' शिक्षा को और चौपट करने वाली, जनविरोधी व अलोकतांत्रिक सनक से ज़्यादा कुछ नहीं है; मगर साथ ही, इसका इस्तेमाल शिक्षा के असल मुद्दों से भटकाने, विद्यार्थियों के डाटा के व्यापारी इस्तेमाल तथा एक केंद्रीकृत निगरानी-नियंत्रण तंत्र के लिए भी किया जाएगा। 

हम माँग करते हैं कि
1. ‘अपार’ से जुड़े तमाम आदेश तत्काल प्रभाव से वापस लिए जाएँ। 
2. ‘अपार’ या किसी भी अन्य केंद्रीकृत डिजिटल अथवा बायो-मेट्रिक पहचान को बच्चों के लिए लागू न किया जाए। 
3. बच्चों से जुड़े सभी निजी डाटा, रिकार्ड आदि को स्कूली अथवा विकेंद्रीकृत स्तर पर ही जमा किया जाए। 
4. पिछले दस वर्षों में ‘आधार’ की अनिवार्यता के चलते बच्चों को पहुँचे शैक्षिक व आर्थिक नुक़सान के सामाजिक ऑडिट के लिए व्यापक स्तर पर जनसुनवाइयाँ आयोजित की जाएँ। इस नुक़सान के लिए नीति-निर्माताओं के स्तर पर जवाबदेही तय करते हुए भुक्तभोगी बच्चों को हर्जाना दिया जाए। ऑडिट की रपटों को बाल अधिकार संरक्षण आयोगों द्वारा जनता के बीच जारी किया जाए। 

लोक शिक्षक मंच 
नवंबर 2024
दिल्ली 


Sunday 12 May 2024

Notes on Foundational Literacy and Numeracy (FLN)

 

Notes on Foundational Literacy and Numeracy (FLN), in the context of but not limited to its conception and implementation under the National Education Policy (NEP) 2020 and the curricular avatars in MCD and Delhi Govt schools.

This note on FLN has been prepared by Lok Shikshak Manch after rounds of discussions amongst ourselves and other scholars.

 

Howsoever it may be conceived in policy-related documents, it is clear that on ground FLN means and impacts both content/ curriculum (the 'what', and thereby objectives of education) as well as pedagogy (the 'how').

 

Interest of the Private/Business Forces

     The conception of FLN is drawn from the idea of Learning Outcomes, which in turn is umbilically linked to the business, industrial and market models.

     The FLN discourse is heavily influenced by international/multilateral bodies, both seemingly benign like those associated with the UN (and agendas like SDGs etc) and those working along with finance/capital promoting agencies like the WB.

     It is tied to the learning crisis narrative generated and pushed by private organisations - like Pratham (ASER reports), Central Square Foundation, Teach for India etc. - and supported by governments in compromising positions.

     This is an instrumentalist rather than a rights-based conception of education. It is reflected in overturning 'inputs' without having ensured them in practice and introducing 'outcomes' in the RTE Act. The RTE Rules were amended on 20th February 2017 ‘to include reference on class-wise, subject-wise Learning Outcomes.’ (PIB release) It begins by claiming, on a dangerously false basis, that the problem of access has been solved and is thus irrelevant now. Also, it diverts from the issue of lakhs of gravely underfunded and under-resourced schools and their communities.

     There is widespread, almost across-political party spectrum, support for this minimalist education policy. This is, for example, reflected in the prominent role given to Pratham by the Union Government as well as the GNCT-Delhi, in the making of their respective (but aligned) policies. Similarly, a Congress-affiliated Trust had awarded the Indira Gandhi Prize for Peace, Disarmament and Development for the year 2021 to the same organisation.

     It represents a business-industry-managerial, data-driven and market-oriented approach to education. Thus, the limiting and inhumane phenomenon of private production for profit and external control over alienated labour is falsely taken as providing a solution for 'problems in education' or even as an example for it.

     The 'learning outcomes' or the FLN agenda has got little to do with, in spite of its language and stated concerns with equity, Universal Human Rights and everything to do with standardising Global Labour Supply for transnational capital.

     The discourse has advanced in-tandem  with the sidelining and subversion of public, academic bodies by privileging NGOs and other private sector, corporate affiliated organisations, even in policy-making and implementation framework.

 

The narrative of ‘Falling Standards’

     FLN and the measures associated with it today resonate with the earlier example of the USA's NCLB Act (2001) and the testing and accountability regimen put in the name of 'standards'; Minimum Levels of Learning document produced in 1991 by the NCERT under the mandate of the National Policy on Education 1986. These earlier avatars were not limited to the areas of language and mathematics and posited more noble concerns about 'falling standards' and 'equalising outcomes' across sections of students, but also included conceptions of accountability, performance goals, achieving functionality and social usefulness by the strange means of reducing curriculum/curricular goals etc. There is a shift though, as, whereas, the overt concern behind NCLB was with 'standards', the recent policies in our parts of the world have been framed in the backdrop of the narrative of 'learning crisis', and hence have been overtly minimalist instead of needing to hide behind the fig leaf of 'excellence'.

     FLN dilutes curriculum and educational standards. It reduces educational goals to outcomes and content to language and mathematics; thereafter, further reducing these two areas to the minimalist conceptions of literacy and numeracy.

     FLN fragments and vandalises the curriculum. It is in line with the larger policy of dumbing down, deskilling and de-intellectualisation. The sidelining of other curricular areas like music, games, social studies, EVS etc. (even while glamorising fragments of and exhibitionist performances in these) is in line with other curricular subversions and compromises like vocational training, happiness curriculum, deshbhakti curriculum, EMC etc. as carried out in the Delhi government (and, lately, in MCD) schools.

     Schools are being degraded to coaching/tuition centres; especially affecting those who need the most rigorous education, kids from working class and marginalised sections studying in public schools.

     The no-detention policy (NDP) under the RTE Act (but existent up to varying grades across states even prior to the Act) was seen by some vocal critics as having led to a dilution of 'learning levels'. The section was finally amended in January 2019, leaving it to the states' discretion whether to adopt it and to what level. The Rules of the Act had already been changed in 2017 to introduce the guarantee of 'learning outcomes'.

     We observe a lower emphasis on Maths across measures and programs associated with FLN - both, in documents and in practice.

     The FLN conception fits in with the reduction of education into schooling, schooling into learning, learning into (measurable) outcomes, and with the parallel reduction of Language, Mathematics and EVS into Language and Mathematics and further into Literacy and Numeracy.

     Under the influence of FLN, rigorous syllabus is seen as a disadvantage and threat.

     The FLN approach is based on and extenuates the compartmentalisation of knowledge and subject areas. It is then sure to push this fracture into the affective domain.

 

Destroying Pedagogy

     FLN compromises pedagogic principles. It is aligned with and tends to centralisation of management and administration of schools and classroom teaching, through enforced content, schedules, time-tables, tests etc; it thereby reduces teachers' academic and professional autonomy.

     The fetishes of testing, categorising students in levels, labelling them and 'teaching at the right level' (TaRL) are likely to lead to segregation among students, apart from differential curricular content and assessment. This is apart from the harmful and dangerous phenomenon, already documented in research wrt the above-mentioned avatars, of subtle exclusion of students, 'teaching to test', manipulation of data/results, unfair assessment of teachers' work etc.

     This erroneous emphasis on FLN and learning outcomes inevitably leads to the point where the NEP talks of children entering even the earliest grades to be 'school ready' rather than the other way around! The conception of a 'Preparatory Class' before grade 1 and the 'school preparation module' attest to the performative focus under the FLN approach.   

     An attempt is made to resolve the contradiction between more progressive, researched and constructivist pedagogical approaches like whole language, emergent literacy etc on the one hand, and phonics, the traditionalist method of teaching from bottom-up and focussing on letters, matras through the adoption of 'Balanced Literacy Approach' (NCF-FS, Section 4.5.1.4)

     It is instructive that while under NEP/FLN, a lot of material and text has been supplied by the SCERT and SSA, much of it is restricted to charts on ‘counting’, ‘tables’, the varnamala etc.

     Under its Chunauti program (2016), the Delhi Government brought out the Pragati Series of texts in collaboration with Pratham as a 'supplementary learning material'. Though these texts were often used as substitute material to the NCERT books, they had to refer to NCF 2005 and the Learning without Burden report (1993) to earn legitimacy and credibility. 

     Likewise, variations and diversity among children's learning processes is also projected as a handicap.

