Thursday, 24 October 2013

पर्चा : दिल्ली में शिक्षा व्यवस्था को जनपक्षधर बनाओ!


दिल्ली सरकार और निगमों के तमाम (चुनावी) दावों के बावजूद सच यह है कि यहाँ की शिक्षा व्यवस्था की नाकामी व उसका अन्यायपूर्ण चरित्र एक जगजाहिर राज है, जिससे न सिर्फ विद्यार्थीे, माता-पिता और शिक्षक परिचित हैं बल्कि खुद प्रशासन, जनता के (विपक्ष तक के) नुमाईंदे और मीडिया भी वाकिफ हैं। सरकारी स्कूलों को विद्यार्थियों की संख्या के हिसाब से नियोजित नहीं करने का अंजाम यह हुआ है कि अधिकतर स्कूलों में क्षमता से अधिक नामांकन है। जहाँ स्कूल में हजारों विद्यार्थी पढ़ रहे हों और एक-एक कक्षा में उनकी संख्या 100 तक हो, वहां सरकार का शिक्षा के प्रति गैरजिम्मेदार रवैया साफ झलकता है। इसपर आधे से अधिक स्कूल भवन दो पालियों में इस्तेमाल होते हैं जिससे कि उनके रखरखाव में दिक्कत आती है। लड़के-लड़कियों को शुरु से ही अलग करके शिक्षा द्वारा स्वस्थ संबंधों व संस्कृति के निर्माण के काम में बाधा पहुंचाई जाती है। लड़कियों को ही गृह-विज्ञान और ब्यूटीशियन जैसे विषय पढ़ने को मजबूर कर उनके और लड़कों के बीच समाज की बनी-बनाई गैर-बराबरी को पुख्ता किया जा रहा है। घर, स्कूल, आसपास और गली-मोहल्लों में लड़कियों पर लगने वाली रोक-टोक व उन पर होने वाली हिंसा में शिक्षा का सामंतवादी स्वरूप नजर आता है, जिसके लिए सीधे तौर पर सरकार का समझौतावादी रवैया जिम्मेदार है। सुबह-शाम एक ओर जहाँ आप सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को पैदल लम्बी दूरी तय करते हुए या बसों के पीछे भागते, उनपर लटकते हुए देख सकते हैं, वहीं डीटीसी की बसों को प्राईवेट स्कूलों की सेवा में लगा पाएंगे। पिछले कुछ सालों से सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को रियायती पास बनाने से हतोत्साहित करने का परिणाम यह हुआ है कि परिवारों पर शिक्षा का खर्च बढ़ा है। दूसरी तरफ, स्कूलों में नियमित शिक्षकों की नियुक्तियां 2009 के बाद से नहीं की गई हैं और नव-उदारवादी नीतियों के तहत लगातार ठेकेे, अतिथि और पुनर्नियुक्त शिक्षकों को भरती करके शैक्षणिक माहौल के लिए जरूरी स्थायित्व की परिस्थितियों को बरबाद किया जा रहा है। शिक्षकों को स्कूलों के बाहर आरटीई कानून के तहत नयी जनगणना के नित नये कामों, चुनाव कार्यालय की लम्बी-चैड़ी बीएलओ ड्यूटी और गैर-कानूनी रूप से आर्थिक गणना तक के काम में लगाया जाता है तथा स्कूलों के अन्दर मिड-डे-मील से लेकर कई नई घोषणाओं, स्कीमों को लागू करने के लिए बिना सहायक कर्मचारियों की नियुक्ति किये जिम्मेदार बनाया जा रहा है। इसका फल यह है कि एक ओर शिक्षक वैसा और उतना नहीं पढ़ा पा रहे हैं जितनी उनमें काबिलियत और चाहत है, तो दूसरी ओर विद्यार्थियों व माता-पिता में उनके प्रति