Monday 17 September 2018

स्कूलों को डाटा इकट्ठा करने के केंद्र बनाना बंद करो !!

स्कूलों पर जनविरोधी व गैरआकादमिक आदेश नहीं सहेंगे !!


दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा 11 सितम्बर को केवल अंग्रेज़ी में जारी किए गए सर्कुलर ‘Collecting comprehensive data in respect of students studying in Govt. Schools of Delhi’ (संख्या- No. DE.23 ( Z63)/ Sch.Br./2018/87) में स्कूलों को यह निर्देश दिए गए कि वे बच्चों से उनके परिवार के सदस्यों (माता-पिता/अभिभावक तथा सभी भाई-बहन) के वोटर कार्ड, आधार कार्ड, वर्तमान एवं स्थाई निवास के मालिकाना स्वरूप तथा शैक्षिक योग्यता की जानकारी इकट्ठा करें|

लोक शिक्षक मंच इस सर्कुलर का पुरज़ोर विरोध करता है| इस आदेश को अनुचित और तरनाक मानते हुए हम इसे ख़ारिज करते हैं और निम्नलिखित आपत्तियाँ दर्ज करते हैं -

1. ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारों ने विशेषकर सरकारी स्कूलों को डाटा इकट्ठा करने के केंद्र बना दिया है| शिक्षकों पर बच्चों की आधार संख्या, बैंक अकाउंट, फ़ोन नं. आदि जानकारियों को इकट्ठा करने के लिए ज़बरदस्त दबाव है| सरकार ने हमें शिक्षक से ज़्यादा आधार व बैंकों के एजेंट बना दिया है| इस कड़ी में यह सर्कुलर हमें हमारे कादमिक और शैक्षणिक काम से और दूर ले जाता है और इस मायने में ग़ैरक़ानूनी भी है|

2. यह स्पष्ट हो चला है कि दुनियाभर की नवउदारवादी सरकारें नागरिकों के आँकड़ों को अपने प्रचार और लोगों की एक-एक बात पर नज़र रखने और उनपर नियंत्रण करने के लिए इस्तेमाल कर रही हैं| साथ ही, यह इन आँकड़ों को कंपनियों को उपलब्ध कराकर उनके व्यापारिक हित साधने का खेल भी है| ऐसे में हम इस सर्कुलर को शक की निगाह से क्यों न देखें?

3. इस सर्कुलर ने शिक्षकों को अभिभावकों के सामने कटघरे में खड़ा करना शुरु कर दिया है| अभिभावक शक और डर के साथ स्कूल आकर शिक्षकों से सवाल कर रहे हैं कि उन्हें ये आँकड़े क्यों चाहिए| आँकड़े देने से इंकार करने वाले या दिए हुए आँकड़ों को वापस माँगने वाले अभिभावकों की संख्या बढ़ेगी और इस घटना के बाद माता-पिता का स्कूलों तथा शिक्षकों पर विश्वास घटेगा| समुदाय में शिक्षकों की जिस वैधता का दुरुपयोग करके सरकार यह काम करना चाह रही है, ऐसे आदेशों से वह वैधता ही ख़तरे में पड़ रही है|

4. यह तानाशाही का अभिमान नहीं तो क्या है कि विद्यार्थियों की इतनी महत्वपूर्ण जानकारी माँगने से पहले सरकार को कोई झूठे या लुभावने कारण भी बताना ज़रूरी नहीं लगा| क्या विभाग चाह रहा था कि शिक्षक कैसे भी, साम-दाम-दंड भेद का इस्तेमाल करके यह जानकारी इकट्ठा कर लें?
5. दस दिन में इतनी गम्भीर और विस्तारपूर्वक जानकारी इकट्ठा करने की क्या एमरजेंसी हो सकती है? स्पष्ट है कि सरकार चाहती थी कि इससे पहले कि शिक्षक व अभिभावक इस आदेश की चाल समझ पाएँ या इसपर प्रश्न उठा पाएँ या इसके खिलाफ़ आंदोलित हो पाएँ या अदालत जा पाएँ, लाखों बच्चों व उनके परिवारों की जानकारी उस तक पहुँच चुकी हो|   