     It is not clear how robust textbooks like, say, the post-2005 NCERT ones, and an unhindered and uncompromising curriculum would not anyway subsume the objectives of attaining the minimalist proficiency levels under FLN.

     Often, children's natural and normal progression with time, as they advance through classroom interaction and processes, is credited to the FLN strategy!

     Aspects like Play, Building a Positive Relationships between Teachers and Children and Conversations, Stories, Toys, Music, Art and Craft (NCF-FS 2022, Sections 1.4, 4.3 and 4.4, respectively) are, at best, made externally-driven (and, thereby, turned into anxiety-generating exercises!) or, much more frequently, completely sacrificed at the altar of FLN targets. (See MCD Time-Table)

     It is not clear how reading a simple sentence differs from reading a paragraph and a short story, especially when the latter is composed of the former. Similarly, while it is recognised that a 'Premature introduction of the script to very young children who are in their early stages of oral language acquisition would be counterproductive for literacy development', it is also suggested that 'script reading and writing requires explicit instruction [with] meaning-making...not [to] be postponed till [the] end of learning all aksharas..'(NCF-FS, p 257 and 260, resp) This need for 'explicit instruction' is then supposed to gel with the idea of 'indirect teaching for developing conceptual understanding' (from 'Learning Maths with Jodogyan', page 19 of 'Bridging Learning Gaps', a Delhi Government document). A similar hotchpotch of conceptual articulation can be seen when the NCF-FS brings together a range of disparate terms like emergent literacy, varna, decoding, meaning making, fluency, comprehension etc.

     Experience and observations of the emanation of FLN in schools: no textbooks, textbooks replaced with worksheets (often standalone and delivered online), students torn from their classes and segregated 'as per levels', haphazard modules making even lesser sense to teachers, extensive data and report filing, acute loss of teaching time and reduction in meaningful, relaxed and prolonged interaction with students.

     Continuous Assessment under FLN, in gross terms, has also led to a further reduction in actual teaching time. This is purely apart from the time consumed by the constant filing of reports and data. Much of it resembles the round-the-clock supervision of grave patients in medical institutions, and presents a self-fulfilling picture of unhealthiness.

     Ad-hocism has further increased under the growing shadow of FLN. While there are no exams for Grades1 and 2 in both KV and Delhi Government schools, MCD schools have surpassed their already gross policy of evaluating these kids for the non-existent science and social studies subjects (at this level) by introducing paper-pencil question papers for what should be at the most an oral exercise. In line with this pedagogic mis-understanding, ignoring the fact that policy documents and governments have targeted the development of 'reading skills' by Grade 3, MCD administration is showing an increasing emphasis and obsession with identifying reading tasks/levels from Grade 1 itself! The ghastly imprint of pushing children to attain 'FLN standards' is plain to see.

 

Threat to Teachers

     FLN is tied to producing data for measuring teachers' (labour) performance and, eventually, influencing their service conditions, including salaries, reports, promotions etc.

     On the other hand, the discourse is used to address and blunt the disaffection/criticism wrt the unemployment crisis by advancing the narrative of 'low/unemployable skills' of the young seeking jobs.

     In terms of its minimalist conception, especially for students from working class and historically marginalised backgrounds, it is possible that a section of teachers may agree with FLN's objectives.

     With increasing and almost all-encompassing centralisation of monthly/weekly/daily plans, classroom activities and practices, time-tables, assessments etc, teachers are feeling an acute sense of loss of agency and hollowing out of whatever de-facto autonomy they enjoyed before. Moreover, the continuous, ad-hoc and urgent demands of departmental orders, including non-academic tasks and data-entry (whose financial cost, even in schools, are borne by teachers from their pockets and which extends to post-school hours and holidays), is leading to a feeling of confusion/identity crisis about their intellectual work and role.

     FLN poses a serious challenge to the ethical and professional commitment of teachers, as well as to their legal fidelity. The obsession with continuously assessing students’ ‘learning levels’ goes hand-in-hand with the pressure on teachers to produce improvements in the periodic FLN class reports they are forced to submit. This performance pressure inevitably leads to a situation where admissions of children seen as lagging behind their grade-specific FLN parameters, are, in violation of the law, either denied or delayed (wherein they may be asked to come later after getting the ‘learning deficit’ removed/reduced through private tuitions or ‘home support’). Obviously, these children are seen by some teachers as posing a risk to the FLN reports of their class. Some of these teachers may even end up showing an unwillingness, whether implicit or explicit, to take these ‘risky’children in their respective classes.  

     Even if, for a moment, we were to accept the empirical grounds on which  the reductionist pedagogy within the FLN project is said to be based (that 'this is how children actually learn'), as teachers who value their autonomy and conceive of pedagogy as a healthy though uncertain/undefined/undefinable mix of art and science, we are unable to agree to its diktats. Teaching is an aesthetic work. We seek and cherish beauty in our work. FLN actively thwarts this pursuit and ideal.

     The policy of creating a species of Mentor Teachers, both in Delhi Govt and MCD schools, amounts to withdrawing teachers from classrooms and teaching, and compromising their comradely/collegial relationships by using them for supervisory and monitoring duties.

 

The denigration of Expert/Educationists’ Advise

     The flourishing of FLN has been preceded by and accompanied with a denigrating of the disciplinary area of education and the role of educationists both in terms of policy making and state's discourse, whether seen in Gujarat (Gunotsav 2009) or Delhi (Chunauti, 2016 and Mission Buniyad 2018).

     FLN has compromised, co-opted and subverted the more academically grounded stream of research and work on reading (eg NCERT’s Barkha series of books) within institutions like the NCERT. On the other hand, we need to ponder if the primary conception of levels/outcomes was always destined to fall into that trap.

     While there is an unending demand for and throwing around gross and miniscule data in support of FLN, there seems to be a glaring gap in terms of robust and uncompromised research studies on the issue. 

 

Defrauding working-class children

     The FLN discourse has been built over the seemingly obvious fact of large sections of students struggling to learn, which is not seen as linked to their socio-economic alienation and marginalisation, but instead misappropriated to argue for and posit policy interventions likely to marginalise them further.

     Time-lined and data-driven targets, especially to do with a transactional process like teaching-learning, are, as shown by scholars and research across the world, prone to lead to exclusion of the weakest, manipulation, fudging, teaching-to-test, compromise with standards etc. (See Diane Ravitch)

     The change in the RTE Act Rules in 2017, to bring in ‘outcomes’, can be seen as a precursor to the introduction of FLN in schools. While this change prepared the ground for FLN, it also marks a conjoint shift away from the state’s lip-service to the discourse of children’s rights, state’s accountability and classroom processes, toward teachers’ individual accountability and minimalist ‘outcomes’, mischievously clothed in the language of guaranteed outputs. This shift thereby ends up in the double cruelty of punishing children twice over (by compromising the curriculum, segregating, excluding and eventually failing them) after snatching their rights. Moreover, it does all this by cleverly absolving the state of all responsibility except for forcing and manipulating a constant flow of compromised data as a vindication of its obnoxious policies.

     In the context of India's caste-based social system and culture, still much entrenched in schools, especially in certain parts of the country, even an ostensible learning-level based segregation (TaRL) among children within same Grades faces the risk of aiding or leading to or justifying more sinister forms of discrimination and segregation.

 

 

References

A.

From Minimum Levels of Learning at Primary Stage, Report of the Committee set up by the MHRD (Department of Education), published by the NCERT, Feb 1991

...large-scale expansion has resulted in the creation of educational facilities with  widely varying quality in terms of institutional infrastructure, teaching-learning processes as well  as the quality of students passing out of these institutions. The quality variations become more  pronounced in certain states, between schools of rural and urban areas, between schools managed  by government and non-government bodies, and so on. Recognizing the urgent need for  rectifying this anomalous situation with respect to quality, the National Policy on Education  1986 calls for paying immediate attention to (i) improving the unattractive school environment,  the unsatisfactory condition of buildings and inadequacy of instructional material; and (ii) laying  down minimum levels of learning that all children completing different stages of education  should achieve. Keeping this policy directive in view, the Report of the Working Group on Early  Childhood and Elementary Education Set up for Formulation of Eighth Five Year Plan states:  The targets need to be spelt out not only in terms of participation, but also in terms of quality and  outcomes. During the Eighth Plan, it should be our aim to bring about a substantial improvement  in quality of education through improved infrastructure, improved teacher education, and  substantial improvement in quality and quantity of learning materials. In terms of outcomes it  shall have to be ensured that minimum levels of learning are laid down with reference to the  conclusion of primary and upper primary stages and an appropriate evaluation system created to  ensure achievement at least of the prescribed levels of learning. 

