Saturday, 17 August 2013

शिक्षक डायरी- यौन शिक्षा का सवाल

 
                                                                                                            कमलेश मेहरोल

यौन शिक्षा स्कूलों में होना चाहिए कि नहीं ? इस बात पर काफी बहस है। मैं दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में पढ़ी हूं। मुझे याद है कि विज्ञान के एक अध्याय को टीचर घर से पढ़कर आने के लिए कहती थी, उसमें बालक - बालिकाओं में होने वाले शारीरिक परिवर्तन, हारमोंस परिवर्तन, माहवारी जैसी बातों का जिक्र रहता था। हम सब उसे खुद से पढ़कर आ जाते थे और आपस में कानाफूसी कर लेते थे। टीचर उस अध्याय को छोड़कर आगे बढ़ जाती थी और फिर उस अध्याय के बारे में कोई बात नहीं होती थी। हमारी बहूत सारी जिज्ञासाएं रहती थीं जिसे हम पूछने में झिझकते थे, हम आपस में ही आधी-अधूरी जानकारी बांट लेते थे। मुझे याद है कि जब हम पांचवी में थे तो हमारी टीचर हमसे स्टेफ्री का पैकेट मंगवाती थी, शायद उन्हें खुद से लेने में शर्म आती थी। हम बहुत सारी जिज्ञासाए लेकर बड़े हुए, जैसे बच्चे कैसे पैदा होते हैं ? बच्चे स्त्री से ही क्यों पैदा होते है? हमें खास उम्र में हर महीने माहवारी क्यों होती है? ऐसा लड़को को नही क्यों होता है? माहवारी के दिनों में हमसे भेदभाव क्यों किया जाता है? जैसे ही हम बड़े होते है तो हमारा घर से निकलना बंद हो जाता है जबकि वही लडको पर इस तरह की कोई बंदिशे नहीं लगाई जातीं। इन्हीं सारी तमाम बातों के बीच मैं बड़ी हुई। घर में कभी इन बातों को पूछने की हिम्मत नहीं हुई और स्कूल में शिक्षिकाओं ने ऐसा भरोसा पैदा नहीं किया कि कभी उनसे खुलकर कुछ पूछ पाते। आज मैं भी एक शिक्षिका हूं और स्थिति कमोबेश वही है। पिछले साल मेरे स्कूल की एक छात्रा ने अपनी बोर्ड की परीक्षाओं के दौरान आत्महत्या कर ली थी, वजह पता चला कि वह तीन महीने की गर्भवती थी। जाहिर है समाज के भय से उसने यह कदम उठाया था। वही पढ़ाई के दौरान एक छात्रा का गर्भपात हुआ। इस तरह के असुरक्षित यौन संबंधो से अनचाहे गर्भ की संभावना बढ़ जाती है और खामियाजा शारीरिक और मानसिक तौर पर हमेशा लड़कियों को ही भुगतना पड़ता है। समाज उसे ही दोषी ठहराता है, उसकी पढ़ाई छुड़वा दी जाती है, उसे हेय दृष्टि से देखा जाने लगता है। माता - पिता से भी उसे किसी तरह का भावनात्मक सहयोग नहीं मिलता