Monday, 26 March 2012

सावधान आगे खतरा है .......

सावधान! आगे खतरा है. . .
साथियों,
हम लोक शिक्षक मंच की ओर से आपका ध्यान एक बहुत ही गंभीर मुद्दे की ओर खींचना चाहते हैं। यह बात हमारे विद्यालयों, शिक्षकों व विद्यार्थियों की पहचान और अस्तित्व से संबंधित है। पिछले कुछ वर्षों से हमारे विद्यालयों में गैर-सरकारी संस्थाओं (एन.जी.ओ.) का हस्तक्षेप लगातार बढ़ता जा रहा है। ये संस्थाएँ हमारे विद्यालयों में हमारी मूक सहमति से ही अपने कुछ काम करती हैं। जैसे कि,कुछ विद्यार्थियों को पढ़ाना, बच्चों में पढ़ने की रुचि पैदा करने हेतु विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए कुछ पुस्तकें देना, कुछ गतिवविधियाँ कराना इत्यादि। चँूंकि हमारे पास अन्य गैर-शैक्षणिक काम होते हैं इसलिए हम उस समय में इन कामों को निपटा लेते हैं। किंतु कहानी उतनी सरल नहीं है जितनी कि हमने ऊपर बताई है। हमारे ऊपर लगातार गैर-शैक्षणिक कामों का बोझा लादा जा रहा है ताकि हम उन कार्यों में फंसे रहें और हमारा मूल कार्य शिक्षण हमसे छीनकर इन एन.जी.ओ. के द्वारा हजार-दो-हजार पर रखे गये गैर-प्रशिक्षित ‘वाॅलेंटियर्स’ को दे दिया जाये। हमारी जानकारी के अनुसार इन अतिरिक्त कक्षाओं में जो और जैसा पढ़ाया जा रहा है वह न सिर्फ वर्तमान पाठ्यचर्या-पाठ्यपुस्तकों व शिक्षा के प्रगतिशील दर्शन से मेल नहीं खाता वरन् उसके खिलाफ भी है।अप्रशिक्षित पढ़ाने वालों पर इसका दोष न डाला जा सकता है और न डालना चाहिए क्योंकि आज की आर्थिक-राजनैतिक परिस्थितियों में बेरोजगारी का दबाव इन्हें मात्र एक अंतिम कड़ी बनाये रखता है। परन्तु कटघरे में तो उस व्यवस्था को खड़ा करना है जो इनकी मजबूरी व श्रम को अपने निकृष्ट हितों के लिए इस्तेमाल कर रही है। कई निजी संस्थाएँ यह बात स्थापित करने की कोशिश कर रही हैं कि सरकारी विद्यालयों के शिक्षक कक्षाओं से गायब रहते हैं और उनकी शिक्षण में कोई रुचि नहीं है। यह बात ‘प्रथम’ एन.जी.ओ. ने अपनी रिपोर्ट (ीजजचरूध्ध्ूूूण्चतंजींउकमसीपण्वतहध्ंतजपबसमेऋतमचवतजेध्ंददनंसऋतमचवतजेण्चीच) में पेश की है कि एम.सी.डी. के विद्यालयों में शिक्षा के गिरते स्तर का कारण शिक्षकों का कक्षाओं से गायब रहना व शिक्षण कामों में रुचि न लेना है। इसके अतिरिक्त एन.जी.ओ. यह भी दावा करते हैं कि उनके द्वारा किए गए कार्य के परिणाम अप्रत्याशित हैं। इसके लिए आप चाहें तो केशुब महिन्द्रा ट्रस्ट के ‘नन्हीं कली’ प्रोजेक्ट की वेबसाइट (ीजजचरूध्ध्ूूूण्दंदीपांसपण्वतहध्दंदीपांसपध्ंइवनजऋदंदीपऋांसपण्ंेचग) देख सकते हैं। यहाँ पर उन्होंने लिखा है कि जिन बच्चों के साथ उन्होंने काम किया उनके परिणाम में 78 प्रतिशत की बेहतरी हुई। इसके अतिरिक्त बहुत से एन.जी.ओ. ये दावा भी करते हैं कि उनके काम करने के दौरान विद्यालयों में बच्चों के ठहराव व प्रवेश में वृद्धि हुई है। प्रश्न ये हैं- अगर अप्रशिक्षित, कम वेतन पाने वाले ‘शिक्षक’ तथाकथित कमज़ोर छात्रों के साथ इतना श्रेष्ठ काम कर सकते हैं तो फिर तथाकथित प्रतिभाशाली छात्रों के साथ ये कितना बेहतर काम कर पायेंगे; फिर प्रशिक्षण का औचित्य ही क्या है और; इनकी या इन जैसे ‘शिक्षकों’ की सेवाएँ केन्द्रीय विद्यालयों व ‘प्रतिष्ठित’ निजी विद्यालयों में पढ़ने वाले प्रभुत्वसम्पन्न वर्गों के बच्चों के लिए क्यों न ली जायें? अर्थात् अपने बच्चों के लिए तो शिक्षित, प्रशिक्षित शिक्षक, और वंचित वर्ग के बच्चों के लिए कम शिक्षित, अप्रशिक्षित शिक्षक!