1.2 In fact, significant efforts towards specification of Minimum Levels of Learning (MLLs)  had already been made at the NCERT during 1978 in connection with the UNICEF-assisted  projects on 'Primary Education Curriculum Renewal' and 'Developmental Activities in  Community Education and Participation'. As part of these projects, a 'Minimum Learning  Continuum' was drawn indicating the learning outcomes expected to be achieved by all children  completing Classes II, III, IV and V. The Primary Education Curriculum Renewal Project was  evaluated in 1984 using a set of achievement tests developed for all the primary classes based on  the competencies specified in the Minimum Learning Continuum. Utilizing the empirical  evidences collected through this evaluation study and following the National Policy on  Education 1986, the NCERT prepared another document entitled, 'Minimum Levels of Learning  at the Primary Stage'. 

1.3 In the context of these exercises and the specifications made by the Eighth Plan Working  Group, the Department of Education, Ministry of Human Resource Development organized a  seminar in December 1989 on the theme, 'Basic Learning Needs and Levels of Attainment'.  Various issues related to basic learning needs of the children at the primary stage, the need for  specifying minimum levels of learning and creation of appropriate mechanisms for assessment of  learner attainment were discussed during the seminar. On the issue of laying down minimum  levels of learning the seminar recommended for initiating concrete efforts at the national level.

 

2. Committee on MLL: Composition and Terms of Reference 

Against this background, the Department of Education, Ministry of Human Resource  Development, Government of India set up the present committee vide order No. 74/3/89- Desk(TE) dated 5 January 1990. 

2.1 Terms of Reference 

The terms of reference of the committee were as under: 

1. Draw up minimum levels of learning for Classes III and V. 

2. Recommend a procedure for comprehensive learner evaluation and assessment.  3. Look into the non-cognitive areas of learning and suggest concrete ways in which teaching in  these areas can be improved. The committee was further informed that the terms of reference  related to both formal and non-formal systems of education.  (Chapter 1, Introduction, Pages 1, 2)

The Terms of Reference were limited to setting levels in Language, Mathematics and EVS for grades 3 and 5, but the committee went on to do so for all five grades!

Chapter 2, Minimum Levels of Learning: Some Important Features, advances concerns of equalising standards and defining them in terms of competencies; accountability, school improvement, low learning levels and huge number of dropouts, the need to ensure that they (the dropouts) are able to function as useful adults etc, and overload of content. It suggests the following as solutions: lightening the curriculum, contextualisation outside of textbooks, ensuring sustainable comprehension and skills, and equalising mastery learning across students.

           

            B

ASER tool used for baseline assessment in the Delhi Govt's Chunauti program (2016) and the role of Pratham, Room to Read etc in the development of 'alternative textbooks' and workbooks under the SCERT.

 

C.

The NCF-FS 2022 has a separate Chapter on Language (Chapter 3: Approach to Language Education and Literacy) but none for Maths.

 

D.

Some of us were witness to the Constitution Club (Delhi) programme held in 2012/13 where Karthik Muralidharan presented the summary of a research on 'school choice/vouchers' carried out in the then Andhra Pradesh. Montek Singh Ahluwalia, then Deputy Chairperson of the Planning Commission, spoke in agreement with the conclusions of the report (favoring withdrawal of the state from public schooling) and Rukmini Bannerjee, rather presciently, (and confidently!) as it turned out, argued for dismissing subject areas like EVS from the primary grades.

 

E.

'The first step is measurement, for whatever cannot be measured cannot be accounted for.' (Keeping tabs on carbon with an accounting system, Amar Patnaik and Rjesh Kasturirangan, Editorial Page, The Hindu, Oct 5, 2023)

 

F.

FLN has found a place in the latest G20 (Delhi) declaration. It is articulated in terms of the SDGs and confirms our fears and criticism that it is not conceived on educational grounds.

 

G.

From the June 2015 zero draft of the outcome document for the UN summit (Sep 2015) to adopt the post-2015 Development Agenda: '....to facilitate preparations for the next inter-governmental negotiations...ensuring education [and] access to learning that helps them acquire the knowledge and skills needed to exploit opportunities and to participate fully in society.' [Education conceived not for transformation but as a self-centred, status-quo enabling project.] The document makes clear that the implementation of the agenda 'will require both public and private, domestic and international [agencies]...[and] Business, the private sector and philanthropic organisations will feature prominently..' It commits to multilateral trading system for the realisation of the new Agenda and resolves that 'Governments and public institutions will work closely with national parliaments, local authorities, international institutions, business and the private sector, civil society, academia, philanhropic organisations, voluntary groups and others..' [Notice the order of those identified and the clear absence of Unions, Professional bodies etc. Also, the superfluous and giveaway suggestion that governments work with parliaments and local bodies, whereas they are anyway mandated to do so!] Finally, the tellingly directive statement that 'SDGs have Targets...elaborated through indicators..focused on measurable outcomes.' Thus, Point 6 of Goal 4 which earlier said: 'By 2030, ensure that all youth and at least X% of adults, both men and women, achieve literacy and numeracy', in the latter Section of Targets, under Means of Implementation, is ominously but inevitably proposed to be revised to: 'By 2030, ensure that all youth and adults, both men and women, reach a proficiency level in literacy and numeracy sufficient to fully participate in society.'

 

H.

The Development Team for Vidyarambh, Workbook for School Preparedness to strengthen FLN skills, includes Room to Read India Trust, Pratham and Ahavan Trust. Its stated objective is 'to support pre-literacy and pre-numeracy skills...aligned with NEP and NIPUN Bharat's 3 goals...children maintain good health and well being, are effective communicators and involved learners, and connect with their environment.'

 

I.

Pratham/ASER (based on Pratham's/ASER's reports, websites etc)

Pratham was set up in 1996 with a focus on ensuring that children acquire basic skills in reading and arithmetic. They soon developed a tool for assessing children's 'learning levels.' This was a single sheet of paper with 4 levels of text - letters, simple and common words, a short 4-line para with easy sentences and a longer (Grade 2) text with more complex vocabulary. Arithmetic tool was based on Grade 3/4 level operations. By 2004, while enrollment had been universalised [!], there was no information on the outcomes of primary education. Pratham's experience was negative on this. ASER was set up in 2005 with the objective of finding out whether children were learning and policies and programmes were working. It seems that the Maths assessment tool was created later, but before 2005 when the first survey was carried out. ASER Center set up in 2008, for providing timely data on educational outcomes, capacity building wrt monitoring and evaluation, and empirically grounded advocacy. 2015 saw a break after 10 annual ASER reports. Still claimed to be providing the only data on foundational learning levels, and these said to be not improving. Pratham has been critical of the 'automatic pass' policy. It was also critical of the UPA government's lack of concern with outcomes. It was critical of earlier policies, claiming that they were not based on data/evidence. On the other hand, some of its earliest work and proposed solutions included 'remedial teaching' by 'local volunteers' (Teaching at the Right Level, TaRL, which was, in turn, criticised for pushing 'unqualified', 'untrained' and 'lowly paid' youth into classrooms). In spite of this position critical of the policies of the then ruling dispensation, by 2012, not only had ASER been cited in the Economic Survey of India, Approach Paper to the 11th FYP, Education Chapter of the 12th FYP, but its reports were also released by the MHRD Minister himself! Unsurprisingly, the reports' findings continued to 'shock the nation'. There are echoes of the buildup to the USA's NCLB Act (2001) here.

 

J.

Meanwhile, the scope and frequency of the National Achievement Survey (NAS, begun, under the NCERT, in 2001, initially limited to Grades 3, 5 and 8, but later extended to 10 too) has been slowly increasing at the national level. Some states have instituted their own SLASs. These were/have been school-based assessment surveys that focused primarily on grade-level content in Maths (Arithmetic, Algebra, Geometry), Language (Language Elements, Reading Comprehension, Writing) and EVS (Social Studies, Science). The 2010 report used the terms 'learning achievement' and 'learning levels'. The narrative has been converging with that of ASER, assuming a saturation with access, underlining the need to assess the health of the government education system and thereby to feed into policies and interventions.

 

K.