है। किशोरावस्था में स्त्री-पुरूष आकर्षण सहज है। अगर समाज में इसे सहज रूप से लिया जाए और स्वस्थ तरीके से जानकारी का आदान - प्रदान किया जाए, तो शायद इस तरह की घटनाएं कम घटेंगी। मैंने देखा कि मेरे स्कूल की लड़कियां आठवें पीरियड में संजने संवरने लगती हैं। वे घर से छुपाकर मेकअप का सामान ले आती हैं। बाहर लड़के उनका इंतजार करते हैं। वे छुपाकर मोबाइल लाती हैं और अलग-अलग सिम रखती हैं। स्कूल के प्रसाधन कक्ष में जाकर बारी -बारी से फोन का इस्तेमाल करती हैं। मुझे नहीं पता वे किससे और क्या बात करती हैं पर स्कूल की शिक्षिकाओं में यह आम धारणा व्याप्त है कि वे अपने ब्यायफ्रैंड से बात करती हैं। किशोरावस्था का आकर्षण आवश्यक नहीं कि प्रेम ही हो, पर जब कोई लड़का किसी लड़की के लिए अपनी कलाई काट ले तो लड़की यही समझ बैठती है कि वही उसका सच्चा प्रेमी है। समय की गति के साथ पसंदगी का दायरा बदलता रहता है। हाल ही में आई फिल्म ’रांझना’ में ऐसा ही कुछ देखने को मिला जिसमें नायिका जब स्कूल की छात्रा होती है, नायक द्धारा कलाई काट लिए जाने पर उस पर मर मिटती है। यह बात जब उसके प्रोफेसर पिता को पता चलती है तो वह उसे पढ़ने के लिए शहर से बाहर भेज देता है। नायिका समय के साथ उसके लिए कलाई काटने वाले लड़के को भूल जाती है और उसका प्रेम विस्तार पाकर नया प्रेमी चुनता है। हालांकि कई बार किशोरावस्था का प्रेम सारी उम्र का प्रेम भी बना रह सकता है। पर अहम सवाल यह है कि हमें चुनाव की आजादी कहां है? हमारे यहां स्त्री-पुरूष सदैव एक दूसरे के लिए रहस्य का विषय बने रहते हैं। इस रहस्य को जानने के लिए हमारी युवा पीढ़ी अश्लील वीडियो, पत्रिकाएं आदि का सहारा लेती हैं। इन साधनों से प्राप्त जानकारी सदैव उनके लिए घातक सिद्ध होती है। स्कूल की दीवारों पर, सार्वजनिक स्थलों, ट्रेन, बस इत्यादि स्थलों पर उकेरे गए अश्लील चित्रों और कथनों का क्या मतलब निकाला जाए? क्या ये दमित कामभावना का परिणाम नहीं है? घर, स्कूल व इससे बाहर की दुनियां में यौन विषय पर स्वस्थ तरीके से बात नहीं होती है, क्यों? मुझे इस विषय पर विचारक ओशो की बात शत-प्रतिशत सही लगती है कि बालक-बालिकाओं के साथ हमें यौन को लेकर स्वस्थ और उचित तरीके से बातचीत करनी चाहिए। हम उन पर जितना रोक लगाएंगे, वे उतना ही हमारे खिलाफ जाकर गलत तरीके से अपने मन की जुगुप्सा को शांत करने का प्रयास करेंगे।