6. यह अफ़सोसजनक है कि इस सर्कुलर ने स्कूलों में शिक्षकों को दोराहे पर खड़ा कर दिया हैI जहाँ एक तर हमारा पेशा हमें अपने विद्यार्थियों को निजता, गरिमा, आज़ादी और अधिकारों के प्रति सचेत करने का दायित्व देता है, वहीं दूसरी तर इस तरह के आदेश शिक्षकों को विद्यार्थियों के हितों और अधिकारों के खिलाफ़ जाकर बिचौलिये की भूमिका निभाने पर मजबूर करते हैं

7. सर्कुलर के साथ दिये गए फ़ॉर्म में परिवार के मकान के स्वामित्व के बारे में भी जानकारी माँगी गयी है - यानि, बच्चे के परिवार को बताना होगा कि वो अपने मकान में रहता है या किराए के मकान में| इससे आदेश की नीयत के बारे में हमारा संदेह और गहरा हो जाता है| आज देशभर में जनता को भारतीय–ग़ैरभारतीय, राष्ट्रवादी-देशद्रोही में बाँटने की जो राजनीति चल रही है, उसमें क्या गारंटी है कि आज धोखे से इकट्ठे किये गए ये आँकड़े कल दिल्ली में रहने वालों को दिल्लीवाले और बाहरवालेसाबित करने के लिए इस्तेमाल नहीं किये जायेंगे? हम जानते हैं कि हमारे स्कूलों के बच्चे जिस वर्ग से आते हैं, उसमें सभी परिवारों के पास ऐसे दस्तावेज़ नहीं होंगे या वे देना नहीं चाहेंगे| दस्तावेज़ का न होना कोई अपराध नहीं है, लेकिन यह बहुत संभव है कि भविष्य में शिक्षा विभाग की यह मुहिम ऐसे लोगों को बेहद असुरक्षित बना दे या अपराधी तक घोषित कर दे|

8. विभाग द्वारा डाटा की ‘जाँच, डिजिटलाइज़ेशन और विश्लेषण’ जैसे उद्देश्यों का क्या अर्थ निकाला जाए? इस सर्कुलर में एक रहस्यमयी थर्ड पार्टी का उल्लेख है जिसे इकट्ठा की गयी सारी जानकारियों की ‘जाँच, डिजिटलाइज़ेशन और विश्लेषण’ का ठेका दिया जाएगा| जबकि यह भी स्पष्ट नहीं है कि ये थर्ड पार्टीनिजी है या सार्वजानिक, इस बात पर भरोसा नहीं किया जा सकता है कि यह रहस्यमयी एजेन्सी इस डाटा का दुरुपयोग नहीं करेगी|

हम सरकार को याद दिलाते हैं कि स्कूल शिक्षा का केंद्र हैं, डाटा उत्पादन केंद्र नहीं, हमारे विद्यार्थी चिंतनशील प्राणी हैं, मात्र आँकड़े नहीं और हम शिक्षक जनता से जुड़े बुद्धिजीवी हैं, मूक आदेशपालक नहीं| हम सरकार से माँग करते हैं कि इस आदेश को तुरंत प्रभाव से निरस्त किया जाए और स्कूलों पर इस तरह के जनविरोधी व गैरआकादमिक आदेश थोपना बंद किया जाए|   