Foundational Literacy and Numeracy Report -2nd edition (from a PIB, Delhi, release)

The report was released by Dr. Bibek Debroy, Chairman EAC to the PM, at #TheIndiaDialog organised by Institute for Competitiveness and US-Asia Technology Management Centre, Stanford University, on 23/24 February, 2023. It focuses on language. [Mathematics missing again!] A special section covers insights into states/UTs to assess learning outcomes on the NAS and Foundational Learning Study (FLS) 2022. A section explicitly focuses on the numerous initiatives at the national and state level in collaboration with public-private organisations, demonstrating their efforts in achieving foundational learning goals as outlined in NIPUN. The report is said to be a benchmark for achieving universal foundational learning by 2026-27. It recommends various assessments pertaining to phonology, vocabulary/lexicon and syntax (said to be the linguistic system) and symbols and mapping principles (said to be the orthographic system), and the writing mechanism. It emphasises data monitoring at a disaggregated level for FLN outcomes to be integrated into the system. The authors of the report are: Amit Kapoor (Chair, Institute for Competitiveness), Natalia Chakma (Researcher, ditto) and Sheen Zutshi (Research Manager, ditto). [Institute for Competitiveness, India 'is the Indian knot in the global network of the Institute for Strategy and Competitiveness at Harvard Business School...based on the body of research and knowledge as pioneered over the last 25 years by Prof Michael Porter at the Institute.'] Panelists included Karen Klimowski (Deputy India Mission Director, USAID), Pawan Sain (Joint-Sec, EAC-PM), Arundhati Gupta (Founder and CEO, Mentor Together), Asha Jadeja (Founder, Motwani Jadeja Foundation) and the discussion was chaired by Geetha Murali (CEO, Room to Read). Of course, academic institutions and academicians are conspicuously absent from these lists. Moreover, the following excerpt from the Keynote address delivered by Geetha Murali is instructive for the linkages it presents and supports between the 'Indian languages' and the bottom-up approach of FLN which tends to align with memorisation and rote practice even at the cost of meaningfulness: 'The other nuances of the Indian context important to be kept in mind is the automaticity required at both the Akshara and the text level as the Indian languages are Akshara based scripts. So, as you are developing curriculum, the phonological awareness, phonics, fluency, vocabulary, comprehension have to be split out into lessons that are taught appropriately without overloading children.'

 

L.

EFA, MDGs, SDGs and Learning Outcomes

From EFA Global Monitoring Report 2015, 'Education for All 2000-2015: Achievements and Challenges'

'Goal 6 Quality of education: Improving all aspects of the quality of education and ensuring excellence of all so that recognised and measurable learning outcomes are achieved by all, especially in literacy, numeracy and essential life skills. In 1990, the World Declaration on Education for All [EFA] committed countries to improving quality of education. The declaration identified quality as a prerequisite for achieving the fundamental goal of equity....While many countries have made impressive gains in access to education since Dakar, improvement in quality has not always kept pace. A discernible shift in emphasis towards quality and learning is likely to become more central to the post-2015 global framework, since, as the 2013/14 EFA Global Monitoring Report [GMR] showed, 250 million children have not had the chance to learn the basics - and 130 million of them have spent at least four years in school....[The chapter] provides an overview of the role of national, regional and international assessments in better monitoring of education quality as measured by learning outcomes. The chapter then covers four areas key to improving quality: teachers, textbooks and other instructional materials and facilities, teaching and learning processes, and governance [including both decentralisation and private schooling],' (p 189) [While some areas have gained salience, others have received a mixed or silent response, but 'decentralisation' has definitely been betrayed in favour of an increasing, even suffocating centralisation.]

'To be used successfully, targets need to be specific, measurable, realistic and relevant.' (Chapter 9, p 283)

'The proposed education SDG and targets are considerably broader than the corresponding MDGs with their narrow focus on primary education completion and gender parity. The SDG targets more closely reflect the holistic vision of the EFA movement, which recognised that all levels of education were interrelated...the proposed SDG targets are more oriented to outcomes.' (p 284-285)

'If targets cannot be adequately measured now or in the foreseeable future, accountability is threatened. Indeed, the use of the term 'targets' implies that the SDG agenda emphasises quantitative measurement.' (p 286) [Though, the two-para sub-section is titled 'Some targets are not measurable'.]

'It is remarkable that there is no overall finance target.' (p 290)

SDG 4.1.1 is marked as an improvement on MDG which focused on inputs and access. It sets up outcome indicators at 3 levels in Maths and Reading (later changed to numeracy and literacy) - early primary (2/3), primary (5) and lower secondary (8). The UNESCO-Institute of Statistics (UIS) is the custodian agency for most of the SDG 4 global indicators, while OECD is the partner agency. 

The UIS laments that either national level assessment data is non-existent or, where it does exist to some extent, is fragmented. UIS was said to be preparing a Global Framework for reading and Maths and developing approaches for equating or linking the data for certain national assessments to this framework. It is interesting that while even the USA and New Zealand which do have such national level indicators/data do so for a lower secondary stage and the EU does so at early youth level, yet the criticism is directed at many other countries, especially from sub-Saharan Africa and South Asia, for not having such data! [There is more to it than meets the eye. Is it about the investors' need to know about the 'knowledge/skill' levels of the prospective labour force?] 

 

M.

Foundational Learning Study (FLS) 2022

The study was carried out in March 2022, under the NIPUN Bharat program. It covered 20 languages, 86,000 Grade 3 students from 10,000 schools. The core team included statisticians and scientists. It had 4 objectives: to assess LOs, set baseline for NIPUN, set Benchmark and produce data to report on SDG 4.1.1 indicators. Assessment was done at 4 levels, as per the 'Global Proficiency Levels' - below partially meets, partially meets, meets, exceeds. The report claims that 'foundational literacy skills including oral language comprehension, phonological awareness, decoding, reading comprehension, oral reading fluency with comprehension, were assessed as part of assessment. For foundational numeracy, number identification and comparison, number operations, multiplication and division facts, measurement, fraction, patterns and data handling are included.' Nevertheless, the presentation of data seems to be limited to CWPM and RCQ. Interestingly, maximum schools and students in the study were English medium: 40% and 43%, respectively! [Perhaps, something to do with the need to 'report progress on the SDG targets'!] English, Hindi and Urdu cover nearly 655 of schools and 71% of students in the study, leaving barely a third to the rest of the 17 languages. Confirming the trend of the privileging of language over Maths in these policies and documents, 4 out of the 5 Bench-marking workshops in Literacy and Numeracy conducted in the process of preparing the study were devoted to the former.

From Annexure 1 to the FLS report

The study focused on 'Oral Reading Fluency (ORF) with Reading Comprehension of class 3 children along with other dimensions of foundational learning.' The Task given was: 'reading aloud a short story of 60-70 grade level appropriate words and answering a total of 5 retrieved and inference based questions from the story.' As per NIPUN, class 3 children 'should be able to read at least 60 words per minute correctly and with comprehension depending on the language and with correct pronunciation from an age appropriate unknown text.' [There is a hint of a contradiction here. The data itself may be revealing on this.]       

The study is part of the 'Procedure of Policy Linking administered for setting global benchmarks in reading/language/literacy and maths/numeracy at grades 1-9 - for reporting on SDG 4.1.1...for specifying proportions at 2/3-5-8 having a minimum proficiency level in reading and maths, by sex.' [A frank acceptance.] Under the section Global Proficiency Framework (GPF) and Setting Global Benchmarks, it lays out 4 Global Proficiency Levels (see above) and detailed Global Proficiency Descriptors (GPDs) for each level - domains, constructs, sub-constructs and knowledge and skills by grade, subject and level. [Is this linked with how schools are being made to segregate students and provide reports as per 'levels'?]

Sections of Annexure 3 on Maths, especially pages subtitled Global Proficiency for Mathematics: Grade 1 to 9, read like a directive exercise/task set by statisticians and economists to people in education!

 

N.

From the EFA GMR 2015

'The Dakar Framework, by placing quality at the heart of EFA, emphasises the need for effective strategies to assess and monitor knowledge and skills and demonstrate measurable learning outcomes.' (p 190) [The Dakar Conference was held on 26-28 April 2000 and included, apart from government representatives, agencies like the UNESCO, WB, ADB etc.]

'In the past 25 years, the number of national assessments has grown sharply, increasing from 12 in 1990 to 101 in 2013 [Benavot and Koseleci, 2015].' (p 190)

'National assessments focus more on grades 4-6 than grades 1-3 and 7-9....National assessments are predominantly curriculum-based and subject-oriented. Language [100%] and mathematics [98%] are by far the predominant subjects. More than half the countries that conducted assessments between 2000 and 2013 assessed learning outcomes in science, almost two-fifths [36%] in the social sciences, 33% in foreign languages and 20% in other subjects...' (p 191)

'Increasing use of assessments is supported by a wider movement towards evidence-informed policy and practice in education and in other fields. (Wiseman, 2010)' (p 191)

Refers to ASER's work in throwing light on basic skills and, interestingly, apart from India, gives the example of Pakistan as well.