(लोक शिक्षक मंच ब्लॉग के लिए शिक्षक साथियों को अपने विद्यालयी अनुभव साझा करने को आमंत्रित करता है। यह आवश्यक नहीं है कि इस लेख में दर्ज विचारों से मंच की सहमति हो।)


Thursday, 15 August 2013

खबरों से: पीपीपी की भेंट चढ़ता गरीब बच्चों का भविष्य

पंजाब के गरीब बच्चों को बेहतर शिक्षा की सुविधा मुहैया करवाने की तत्कालीन सरकार की कोशिशे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी है। बादल ड्रीम के नाम से शुरू किए गए आदर्श स्कूलों में 24 में से 10 स्कूल योजना के आरंभ होने के कुछ दिन बाद ही बंद कर दिए गए और 12 बंद होने की कगार पर है। जो स्कूल अभी चल रहें है उनमें आधारभूत सुविधाएं नदारद है। प्रदेश की शिरोमणी अकाली दल और भाजपा गठबंधन की सरकार ने पंजाब शिक्षा विकास बोर्ड के तहत इन आदर्श स्कूलों की स्थापना की थी। यहां निजी भागीदार भारती एंटरप्राइजेज है। इसके सीइओ का कहना है कि सराकरी शिक्षा व्यवस्था में बड़ी खामियां है इसलिए पीपीपी स्कूल ही देश का भविष्य है। पंजाब के ये स्कूल पब्लिक-प्राइवेट साझोदारी (पीपीपी) के तहत शुरू किए गए। प्रदेश शिक्षा विभाग ने प्रति छात्र 1680 रू प्रति माह ओपरेटिंग कॉस्ट तय की थी, जिसे सरकार और निजी निवेशेकों के बीच 70 और 30 के अनुपात में व्यय किया जाना था और इन स्कूलों के लिए जमीने पंचायत से 99 वर्ष के लीज पर ली गई। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी में पाया गया की पंचायतों के साथ सरकार ने विश्वासघात करते हुए जमीनों के मालिकाने के साथ स्कूल भी निजी हाथों में सौंप दिए। बच्चों की शिक्षा के लिए मिला फंड भी डकार गए। ये स्कूल गरीब बच्चों को मुफ्त व बेहतर शिक्षा देने के लिए खोले गए थे जबकि आडिट के दौरान पाया गया कि यहां बच्चों से ऊँची फीस वसूली गई। जो स्कूल बंद कर दिए गए वहां से तमाम जरूरी जानकारियां और स्कूली संपत्ति जैसे की बसें और फर्नीचर गायब पाए गए। बच्चों के भविष्य के साथ जो खिलवाड़ हुआ वो तो हुआ ही साथ ही शिक्षको  और गैर शिक्षकीय विभाग का भी शोषण किया गया, उन्हें मैंनेजमेंट के तहत खोले गए दूसरे पोलिटेक्निक कॉलेजों के प्रचार प्रसार में लगाया गया, उनके वेतन में कटौती की गई। जिन अध्यापकों ने बगावत की उन्हें निकाल दिया गया। तो यह हाल है इन आदर्श स्कूलों का, न मालूम ये कौन से आदर्श स्थापित कर रहें है? इन स्कूलों की स्थापना पब्लिक -प्राइवेट साझोदारी के तहत ग्रामीण बच्चों को मुफ्त व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने की लिए की गई थी पर इसकी परिणति आपके सामने हैं। पंजाब ही नहीं दूसरे राज्यों में भी इस तरह के प्रयोग किए जा रहें है और बच्चों के भविष्य पर दाव लगाया जा रहा है, सारे प्रयोग इन गरीब व सामाजिक रूप से पिछड़े बच्चों पर ही क्यों किए जाते है? स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग, भारत सरकार क़ी देश में पीपीपी माडल के तहत 2500 स्कूल सन 2015-16 तक खोलने की योजना है। पीपीपी की संकल्पना ऊपर से देखने पर बड़ी भली लगती है और सरकार ने इसकी संकल्पना भी बड़ी खूबसूरती से पेश की है पर असलियत यह है कि शिक्षा को निजी हाथों में पूरी तरह से सौंप दिए जाने की मंशा है। हमारे देश के कानून में शिक्षा को लाभ से दूर रखने की बात कही गई है पर हो कुछ और ही हो रहा है। वैसे सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों का चलन तो पहले से ही है पर मॉडल स्कूलों में नई बात यह होगी की निजी संस्थाओं को स्कूली जमीन का अपने दूसरे उह्नेश्यों जैसे की वोकेशनल ट्रेनिंग व दूसरी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल करने की छूट रहेगी। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके प्रावधानों में कहा गया है कि 40 प्रतिशत सीटें गरीब बच्चों के लिए होंगी और 60 प्रतिशत सीटें निजी भागीदार तय करेगी। उन 40 प्रतिशत बच्चों को निशुल्क शिक्षा दी जाएगी और बाकी बच्चों की फीस निजी भागीदार तय करेगी तो क्या हम यह अंदाजा नहीं लगा सकते जैसा कि देश के प्रमुख शिक्षाविद कह रहे हैं कि इससे निजीकरण और व्यवसायीकरण को बढ़ावा मिलेगा।
इससे सम्बंधित खबरों के लिए क्लिक करें