यह बात आपत्तिजनक है कि ‘नन्हीं कली’ प्रोजेक्ट की छात्राओं को ये एन.जी.ओ. किसी तीसरे ही व्यक्ति को (2400 रूपये के दान के एवज में) सौंपकर उन्हें उनका तथाकथित अभिभावक बना रहे हैं। इसकी अनुमति न तो वे बच्चों से ले रहे हैं, न ही बच्चों के माता-पिता से। जिन विद्यार्थियों की शिक्षा की जिम्मेदारी स्वयं सरकार ने उठाई हो उसे कैसे कोई व्यक्ति ‘गोद’ ले सकता है? निःसन्देह किसी भी सरकारी स्कूल के नियमित, प्रशिक्षित व शिक्षित शिक्षक अपने विद्यार्थियों के शैक्षिक, नैतिक व अन्य हितों के प्रति किसी भी निजी संस्था से अधिक जानकार व जवाबदेह हैं। जहाँ तक हमें ज्ञात है,‘नन्हीं कली’ योजना के तहत छात्राओं की कई निजी जानकारियाँ (फोटो, परिवार, बायोडाटा आदि) संस्था द्वारा दर्ज की गई हैं। संस्था निजी दानदाताओं को आमंत्रित करती है कि वो किसी ‘नन्हीं कली’ की देख-रेख व ‘विकास’ के लिए निश्चित राशि उपलब्ध कराएँ व उन्हें सबूत के तौर पर समय-समय पर ‘उनकी नन्हीं कली’ के बारे में रिपोर्ट भेजती है। स्पष्ट है कि यह पारदर्शिता व निजता का घोर उल्लंघन है और विद्यालयों में पढ़ने वाली छात्राओं व उनके परिवारों के स्वाभिमान पर कुठाराघात है। हमारा विश्वास है कि सर्वप्रथम तो अभिभावकों को बताया ही नहीं गया है कि उनकी बेटी किसी अन्य के दान के सहारे से ‘गोद’ ली जा चुकी, किसी और की ‘नन्हीं कली’ है। दूसरे, अगर अपवादस्वरूप कुछ अभिभावक परिस्थितिवश इसे स्वीकार भी कर लें, फिर भी इस नैतिक रूप से क्षुद्र प्रक्रिया में सरकार ‘मध्यस्थ’ क्यों बने?
आइए इस बात पर विचार करें कि ऐसी संस्थाएँ अगर यही कार्य सीधे अपने स्तर पर लोगों के बीच जाकर करें तो उनके फायदे-नुकसान का हिसाब क्या बैठेगा। इसके लिए सर्वप्रथम तो इन्हें गली-मौहल्लों की खाक छानकर विश्वास अर्जित करने की कोशिश करनी होगी जिसके परिणाम अनिश्चितता से भरे होंगे। इसमें समय व ऊर्जा लगाने से लेकर पैसे का भी अच्छा खासा व्यय होगा। दूसरे, अगर कहीं कुछ लोग इनकी बातों को मान भी लंे तो फिर इन्हें अपना केन्द्र चलाने के लिए किसी जगह की आवश्यकता होगी। दिल्ली जैसे महँगे शहर में इनके केन्द्र या कार्यस्थल को चलाने के लिए जितने कमरों की आवश्यकता होगी उनके किराये का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है! इसी प्रकार वहाँ पर बिजली, पानी, शौचालय, सुरक्षा आदि सुविधाओं पर होने वाले खर्चों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। परन्तु हमारा सरकारी तंत्र इनको सारी सुविधाएँं व अपने एजेंडे को सिद्ध करने के लिए ‘बंधक’ बच्चे प्रदान कर उन्हें उपर्युक्त सभी चिंताओं और बोझ से मुक्ति दिलाकर इनकी पीठ ठोक रहा है।
ऐसी स्थिति आखिर आई क्यों है? ऐसी स्थिति आने का एक बड़ा कारण हमारी सक्रिय निष्क्रियता है। हम इन रोजमर्रा के तकनीकी- गैर-शैक्षणिक कामों को करने से मना नहीं करते हैं। इसका हम संगठन के स्तर पर भी विरोध नहीं कर रहे हैं। हम अपने विद्यालयों में एन.जी.ओ. के प्रवेश पर अपना विरोध दर्ज नहीं कर रहे हैं। यदि हम इसी तरह चुपचाप देखते रहे तो एक दिन सरकारें इन्हीं एन.जी.