अविश्वास पैदा हो रहा है। सरकार की इन शिक्षा और जन विरोधी नीतियों का नतीजा यह है कि बहुत से परिवार अपने बच्चों की ट्यूशन पर पैसा खर्च करने को मजबूर हो रहे हैं जिससे एक तरफ तो निजी मुनाफाखोर शिक्षा को बेच कर उसकी इज्ज्त धूल में मिला रहे हैं और दूसरी तरफ सरकार की वो स्कूली व्यवस्था जिसे कि सभी वर्गों को सच्ची, भेदभाव रहित व वैज्ञानिक शिक्षा के लिए अपनाना चाहिए, बदनाम हो रही है। इसी कड़ी में दक्षिणी निगम के 50 स्कलों को, मुंबई की तर्ज पर, पीपीपी के तहत कॉरपोरेट घरानों और उनके एनजीओ के हवाले करके सरकार को जिम्मेदारी से मुक्त करने व निजी ताकतों का शिक्षा पर शिकंजा कसने की साजिश रची जा रही है। दिल्ली सरकार के प्रचार भले ही दसवीं व बारहवीं के परिणामों में आई बढ़ोतरी का चुनावी श्रेय लेते हों, हकीकत यह है कि विज्ञान और वाणिज्य पढ़ने के लिए न सिर्फ विद्यार्थियों को अपना स्कूल छोड़ना पड़ता है बल्कि अक्सर निजी स्कूलों में महंगी फीस चुका कर दाखिला लेना पड़ता है। सरकारी स्कूलों में से अधिकतर में प्रयोगशालाएं नहीं के बराबर हंै। ग्यारहवीं, बारहवीं में स्थापित विषयों की जगह, विशेषकर लड़कियों को, हलके विषय पढने पर मजबूर किया जाता है। सच तो यह है कि ज्यादातर विद्यार्थी मन मारके किसी भी उपलब्ध कोर्स में दाखिला ले लेते हैं और अपनी पसंद के विषय पढ़ने, उनमें गहरे डूबने और आगे काम करने से महरूम कर दिए जाते हैं। शिक्षाशास्त्र के प्रति सरकार की समझ और बराबरी के प्रति उसकी राजनैतिक प्रतिबद्धता का पता इस बात से भी चलता है कि निगम और दिल्ली प्रशासन दोनों ने अपने स्कूलों में भेदभावपूर्ण परतें बिछा रखी हैं - साधारण, प्रतिभा, आदर्श, एकल पाली, दो पालीे, सूपर 30 मॉडल आदि स्कूलों के बीच बाकायदा योजनागत व सामाजिक न्याय से असंबद्ध फर्क खड़े किए गए हैं।
आज दिल्ली में सरकार की सुनियोजित चालों के परिणामस्वरूप शिक्षा का रूप बहुत हद तक बिगाड़ा जा चुका है और इसे बाजार में बिकने वाले किसी भी बिकाऊ माल की पहचान दे दी गई है। आरटीई कानून के पैरवीकार निजी स्कूलों में वंचित तबकों के लिए जिस 25ः आरक्षण के हवाले से लोगों को आशा की उम्मीद दिखाते थे उसकी हकीकत से तो हमें पहले ही चेत जाना चाहिए था क्योंकि इस कानून के पूर्व भी जिन स्कूलों को शर्तों के साथ सस्ती दर पे जमीनें दी गई थीं उन्होंने कभी भी उन शर्तों का पालन नहीं किया और अगर कुछ बच्चों को दाखिल भी किया तो उनसे जबरदस्त भेदभाव बरतते रहे। मामला चाहे निजी स्कूलों में दाखिलों और फीस की मनमानी पर अंकुश लगाने का हो, चाहे उनमें वर्तमान कानून ही लागू कराने का हो, सरकार ने पूरी तरह असफल होकर अपनी तरफदारी साबित कर दी है। हमारे लिए यह सब कोई हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए क्योंकि एक ओर अफसरों-मंत्रियों के परिवारों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ रहे और दूसरी ओर इनमें से बहुतों के अपने निजी स्कूल और एनजीओ चल रहे हैं।