'USAID, with the support of UNICEF, the World Bank and several bilateral donors, promotes early grade reading assessments (EGRAs) and early grade mathematics assessments (EGMAs).' (p 192) Refers to more than 60 EGRAs and 20 EGMAs, thereby again proving the tilt in favour of reading over maths!

'In the early 2000s, curriculum was content-driven, often criticised as too theoretical, out of date and overloaded. After Dakar, a shift in education policies towards the development of competencies and skills was pervasive. (Westbrook et al, 2013)' (p 207)

The report then lists private school advantages (in terms of learning outcomes), but recognises its limits and disadvantages to equality, and underlines that public school reform may not be enough to attract a broader demographic without efforts to improve perceptions of public schooling as well. (p 216) [A lesson seemingly well-learnt in India!]

'As the scientific reliability and validity of national assessments vary greatly, cross-country comparisons should be taken with care. Nevertheless, national assessments provide country-wide information about an array of learning outcomes according to nationally defined standards and pinpoint areas for government attention and policy intervention.' (p 304)

The tabulation of national learning assessments by country and region throws up the following features: a) National Assessments all over the world, with a few exceptions, have the tendency to limit themselves to particular and minimalist areas of the curriculum - language and maths. b) North America and Western Europe show no example of a national learning assessment under the UNICEF/UNESCO/WB! c) Most UNICEF/UNESCO assessments focused on language/literacy, numeracy and life skills. d) Most WB-supported assessments focused on language and mathematics. e) Most countries which do assess on sciences, social studies/sciences etc do it not under the aegis of the WB.  

 

O.

In November 2018, DCPCR signed an MoU with QCI (a body set up under the Department of Industrial Policy and Promotion, Ministry of Commerce and Industry) to assess and evaluate schools in Delhi.

 

Conclusion/Endnote

     Delhi Government's Chunauti (2016) and Mission Buniyad (2018) precede NEP but emphasise upon and use the FLN narrative without using the term explicitly. Thus, they stand as pre-avatars of FLN and can also be used to verify the worst (or the best!) possibilities inherent in it. 

     The positing of targets, including aggregate level learning/outcome demands, is contrary to some of the better-informed policy formulations (for example, Every child learns at their own pace..., Section 4.1, Page 83, Principles of Pedagogy, NCFS 2022).

     This contradiction is further seen when lofty-sounding Aims are reduced to Compromised Goals which are further reduced to Objectified Competencies and finally made to fit into Mundane Learning Outcomes. (NCF-FS 2022, Page 51)

     Many primary schools are made to run Nursery/KG classes without trained or sufficient number of teachers, leave alone support staff (Aayas etc) for these grades.

     Actual teaching time is going down drastically in schools, thanks to teachers tasked with other concerns, made to fulfill governments' unending agendas, interference of other departments and private organisations (through their programs) etc. Moreover, the personnel and technology based surveillance and supervision is amounting to a breathing down the teacher's neck, thereby ensuring that no meaningful teaching-learning/academic process takes place in classrooms. Timely inspections, which were perhaps always bureaucratic, have been compounded with a continuous data collection and report submitting regimen, creating physical fatigue, acute anxiety and a sense of burn-out among teachers. All this is obviously detrimental to teachers' mental health, schools'  environment and education.

     The increasing push to digitalise education, including in its governance and delivery/ content, has enabled the administrative control and surveillance inherent in and required under FLN. Whether through whatsapp or mail, it has become easier, on the one hand, to demand instant data and compliance, and, on the other, to put schools and teachers under a constant, suffocating and humiliating leash.

     Taken at its face value, FLN suffers from very low(ly) ambitions, especially for a National Policy. There can be no compromise with academic rigour, the rights of children and the professional dignity of teachers.

     We submit that this education and economic system cannot promise a flourishing future to even those who are seen to be excelling in terms of the FLN parameters. In this sense, it is a red herring. On the other hand, our long and varied experience in schools and with students and communities across the years shows that, while nutrition and culturally/educationally nourishing environment in early years of a child certainly aids their later growth, the fear-mongering warnings about a point-of-no-return being reached by Grade 2/3 or 80/90% brain development occurring by age 3/5 are not validated by how children continue to show surprising and remarkable growth in interest and acumen in the years beyond. There is diversity in how and when children develop their interests and intellectual prowess. It is not a problem or a thing to be afraid of.  

     The experience with high sounding and seemingly democratic, even sincere, concerns to do with securing equality in outcomes/results across children from diverse and disparate backgrounds has proven that it is, at best, a double-edged sword, and, at worst, likely to be co-opted and misused by precisely those forces intent on diluting standards, especially for the education of the marginalised.       

     The success that the narrative of 'a learning crisis' and 'ensuring measurable learning outcomes' has achieved in terms of shaping policies and discourse is a testimony not only to the continuous, though no doubt networked and lubricated, work done by its partisan agencies, but also to our failure to reach out to the people, especially those directly affected, and lack of work in this area within academia.

     We consider providing extra teaching time and resources to children requiring such support a pedagogically welcome and essential strategy. But segregation in the name of ability-grouping cannot be defended.

     We must look for and create alternative possibilities of meaningful and liberating education. Gijubhai's, Paulo Freire's and Sylvia Ashton-Warner's work can be an inspiration. In terms of textbooks, Eklavya's and post-NCF-2005 NCERT texts are good examples.  

     We believe that the FLN-driven policy is destined to fail, but it will cause immense loss and harm to students from the working classes and marginalised sections if it is not stopped at the earliest.

 

 

Thursday 2 May 2024

स्कूली शिक्षा के लिए माँगों का चार्टर

 

लोक शिक्षक मंच 18वीं लोकसभा के चुनावों में हिस्सा लेने वाली राजनीतिक शक्तियों के समक्ष वर्तमान सार्वजनिक स्कूली शिक्षा व्यवस्था से जुड़े निम्नलिखित तथ्य और संबंधित माँगें पेश करता है। इस माँगपत्र का उद्देश्य आमजन के अलावा ख़ासतौर से उन लोगों की स्कूली शिक्षा से जुड़ी चिंताओं तथा हितों को आवाज़ देना है जो सार्वजनिक स्कूलों में काम कर रहे हैं व जिनके बच्चे इन स्कूलों में पढ़ रहे हैं। हमारा मक़सद पूरी तरह से राज्य के ख़र्चे पर चलने वाली, मज़बूत व समतामूलक समान स्कूल व्यवस्था के विचार एवं आंदोलन को आगे बढ़ाना है।  

 

वज़ीफ़े एवं अन्य अधिकारपूर्ण सहायताएँ 

 

अवलोकन व चिंताएँ  

1. प्रारंभिक कक्षाओं में सामाजिक न्याय पर आधारित वज़ीफ़ों का पूरी तरह से बंद किया जाना वंचित तबकों से आने वाले विद्यार्थियों के साथ बहुत बड़ा धोखा है। यह एक विडंबना है कि सरकार ने इस नाइंसाफ़ी को यह कहकर उचित ठहराने की कोशिश की क्योंकि शिक्षा अधिकार अधिनियम (2009) 8वीं कक्षा तक मुफ़्त शिक्षा सुनिश्चित कर रहा है इसलिए किसी 'अतिरिक्त' सहायता की कोई ज़रूरत नहीं रह जाती है! इस ख़ात्मे के समानांतर पीएम यंग अचीवर्स स्कॉलरशिप जैसी जिन 'मेरिट/प्रतियोगिता-आधारित' स्कीमों पर ज़ोर दिया जा रहा है, वो ख़ुद पात्रों की सीमित संख्या तथा, अन्य वज़ीफ़ों की तरह, आवेदन की जटिल प्रक्रियाओं तथा शर्तों से ग्रसित हैं। 

2. विभिन्न वज़ीफ़ों के लिए लगाई जाने वाली आय प्रमाण-पत्र की शर्तें मेहनतकश वर्गों के हालातों के प्रतिकूल व बहिष्करणवादी हैं। साथ ही, ये लोगों को घोर भ्रष्टाचार के आगे अपनी क़ीमती कमाई व समय की भेंट चढ़ाने को मजबूर करती हैं।

3. विद्यार्थियों के लिए वज़ीफ़ों की आवेदन प्रक्रिया को ज़बरदस्ती व अनिवार्य रूप से ऑनलाइन बनाने से आवेदन जटिल हुआ है और ख़र्च बढ़ा है। इसका सीधा नतीजा आवेदनों की घटती संख्या के रूप में सामने आया है। चूँकि एक लोकतंत्र के रहते हुए भी हम भूल जाते हैं कि सरकारों को जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए, इसलिए यह रेखांकित करने की ज़रूरत है कि विद्यार्थियों या उनके परिवारों ने सरकार से वज़ीफ़ों की प्रक्रिया को अनिवार्यतः ऑनलाइन करने की माँग तो कभी की ही नहीं थी!