Wednesday, 14 August 2013

स्कूलों में दाखिले की प्रक्रिया: कुछ विचार और अपील

 RTE कानून को न्याय व समता के धरातल पर उचित नहीं ठहराया जा सकता - न इसमें सभी बच्चों के लिए बराबरी की बात है और न ही पर्याप्त स्तर की ( दोनों के लिए समान स्कूल व्यवस्था एक ज़रूरी शर्त है ) - मगर इस कानून के अनुसार 6 से 14 साल के सभी बच्चों को स्कूलों में प्रवेश का अधिकार मिला है और जब तक हम कानून को बदलवाने में कामयाब नहीं हो जाते तब तक हमें या तो सविनय अवज्ञा कर अपना बलिदानी विरोध दर्ज करना चाहिए या इसके दायरे में रहकर घोषित संघर्ष करना चाहिए। वैसे, इस कानून से पूर्व ही दिल्ली नगर निगम ने श्रेष्ठ पहल करते हुए अपने स्कूलों में शिक्षा निशुल्क और प्रवेश प्रक्रिया सुलभ कर दी थी। इसके बावजूद कि निगम के अधिकतर स्कूलों में प्रवेश नियमानुसार व न्यायोचित ढंग से दिया जा रहा हो, यह संभव है कि कुछ जगहों पर जानकारी के आभाव में या ग़लत राजनैतिक समझ के कारण कुछ अनदेखी भी हो रही हो। क्योंकि एक भी बच्चे के साथ कानून व न्याय विरुद्ध बरताव, वो भी स्कूलों में, नहीं होना चाहिए इसलिए यहाँ कुछ बिन्दुओं पर एक समझ व्यक्त की जा रही है। 


1. सिवाय बच्चे की 2 फोटो के, कोई दस्तावेज़ प्रवेश के लिए अनिवार्य नहीं है। ( हमें तो इस स्थिति को भी चुनौती देनी चाहिए क्योंकि इससे एक तरह का शुल्क लागू होता है। ) अगर अभिभावक के पास जन्म-तिथि का कोई प्रमाण नहीं है तो हमें उनके द्वारा बतलाई गई तारीख को ही दर्ज कर लेना है। - इसका सीधा सा नैतिक-सैद्धांतिक आधार ये है कि माता-पिता की मजबूर परिस्थितयों या कोताही का और व्यवस्था की असुलभता की कीमत बच्चों के अधिकारों का हनन करके नहीं वसूली जानी चाहिए क्योंकि ये तो अत्याचार-अन्याय की मार को दोहरा करके वंचित को ही उसके हालात की सजा देना होगा।  वैसे, यह भी सच है कि जब वो यह बताने में भी असमर्थ होते हैं तो कुछ शिक्षक ही कभी उनकी बताई हुई जानकारी की मदद से और कभी अपने से ही एक तारीख लिख लेते हैं। इसमें कोई नैतिक बुराई इसलिए नहीं है क्योंकि शुद्ध शैक्षिक दृष्टि से इस बात का कोई महत्त्व नहीं है कि अमुक विद्यार्थी 10 जून 2008 को पैदा हुई थी कि 28 नवम्बर 2008 को। हाँ, इतना ज़रूर है कि एक कक्षा में एक सी उम्र के बच्चों के होने की शर्त के कारण दर्ज आयु का अंतर वास्तविक आयु से 1-2 साल से अधिक का नहीं होना चाहिए। उत्तम तो यह होगा कि माता-पिता के सटीक तारीख न बताने की स्थिति में स्कूलों को यह दर्ज करने का अधिकार और ज़िम्मेदारी मिले कि अमुक बच्चा इतनी उम्र का लग रहा था। ऐसे में उक्त बच्चों का वज़न और लम्बाई नोट की जा सकती है- प्रमाण के रूप में नहीं, बल्कि रिकॉर्ड के रूप में।  

