Monday, 25 August 2014

मेरिट की हिस्ट्री भी तो देखो

                                                                                                                          चन्द्रभान प्रसाद 
                                                                                              दलित विचारक और स्तंभकार

द्विजों की मेरिट को बिना इतिहास में जाए नहीं समझा जा सकता। सन 1857 के आसपास द्विज समाज में मेरिट का हाल शर्मनाक था। इस बात की पुष्टि 'द इंडियन यूनिवर्सिटी कमीशन 1902' की रिपोर्ट करती है। रिपोर्ट के पेज नम्बर 12 पर सन 1901 के 10वीं कक्षा के रिजल्ट की समीक्षा करते हुए लिखा गया है कि ' हमें यह बताया गया कि अगर इंग्लिश में पास मार्क्स 33 के बजाय 40 परसेंट रहे होते, तो अकेले कलकत्ता में 1400 स्टूडेंट्स और फेल हो गए होते। '
          रिपोर्ट पर गौर किया जाए, तो उसमें दो बातों की ओर इशारा होता है। इसमें पहली है 10वीं कक्षा में पास परसेंटेज पर गहरी चिंता। इस चिंता को पेज 45 पर आंकड़ों के जरिए दर्शाया गया है। सन 1901 में हाई स्कूल में कूल 21750 स्टूडेंट्स ने एग्जाम दिया था, जिनमें महज 7953 यानि लगभग 36 परसेंट स्टूडेंट पास हो सके थे। दूसरी चिंता 40 परसेंट बनाम 33 परसेंट की है। रिपोर्ट से यह साफ़ हो जाता है कि सन 1901 से पहले इंग्लिश सब्जेक्ट के मिनिमम पास मार्क्स 40 पर्सेंट थे। सन 1901 में इसे घटाकर 33 पर्सेंट कर दिया गया था। अगर इस घटना की तह में जाएँ, तो द्विज समाज के मेरिट की पोल खुल जाती है। असल में जब 1854 के मशहूर वूड्स डिस्पैच के बाद ब्रिटिश शासन ने भारत में माडर्न एजुकेशन की शुरुआत की, तो सिर्फ फर्स्ट और सेकंड दो डिवीज़न होती थी। मिनिमम मार्क्स 40 पर्सेंट होते थे। तब न तो थर्ड डिवीज़न थी और न ही 33 परसेंट में पास कर लेने की सुविधा। ये दोनों ही बातें भारतीय एजुकेशन सिस्टम में कैसे जुड़ी, इसका किस्सा बेहद दिलचस्प है। हुआ यह कि जब 1857 के आसपास मद्रास में पहला डिग्री कॉलेज बना तो एक संकट खड़ा हो गया कि पढ़ाने के लिए पर्याप्त स्टूडेंट्स ही नहीं मिल पा रहे थे। मद्रास के ब्राह्मणों ने इस समस्या का एक हल ढूँढा। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से यह मांग कर डाली कि इंटरमीडिएट पास करने  एक नै थर्ड डिवीज़न शुरू की जाए और पास मार्क्स घटाकर 33 पर्सेंट कर दिया जाएं। तब से यह सिस्टम चला आ रहा है। 
थर्ड डिवीज़न की मांग करते हुए ब्राह्मण समाज का तर्क था कि ब्रिटिश एजुकेशन सिस्टम भारत के लिए एकदम नया है, इसलिए इसे अपनाने और समझने में कुछ वक़्त लगेगा। यह समय कितना लम्बा था, इसे 'प्रोग्रेस ऑफ़ एजुकेशन इन इंडिया 1927-1932' की रिपोर्ट पार्ट-टू से समझा जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक, 1927-1932 के दौरान मेडिकल के फाइनल एग्जाम में 47 परसेंट स्टूडेंट फेल हो जाते थे। इंजीनियरिंग में फेल होने वालों का परसेंटेज 34 था। यानि की सिर्फ साढ़े सात दशक पहले द्विज समाज की मेरिट का हाल यह था। आज रिजर्वेशन के खिलाफ झंडा लेकर घूम रहे लोगों को अपने वर्ग का इतिहास देखना चाहिए। इसके उलट दलित आंदोलन ने कभी न तो फोर्थ डिवीज़न जोड़ने की मांग की और न ही पास मार्क्स घटाकर 20 या 25 परसेंट करने की। दलित केवल प्रवेश के समय रिजर्वेशन मांगते हैं और एग्जाम उसी स्टैण्डर्ड पर देते हैं, जिस पर द्विज। बाबजूद इसके दलित स्टूडेंट्स कुछ पीछे रह जाते हैं।  