4. वंचित तबकों का एक बड़ा वर्ग जाति प्रमाण-पत्र की शर्त पूरी नहीं कर पाता है। जिनके पास ये दस्तावेज़ होते भी हैं, वो अपने मूल स्थान से पलायन करने के चलते इन्हें अन्य राज्यों (दिल्ली) में इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। ऐसे में वंचित वर्गों से आने वाले अधिसंख्य स्कूली विद्यार्थी वज़ीफ़ों से महरूम कर दिए जाते हैं।

5. वज़ीफ़ों (व अन्य अधिकारपूर्ण सहायताओं) के लिए विद्यार्थियों के आधार-लिंक्ड खातों की शर्त थोपना सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाख़िल किए गए हलफ़नामों, अदालती आदेशों, संसद में दिए गए बयानों तथा क़ानून का उल्लंघन है। इससे बहुत-से ऐसे विद्यार्थियों के हक़ मारे जा रहे हैं जिनके माता-पिता, विभिन्न कारणों से बच्चों के खाते नहीं खुलवा पाते हैं। इनमें बैंकों की हतोत्साहित करने वाली नीतियाँ व प्रक्रियाएँ, इस प्रक्रिया में लगने वाली अतिरिक्त (व अनिश्चित) क़ीमत शामिल है। इसका एक नुकसान तो ये ही होता है कि खाता खुलवाने में हुई देरी के चलते उन्हें बीते सत्र/सत्रों की राशि नहीं मिलती है। मगर इससे पहले-ही एक अपूरणीय नुकसान ये हो जाता है कि 100% खातों को लेकर प्रशासनिक दबाव के चलते अकसर स्कूल, क़ानून के विरुद्ध जाकर, बिना खाते के बच्चों को दाख़िला देने से ही मना कर देते हैं! राज्य की इस नीति की ज़िद का ख़ामियाज़ा बच्चों को एक तरफ़ वज़ीफ़ों और पढ़ाई से वंचित होकर तथा दूसरी तरफ़ जेब से पैसे ख़र्च करके चुकाना पड़ रहा है। आख़िर ऐसे ही खाताधारकों से तो, जो न्यूनतम राशि जमा रखने में असमर्थ थे, बैंकों ने पाँच वर्षों में 21,000 करोड़ रुपये कमाए हैं (https://www.businesstoday.in/industry/banks/story/psbs-top-private-banks-collected-over-rs-35000-crore-in-penalties-since-2018-393528-2023-08-10)। मतलब, खातों के माध्यम से डीबीटी की नीति शायद विद्यार्थियों या उनके परिवारों को लाभ पहुँचाने के लिए कम और वित्तीय शक्तियों को लाभ देने के लिए ज़्यादा लाई गई है। डीबीटी के नाम पर आज विद्यार्थी व उनके माता-पिता आधार केंद्रों, बैंकों के ग़ैर-जवाबदेह ग्राहक सेवा केंद्रों व बैंकों के अंदर-बाहर लगी लंबी, नियमित तथा अनिश्चित परिणाम वाली लाइनों में घंटों बर्बाद करने और पैसा बहाने को मजबूर कर दिए गए हैं। कई ग्राहक सेवा केंद्रों में तमाम छोटे-से-छोटे काम के लिए अवैध शुल्क वसूला जाना आम है। इस पूरी प्रक्रिया का एक विडंबनापूर्ण नतीजा यह है कि अब अभिभावकों को अपने बच्चों के वज़ीफ़ों के लिए, जोकि मुफ़्त व बिना ख़र्चा किए मिलने चाहिए, अब अपना पैसा और वक़्त लगाना पड़ता है!

6. वज़ीफ़ों के प्रति सरकार की बेरहम व निर्लज्ज नीति का आलम ये है 2022-23 में तो विद्यार्थियों से आवेदन करवाने के बाद, माफ़ी तो दूर, बिना किसी जवाबदेही के, अल्पसंख्यक वर्गों के लिए निर्धारित वज़ीफ़े बंद करने का तुग़लकी ऐलान कर दिया गया। इन विद्यार्थियों के परिवारों से विश्वासघात करके उनके पैसों, श्रम व समय को बर्बाद किया गया।

7. स्कूलों में वज़ीफ़ों की नीति आज बड़े स्तर पर इंकार, प्रताड़ना, अन्याय व शोषण का शिकार है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने इस नाइंसाफ़ी को और तेज़ किया है। इस अलोकतांत्रिक व्यवस्था में, अपारदर्शिता व ग़ैर-जवाबदेही का नमूना पेश करते हुए, न किसी डाटा या सूचना को सार्वजनिक किया जाता है और न ही इस संबंध में कोई शिकायत निवारण तंत्र खड़ा किया गया है।

 

संबद्ध माँगें 

1. वज़ीफ़ों व तमाम अन्य अधिकारपूर्ण सहायताओं के लिए बजट आवंटन विद्यार्थियों की कुल संख्या, विद्यार्थियों के विभिन्न वर्गों की संख्या व महँगाई दर के हिसाब से बढ़ाया जाए। 

2. वज़ीफ़ों के आवेदन व वितरण प्रक्रिया को स्कूली स्तर पर विकेंद्रीकृत किया जाए। 

3. विद्यार्थियों व उनके अभिभावकों को इन राशियों को हाथ में नकद प्राप्त करने अथवा खाते में प्राप्त करने का विकल्प दिया जाये। सभी स्कूली विद्यार्थियों को अपनी राशि अपने माता-पिता के खातों में प्राप्त करने का विकल्प दिया जाए। 

4. वर्दी की तरह की सभी अधिकारपूर्ण सहायता नकद में न होकर ठोस वस्तु के रूप में देय होनी चाहिए। 

5. सामाजिक न्याय के उसूलों के तहत दी जाने वाली छात्रवृत्तियों को संरक्षित किया जाए तथा इनमें ज़रूरत के अनुसार बढ़ोतरी की जाए। इसके लिए जाति प्रमाण-पत्रों की शर्तों को लचीला बनाया जाए। 

6. पिछले वर्षों में दी व छीनी गईं तमाम छात्रवृत्तियों का सामाजिक ऑडिट किया जाए। इसकी रपट सार्वजनिक करके ख़ामियों को दूर किया जाए तथा उन सभी विद्यार्थियों को पिछले वर्षों की बकाया राशि प्रदान की जाए जिन्हें तकनीकी अथवा नीतिगत कारणों से वंचित कर दिया गया था।

 

पाठ्यचर्या और शिक्षणशास्त्र

 

अवलोकन और चिंताएँ 

1पाठ्यचर्या तेज़ी से केंद्रीकृत और सूक्ष्म रूप से नियंत्रित होती जा रही है|

2. पाठ्यचर्या को लचर बनाते हुए टुकड़ों में तोड़ा जा रहा है तथा स्कूलों व शिक्षकों को आकस्मिक और तुरत-फुरत निर्देशों के अनुपालन के लिए बाध्य किया जा रहा है I

3. शिक्षकों व विद्यार्थियों पर लगातार विभिन्न मंत्रालयों की ओर से तमाम तरह की प्रतियोगिताओं, आयोजनों (जैसे बनावटी शपथें) व अकादमिक रूप से हल्के कार्यक्रमों (जैसे परीक्षा पर चर्चा) में अनिवार्य उपस्थिति को थोपा जा रहा हैI ऐसे हस्तक्षेप बच्चों की कक्षागत पढ़ाई के लिए निर्धारित समय का हनन करते हैं और अन्य संसाधनों को बर्बाद कर रहे हैंI