शिक्षा अधिकार कानून के तहत 8वीं तक और सरकार के मंत्रियों-अफसरों के गैर-कानूनी मौखिक निर्देशों के तहत आगे भी विद्यार्थियों को बिना हाजिरी की अनिवार्यता के और बिना सिखाये प्रोन्नत करने से आगे जाकर उन्हें छाँट कर या तो शिक्षा से ही बाहर किया जा रहा है या गैर-बराबरी की ओपन-स्कूल व्यवस्था के सहारे छोड़ा जा रहा है। इस कानून ने 6 साल से कम उम्र के बच्चों की कोई जिम्मेदारी सरकार पर नहीं डाली और इसलिए भी शहर में निगम तथा दिल्ली सरकार के हजारों स्कूलों में से मात्र कुछ में ही नर्सरी की व्यवस्था है। स्कूलों में, चाहे वो प्राइवेट हांे या सार्वजानिक, विकलांग बच्चों के प्रवेश, यात्रा, और शिक्षा के कोई सुलभ इन्तेजाम नहीं हैं और अदालतों के आदेशों के बावजूद विशेष शिक्षकों की नियुक्तियां स्कूलों में नहीं की गयी हैं। इसके कारण ऐसे बच्चों की या तो स्कूली पढ़ाई नहीं हो पाती या उनमें से मुट्ठी भर ही बहुत खर्च करके घर से दूर जाने को मजबूर होते हैं।
दिल्ली एक बहुभाषी शहर है जिसमें पंजाबी और उर्दू को सरकार ने एक दर्जा भी दिया है पर इन भाषाओँ को स्कूलों में उचित स्थान नहीं दिया गया है। बच्चों को स्कूलों में न सिर्फ किसी अन्य भाषा के माध्यम से पढ़ना पड़ता है, बल्कि वे तो स्कूलों में अपनी भाषा पढ़ने और सीखने से भी वंचित कर दिए जाते हैं। दूसरी तरफ जो चंद एक स्कूल इन भाषाई माध्यमों के हैं भी वो भी उपेक्षा के शिकार हंै। एक ओर निजी स्कूलों को लगभग मुफ्त जमीने देना, उन पर कोई निगरानी न रखना और दूसरी ओर लोगों की उम्मीदों को सरकारी स्कूलों में दबा-मिटा देने की नीति से सरकार की मंशा जाहिर होती है कि पीपीपी के द्वारा सरकारी स्कूलों को निजी संस्थाओं को गोद देने, एनजीओ को सरकारी स्कूलों में गैर कानूनी रूप से पढ़ने तक के काम सांैप कर (टीच फाॅर इंडिया, प्रथम आदि) सरकार लोगों की मेहनत और पैसों से, लोगों के लिए खड़ी की गयी सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को नेस्तनाबूत करके इसे मुनाफाखोरों के हवाले करना चाहती है। इससे जनता के संसाधनों की लूट और तेज होगी।
एक ओर आईटीआई (जिनमें तेजी से पीपीपी का प्रवेश हो रहा है और फीस बढ़ रही है) में ज्यादातर सरकारी स्कूलों से पढ़े विद्यार्थी प्रवेश लेते हंै, वहीं दूसरी ओर दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थान को एक तरह से निजी स्कूलों के लिए आरक्षित कर दिया गया है। इन कुनीतियों का परिणाम यह होता है कि सरकारी स्कूलों से निकले हजारों विद्यार्थियों को ओपन व दूरस्थ शिक्षा की पनाह लेनी पड़ती है।
हम मांग करते हैं कि


