साथियों,
मैं शिक्षक के पेशे को बहुत पसंद करता था और ख़ासतौर पर प्राथमिक शिक्षण को। मुझे एक शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए लगभग छ: साल हो गए हैं। वैसे तो इतने समय में काफी खट्टे-मीठे अनुभव रहे हैं लेकिन अभी हाल ही में एक ऐसा अनुभव रहा जिसने मुझे काफी बदल दिया। इस अनुभव को मैं आपके साथ साझा करने जा रहा हूँ।
मैं वर्तमान में एक सह-शिक्षा विद्यालय में कार्यरत हूँ। इस विद्यालय में मैं अप्रैल से कार्य कर रहा हूँ। जब मुझे अपनी कक्षा मिली तो मैंने नोटिस किया की यह सिर्फ कहने भर को सह-शिक्षा विद्यालय है वास्तविकता तो कुछ और है। एक कमरे को दो हिस्सों में, आधा लड़कियों के लिए व आधा लड़कों के लिए, बांटा हुआ था। हमारी संसद ने भी अभी तक पचास प्रतिशत महिला आरक्षण विधेयक पास नहीं किया है लेकिन मेरी कक्षा की भूतपूर्व अध्यापिका ने तो यह नियम कक्षा में लागू भी कर दिया था! मैंने पाया कि कक्षा की लड़कियां लड़कों से दूर रहना ही पसंद करती हैं, एक साथ डेस्क पर बैठना तो उनकी सोच से भी परे है। मैं हमेशा से ही शिक्षकों की बजाय बच्चों के बीच ही रहना पसंद करता हूँ। मैं कक्षा में भी श्यामपट्ट पर कार्य कराने के बाद खाली समय में बच्चों के साथ डेस्क पर बैठ जाया करता हूँ। मैंने धीरे-धीरे लड़के व् लड़कियों दोनों से बात करनी शुरू की और उनके बीच अंतर को दूर करने की कोशिश की लेकिन कुछ खास कामयाबी हासिल नहीं हो पा रही थी। फिर मैंने एक डेस्क पर एक लड़के और एक लड़की को बैठने को कहा। लड़कों ने तो कोई विरोध नहीं किया। लड़कियों ने सामने तो कोई विरोध नहीं किया लेकिन उनकी मन: स्थिति को मैं समझ गया था। ऐसा चलता रहा और नवम्बर माह के शुरुआत में मुझे बच्चों का टेस्ट लेना था। मैंने देखा कि कुछ लड़कियों का एक ग्रुप है और वो आपस में नक़ल करती हैं। मैंने उन लड़कियों को दूर-दूर बिठा दिया और उनके साथ एक लड़के को बिठाया ताकि वो आपस में नक़ल न कर सकें। ऐसा करने के बाद उन लड़कियों के काफी कम अंक आये। मुझे पता चला कि कुछ लड़कियों के घरवालों ने पूछा कि इतने कम अंक क्यों आये हैं। शायद उनकी घर पर व् ट्यूशन में पिटाई भी हुई हो। उनसे कम अंक आने का कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वे कक्षा में पढ़ नहीं पाती क्योंकि सर उनके साथ एक लड़के को बिठाते हैं और इस कारण कक्षा में उनका मन भी नहीं लगता। सर जबरदस्ती हमें लड़कों के साथ बिठाते हैं और उनसे बात करने को कहते हैं और एक लड़की ने तो यहाँ तक कह दिया कि सर भी हमारे साथ बैठ जाते हैं, कभी हमारे सर पर हाथ रखते है। यह सब बातें उन लड़कियों ने ट्यूशन में बताई क्योंकि वे सभी लड़कियां एक ही जगह ट्यूशन पढ़ती थीं। उनके साथ एक लड़का भी था जिसने मुझे वहां हुई बातचीत के बारे में बताया। उनकी ट्यूटर ने कहा, "मुझे लगता है कि तुम्हारे सर ही बदतमीज हैं, अपने घरवालों को लेकर प्रधानाचार्या के पास जाओ और उनकी शिकायत करो, साथ ही अपना सेक्शन बदल लेना।" अगले दिन उन लड़कियों के माता-पिता विद्यालय आ गए। मैं इस घटना से स्तब्ध रह गया। मेरी प्रधानाचार्या ने मेरा पूरा पक्ष लिया जिसकी मुझे बिलकुल उम्मीद नहीं थी। उन्होंने साफ़ मना कर दिया कि किसी बच्चे का कोई सेक्शन नहीं बदला जाएगा। उनमे से एक लड़की के पिता ने तो कहा कि हमारी लड़की तो इन सर के पास ही पढ़ेगी, सर अच्छा पढ़ाते हैं। मुझे उस दिन अपने आप पर बहुत गुस्सा आया। मुझे लगा कि ज्यादा अच्छे तो वो लोग हैं जो बच्चों से कोई मतलब नहीं रखते, इन बच्चों को हीन दृष्टि से देखते हैं। मुझे उन अभिभावकों की यह सोच अच्छी नहीं लगी। मैं परेशान इस बात से भी था कि यदि यह मामला क्षेत्रीय कार्यालय पहुँच जाता तो मेरे लिए कितनी शर्मनाक बात होती। मैं किसी से आँखे मिलाने के काबिल नहीं रहता और मेरी बात का कोई यकीन भी नहीं करता। यह सोच कर मैं बहुत परेशान रहने लग गया था। मैं उन बच्चों से नफरत करने लग गया था। मेरा विद्यालय जाने का मन नहीं करता था। एक दो दिन बाद ही मुझे लगभग 10 दिन के लिए अवकाश पर जाना था। मैं यह सोच कर राहत महसूस कर रहा था कि अब दस दिनों के लिए उनकी शक्ल नहीं देखनी पड़ेगी। इस बीच मैंने तय किया कि मैं इस पेशे को जल्द से जल्द छोड़ दूंगा क्योकि चाहे आपने कितने भी साल अच्छा किया हो कोई मायने नहीं रखता। एक छोटी सी गलती आपके कैरियर के साथ आपकी जिन्दगी भी बर्बाद कर सकती है। मैंने तय किया है कि मैं कोई और पेशा चुनूँगा जहाँ पर कम से कम इज्जत तो सुरक्षित रहेगी। अवकाश पर रहने के बाद विद्यालय ज्वाइन करने पर मैंने तटस्थ रहना शुरू कर दिया। अब मुझे बच्चों से ज्यादा मतलब नहीं होता कि वो पढ़ाई कर रहे हैं या अपना समय बर्बाद कर रहे हैं। मेरे लिए वो अब स्लम में रहने वाले बच्चे हैं जैसाकि बाकी के टीचर सोचते हैं। यह मेरी वर्तमान की सोच है। मुझे पता है मेरी यह सोच गलत है। मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए लेकिन आज भी मैं उस घटना को याद करता हूँ तो लगता है कि एक नई जिन्दगी मिल गई। यदि मामला शांत नहीं होता और क्षेत्रीय कार्यालय पहुँच जाता तो मेरे पास आत्म-हत्या के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। हो सकता है कि वक्त के साथ मेरी सोच बदल जाये क्योंकि कहा जाता है कि वक्त हर घाव और जख्म को भर देता है। आप सबकी प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं।
(लोक शिक्षक मंच ब्लॉग के लिए शिक्षक साथियों को अपने विद्यालयी अनुभव साझा करने को आमंत्रित करता है। इस कड़ी में निगम विद्यालय के एक शिक्षक साथी की डायरी का अंश प्रस्तुत है।)
(यह आवश्यक नहीं है कि इन लेखों में दर्ज विचारों से मंच की सहमति हो।)
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