Wednesday 5 September 2018

पांच सितंबर "शिक्षक दिवस " पर कुछ सवाल

फ़िरोज़ 
प्राथमिक शिक्षक

हर साल की तरह इस बार भी 'शिक्षक दिवस' पर विचलित करने के लिए प्रर्याप्त कारण हैं। मगर यह लगभग तय है कि हर साल की तरह इस बार भी हमारे अधिकतर स्कूलों में यह दिन पारंपरिक ढर्रे से मनाया जाएगा। अलबत्ता यह ख़बर ज़रूर आई थी कि दिल्ली के कई निजी स्कूलों ने, शिक्षकों के ख़िलाफ़ हुई अनुचित कार्रवाइयों के प्रति अपना विरोध दर्ज करने के उद्देश्य से, शिक्षक दिवस नहीं मनाने या फिर हल्के ढंग से मनाने का फ़ैसला किया है। यह कहना मुश्किल है कि इन स्कूलों ने यह फ़ैसला शिक्षकों के स्तर पर लिया है या प्रबंधन के स्तर पर। बहरहाल, अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार उनके विरोध का मुख्य कारण शिक्षकों को उन घटनाओं के लिए भी ज़िम्मेदार ठहराया जाना है जो उनके बस में नहीं हैं। इधर दिल्ली सरकार के स्कूलों के शिक्षकों के चयनित संगठन ने भी एक पत्र द्वारा बायोमेट्रिक हाज़िरी के प्रति अपना विरोध जताया है, हालांकि उन्होंने न तो इसे शिक्षक दिवस से जोड़ा है और न ही निजता व मानव गरिमा के हनन तथा राज्य-कारपोरेट गठजोड़ की निरंकुश सत्ता के ख़तरे से। कार्य परिस्थितियों व पेशागत गरिमा पर तमाम तरह के कुठाराघात झेलने के बावजूद हमारे बीच किसी सैद्धांतिक, सुविचारित विरोध की कोई सुगबुगाहट नहीं है, आंदोलन की बात तो छोड़ दीजिए। आपसी बातचीत में यह विचार प्राय: सुनने में आता है कि हमारे संगठनों ने आंदोलन की राह छोड़ दी है और उनकी वो भूमिका नज़र नहीं आती है वक़्त को जिसकी दरकार है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित फ़रमानों को देखा जा सकता है जिनका सांगठनिक विरोध सुनने में नहीं आया -
शिक्षकों को अपने घर में शौचालय होने और हर सदस्य द्वारा उसके इस्तेमाल के बारे में एक हलफ़नामा देना होगा।
शिक्षकों की वार्षिक रिपोर्ट में स्कूल से बाहर हो जाने वाले विद्यार्थियों के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराकर उनके अंक काटे जाएंगे।
शिक्षकों को 'शालीनता' दिखाने वाले वस्त्र पहनने होंगे और जींस आदि जैसे वस्त्र पहनने की इजाज़त नहीं होगी।
शिक्षकों को अमुक विषय, अमुक प्रकार से, अमुक समय पर कराना होगा।
ज़ाहिर है कि यह फ़ेहरिस्त लंबी है और यहां एक बानगी ही दी गई है। आशय यह है कि न सिर्फ़ हमारे पेशे के अकादमिक व बुद्धिजीवी चरित्र पर हमले किए गए हैं, बल्कि हमारे इंसानी अस्तित्व तक को कुचलने की कोशिश की गई है। और हमारी प्रतिक्रिया एक शर्मनाक व समझौतापरस्त तटस्थता अथवा समर्पण की रही है। स्कूलों में न न्यूनतम संरचनात्मक सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी और न ही उचित संख्या में कर्मचारी दिए जाएंगे - बल्कि यह नेक आदेशात्मक सलाह दी जाएगी कि ऊंची तनख़्वाह लेने वाले शिक्षक ख़ुद ही चंदा करके एक अनियमित सफ़ाई कर्मचारी रख लें। मगर हां, सफ़ाई न रहने पर दंडात्मक कार्रवाई ज़रूर की जाएगी। इसी तर्ज पर देश के राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार के लिए पढ़ाने से ज़्यादा महत्वपूर्ण सरकारी कार्यक्रमों में योगदान देना और स्कूल के लिए चंदा जुटाना हो गया है। 