  • भेदभाव वाली बहुपरती व्यवस्था भंग करो, समान स्कूल व्यवस्था लागू करो
  • सभी स्कूलों में नर्सरी की व्यवस्था करो, बारहवी तक मुफ्त व् अनिवार्य शिक्षा लागू करो
  • सभी बच्चों के लिए स्कूल आने-जाने की मुफ्त व्यवस्था करो
  • सभी शिक्षकों को नियमित करो और गैर-शैक्षणिक कार्यों से पूर्णतः मुक्त करो
  • वर्ग, जाति, धर्म, लिंग, संस्कृति, भाषा, अंचल व विकलांगता आधारित भेदभाव खत्म करो
  • नवउदारवाद पोषक पीपीपी नीति, एनजीओ, कारपोरेट घरानों का शिक्षा व्यवस्था में हस्तक्षेप       पूर्णतः खत्म करो



                      लोक शिक्षक मंच
21  अक्टूबर 2013 

फोटो : रामलीला मैदान से जंतर मंतर रैली और जन संसद

शिक्षा के व्यवसायीकरण और साम्प्रदायिकरण के खिलाफ रैली 
21 अक्टूबर 2013 





















शिक्षा

Monday, 14 October 2013

रिपोर्ट: नवउदारवाद के प्रायोजित शोध

                                                                                                                                 फिरोज अहमद

अक्तूबर 8 की शाम 6 बजे नयी दिल्ली स्थित Constitution Club के Deputy Speaker Hall में प्रोफ़ेसर कार्थिक मुरलीधरन ने एक व्याख्यान दिया। प्रोफ़ेसर के नाम के साथ उनका परिचय देने के लिए 'UC San Diego and NCAER, NBER, J-PAL ' लिखा हुआ था। शीर्षक था '' सरकार के स्कूलों की तुलना में भारत में निजी स्कूलों कार्य कैसा है? आंध्र प्रदेश स्कूल चॉयस प्रोजेक्ट से सबूत और शिक्षा अधिकार कानून के clause 12 के लिए इसके निहितार्थ'' कार्थिक खुद अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं और मंच की अध्यक्षता कर रहे श्री शेखर ( NCAER ) के अलावा मुख्य अतिथि श्री मोंटेक सिंह अहलुवालिया ( योजना आयोग के उपाध्यक्ष ) भी इसी क्षेत्र से थे। मंच पर चौथी शख्सियत सुश्री रुक्मिणी बनर्जी की थी जोकि ASER ( असर ) से सम्बन्ध रखती हैं जिसके आंकड़ों-परिणामों का इस्तेमाल लगातार सार्वजनिक स्कूली व्यवस्था को सुदृढ़ करने या सुधारने के लिए नहीं बल्कि बदनाम करके खत्म करने के लिए हो रहा है। यह व्याख्यान NCAER ( National Council for Applied Economic Research ) ने J-PAL ( Abdul Latif  Jameel Poverty Action Lab ) और ASER (Annual School Evaluation Report ) के सहयोग से आयोजित किया था। इस चार-साला शोध को अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, Legatum Foundation, Legatum Institute और DFID (Department of International Development) तथा विश्व-बैंक के आर्थिक सहयोग से अंजाम दिया गया था। इसे आंध्र-प्रदेश सरकार की इजाज़त व प्रशासनिक मदद भी प्राप्त थी। 