ओ. के हाथों इन विद्यालयों को सौंप देंगी। ( निजामुद्दीन के निगम विद्यालय के संदर्भ में आगा खां फाउंडेशन का उदाहरण दृष्टव्य है।) आज यह हस्तक्षेप विद्यालयों को ही कब्जे में ले लेने के लिए बेचैन है। सरकारी स्कूलों के लिए जमीन मुहैया कराने का काम गाँव की पंचायतों व सभाओं ने किया और उन्होंने यह काम निःस्वार्थ एवं सामुदायिक भाव से अपने बच्चों को घर के नजदीक बेहतर शिक्षा देने के लिए किया था और इस प्रकार उन्होंने शिक्षा के सार्वजनीकरण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। ये एन.जी.ओ. बच्चों को सुविधा देने व शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के नाम पर विद्यालयों की संरचना और व्यवस्था को ही कब्जे में ले लेने को आतुर हैं। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनका उद्देश्य करोड़ों रुपये की जमीन हथिया कर शिक्षा को भी मुनाफा कमाने के साधन में बदल देने का हो। यह पिछले दो दशकों से चल रहे सार्वजनिक और संवैधानिक जवाबदेही के प्रति सरकारी शिथिलता व पलायन का एक और कुरूप उदाहरण है। यह दुःखद व खतरनाक है कि सरकारी व्यवस्था की बागडोर अधिकतर ऐसी ताकतों के पास है जिनकी न सिर्फ न्याय की समझ कमजोर है अपितु नीयत भी संदेहास्पद है। सरकारी विभाग लोगों के प्रति अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी से मुख्यतः दो तरह से पीछा छुड़ा रहे हैं- एक तो सार्वजनिक उपक्रमों को सीधे बेचकर और दूसरे निजी शक्तियों की सार्वजनिक इकाइयों में शातिराना घुसपैठ कराके। गणतंत्र में लोग सरकारों से गरिमापूर्ण व अधिकारवश अपने हकों की माँग करने का अभिमान रखते हैं। लोगों को अपनी सरकारों से अपने संवैधानिक अधिकार चाहिये, मुनाफे का पुण्य और पुण्य का मुनाफा कमाने वाली निजी शक्तियों और अजनबी व्यक्तियों की खैरात नहीं। रोटी तो सामंती व्यवस्था में भी मिल जाती थी। गणतंत्र का वादा व मान तो आत्सम्मान की रोजी-रोटी का है।
इसका समाधान विद्यालयों में उपयुक्त संख्या में प्रशिक्षित व नियमित शिक्षकों की तैनाती के साथ निश्चित प्रकार के व निश्चित संख्या में नियमित गैर-अकादमिक प्रभारियों की नियुक्ति है व शिक्षकों को अशैक्षणिक कार्यों से पूर्णतः मुक्त करना है। इसके उलट हो यह रहा है कि नए-नए अशैक्षणिक कार्यों की जिम्मेदारी शिक्षकों पर डाली जा रही है- जैसे बिजली, पानी की व्यवस्था! ऐसे में जब अप्रशिक्षित, मामूली वेतन पाने वाले लोग विद्यार्थियों को ‘पढ़ा’ रहे हों और प्रशिक्षित शिक्षक सब तरह के लिपकीय व गैर-शैक्षणिक कार्य ही कर रहे हों, अन्ततः नुकसान विद्यार्थियों का ही होगा, वो भी उन वर्गों का जिनको शिक्षा का अधिकार का झुनझुना पकड़ा कर बहलाया जा रहा है।
हम आपसे अपील करते हैं कि एन.जी.ओ. द्वारा की जा रही इस तरह की कब्जेदारी की कोशिश का संगठित होकर  विरोध करें। साथ-ही-साथ हम यह माँग भी करें कि विद्यालयांे में उपयुक्त संख्या मंे प्रशिक्षित एवं नियमित शिक्षकों की तथा गैर-शैक्षणिक कार्यों के लिए अन्य नियमित कर्मचारियों की नियुक्ति की जाये जिससे कि शिक्षा का अधिकार एक निरर्थक औपचारिकता व कोरी धोखाधड़ी होकर न रह जाये।

शिकार पर निकला है भेडि़या
भूगोल के अंधेरे हिस्सों में
भेड़ की खाल ओढ़े
जागते रहो, सोने वालो
भेडि़ये से बच्चों को बचाओ।
-गोरख पाण्डेय