मित्रों,
'शिक्षक दिवस: एक पुनर्विचार' पर्चे पर हमें कुछ आलोचनात्मक प्रतिक्रियाएं भी मिली हैं. आलोचनाओ को मुख्य रूप से चार भागों मै बांटा जा सकता है-
१. शिक्षक दिवस मनाया ही क्यों जाये?
२. टैगोरे का महिमामंडन क्यों?
३. बुद्ध, ज्योतिबा या अम्बेडकर का उल्लेख क्यों नहीं?
४. संगठन में पदों व उनको सँभालने वालों के नामों का जिक्र क्यों नहीं?
पर्चे का मूल उद्देश्य व तर्क मात्र औपचारिक दिवस-आयोजनों पर प्रश्नचिंह खड़ा करना नहीं था. यह सच है कि एक स्वस्थ व आदर्श सामाजिक व्यवस्था में किसी औपचारिक आयोजन की जरुरत नहीं होगी. यह भी सच है कि अपने पेशे को 'दिवस' के रूप में मनाना मनोवैज्ञानिक परिपक्वता का परिचायक नहीं है. सोचिये, अगर हमें यह बहस खड़ी करनी होती कि 'दिवस' मनाया ही न जाये तो वह किस तरह की भूमि पर खड़ी होती. हमारे विचार से यह एक दार्शनिक-राजनैतिक किस्म का सवाल होता. उस तक सीधे पहुँच जाना, बिना संवाद की लम्बी प्रक्रिया के स्वयं एक राजनैतिक अपरिपक्विता होती. फिर पर्चे का मुख्य उद्देश्य एक औपचारिकता की जगह दूसरी औपचारिकता स्थापित करना नहीं था, जैसा कि समझा गया. यह शिक्षक दिवस के माध्यम से इतिहास से भुलाये दबाये गए प्रसंगों-व्यक्तित्वों के महत्व को रेखांकित करना था. फिर उत्सव सरकारी/नीरस सत्ता प्रधान व लोक (जिवंत) दोनों तरह के हो सकते हैं, होते हैं. मजदुर दिवस का उदहारण हमारे सामने है कि कैसे यह इतिहास से प्रेरणा लेने, उसे जिन्दा रखने और बनाने का प्रतीक है, इसी तरह हम शिक्षक दिवस को अफसरशाही सरकारी प्रयोजनों से पुनर्स्थापित करके इतिहास बोध, लोक संघर्ष व पेशागत परम्परा से जोड़ना चाह रहे हैं. आज के समय के शब्दों में कहे तो वर्तमान 'समारोही' दिवस में हम अपना विस्वास प्रकट नहीं कर पा रहे हैं, न उसमे अपने पेशे को, स्वयं को देख पा रहें हैं. यह एक ध्यानकर्षण प्रस्ताव था- ऐसा नहीं है कि हम शिक्षक दिवस मनाएं तो अपने सुझाये हुए नामों में से एक (या तीनो) से जोड़कर ही मनाएं. इस दिवस का भी स्थानिक स्वरुप हो सकता है, राष्ट्रीय के साथ साथ. हर क्षेत्र में ऐसे संघर्षों, व्यक्तित्वों की कमी नहीं होगी जिनसे समतावादी विमर्श प्रेरणा ले सकें- तो प्रत्येक पड़ोस अपने जीवंत उदाहरण स्वयं सामने रखें. हमें लगता है कि दिवस के वर्तमान स्वरुप में और हमारे द्वारा प्रस्तावित उदाहरणों से मिलने वाले दिवस के संभावित दर्शन में जमीन-आसमान का अंतर हैं. अगर शिक्षण दिवस न मनाएं तो भी वो सारे काम किये जा सकते हैं जिन्हें हम राजनैतिक रूप से बेहतर/जरुरी मानते हैं पर इसे पुनर्व्याख्यायित करके न सिर्फ हम हावी परंपरा/वर्चस्व को चुनौती देते हैं वरन इतिहास व शिक्षा से सम्बंधित एक बहस खड़ी करने के मौकों का भी इस्तेमाल करते हैं. फिर यह आलोचना भूल रहीं है कि किसी सार्वजनिक कर्म/प्रयास का आंकलन मात्र उसकी रचना से नहीं वरन राजनैतिक नियत से भी लगाना चाहिए. इस सन्दर्भ में हम वैकल्पिक शिक्षक दिवस की अवधारणा को श्रेष्ठ नहीं तो निर्दोष तो मान ही सकते हैं.