ये अपने-आप नवउदारवादी ताकतों की जुर्रत दर्शाता है कि देश की शिक्षा नीति की दिशा तय और क्रियान्वित करने के लिए मुक्त-बाज़ार के सिद्धांतकारों, अर्थशास्त्रियों की 'विशेषज्ञता' को जोर-शोर से प्रचारित किया जा रहा है । इसी तर्ज पर, पूरे व्याख्यान में, उसके सीमित दृष्टिकोण के अनुरूप,शिक्षा, संविधान, बराबरी और न्याय जैसे शब्द पूर्णतः नदारद थे। कहीं-कहीं तो मंच पर बैठे श्री मोंटेक सिंह ने अपनी सरकारी नुमाइंदगी को धता बताकर अपनी असली निष्ठा दर्शाते हुए वक्ता को टोककर, बल्कि उनसे आगे बढ़कर उन 'तथ्यों' को रेखांकित करने की ज़िम्मेदारी निभाई जिनसे सार्वजनिक स्कूली व्यवस्था की बदहाली-नाकामी और 'कम फीस लेने वाले निजी स्कूलों' की श्रेष्ठता का 'खुलासा' किया जा सके! व्याख्यान के बाद जो सवाल-जवाब हुए उनमें भी सुश्री रुक्मिणी ने सुझाव दिया कि इक्कीसवीं सदी सार्वजनिक-निजी की बहस बेमानी होगी क्योंकि अब तो बड़ी संख्या में विद्यार्थी अपनी पसंद के कोर्स मुक्त-बाज़ार से प्राप्त कर रहे हैं और असल में तो इसी क्षेत्र में स्वतंत्र चयन प्रदर्शित हो रहा है। यह साफ़ है कि व्याख्यान व इसकी परिचर्चा इस समझ से पूरी तरह कटी हुई थी कि शिक्षा अगर अधिकार है - जैसाकि सिर्फ संविधान की भावना या जनांदोलनों का ही आग्रह नहीं है बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों और शिक्षा अधिकार कानून की सरसरी व्याख्या से भी प्रकट होता है - तो फिर निजी संचालकों के कम या ज्यादा फीस वाले स्कूलों के लिए जगह ही कहाँ बचती है। वर्तमान शासक-वर्ग विश्व-बैंक की नीतियों का कितना समर्पित कर्मचारी है यह मंच पर उपस्थित मुख्य-अतिथि की इस विषय पर चुप्पी व अन्य मुद्दों पर उनके उकसावे की सक्रीयता ने ही साफ़ कर दिया।   

शोध में दो प्रश्नों को प्रमुखता से निशाना बनाया गया था - (1) सभी अन्य कारकों को बराबर रखते हुए, निजी स्कूल सरकारी स्कूलों से अधिक प्रभावी हैं या कम? (2) शिक्षा अधिकार कानून के clause 12 के तहत आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों ( EWS ) के विद्यार्थियों के निजी स्कूलों में लिए जाने से उन विद्यार्थियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा जो पहले ही से इन निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं?

इन दोनों प्रश्नों से ही शोध के दर्शन व रुझान का पता चल जाता है। ऐसे प्रायोजित शोधों में, प्रोफ़ेसर कार्थिक के इन दावों के बावजूद कि प्रस्तुत विश्लेषण उनके अपने हैं और प्रायोजकों का उनसे कोई लेना-देना नहीं है, यह तय होता है कि कौन-से प्रश्नों को खड़ा नहीं किया जायेगा - जो परिघटना के वृहद् व मौलिक कारकों की पड़ताल करें - और इनके बनिस्बत किन प्रश्नों को उछालकर प्रायोजकों के एजेंडे को बढ़ाया जायेगा। इस शोध में प्रभावशीलता का जो पैमाना सामने रखा गया है वह एक मुनीम की नफा-नुकसान की बही से अधिक कुछ नहीं है जिसमें योगदान अर्थ के फूहड़ मायने तक सीमित है और फल चुनिन्दा विषयों में परीक्षा की जांच से प्राप्त अंकों तक। स्पष्ट है कि राष्ट्र-निर्माण, नागरिक चेतना, न्याय के प्रति समर्पण, तार्किकता, संवेदनशीलता, स्थानीय जुड़ाव आदि व्यापक आयामो की संकल्पना इस नवउदारवादी चिंता में शामिल नहीं की जा सकती। बल्कि ये तो इसके चरित्र के ही प्रतिकूल हैं। दूसरी ओर, शोध की प्रेरक चिंता है कि निजी स्कूलों में पढ़ रहे विद्यार्थियों पर इन 'चॉयस' वाले विद्यार्थियों के आने से कुछ दुष्परिणाम तो नहीं होंगे ! ( और ये बड़ी उदारता से साबित करता है कि दुष्परिणाम नहीं हुए। ) शोध में विद्यार्थियों से जिन स्कूलों को छुड़वाकर उन्हें निजी स्कूलों में प्रवेश दिलाया गया है, उन स्कूलों, उनके विद्यार्थियों और शिक्षकों पर इसके क्या परिणाम होंगे इसकी चिंता से शोध कोई सरोकार व्यक्त नहीं करता है। ज़ाहिर है कि जब शोध RTE कानून के clause 12 की वकालत करने के मकसद से किया जायेगा तो ये प्रश्न उठ भी नहीं सकते। 