2. निवास-स्थान का कोई सबूत अनिवार्य नहीं है। इस कानून ने तो पड़ोसी स्कूल पर आधारित समान स्कूल व्यवस्था  स्थापित नहीं की है, तो जब हम निजी स्कूल में प्रवेश के लिए पड़ोस के अंक दे रहे हैं, पड़ोस से बाँध नहीं रहे, तो फिर सरकारी स्कूल में प्रवेश लेने वाले बच्चों पर तो यह अतिरिक्त शर्त नैतिक रूप से भी नहीं लगाई जा सकती। हाँ, यहाँ भी कोशिश होनी चाहिए कि पूछ कर पूरा और असल पता लिखा जाये ताकि कभी वहाँ जाने की ज़रूरत पड़े तो समस्या न आये। 

3. किसी भी प्रकार की प्रवेश परीक्षा प्रतिबंधित है। दाखिला उम्र के हिसाब से देना है, बच्चे का पूर्व शैक्षणिक स्तर देखे बग़ैर।  अर्थात, 10 साल की उस लड़की को जिसने पहले कुछ न पढ़ा हो दाखिला उसकी उम्र के हिसाब से चौथी या पाँचवी में ही देना है। उम्र बीते 31 मार्च तक की मानी जाएगी। एक अन्तर्विरोध यह है कि जहाँ कानून 6 साल की बात करता है, दिल्ली में पहली कक्षा में प्रवेश 5 साल पर मिलता है।( वैसे, 6 साल अधिक उचित उम्र है।) यह सच है कि कानून में इसका ज़िक्र है कि सरकार-निकाय इसकी व्यवस्था करेंगे कि ऐसे बच्चों को bridge course कराकर उन्हें उनकी कक्षा के स्तर तक लाया जाए पर ऐसा इन्तजाम कहीं नहीं है - सिवाय वहाँ जहाँ कुछ NGOs को इसकी मार्फ़त बच्चों के अधिकार और राज्य-व्यवस्था को और ध्वस्त करने की कीमत पर फायदा पहुँचाया जा रहा है। आलोचक यह भी कहते हैं कि ऐसी व्यवस्था करना कपोल-कल्पित है और कहीं यह संभव नहीं हुआ है कि आप 2-3 महीनों के bridge course से किसी की 2-3-4 साल की ईमानदाराना भरपाई करा दें। फिर भी, वर्तमान कानून तो यही है और क्योंकि सरकार ने स्वयं अनिवार्य प्रोन्नति ( no detention ) का प्रावधान कानून में दिया है इसलिए अगर ऐसे बच्चे बिना उपयुक्त तैयारी के अगली कक्षा में जा रहे हैं तो इसकी नैतिक ज़िम्मेदारी या कमी शिक्षकों की नहीं होगी। हाँ, उन विद्यार्थियों की ज़िम्मेदारी ज़रूर है जो आरंभ से उनके पास पढ़ रहे हैं। मगर अगर शिक्षक ऐसे और सभी बच्चों की वास्तविक स्थिति अपने दस्तावेजों में दिखाएँगे तभी तो कानून, नीति व व्यवस्था का पर्दाफाश होगा। अन्यथा, मात्र कुंठित आलोचना करने से, जबकि आपके अपने हाथों से तैयार व प्रमाणित रिकॉर्ड उसी नीति की सफलता का डंका पीट रहे हैं, खिसियाहट और आत्मघात के सिवाय कुछ न मिलेगा।    

