दिल्ली सरकार और निगमों के तमाम (चुनावी) दावों के बावजूद सच यह है कि यहाँ की शिक्षा व्यवस्था की नाकामी व उसका अन्यायपूर्ण चरित्र एक जगजाहिर राज है, जिससे न सिर्फ विद्यार्थीे, माता-पिता और शिक्षक परिचित हैं बल्कि खुद प्रशासन, जनता के (विपक्ष तक के) नुमाईंदे और मीडिया भी वाकिफ हैं। सरकारी स्कूलों को विद्यार्थियों की संख्या के हिसाब से नियोजित नहीं करने का अंजाम यह हुआ है कि अधिकतर स्कूलों में क्षमता से अधिक नामांकन है। जहाँ स्कूल में हजारों विद्यार्थी पढ़ रहे हों और एक-एक कक्षा में उनकी संख्या 100 तक हो, वहां सरकार का शिक्षा के प्रति गैरजिम्मेदार रवैया साफ झलकता है। इसपर आधे से अधिक स्कूल भवन दो पालियों में इस्तेमाल होते हैं जिससे कि उनके रखरखाव में दिक्कत आती है। लड़के-लड़कियों को शुरु से ही अलग करके शिक्षा द्वारा स्वस्थ संबंधों व संस्कृति के निर्माण के काम में बाधा पहुंचाई जाती है। लड़कियों को ही गृह-विज्ञान और ब्यूटीशियन जैसे विषय पढ़ने को मजबूर कर उनके और लड़कों के बीच समाज की बनी-बनाई गैर-बराबरी को पुख्ता किया जा रहा है। घर, स्कूल, आसपास और गली-मोहल्लों में लड़कियों पर लगने वाली रोक-टोक व उन पर होने वाली हिंसा में शिक्षा का सामंतवादी स्वरूप नजर आता है, जिसके लिए सीधे तौर पर सरकार का समझौतावादी रवैया जिम्मेदार है। सुबह-शाम एक ओर जहाँ आप सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को पैदल लम्बी दूरी तय करते हुए या बसों के पीछे भागते, उनपर लटकते हुए देख सकते हैं, वहीं डीटीसी की बसों को प्राईवेट स्कूलों की सेवा में लगा पाएंगे। पिछले कुछ सालों से सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को रियायती पास बनाने से हतोत्साहित करने का परिणाम यह हुआ है कि परिवारों पर शिक्षा का खर्च बढ़ा है। दूसरी तरफ, स्कूलों में नियमित शिक्षकों की नियुक्तियां 2009 के बाद से नहीं की गई हैं और नव-उदारवादी नीतियों के तहत लगातार ठेकेे, अतिथि और पुनर्नियुक्त शिक्षकों को भरती करके शैक्षणिक माहौल के लिए जरूरी स्थायित्व की परिस्थितियों को बरबाद किया जा रहा है। शिक्षकों को स्कूलों के बाहर आरटीई कानून के तहत नयी जनगणना के नित नये कामों, चुनाव कार्यालय की लम्बी-चैड़ी बीएलओ ड्यूटी और गैर-कानूनी रूप से आर्थिक गणना तक के काम में लगाया जाता है तथा स्कूलों के अन्दर मिड-डे-मील से लेकर कई नई घोषणाओं, स्कीमों को लागू करने के लिए बिना सहायक कर्मचारियों की नियुक्ति किये जिम्मेदार बनाया जा रहा है। इसका फल यह है कि एक ओर शिक्षक वैसा और उतना नहीं पढ़ा पा रहे हैं जितनी उनमें काबिलियत और चाहत है, तो दूसरी ओर विद्यार्थियों व माता-पिता में उनके प्रति अविश्वास पैदा हो रहा है। सरकार की इन शिक्षा और जन विरोधी नीतियों का नतीजा यह है कि बहुत से परिवार अपने बच्चों की ट्यूशन पर पैसा खर्च करने को मजबूर हो रहे हैं जिससे एक तरफ तो निजी मुनाफाखोर शिक्षा को बेच कर उसकी इज्ज्त