यह आश्चर्यजनक है कि ऐसे बेहूदा शोध प्रस्ताव को आंध्र-प्रदेश सरकार ने मंजूरी दे दी जिसकी योजना में ही बच्चों और सरकारी स्कूलों को गिनी पिग्स की तरह एक प्रयोग में इस्तेमाल करना था । विश्व-बैंक व इसकी पिट्ठू संस्थाओं से तो हम उम्मीद नहीं करते कि वो मेहनतकश वर्गों के बच्चों की गरिमा, उनके इंसान होने की प्रतिष्ठा और सार्वजनिक शिक्षा की रक्षा के लिए उचित समझ-नीयत का परिचय देंगे पर जब चुनी हुई सरकारें नवउदारवाद के दबाव में काम करेंगी तो उनसे भी ऐसी अपेक्षा रखना बेमानी होगा। 
इस शोध में ही प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार जिन 90 गाँवों में 'वाउचर' - जिसे वहाँ छात्रवृत्ति कहा गया - का प्रयोग किया गया उनमें 60% माता-पिता ने ही इसमें आवेदन किया और फिर लॉटरी में चुन लिए गए 60% लोगों ने इस 'लाभ' को अस्वीकार कर दिया! बाक़ी बचे विद्यार्थियों में से भी लगभग 20% चार साल के भीतर वापिस चले गए। यानी, कुल आबादी के करीब 80% हिस्से ने इस प्रयोग को ही नकार दिया ! पर व्याख्यान में इन महत्वपूर्ण तथ्यों का कोई विश्लेषण प्रस्तुत नहीं किया गया। शोध के मुताबिक जिन विद्यार्थियों को निजी स्कूलों में दाखिल किया गया उनके तेलुगु व गणित के स्तर में सरकारी स्कूलों में 'रह गए' विद्यार्थियों के मुकाबले कोई फर्क नहीं दिखा - शायद नकारात्मक ही रहा। जबकि अंग्रेजी, पर्यावरण अध्ययन व हिंदी - जोकि वहाँ के सरकारी स्कूलों में उस स्तर पर एक विषय नहीं है - में तुलनात्मक बढ़ोतरी पाई गई। यह ग़ौर करने योग्य है कि सुश्री रुक्मिणी ने इसपर जो टिप्पणी की भी वो कुल मिलाकर यह थी कि जब ये पता है कि पढ़ना ( साक्षरता के अर्थ में ) इतना महत्वपूर्ण पक्ष है तो फिर शोधों में पर्यावरण अध्ययन जैसे विषयों पर क्यों बेकार में ध्यान दिया जा रहा है! तेलुगु - जोकि शायद शोध में शामिल अधिकतर बच्चों की मातृभाषा होगी - और गणित में निजी स्कूलों के तुलनात्मक रूप से कम प्रभाव 'प्रभाव' को भी यह कहकर खारिज किया गया कि निजी स्कूल तो वैसे भी समय-सारणी में इन विषयों को कम स्थान देते हैं। अंततः साबित यह हुआ कि जब कम समय देकर भी वो सरकारी स्कूलों की लगभग बराबरी कर पा रहे हैं तो यहाँ भी उनकी प्रभावशीलता अधिक हुई! और वक्ता के अनुसार ( निजी स्कूलों की प्रभावशीलता के विपरीत जा रहे ) गणित व