4. पाठ्यचर्या से सम्बन्धित लगभग सभी आयामों, जैसे समय-सारणी, पाठ-योजना, वर्कशीट, तथा कक्षागत गतिविधियों, जैसे बच्चों की बैठक व्यवस्था, कक्षा प्रबंधन, अधिगम स्तर के आधार पर एक ही क्लास के बच्चों का समूहों में विभाजन, आंकलन आदि को केंद्रीकृत कर दिया गया हैI इस पूरी प्रक्रिया में शिक्षकों को निर्णय लेने से दूर रखा गया हैI

5. स्कूलों और शिक्षकों के लिए अपनी शैक्षणिक चिंताओं और ज़रूरतों के अनुसार चीज़ों को व्यवस्थित करने और खुद कार्य करने की सम्भावनाओं के कम होते जाने से उनकी पहचान एवं एजेंसी धूमिल हो रही हैI खेल, वाद-विवाद, पर्यावरण विज्ञान आदि स्कूल और शिक्षण के अभिन्न तत्व नौकरशाही के आदेशों के कारण लुप्त होते जा रहे हैंI इन सब बातों ने शिक्षकों को अपनी कक्षाओं में अजनबी बना दिया है और अपने पेशे के साथ निभाई जाने वाली जिम्मेदारी से दूर कर दिया हैI शिक्षकों और स्कूलों का अपने काम पर से नियन्त्रण ख़त्म होता जा रहा हैI बड़ी संख्या में शिक्षक और स्कूल प्रमुख  अपने आप को असहाय पा रहे हैं तथा ‘बर्नआउट’ का शिकार हो रहे हैंI विडंबना यह है कि इन परिस्थितियों में स्कूल और शिक्षक एससीईआरटी और एनसीईआरटी जैसे निकायों द्वारा उपलब्ध कराए जा रहे भौतिक संसाधनों का सार्थक और रचनात्मक उपयोग करने की स्थिति में भी नहीं हैंI केन्द्रकरण के साए में हमारे स्कूल लगातार बौद्धिक रूप से मंद होने की ओर बढ़ रहे हैंI

6. तुच्छ एवं संकीर्ण राजनीति से प्रेरित होकर पाठ्यचर्या से किसी ज्ञान/तथ्य विशेष को हटाना और जोड़ना विद्यार्थियों में वैज्ञानिक स्वभाव को विकसित करने के व्यापक शैक्षिक उद्देश्य पर एक हमला हैI इन उदाहरणों में विकास का सिद्धांत, औद्योगिक क्रांति, विभाजन को समझना आदि हिस्सों का विलोपन शामिल हैI

7. व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का चरित्र और उन्हें सार्वजानिक स्कूलों में लागू करना कामकाजी वर्गों और ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर पड़े समूहों के विद्यार्थियों के हितों के विरुद्ध हैI ये पाठ्यक्रम ना केवल शिक्षा-विरोधी और श्रमिक-विरोधी हैं, बल्कि वास्तव में कार्य-आधारित शिक्षा को जिस तरह से जमीन पर व्यवस्थित किया जाना चाहिए, उसके बिलकुल विपरीत हैंI काम में बराबरी, स्वतंत्रता और गरिमा के उसूलों का सम्मान करके विद्यार्थियों को तैयार करने के बजाय वोकेशनल कोर्सों की इस नीति का उद्देश्य पहले से ही वंचित वर्गों को उच्च-शिक्षा की परिधि से बाहर धकेलना और उन्हें औद्योगिक एवं वाणिज्यिक आकाओं की मुनाफाखोरी के लिए सस्ते व आज्ञाकारी श्रम में बदलना हैI    

 

स्कूलों में काम करने की परिस्थितियाँ - प्रौद्योगिकी, डिजिटलीकरण, डेटा और संसाधन

 

अवलोकन और चिंताएँ

1. अधिकारों और न्याय के मुद्दों को दरकिनार करते हुए और असली ज़रूरतों को जांचे बिना, स्कूल के लगभग सभी पहलुओं को डिजिटल किया जा रहा है। इनमें दिन-प्रतिदिन का प्रशासन, शिक्षण, प्रवेश और छात्रवृत्ति के लिए आवेदन प्रक्रियाएं, पाठ्यचर्या/सह-पाठ्यचर्या संबंधी गतिविधियों की रिपोर्ट, निरंतर और अकसर दोहराव वाली डेटा-एंट्री आदि शामिल हैं। इस डिजिटल, डेटा आपूर्ति के अधिकांश हिस्से का औचित्य समझ से परे तथा गैर-उत्पादक है। इससे न केवल शिक्षकों के स्वास्थ्य और व्यक्तिगत समय और संसाधनों पर भारी नकारात्मक असर पड़ता है, बल्कि पढ़ाने के लिए उपलब्ध समय का भी भारी नुकसान होता है। समय की बचत और दक्षता का जो दावा शुरु में डिजिटल कामकाज के पक्ष में किया गया था, वह झूठा साबित हुआ है। शिक्षक ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं; उनका काम दोगुनी-चौगुनी रफ़्तार से बढ़ता जा रहा है जबकि इन कार्यों के लिए अतिरिक्त हाथ या संसाधन मुहैया नहीं कराए जा रहे हैं।

2. शिक्षकों की कामकाजी परिस्थितियों में डिजिटल तरीके से थोपा जा रहा यह आपातकाल अकसर शिक्षकों को फ़ोटो, वीडियो और डेटा के हेरफेर का सहारा लेने के लिए मजबूर करता है, जो प्रशासन के इस तरीके में अंतर्निहित है।

3. शिक्षकों को अपनी कक्षा की सीसीटीवी निगरानी (जिसमें अब माता-पिता के फोन पर लाइव फीड प्रदान करना शामिल है), बायोमेट्रिक हाज़िरी, (असुरक्षित ऐप्स पर) सेल्फी के माध्यम से उपस्थिति दर्ज करने की अनिवार्यता और (अपना और परिवार के सदस्यों का) खुले में शौच न करने का हलफ़नामा देने जैसे असंख्य अपमानों का सामना करना पड़ रहा है। 

4. यह स्थिति प्रशासन द्वारा आरटीआई द्वारा मांगी गई जानकारी या डेटा लोगों के साथ साझा करने से वस्तुतः इनकार करने से और भी जटिल हो गई है। सरकार हमसे डाटा भरवाती रहती है लेकिन जनता को सूचना की एक बूंद भी नहीं देती। 

5. शोधकर्ताओं और पत्रकारों को भौतिक रूप से संस्थानों में जाने या जमीनी स्तर पर तथ्य जमा करने की अनुमति नहीं मिलती। केवल चुनिंदा (गलत) जानकारी के वो टुकड़े ही जनता के सामने रखे जाते हैं जो प्रचारवादी हितों के अनुकूल होते हैं।

6. भर्ती में हमेशा देरी के कारण, अधिकांश स्कूलों में शिक्षण/गैर-शिक्षण कर्मचारियों की कमी रहती है। न केवल रिक्त शिक्षण पदों को भरने की सख्त जरूरत है, बल्कि शिक्षकों पर बढ़ते शैक्षणिक और गैर-शैक्षणिक कार्यभार के अनुसार कर्मचारियों की नियमित भर्ती बढ़ाने की भी सख्त जरूरत है, ताकि स्कूलों में ऐसा छात्र-शिक्षक अनुपात स्थापित किया जा सके जिससे वंचित तबकों के बच्चों को ज़रूरी शैक्षणिक सहायता मिल सके।

 

शिक्षा का अधिकार 

 

अवलोकन एवं चिंताएँ 

1. 'आउटकम्ज़' ('क्या सीखा?' को जाँचने-परखने के बंधे हुए व संकुचित पैमाने) पर बढ़ता हुआ व सनक की हद तक के ज़ोर का अवश्यंभावी नतीजा FLN (आधारभूत साक्षरता एवं गणना)  के नाम पर लिए गए नीतिगत उपायों में सामने आया है। इनकी जड़ें एक तरफ़ एसडीजी के वैश्विक एजेंडे और दूसरी तरफ़ 'प्रथम' और उस जैसी अन्य बाज़ारवादी, शिक्षा-विरोधी, कॉरपोरेट संस्थाओं व एनजीओ में हैं। इन शक्तियों से प्रेरित व संचालित नीतियों ने शिक्षा व विशेषकर उन बच्चों के हक़ों का, जोकि सार्वजनिक स्कूलों में पढ़ते हैं तथा जिनका बहुलांश वंचित पृष्ठभूमियों से आता है, बेहद नुकसान किया है। इसी 'आउटकम्ज़' आधारित FLN के तहत शिक्षा अधिकार अधिनियम के बाल-हितैषी व शैक्षिक रूप से उपयुक्त नो डिटेंशन के प्रावधान को हटाया गया है। इसके बाद उम्र के अनुसार प्रवेश के प्रावधान का हटाया जाना भी तय था। छठी कक्षा में इसकी शुरुआत हो चुकी है; और वर्तमान नीति के तहत इसका अन्य कक्षाओं तक विस्तार होना निश्चित है। बच्चों को उसी पुराने ढर्रे पर पटक दिया गया है - अगर तुम स्कूल नहीं गए हो या स्कूल ने तुम्हें प्रवेश नहीं दिया है, अगर तुम नहीं सीख रहे हो या स्कूल में तुम्हें सिखाने के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ नहीं हैं, तो इसके ज़िम्मेदार तुम ख़ुद हो; अब भुगतो!