4. दाखिला साल भर देना है। इस सन्दर्भ में कानून कहता है कि जिन बच्चों को प्रवेश निकाय द्वारा निर्धारित तय तारीख के बाद दिया जाएगा, उनको अगली कक्षा में प्रोन्नत करने के लिए क्या प्रक्रिया अपनानी है यह फैसला उक्त निकाय करेगा। अभी तक तो निगम ने ऐसे कोई दिशा-निर्देश जारी नहीं किये हैं कि जिसका दाखिला जनवरी में हो उसे 2 महीनों बाद अगली कक्षा में भेजना है या कोई वैकल्पिक बंदोबस्त करना है। पर यहाँ भी जबतक सरकार सीधे मना नहीं करती या फिर कोई निर्देश नहीं देती, साल भर दाखिला पाना बच्चों का अधिकार है - चाहे आप इससे सहमत न हों या फिर इसे एक धोखा मात्र मानें। ऐसे बच्चों के भी कम तैयारी के साथ अगली कक्षा में जाने को लेकर शिक्षकों को परेशान होने की ज़रूरत नहीं क्योंकि उम्र के हिसाब से प्रवेश और no detention तो है ही व इसकी ज़िम्मेदारी इस कानून की है।  
सीमित जानकारी बताती है कि कई स्कूलों में admission incharge व principal ने बहुत ही न्यायसम्मत और जनसुलभ प्रवेश प्रक्रिया अपनाई है। ज़रूरत यह है कि हम अपने स्वयं के योग्य उदाहरण व उपरोक्त बिन्दुओं से अन्यों को भी परिचित कराएँ और सभी सरकारी स्कूलों में प्रवेश-प्रक्रिया का ऐसा माहौल बनायें कि लोग हम व हमारे स्कूलों पर और अधिक विश्वास-प्रेम जताएँ। इस तरह हम सरकारी स्कूलों को जन-स्कूलों के रूप में उनकी असल व आदर्श पहचान दिलाने की ओर एक क़दम उठा पाएँगे। वर्ना, मुंबई महानगरपालिका के सभी 1174 स्कूलों की तरह जिन्हें PPP की वेदि पर NGOs, corporate घरानों और धार्मिक संगठनों को सौंपने का निर्णय लिया गया है या उत्तरी दिल्ली नगर निगम के 30 super/model स्कूलों की तरह जिन्हें NGO की मदद के बहाने एक नई योजना का जामा पहनाकर भेदभाव बढ़ाने तथा संवैधानिक कर्तव्य से पल्ला झाड़ने की ज़मीन तैयार की जा रही है और या फिर दक्षिणी दिल्ली नगर निगम के उन 50 स्कूलों की तरह जिन्हें 'दानदाताओं' ( corporate NGOs, अन्य निजी संस्थाएँ ) को 'गोद' देने तक का बेहूदा व शर्मनाक फैसला लिया गया है, एक दिन वो भी होगा जब लोगों को यह समझने में दिक्क़त आएगी कि कैसे उनकी स्कूली व्यवस्था को मुनाफाखोरों के हवाले करके शिक्षा को सुधारा नहीं बरबाद किया जा रहा है। और आपकी त्रासदी होगी कि आप सबका रोना अकेले रोयें और सबकी लड़ाई निज की कमजोरी से लड़ें।         

मिड-डे-मील योजना: कुछ अनुभव और विचार


मिड-डे-मील योजना के संदर्भ में, हाल ही में घटित 23 विद्यार्थियों की मौत के मद्देनज़र, निम्नलिखित बातें ग़ौरतलब हैं।

1 . मूल रूप से योजना के उद्देश्य - जिनमें सभी बच्चों को पौष्टिक तत्वों से युक्त भोजन उपलब्ध कराना, स्कूलों में पढ़ाई के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ तैयार करके बच्चों के दाखिले व शिक्षा के स्तर को बढ़ाना तथा बराबरी के भाव का विस्तार करना शामिल हैं - बेहद महत्वपूर्ण हैं।
2 . बिस्कुट, ब्रेड आदि के विकल्पों से न सिर्फ पका भोजन श्रेष्ठ है बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार भी अनिवार्य है।  वैसे भी, पैक्ड खाने के व्यापारिक घरानों द्वारा सरकार पर नीति बदलने के दबाव डालने की ख़बरें आती रही हैं। हाँ, भोजन में फलों और, तमिलनाडु की तरह, अण्डों को ( विकल्प  साथ ) सम्मिलित किया जाए तो बेहतर होगा। 