तेलुगु के जिन परिणामों ने उन्हें उलझाया था उनकी तह में जाने पर उन्हें जो उक्त विश्लेषण प्राप्त हुआ वो ही उनके शोध का eureka ( खोज का विस्मयकारी ) क्षण था! व्याख्यान के बाद चर्चा के समय प्रोफ़ेसर कार्थिक ने इस 'रोचक' तथ्य को कि हिंदी निजी स्कूलों में पढ़ाई जा रही है और सरकारी स्कूलों में नहीं इस समझ से विश्लेषित किया कि यह श्रम बाज़ार के विस्तार से जुड़ा पहलू है। मातृभाषा यानी स्थानीय श्रम बाज़ार, हिंदी यानी राष्ट्रीय श्रम बाज़ार और अंग्रेजी यानी अंतर्राष्ट्रीय श्रम बाज़ार में काम करने के अवसर। इस कथन से उन्होंने इस बात की भी पुष्टि कर दी कि नवउदारवाद हर व्यक्ति को, चाहे वो विश्वविद्यालय का प्रोफ़ेसर क्यों न हो, बाजारू और पूँजी के मुनाफे के उत्पादन में लगे श्रम के रूप में देखता है। और इस दर्शन के सिद्धांतकार तक इसमें अपनी भूमिका को लेकर स्पष्ट हैं कि वो भी पूँजी के अधीन हैं व उसे अपना श्रम बेचकर जीविका कमा रहे हैं।  ऐसे शोधों से ये उम्मीद नहीं की जा सकती कि वो इसकी पड़ताल करें, निदान सुझाना तो दूर, कि सरकारी स्कूलों में किन संरचनाओं व नीतियों के तहत शिक्षकों का अध्यापन ( 'संपर्क समय' ) नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। शोध के अनुसार शिक्षण की गुणवत्ता के लिए शिक्षक योग्यता न तो अनिवार्य शर्त है और न ही पर्याप्त। ऐसे में क्योंकि निजी स्कूलों के शिक्षक कुल मिलाकर (क) कम वेतन में (ख) अधिक प्रयास करते हैं और (ग) उनका शिक्षण समय भी ज्यादा होता है, तो उनके स्कूलों की प्रभावशीलता अपने-आप बेहतर हुई। इस परिस्थिति के लिए प्रोफ़ेसर कार्थिक मुख्य कारक निजी प्रबंधन को मानते हुए कहते हैं कि दरअसल शिक्षाविदों, नीति-निर्माताओं  व नियामक संस्थाओं - शायद उनका अभिप्राय CBSE, NCTE आदि से था - का स्कूलों पर न्यूनतम मापदंडों के पालन की शर्त लगाना अतार्किक व व्यर्थ है। उन्हें तो सिर्फ एक शर्त रखनी चाहिए कि स्कूल पारदर्शी रूप से अपनी पूरी स्थिति घोषित कर दें ताकि एक समाज/देश ( मुक्त बाज़ार ) के अभिभावक ( खरीदार ) समुचित, पूर्व जानकारी से लैस होकर विभिन्न स्कूलों के बीच चुनाव कर सकें। फिर योग्यता X प्रयास को गुणवत्ता का सूत्र बताकर प्रोफ़ेसर कार्थिक ने स्वयं ही अपने द्वारा योग्यता की अनिवार्यता पर लगाये गए प्रश्न को नकार दिया। 

