फ़िरोज़
प्राथमिक शिक्षक
हर साल की तरह इस बार भी 'शिक्षक दिवस' पर विचलित करने के लिए प्रर्याप्त कारण हैं। मगर यह लगभग तय है कि हर साल की तरह इस बार भी हमारे अधिकतर स्कूलों में यह दिन पारंपरिक ढर्रे से मनाया जाएगा। अलबत्ता यह ख़बर ज़रूर आई थी कि दिल्ली के कई निजी स्कूलों ने, शिक्षकों के ख़िलाफ़ हुई अनुचित कार्रवाइयों के प्रति अपना विरोध दर्ज करने के उद्देश्य से, शिक्षक दिवस नहीं मनाने या फिर हल्के ढंग से मनाने का फ़ैसला किया है। यह कहना मुश्किल है कि इन स्कूलों ने यह फ़ैसला शिक्षकों के स्तर पर लिया है या प्रबंधन के स्तर पर। बहरहाल, अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार उनके विरोध का मुख्य कारण शिक्षकों को उन घटनाओं के लिए भी ज़िम्मेदार ठहराया जाना है जो उनके बस में नहीं हैं। इधर दिल्ली सरकार के स्कूलों के शिक्षकों के चयनित संगठन ने भी एक पत्र द्वारा बायोमेट्रिक हाज़िरी के प्रति अपना विरोध जताया है, हालांकि उन्होंने न तो इसे शिक्षक दिवस से जोड़ा है और न ही निजता व मानव गरिमा के हनन तथा राज्य-कारपोरेट गठजोड़ की निरंकुश सत्ता के ख़तरे से। कार्य परिस्थितियों व पेशागत गरिमा पर तमाम तरह के कुठाराघात झेलने के बावजूद हमारे बीच किसी सैद्धांतिक, सुविचारित विरोध की कोई सुगबुगाहट नहीं है, आंदोलन की बात तो छोड़ दीजिए। आपसी बातचीत में यह विचार प्राय: सुनने में आता है कि हमारे संगठनों ने आंदोलन की राह छोड़ दी है और उनकी वो भूमिका नज़र नहीं आती है वक़्त को जिसकी दरकार है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित फ़रमानों को देखा जा सकता है जिनका सांगठनिक विरोध सुनने में नहीं आया -
शिक्षकों को अपने घर में शौचालय होने और हर सदस्य द्वारा उसके इस्तेमाल के बारे में एक हलफ़नामा देना होगा।
शिक्षकों की वार्षिक रिपोर्ट में स्कूल से बाहर हो जाने वाले विद्यार्थियों के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराकर उनके अंक काटे जाएंगे।
शिक्षकों को 'शालीनता' दिखाने वाले वस्त्र पहनने होंगे और जींस आदि जैसे वस्त्र पहनने की इजाज़त नहीं होगी।
शिक्षकों को अमुक विषय, अमुक प्रकार से, अमुक समय पर कराना होगा।
ज़ाहिर है कि यह फ़ेहरिस्त लंबी है और यहां एक बानगी ही दी गई है। आशय यह है कि न सिर्फ़ हमारे पेशे के अकादमिक व बुद्धिजीवी चरित्र पर हमले किए गए हैं, बल्कि हमारे इंसानी अस्तित्व तक को कुचलने की कोशिश की गई है। और हमारी प्रतिक्रिया एक शर्मनाक व समझौतापरस्त तटस्थता अथवा समर्पण की रही है। स्कूलों में न न्यूनतम संरचनात्मक सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी और न ही उचित संख्या में कर्मचारी दिए जाएंगे - बल्कि यह नेक आदेशात्मक सलाह दी जाएगी कि ऊंची तनख़्वाह लेने वाले शिक्षक ख़ुद ही चंदा करके एक अनियमित सफ़ाई कर्मचारी रख लें। मगर हां, सफ़ाई न रहने पर दंडात्मक कार्रवाई ज़रूर की जाएगी। इसी तर्ज पर देश के राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार के लिए पढ़ाने से ज़्यादा महत्वपूर्ण सरकारी कार्यक्रमों में योगदान देना और स्कूल के लिए चंदा जुटाना हो गया है।