3 . बच्चों की पसंद-नापसंद को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। एक उदाहरण के तौर पर, दिल्ली के एक निगम प्राथमिक स्कूल में 1000 से ज्यादा बच्चों से पूछ कर जमा की गई जानकारी के अनुसार 42% ने पूड़ी-सब्जी को सबसे अधिक पसंद किया और 61% ने हलवा-चना सबसे नापसंद बताया। वैसे, यह सच है कि मिड-डे-मील में बच्चों के स्वाद के मुकाबले पौष्टिकता को कितना महत्त्व दिया जाए, यह कोई सरल निर्णय नहीं है। फिर भी, अगर भरपूर पौष्टिक भोजन बच्चों को इतना कम रास आ रहा है कि वो खा ही नहीं रहे तो ऐसे में विकल्पों को तलाशने की गुंजाइश होनी चाहिए। 

4 . शिक्षकों का एक बड़ा वर्ग यह महसूस करता है कि इस योजना के कारण स्कूलों में पढ़ाई पर नकारात्मक असर पड़ा है। इसको साबित करने के लिए कोई ठोस जाँच या अध्ययन नज़र नहीं आते पर यह समझ में आता है कि खासतौर से वहाँ जहाँ खाना स्कूलों में ही पकता है और इसके लिए पहले-से ही कम संख्या में नियुक्त शिक्षकों में से कुछ को इसकी ज़िम्मेदारी निभानी है, वहाँ यह निश्चित है कि पढ़ाई के लिए उपलब्ध समय व ऊर्जा में कमी ज़रूर आएगी। फिर हमारे कई स्कूलों में वो आधारभूत संरचनाएँ नहीं हैं जिनकी आवश्यकता इस योजना के उत्तम व सुचारू निर्वाह के लिए है। ऐसे में दुर्घटना होने की सम्भावना अपने-आप बढ़ जाती है। दूसरी तरफ, वो क्षेत्र हैं जहाँ खाना किसी NGO को दिए गए ठेके के तहत किसी केन्द्रीय किचन में पकता है और गाड़ियों से स्कूलों तक पहुँचाया जाता है। दिल्ली में यही स्थिति है और नियमित जाँचों में 80-90 % सैंपल मानकों पर खरे नहीं उतरने के बावजूद कार्रवाई NGOs के खिलाफ नहीं बल्कि शिक्षकों के विरुद्ध होती है। यह भी त्रासद, विडम्बनापूर्ण और महत्वपूर्ण है कि जो भोजन मानक पर ठीक नहीं उतर रहा उसे स्कूलों के 90 % बच्चे नियमित रूप से खा रहे हैं। ( उपरोक्त आँकड़ा, और व्यापक अनुभव भी, यही बताता है कि जहाँ 10-20 % बच्चे खाना नहीं लेते, फिर भी स्कूलों पर यह दबाव बनाया जाता है कि वो सत्यापित करें कि सभी ने खाना लिया - जोकि साफतौर से असंभव है - ताकि NGOs को अधिकाधिक लाभ पहुँचे। )माता-पिता की सामान्य आलोचनाओं की जो खबरें मीडिया में आती रहती हैं उन्हें भी हमारे उस अनुभव के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा कि खाने की गुणवत्ता में, स्कूलों की बहुपरती व्यवस्था के अनुरूप, बहुत अंतर हैं -कहीं श्रेष्ठ, कहीं साधारण और कहीं ख़राब !  

5 . आंगनवाड़ी और आशा कार्यक्रम की ही तरह इस योजना में भी औरतों को न्यूनतम से भी कम 'वेतन' पर, अनियमित व बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के, काम पर रखकर सरकार के जिम्मे वाले दायित्वों को अंजाम दिया जा रहा है और वाहवाही लूटने तक की कोशिश हो रही है। खाना पकाने और बाँटने के काम औरतों द्वारा अपमानित व शोषित किये जाने वाले मानदेय पर कराये जा रहे हैं। हालत यह है कि कहीं मात्र 400 रुपये माह पर खाना परोसने का काम दिल्ली में लिया जा रहा है और निगम जैसे निकाय, नवउदारवादी नीतियों की ठेके प्रणाली की बदौलत भी, यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि स्कूलों में खाना परोसने वालों की संख्या और उनके मानदेय दोनों को तय करना NGOs के दायरे में है और निगम को इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। ( RTI से प्राप्त जानकारी ) जब नागरिकों के अधिकारों तक को मुहैया कराने के लिए श्रमिकों को असुरक्षित-शोषित करने वाली व्यवस्था खड़ी की जाएगी तो परिणाम समाज के हित में नहीं होंगे। 

