कमलेश मेहरोल
यौन शिक्षा स्कूलों में होना चाहिए कि नहीं ? इस बात पर काफी बहस है। मैं दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में पढ़ी हूं। मुझे याद है कि विज्ञान के एक अध्याय को टीचर घर से पढ़कर आने के लिए कहती थी, उसमें बालक - बालिकाओं में होने वाले शारीरिक परिवर्तन, हारमोंस परिवर्तन, माहवारी जैसी बातों का जिक्र रहता था। हम सब उसे खुद से पढ़कर आ जाते थे और आपस में कानाफूसी कर लेते थे। टीचर उस अध्याय को छोड़कर आगे बढ़ जाती थी और फिर उस अध्याय के बारे में कोई बात नहीं होती थी। हमारी बहूत सारी जिज्ञासाएं रहती थीं जिसे हम पूछने में झिझकते थे, हम आपस में ही आधी-अधूरी जानकारी बांट लेते थे। मुझे याद है कि जब हम पांचवी में थे तो हमारी टीचर हमसे स्टेफ्री का पैकेट मंगवाती थी, शायद उन्हें खुद से लेने में शर्म आती थी। हम बहुत सारी जिज्ञासाए लेकर बड़े हुए, जैसे बच्चे कैसे पैदा होते हैं ? बच्चे स्त्री से ही क्यों पैदा होते है? हमें खास उम्र में हर महीने माहवारी क्यों होती है? ऐसा लड़को को नही क्यों होता है? माहवारी के दिनों में हमसे भेदभाव क्यों किया जाता है? जैसे ही हम बड़े होते है तो हमारा घर से निकलना बंद हो जाता है जबकि वही लडको पर इस तरह की कोई बंदिशे नहीं लगाई जातीं। इन्हीं सारी तमाम बातों के बीच मैं बड़ी हुई। घर में कभी इन बातों को पूछने की हिम्मत नहीं हुई और स्कूल में शिक्षिकाओं ने ऐसा भरोसा पैदा नहीं किया कि कभी उनसे खुलकर कुछ पूछ पाते। आज मैं भी एक शिक्षिका हूं और स्थिति कमोबेश वही है। पिछले साल मेरे स्कूल की एक छात्रा ने अपनी बोर्ड की परीक्षाओं के दौरान आत्महत्या कर ली थी, वजह पता चला कि वह तीन महीने की गर्भवती थी। जाहिर है समाज के भय से उसने यह कदम उठाया था। वही पढ़ाई के दौरान एक छात्रा का गर्भपात हुआ। इस तरह के असुरक्षित यौन संबंधो से अनचाहे गर्भ की संभावना बढ़ जाती है और खामियाजा शारीरिक और मानसिक तौर पर हमेशा लड़कियों को ही भुगतना पड़ता है। समाज उसे ही दोषी ठहराता है, उसकी पढ़ाई छुड़वा दी जाती है, उसे हेय दृष्टि से देखा जाने लगता है। माता - पिता से भी उसे किसी तरह का भावनात्मक सहयोग नहीं मिलता है। किशोरावस्था में स्त्री-पुरूष आकर्षण सहज है। अगर समाज में इसे सहज रूप से लिया जाए और स्वस्थ तरीके से जानकारी का आदान - प्रदान किया जाए, तो शायद इस तरह की घटनाएं कम घटेंगी। मैंने देखा कि मेरे स्कूल की लड़कियां आठवें पीरियड में संजने संवरने लगती हैं। वे घर से छुपाकर मेकअप का सामान ले आती हैं। बाहर लड़के उनका इंतजार करते हैं। वे छुपाकर मोबाइल लाती हैं और अलग-अलग सिम रखती हैं। स्कूल के प्रसाधन कक्ष में जाकर बारी -बारी से फोन का इस्तेमाल करती हैं। मुझे नहीं पता वे किससे और क्या बात करती हैं पर स्कूल की शिक्षिकाओं में यह आम धारणा व्याप्त है कि वे अपने ब्यायफ्रैंड से बात करती हैं। किशोरावस्था का आकर्षण आवश्यक नहीं कि प्रेम ही हो, पर जब कोई लड़का किसी लड़की के लिए अपनी कलाई काट ले तो लड़की यही समझ बैठती है कि वही उसका सच्चा प्रेमी है। समय की गति के साथ पसंदगी का दायरा बदलता रहता है। हाल ही में आई फिल्म ’रांझना’ में ऐसा ही कुछ देखने को मिला जिसमें नायिका जब स्कूल की छात्रा होती है, नायक द्धारा कलाई काट लिए जाने पर उस पर मर मिटती है। यह बात जब उसके प्रोफेसर पिता को पता चलती है तो वह उसे पढ़ने के लिए शहर से बाहर भेज देता है। नायिका समय के साथ उसके लिए कलाई काटने वाले लड़के को भूल जाती है और उसका प्रेम विस्तार पाकर नया प्रेमी चुनता है। हालांकि कई बार किशोरावस्था का प्रेम सारी उम्र का प्रेम भी बना रह सकता है। पर अहम सवाल यह है कि हमें चुनाव की आजादी कहां है? हमारे यहां स्त्री-पुरूष सदैव एक दूसरे के लिए रहस्य का विषय बने रहते हैं। इस रहस्य को जानने के लिए हमारी युवा पीढ़ी अश्लील वीडियो, पत्रिकाएं आदि का सहारा लेती हैं। इन साधनों से प्राप्त जानकारी सदैव उनके लिए घातक सिद्ध होती है। स्कूल की दीवारों पर, सार्वजनिक स्थलों, ट्रेन, बस इत्यादि स्थलों पर उकेरे गए अश्लील चित्रों और कथनों का क्या मतलब निकाला जाए? क्या ये दमित कामभावना का परिणाम नहीं है? घर, स्कूल व इससे बाहर की दुनियां में यौन विषय पर स्वस्थ तरीके से बात नहीं होती है, क्यों? मुझे इस विषय पर विचारक ओशो की बात शत-प्रतिशत सही लगती है कि बालक-बालिकाओं के साथ हमें यौन को लेकर स्वस्थ और उचित तरीके से बातचीत करनी चाहिए। हम उन पर जितना रोक लगाएंगे, वे उतना ही हमारे खिलाफ जाकर गलत तरीके से अपने मन की जुगुप्सा को शांत करने का प्रयास करेंगे।
(लोक शिक्षक मंच ब्लॉग के लिए शिक्षक साथियों को अपने विद्यालयी अनुभव साझा करने को आमंत्रित करता है। यह आवश्यक नहीं है कि इस लेख में दर्ज विचारों से मंच की सहमति हो।)
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