2. इन बदलावों का मतलब है कि स्कूलों की सभी तरह के बच्चों के लिए तैयार रहने की ज़िम्मेदारी निभाने के बदले, यह बच्चों की ज़िम्मेदारी है कि वो, इस देश में मौजूद तमाम तरह की अन्यायपूर्ण सामाजिक परिस्थितियों के बावजूद, 'स्कूल के लिए फ़िट' रहें। एक तरफ़, ज़रूरी स्थान, कमरों, शौचालयों, प्रशिक्षित शैक्षिक व सहायक कर्मियों की उपलब्धता सुनिश्चित किए बग़ैर, बच्चों को पूर्व-प्राथमिक कक्षाओं में प्रवेश देने की बात की जा रही है; दूसरी तरफ़ स्कूलों को यह संदेश दिया जा रहा है कि शिक्षकों के पदों की गणना वैधानिक रूप से निर्धारित पीटीआर के अनुसार नहीं, बल्कि विद्यार्थियों की औसत उपस्थिति के धूर्ततापूर्ण आँकड़े से की जाएगी!

3. मगर इन सबके पहले, बच्चों के हक़ों का दमन उस वक़्त ही हो जाता है जब उन्हें इस बिना पर प्रवेश देने से मना कर दिया जाता है कि उनके आधार पर दर्ज पता दिल्ली का नहीं है या उनके पास खाता नहीं है या उनके दस्तवेज़ों में किसी नाम की स्पेलिंग मेल नहीं खाती है। जो विद्यार्थी इस सबके बावजूद दसवीं-बारहवीं तक पहुँच पाते हैं, उनके रास्ते में किताबों जैसी मूलभूत सामग्री की अनुपलब्धता, महँगाई व सीबीएसई की बढ़ती फ़ीस खड़ी हो जाती हैं। इस प्रकार, असुरक्षित व प्रवासी पृष्ठभूमियों के बच्चे बढ़ते क्रम में बेदख़ली का शिकार हो रहे हैं और उन्हें 'ओपन स्कूलिंग' व्यवस्था के सहारे छोड़ा जा रहा है, जोकि हक़ीक़त में उनकी आगे की एवं नियमित शिक्षा की संभावना को सीमित कर देती है।  

 

समग्र माँगें

1. आज शिक्षक ये कहने को मजबूर है - 'मुझे पढ़ाने नहीं दिया जा रहा है। मैं शिक्षण का अधिकार और गरिमापूर्ण व अर्थपूर्ण शिक्षण की आज़ादी मांगता/माँगती हूँ।'

2. सार्वजनिक स्कूलों के बीच व उनके अंदर असमानता की तमाम परतों को ख़त्म किया जाए। विशेष व सामान्य स्कूलों की श्रेणियों का असंवैधानिक तथा शिक्षा एवं बाल विरोधी भेद ख़त्म करके सभी सार्वजनिक स्कूलों को समानुपातिक संसाधन व महत्व दिया जाए। 

3. स्कूलों पर डिजिटल तानाशाही थोपना बंद की जाए। यह सुनिश्चित किया जाए कि ऐसे कोई निर्देश/आदेश जारी न हों जिनके पालन में विद्यार्थियों व शिक्षकों की निजता, अंतःकरण की आज़ादी, गरिमा तथा स्वास्थ्य का हनन निहित हो। 

4. आपातकालिक व फ़ौरी आदेश भेजना व जवाब माँगना बंद किया जाए। 

5. स्कूली समय के बाद दिए जाने वाले कामों के, विशेषकर डिजिटल प्रकार के, आदेशों पर रोक लगाई जाए। अन्यथा इन कामों के लिए ओवरटाइम अथवा संपूरक/अर्जित अवकाश दिए जाएँ। स्कूलों से जुड़े प्रशासनिक/सार्वजनिक काम में शिक्षकों को अपने निजी डिजिटल उपकरणों का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर करने के एवज़ में पर्याप्त डिजिटल भत्ता दिया जाए।

6. शिक्षकों को सोचने-समझने, कक्षाओं की तैयारी करने व अपने विद्यार्थियों से संवाद करने के लिए पर्याप्त समय दिया जाए। 

7. शिक्षकों को पढ़ने-लिखने, अपने विचार सार्वजनिक करने तथा संगठित होकर अपनी माँगों के लिए लड़ने का मौलिक व नैसर्गिक अधिकार है। इसमें क़ानूनी/ग़ैर-क़ानूनी व प्रशासनिक रोड़े अटकाने के बदले इसकी इज़्ज़त की जाए।

8. विभिन्न मंत्रालयों व निजी संस्थाओं के आदेशों/कार्यक्रमों के बहाने से स्कूलों का समय बर्बाद करना, उनके कैलेंडर तथा दिनचर्या के साथ खिलवाड़ करना एवं उन्हें अवैज्ञानिक, अतार्किक, प्रतिगामी व विभाजनकारी एजेंडा के लिए इस्तेमाल करना बंद किया जाए। 

9. पाठ्यचर्या में वस्तुपरकता, वैज्ञानिकता, उदार मानवीय बोध तथा गहराई, व शिक्षण में शिक्षकीय एजेंसी की परिस्थितियाँ सुनिश्चित की जाएँ।  

10. 8वीं तक फ़ेल न करने वाली नीति को पुनर्स्थापित किया जाए; अथवा यह सुनिश्चित किया जाए कि किसी भी बच्चे की नियमित पढ़ाई न छूटे। FLN/मिशन बुनियाद जैसे कार्यक्रमों की तर्ज पर पाठ्यचर्या और शिक्षकों की पेशागत स्वायत्तता पर हमला करना बंद किया जाए।

11. सार्वजनिक स्कूलों में मज़दूर वर्ग व ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों के हितों के ख़िलाफ़ तथा शिक्षा-विरोधी वोकेशनल कोर्स थोपने की नीति बंद की जाए।

12. प्रारंभिक स्तर पर बिना शर्त प्रवेश देकर तथा उच्चतम स्तर तक मुफ़्त व नियमित शिक्षा की गारंटी देकर ऐतिहासिक रूप से वंचित तबकों तथा मज़दूर वर्गों से आने वाले बच्चों की शिक्षा को सुलभ किया जाए। शिक्षा के संवैधानिक हक़ को 12वीं कक्षा/18 वर्ष तक बढ़ाया जाए। 

13. सहायक स्टाफ़ की भर्ती को निजी कंपनियों के हवाले करके अथवा पाठ्यचर्या व शिक्षक प्रशिक्षण को एनजीओ के हाथों में सौंपकर स्कूली व्यवस्था के प्रत्यक्ष-परोक्ष निजीकरण करने की प्रक्रिया पर रोक लगाई जाए।

14. काम की बढ़ती माँग व व्यक्तिगत छुट्टियों की जायज़ परिघटना के मद्देनज़र काग़ज़ी मापदंडों से परे जाकर 5-10% 'अतिरिक्त' नियमित/स्थाई श्रेणी के पदों को सृजित किया जाए ताकि किसी भी स्कूल में शिक्षकों व अन्य कर्मियों की कोई कमी न हो। 

15. विकास एवं स्वच्छता के नाम पर स्कूलों में और स्कूलों के कंक्रीट-निर्माण की अपव्ययी, भ्रष्टाचार-प्रेरित, बेसिर-पैर की तथा पर्यावरण-जीवन विरोधी, घातक सनक पर रोक लगाई जाए। यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी स्कूली परिसर खुले, पर्यावरणीय रूप से सुगम, हरे-भरे, प्राकृतिक रौशनी व हवा की आवाजाही से परिपूर्ण, हों; तथा बच्चों के खेलने व अन्य उन्मुक्त क्रियाओं के लिए कच्चे मैदानों से युक्त हों।