शिक्षा को पण्य वस्तु बनाकर उसके बाज़ार को गरम करने का काम ऐसे नवउदारवादी 'शोधकर्ता' व 'विद्वान' ही कर सकते हैं जिन्होंने एक सुन्दर, समाजवादी, समतामूलक व भ्रातृत्व के मूल्यों पर आधारित समाज का सपना न देखा है, न देखना जानते हैं और न देखना चाहते हैं। इनकी मंशा यही है कि अन्य लोग भी यह सपना न देखें और संस्कृति व राजव्यवस्था भी पूँजीवाद के मानवद्रोही, कुरूप मूल्यों से संचालित हो। 
जो कुछ तालिकाएँ उन्होंने प्रदर्शित कीं उनमें से एक बयाँ कर रही थी कि 80% सरकारी स्कूलों में इस्तेमाल में लाया जा रहा पुस्तकालय है जबकि निजी स्कूलों के लिए यह आंकड़ा 10% से भी कम था पर क्योंकि इस नवउदारवादी दर्शन में काम की चीज़ वही है जो महज़ साक्षर बनाने में योगदान देती दिखे, सो इस आधार पर पुस्तकालय स्कूलों का एक नाहक का अंग और सरकार के लिए फजूलखर्च साबित होता है!
( संभव है कि शोध में ऐसे और उदाहरण हों पर अभी 60 पृष्ठ का पूरा शोधपत्र हाथ नहीं लगा है और यहाँ व्याख्यान तथा बांटे गए 4 पृष्ठ के सार को ही आधार बनाकर टिप्पणी की गई है। )      
व्याख्यान के अंत में जिस तरह श्री शेखर ने सवाल पूछने के लिए हाथ खड़ा किये हुए लोगों में से प्रश्नकर्ताओं को छाँटा उसमें भी सांठगाठ झलक रही थी। उदाहरण के लिए, कम फीस वाले स्कूलों के किसी राष्ट्रीय समूह की प्रतिनिधि ( मुखिया ? ), 'असर' की एक वरिष्ठ सदस्या और हरियाणा में एक NGO चलाने वाले व्यक्ति को सवाल पूछने के लिए 'चुना गया' था। चुनना ही तो मुक्त-बाज़ार का कलमा है! ( अगर यह मात्र एक संयोग था तो भी इससे आयोजित सभा के 'प्रथम श्रोताओं' के संस्थाई चरित्र का पता चलता है। ) फिर भी वहाँ उपस्थित दिल्ली प्रशासन के शिक्षा निदेशक महोदय ने कुछ ऐसी जानकारी साझा करने की ज़िम्मेदारी निभा दी जिनसे व्याख्यान में किये गए कुछ दावों पर गंभीर प्रश्न खड़े हो गए। जैसे, शोध के आग्रह के विपरीत दिल्ली के सरकारी स्कूलों में नामांकन लगातार बढ़ रहा है; एक निरपेक्ष परीक्षा व्यवस्था ( CBSE ) से तो पहले ही सरकारी-निजी स्कूलों की तुलना हो जाती है और जब निजी स्कूल भी शिक्षकों को कानून-सम्मत पूरी तनख्वाह देने को बाध्य हैं तो सरकारी स्कूल के शिक्षकों के मुकाबले उनके एक-तिहाई या एक-छठवें वेतन को प्रभावशीलता का नीति के लिए अनुकरणीय पैमाना बनाने का प्रश्न उठाना ही नाजायज़ है। यह सच है कि हमने प्रोफ़ेसर के जवाब सुनने की ज़हमत नहीं उठाई। वैसे, वो पहले ही कह चुके थे कि मापदंड बनाकर लागू करवाना अतार्किक व अनुचित है। ( पर सरकार को शिक्षा अधिकार कानून के clause 12 के लिए जो केंद्रीकृत मापदंड बनाने की अनुशंसा उनके शोध में निहित है उसे मूर्त रूप देने के सरकारी आमन्त्रण को स्वीकार करके वो जल्दी ही एक तीन-सूत्रीय रूपरेखा प्रस्तुत करने जा रहे हैं - जिसका सार उन्होंने श्रोताओं से साझा भी किया। यहाँ हमें उस आलोचना की सत्यता का प्रमाण मिलता है कि नवउदारवादी मुक्त-बाज़ार व्यवस्था में राज्य की भूमिका सिमटती नहीं है बल्कि, सैद्धांतिक स्तर पर उसे निरपेक्ष और नेपथ्य-स्थित बता-जता के, पूँजी के पक्ष में विशेष प्रकार से परिवर्तित कर दिया जाता है। )