जहाँ तक टैगोर के महिमामंडन का सवाल है हम मानते हैं कि किसी का भी महिमामंडन करना परिपक्व ऐतिहासिक बोध के अनुकूल नहीं है. अगर पर्चे में ऐसा भाव आया तो वह निश्चित ही सायास नहीं था. अन्य ऐतिहासिक व्यक्तित्वों की तरह ही, न सिर्फ टैगोर वरन सावित्रीबाई व गिजुभाई पर सवाल खड़े करने पर कोई अतिसंवेदनशील आपत्ति नहीं की जानी चाहिए. इतिहास में टैगोर की भूमिका का मूल्याङ्कन आलोचनाओं से कतरा नहीं सकता (स्वयं महात्मा गाँधी के साथ उनका असह्मतिपूर्ण पर सहृदय संवाद लम्बे समय तक चला था). फिर यह साधारण तथ्य भी याद रखना चाहिए कि एक ऐसे पर्चे में जिसके द्वारा हम रविंद्रनाथ के शैक्षणिक कार्यों की और ध्यानाकृष्ट कर रहे थे, यह अपेक्षित ही था कि हम राष्ट्रगान पर उठाये गए व अन्य सवालों को जगह नहीं दे पाते. इसी मुद्दे से बुद्ध, ज्योतिबा आदि को नजरंदाज करने वाली आपत्ति का जवाब जुड़ा है. ऐसे व्यक्तित्व को शिक्षक दिवस के माध्यम से याद करना जोकि बेशक क्रन्तिकारी परिवर्तनों का नायक/प्रेरणास्रोत रहा हो हमारा उद्देश्य नहीं था जिसे श्रद्धेय मानने का खतरा हो व उसके अनुयायी हों. फिर हमारे तीनों उदाहरण जीवंत इतिहास से लिए गए थे और उनका आधुनिक, औपचारिक शिक्षा में व्यवस्थित, पेशागत योगदान था. सुझाये गए विकल्पों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता. हमें विशेष ध्यान था कि हम आज की शिक्षा प्रणाली के सन्दर्भ में बात कर रहें हैं- स्कूलों में प्रशिक्षित शिक्षिकों की विशिष्ठ परिस्थितियों, अनुभवों व भूमिकाओं के सापेक्ष. आज के अप्रशिक्षित पैरा-शिक्षकों के सन्दर्भ में यह महत्वपूर्ण है कि सावित्रीबाई और गिजुभाई दोनों प्रशिक्षित शिक्षक थे.
अंतिम प्रश्न अलग किस्म का है और यह मंच के ढांचे के स्वरुप को लेकर है. अपेक्षा की गई कि इसकी संगठनिक रचना पारंपरिक/प्रचलित प्रकार की होगी, जिसमे भिन्न जिम्मेदारियों का निर्वाह भिन्न पदों पर कार्यरत व्यक्ति कर रहें होंगे. इसके विपरीत हमने सायास इसे श्रेणीबद्ध-औपचारिक ढांचों से मुक्त रखने की कोशिश की है. हमारा मानना है कि राजनैतिक प्रयासों को व्यवस्थित, संगठित तो होना चाहिए पर साथ ही सहज भी. वैसे भी मित्रता से श्रेष्ठ संगठन कुछ नहीं. हाँ, काम को अंजाम देने के लिए विशिष्ठ जिम्मेदारियों को बाँटना तो होगा पर यह रूढ़िबद्ध न होकर लचीला रहे. अभी हम मात्र एक समन्वयक की भूमिका स्वीकार कर रहे है जोकि बैठकों, कार्ययोजना आदि को व्यवस्थित करने का दायित्व उठाएगा. पर इसे भी हम दीर्घकालीन या स्थायी न ठहराकर रोटेशन के आधार पर इस्तेमाल करने की सोच रहें है. इस योजना में लोकतंत्र से जुडी जिम्मेदारी की बराबरी की समझ व साझे प्रयास का अहसास का विस्वास निहित है. फिर यह उस परंपरा से बचने की कवायद भी है जिसमे पर्चों/पोस्टरों पर सन्देश/अपील से ज्यादा नहीं तो बराबर जगह उसे प्रचारित करने वाले निजी/व्यक्तिगत रूप से पाते हैं. यह मंच के दर्शन के विरुद्ध होगा कि हम अपनी बात का, अपने काम का महत्व पदों/व्यक्तियों के नामों के अनिवार्य साथ/आलोक में समझें/समझायें
लोक शिक्षक मंच