धूल में मिला रहे हैं और दूसरी तरफ सरकार की वो स्कूली व्यवस्था जिसे कि सभी वर्गों को सच्ची, भेदभाव रहित व वैज्ञानिक शिक्षा के लिए अपनाना चाहिए, बदनाम हो रही है। इसी कड़ी में दक्षिणी निगम के 50 स्कलों को, मुंबई की तर्ज पर, पीपीपी के तहत कॉरपोरेट घरानों और उनके एनजीओ के हवाले करके सरकार को जिम्मेदारी से मुक्त करने व निजी ताकतों का शिक्षा पर शिकंजा कसने की साजिश रची जा रही है। दिल्ली सरकार के प्रचार भले ही दसवीं व बारहवीं के परिणामों में आई बढ़ोतरी का चुनावी श्रेय लेते हों, हकीकत यह है कि विज्ञान और वाणिज्य पढ़ने के लिए न सिर्फ विद्यार्थियों को अपना स्कूल छोड़ना पड़ता है बल्कि अक्सर निजी स्कूलों में महंगी फीस चुका कर दाखिला लेना पड़ता है। सरकारी स्कूलों में से अधिकतर में प्रयोगशालाएं नहीं के बराबर हंै। ग्यारहवीं, बारहवीं में स्थापित विषयों की जगह, विशेषकर लड़कियों को, हलके विषय पढने पर मजबूर किया जाता है। सच तो यह है कि ज्यादातर विद्यार्थी मन मारके किसी भी उपलब्ध कोर्स में दाखिला ले लेते हैं और अपनी पसंद के विषय पढ़ने, उनमें गहरे डूबने और आगे काम करने से महरूम कर दिए जाते हैं। शिक्षाशास्त्र के प्रति सरकार की समझ और बराबरी के प्रति उसकी राजनैतिक प्रतिबद्धता का पता इस बात से भी चलता है कि निगम और दिल्ली प्रशासन दोनों ने अपने स्कूलों में भेदभावपूर्ण परतें बिछा रखी हैं - साधारण, प्रतिभा, आदर्श, एकल पाली, दो पालीे, सूपर 30 मॉडल आदि स्कूलों के बीच बाकायदा योजनागत व सामाजिक न्याय से असंबद्ध फर्क खड़े किए गए हैं।
आज दिल्ली में सरकार की सुनियोजित चालों के परिणामस्वरूप शिक्षा का रूप बहुत हद तक बिगाड़ा जा चुका है और इसे बाजार में बिकने वाले किसी भी बिकाऊ माल की पहचान दे दी गई है। आरटीई कानून के पैरवीकार निजी स्कूलों में वंचित तबकों के लिए जिस 25ः आरक्षण के हवाले से लोगों को आशा की उम्मीद दिखाते थे उसकी हकीकत से तो हमें पहले ही चेत जाना चाहिए था क्योंकि इस कानून के पूर्व भी जिन स्कूलों को शर्तों के साथ सस्ती दर पे जमीनें दी गई थीं उन्होंने कभी भी उन शर्तों का पालन नहीं किया और अगर कुछ बच्चों को दाखिल भी किया तो उनसे जबरदस्त भेदभाव बरतते रहे। मामला चाहे निजी स्कूलों में दाखिलों और फीस की मनमानी पर अंकुश लगाने का हो, चाहे उनमें वर्तमान कानून ही लागू कराने का हो, सरकार ने पूरी तरह असफल होकर अपनी तरफदारी साबित कर दी है। हमारे लिए यह सब कोई हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए क्योंकि एक ओर अफसरों-मंत्रियों के परिवारों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ रहे और दूसरी ओर इनमें से बहुतों के अपने निजी स्कूल और एनजीओ चल रहे हैं।