उधर देश के अधिकतर शिक्षकों को शायद यह भी नहीं पता कि जिसके नाम पर वो और उनके स्कूल शिक्षक दिवस नाम का जश्न मनाते हैं उनका सामाजिक-शैक्षिक योगदान क्या था। अंग्रेजी शासन के दौरान भी न वो राजनीतिक रूप से सक्रिय थे और न ही सामाजिक बदलाव की किसी मुहिम से जुड़े थे। हालांकि अपने आप में इसे कोई अपराध क़रार देना ज़्यादती होगी मगर इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाकर हम एक समर्पित या संघर्षशील शिक्षक को इज़्ज़त नहीं दे रहे होते हैं बल्कि राष्ट्रपति के रूप में सत्ता के शीर्ष पर विराजमान शक्ति व सफलता को नतमस्तक हो रहे होते हैं। फिर उस इंसान की विनम्रता के बारे में अधिक कुछ क्या कहा जा सकता है जो अपने जन्मदिन को ख़ुद ही एक सार्वजनिक दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव देता है! जब देश के अलग-अलग इलाक़ों के कई संगठन व बहुत से शिक्षक पांच सितंबर की जगह तीन जनवरी या ग्यारह अप्रैल को शिक्षक दिवस के रूप में मना रहे हैं तो हमें भी यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि ये तिथियां किन लोगों से जुड़ी हैं और उनके सामाजिक-शैक्षिक योगदान में ऐसा क्या था जो हमें वैज्ञानिक चेतना तथा जनता के प्रति समर्पित कर्म की प्रेरणा देता है। मेरे जैसे व्यक्ति को भी, जिसने ख़ासा समय विश्वविद्यालय में बिताया, यह बहुत बाद में पता चला कि जिस शख़्स की सालगिरह को देशभर में सरकारी प्रयोजन से शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है, उसपर एक विद्यार्थी ने उसके शोधग्रंथ के अंशों की नक़ल करके अपनी किताब में इस्तेमाल करने के गंभीर इल्ज़ाम लगाए थे। यह इल्ज़ाम साबित नहीं हुए मगर क्योंकि दोनों पक्षों में एक प्रकार का समझौता हो गया इसलिए इतिहास ने इन्हें ख़ारिज भी नहीं किया। वैसे, अगर द्रोणाचार्य और एकलव्य को याद करें तो ऐसे इल्ज़ामों को हमारी राष्ट्रीय परंपरा में कोई विसंगति नहीं माना जा सकता है। यह कृतज्ञ राष्ट्र एक को सर्वश्रेष्ठ कोच के इनाम के नाम से सम्मानित करता है और दूसरे के नाम शिक्षक दिवस कर देता है।
इस बीच स्कूलों में इस पेशे के नाम समर्पित मौक़े पर विद्यार्थी शिक्षकों की भूमिका निभाकर सजते-संवरते हैं, पार्टी करते हैं और शिक्षक से ज़्यादा वयस्क होने व ताक़त का छद्म स्वाद चखते हैं। सिवाय महिमा मंडन व आत्म-प्रशंसा के, शिक्षा, शिक्षक या शिक्षण पर कोई सार्थक चर्चा नहीं होती है। न स्कूलों में और न ही सरकारी पुरस्कार समारोहों में। चाहे वो स्कूलों के अंदर शिक्षक दिवस मनाने का हमारा व विद्यार्थियों का सतही अंदाज़ हो या फिर सत्ता की अपमानजनक नीतियों व कर्मकांडी समारोहों की कवायद, 5 सितंबर के शिक्षक दिवस का इतिहास इससे अधिक उम्मीद पालने या हैरान होने की गुंजाइश नहीं छोड़ता है। ज़रूरत इतिहास को खंगालकर एक नई राह चलने की है।
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