6 . उपरोक्त बिन्दुओं के प्रकाश में इस योजना के लिए पूर्णकालिक, ग़ैर-शैक्षणिक कर्मियों को नियुक्त करना नितांत आवश्यक है। साथ ही, स्थानीय और निकायों/सरकारों के स्तर पर ऐसी नियमित, गंभीर जाँच प्रक्रिया अपनाने की ज़रूरत है जिसके परिणामों पर ठोस क़दम उठाये जाएँ व अधिकारियों की ज़िम्मेदारी तय की जाए। 

7 . अंततः इस मुद्दे पर भी समान स्कूल व्यवस्था के न होने को एक महत्वपूर्ण कारक माना जाएगा क्योंकि इसकी अनुपस्थिति में न सिर्फ मेहनतकशों-शोषितों के लिए दोयम दर्जे की भोजन व्यवस्था जारी रखने की सम्भावना बढ़ेगी बल्कि स्थानीय स्तर पर इसके निर्धारित मानकों की जाँच-निगरानी भी नहीं हो पाएगी। 
इस आपराधिक घटना के बारे में, बिना विस्तार से जाने भी, बहुत कुछ कहा जा सकता है। स्कूल का अपना भवन नहीं था और वह पंचायत भवन में चल रहा था।  इसी तरह वहाँ किचनशेड व स्टोर भी नहीं था जिसके कारण भण्डारण प्रधानाचार्य के घर होता था। ये तथ्य स्कूल व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए पर्याप्त हैं। फिर घटना के बाद सरकार में जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों ने स्थल पर पहुँच कर लोगों के साथ अपनी एकात्मता नहीं दिखाई। एक लाख का मुआवजा भी स्वयं एक आपराधिक प्रतिक्रिया है क्योंकि यहाँ मौतें किसी प्राकृतिक घटना के चलते नहीं हुईं बल्कि सरकारी व्यवस्था की योजना की लापरवाही के कारण हुई हैं। घटना के बाद इलाज में हुई देरी से क्षेत्र में, खासतौर से ग्रामीण इलाकों में, सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की घोर अनदेखी का उदाहरण मिलता है। साफ़ है कि आमजन से कटी हुई सरकारें, लोक से कटे हुए प्रतिनिधि-अफसरशाही, सबके लिए समान व बढ़िया स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था खड़ी करने में हमेशा नाकाम रहेंगे। अव्वल तो वो ऐसा चाहेंगे ही नहीं। अगर भ्रातृत्व भाव पर आधारित समान शिक्षा व स्वास्थ्य व्यवस्था होती तो निश्चित ही न ऐसी घटना घटती और न ही ऐसे त्रासद परिणाम होते। हमें उस राजनीति के जनविरोधी चरित्र को पहचानने की ज़रूरत है जोकि मेहनतकशों को निजी स्कूलों में 25 % कोटे का छल दिखाकर और चंद तथाकथित मॉडल स्कूल की परतें खड़ी करके बाँटती है, कमज़ोर करती है तथा इसपर वाहवाही लूटने की बेशर्म जुर्रत करती है। उनसे जो जनता के प्रतिनिधि बनते हैं एक माँग करना ही काफी होगा - अगर हमारे साथ हो तो ऐसी व्यवस्था करो कि तुम्हारे बच्चे भी हमारे बच्चों के साथ एक स्कूल में पढ़ें।