शिक्षा अधिकार कानून के तहत 8वीं तक और सरकार के मंत्रियों-अफसरों के गैर-कानूनी मौखिक निर्देशों के तहत आगे भी विद्यार्थियों को बिना हाजिरी की अनिवार्यता के और बिना सिखाये प्रोन्नत करने से आगे जाकर उन्हें छाँट कर या तो शिक्षा से ही बाहर किया जा रहा है या गैर-बराबरी की ओपन-स्कूल व्यवस्था के सहारे छोड़ा जा रहा है। इस कानून ने 6 साल से कम उम्र के बच्चों की कोई जिम्मेदारी सरकार पर नहीं डाली और इसलिए भी शहर में निगम तथा दिल्ली सरकार के हजारों स्कूलों में से मात्र कुछ में ही नर्सरी की व्यवस्था है। स्कूलों में, चाहे वो प्राइवेट हांे या सार्वजानिक, विकलांग बच्चों के प्रवेश, यात्रा, और शिक्षा के कोई सुलभ इन्तेजाम नहीं हैं और अदालतों के आदेशों के बावजूद विशेष शिक्षकों की नियुक्तियां स्कूलों में नहीं की गयी हैं। इसके कारण ऐसे बच्चों की या तो स्कूली पढ़ाई नहीं हो पाती या उनमें से मुट्ठी भर ही बहुत खर्च करके घर से दूर जाने को मजबूर होते हैं।
दिल्ली एक बहुभाषी शहर है जिसमें पंजाबी और उर्दू को सरकार ने एक दर्जा भी दिया है पर इन भाषाओँ को स्कूलों में उचित स्थान नहीं दिया गया है। बच्चों को स्कूलों में न सिर्फ किसी अन्य भाषा के माध्यम से पढ़ना पड़ता है, बल्कि वे तो स्कूलों में अपनी भाषा पढ़ने और सीखने से भी वंचित कर दिए जाते हैं। दूसरी तरफ जो चंद एक स्कूल इन भाषाई माध्यमों के हैं भी वो भी उपेक्षा के शिकार हंै। एक ओर निजी स्कूलों को लगभग मुफ्त जमीने देना, उन पर कोई निगरानी न रखना और दूसरी ओर लोगों की उम्मीदों को सरकारी स्कूलों में दबा-मिटा देने की नीति से सरकार की मंशा जाहिर होती है कि पीपीपी के द्वारा सरकारी स्कूलों को निजी संस्थाओं को गोद देने, एनजीओ को सरकारी स्कूलों में गैर कानूनी रूप से पढ़ने तक के काम सांैप कर (टीच फाॅर इंडिया, प्रथम आदि) सरकार लोगों की मेहनत और पैसों से, लोगों के लिए खड़ी की गयी सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को नेस्तनाबूत करके इसे मुनाफाखोरों के हवाले करना चाहती है। इससे जनता के संसाधनों की लूट और तेज होगी।
एक ओर आईटीआई (जिनमें तेजी से पीपीपी का प्रवेश हो रहा है और फीस बढ़ रही है) में ज्यादातर सरकारी स्कूलों से पढ़े विद्यार्थी प्रवेश लेते हंै, वहीं दूसरी ओर दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थान को एक तरह से निजी स्कूलों के लिए आरक्षित कर दिया गया है। इन कुनीतियों का परिणाम यह होता है कि सरकारी स्कूलों से निकले हजारों विद्यार्थियों को ओपन व दूरस्थ शिक्षा की पनाह लेनी पड़ती है।
हम मांग करते हैं कि
- भेदभाव वाली बहुपरती व्यवस्था भंग करो, समान स्कूल व्यवस्था लागू करो
- सभी स्कूलों में नर्सरी की व्यवस्था करो, बारहवी तक मुफ्त व् अनिवार्य शिक्षा लागू करो
- सभी बच्चों के लिए स्कूल आने-जाने की मुफ्त व्यवस्था करो
- सभी शिक्षकों को नियमित करो और गैर-शैक्षणिक कार्यों से पूर्णतः मुक्त करो
- वर्ग, जाति, धर्म, लिंग, संस्कृति, भाषा, अंचल व विकलांगता आधारित भेदभाव खत्म करो
- नवउदारवाद पोषक पीपीपी नीति, एनजीओ, कारपोरेट घरानों का शिक्षा व्यवस्था में हस्तक्षेप पूर्णतः खत्म करो
लोक शिक्षक मंच
21 अक्टूबर 2013