उधर देश के अधिकतर शिक्षकों को शायद यह भी नहीं पता कि जिसके नाम पर वो और उनके स्कूल शिक्षक दिवस नाम का जश्न मनाते हैं उनका सामाजिक-शैक्षिक योगदान क्या था। अंग्रेजी शासन के दौरान भी न वो राजनीतिक रूप से सक्रिय थे और न ही सामाजिक बदलाव की किसी मुहिम से जुड़े थे। हालांकि अपने आप में इसे कोई अपराध क़रार देना ज़्यादती होगी मगर इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाकर हम एक समर्पित या संघर्षशील शिक्षक को इज़्ज़त नहीं दे रहे होते हैं बल्कि राष्ट्रपति के रूप में सत्ता के शीर्ष पर विराजमान शक्ति व सफलता को नतमस्तक हो रहे होते हैं। फिर उस इंसान की विनम्रता के बारे में अधिक कुछ क्या कहा जा सकता है जो अपने जन्मदिन को ख़ुद ही एक सार्वजनिक दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव देता है! जब देश के अलग-अलग इलाक़ों के कई संगठन व बहुत से शिक्षक पांच सितंबर की जगह तीन जनवरी या ग्यारह अप्रैल को शिक्षक दिवस के रूप में मना रहे हैं तो हमें भी यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि ये तिथियां किन लोगों से जुड़ी हैं और उनके सामाजिक-शैक्षिक योगदान में ऐसा क्या था जो हमें वैज्ञानिक चेतना तथा जनता के प्रति समर्पित कर्म की प्रेरणा देता है। मेरे जैसे व्यक्ति को भी, जिसने ख़ासा समय विश्वविद्यालय में बिताया, यह बहुत बाद में पता चला कि जिस शख़्स की सालगिरह को देशभर में सरकारी प्रयोजन से शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है, उसपर एक विद्यार्थी ने उसके शोधग्रंथ के अंशों की नक़ल करके अपनी किताब में इस्तेमाल करने के गंभीर इल्ज़ाम लगाए थे। यह इल्ज़ाम साबित नहीं हुए मगर क्योंकि दोनों पक्षों में एक प्रकार का समझौता हो गया इसलिए इतिहास ने इन्हें ख़ारिज भी नहीं किया। वैसे, अगर द्रोणाचार्य और एकलव्य को याद करें तो ऐसे इल्ज़ामों को हमारी राष्ट्रीय परंपरा में कोई विसंगति नहीं माना जा सकता है। यह कृतज्ञ राष्ट्र एक को सर्वश्रेष्ठ कोच के इनाम के नाम से सम्मानित करता है और दूसरे के नाम शिक्षक दिवस कर देता है।
इस बीच स्कूलों में इस पेशे के नाम समर्पित मौक़े पर विद्यार्थी शिक्षकों की भूमिका निभाकर सजते-संवरते हैं, पार्टी करते हैं और शिक्षक से ज़्यादा वयस्क होने व ताक़त का छद्म स्वाद चखते हैं। सिवाय महिमा मंडन व आत्म-प्रशंसा के, शिक्षा, शिक्षक या शिक्षण पर कोई सार्थक चर्चा नहीं होती है। न स्कूलों में और न ही सरकारी पुरस्कार समारोहों में। चाहे वो स्कूलों के अंदर शिक्षक दिवस मनाने का हमारा व विद्यार्थियों का सतही अंदाज़ हो या फिर सत्ता की अपमानजनक नीतियों व कर्मकांडी समारोहों की कवायद, 5 सितंबर के शिक्षक दिवस का इतिहास इससे अधिक उम्मीद पालने या हैरान होने की गुंजाइश नहीं छोड़ता है। ज़रूरत इतिहास को खंगालकर एक नई राह चलने की है।