इसके तमाम कारन हो सकते हैं, पर क्या 1857 के द्विजों और 2006 के दलितों के बीच तुलना नही कर लेनी चाहिए ?
सन 1857 हो या 1927-1932, सभी द्विज एजुकेशन में नहीं कूद पड़े थे। द्विजों में संपन्न तबका शिक्षा में पहले आया। बाबजूद इसके उन्हें थर्ड डिवीज़न की लड़ाई लड़नी पड़ी, फिर भी मेडिकल में लगभग आधे स्टूडेंट्स फेल हो जाते थे। अब देखिए कि क्या सन 2006 का दलित 1857  के द्विजों जितना भी साधन सम्पन्न हो पाया है ? क्या सामाजिक दुराग्रह से उसे आज तक आज़ादी मिल पायी है ? क्या भारत के एक हज़ार बड़े उद्योगों में एक भी दलित स्वामित्व में है ? क्या एक भी दलित सीईओ है ? क्या भारत के कैपिटल मार्केट में दलितों का कोई रोल है ? क्या सरकारी नौकरियों में दलित बहुमत में है ? या दलित जमींदार है ? 
कुल मिलाकर लगभग 35 लाख दलित सरकारी नौकरियों में हैं। इनमें महज 51 हज़ार ग्रुप-ए और 29 हज़ार ग्रुप-बी सर्विसेज में हैं। क्या इनकी तुलना द्विज समाज से की जा सकती है, जिनकी तादाद करोड़ों में है ? अगर दलितों और द्विजों के बीच गैरबराबरी का कोई इंडेक्स बनाया जाए, तो एक सौ के पैमाने पर यह फर्क 90 बनाम 10 का होगा। ध्यान रहे, द्विज समाज ने मॉडर्न एजुकेशन में दस्तक 1854 में ही दे दी थी, जबकि दलित समाज 1950 के बाद तब इस ओर बढ़ा, जब रिजर्वेशन और स्कॉलरशिप का सिस्टम व्यापक पैमाने पर लागू हुआ। इस जबर्दस्त गैरबराबरी के बाबजूद दलित जेनरेशन नेक्स्ट ने महज आधी सदी में तीन हज़ार साल से बनाई गयी खाई को लगभग पात दिया है। अभी घोषित सीबीएसई रिजल्ट इस बात के गबाह हैं। 12वीं में दलित स्टूडेंट्स का पास प्रतिशत 77.57 रहा, जबकि जनरल केटेगरी का 80.26 पर्सेंट, यानि सिर्फ 2.69 परसेंटेज का फर्क है। 
यह एक बड़ा सामाजिक संकेत है। नई दलित पीढ़ी आ गयी है, जो मेरिट के नारे को खोखला बनाने के लिए बेक़रार है। ध्यान रहे, यह दलितों की सिर्फ दूसरी पीढ़ी है, जिसने एजुकेशन की दुनिया में कदम रखा है। तीन दशकों के भीतर दलितों की तीसरी पीढ़ी आ चुकी होगी, जिसकी कामयाबी हैरतअंगेज होगी। इसलिए यही बेहतर होगा कि दलितों को मेरिट के नाम पर अपमानित करना बंद किया जाए। 
दलित गणतंत्र, मीडिया स्टडीज ग्रुप,दिल्ली से साभार 

Monday, 11 August 2014

पिटते बच्चे ,परेशान शिक्षक, हैरान माँ -बाप

                                                                                                          राजेश 

आज सुबह एक बच्चे की ह्रदयविदारक चीखों ने सुबह की शांति को तोड़ा। बच्चा जो कि लगभग 5 -6 वर्ष का होगा लगातार अपनी माँ से विद्यालय न जाने कि ज़िद कर रहा था और माँ थी कि उसे स्कूल भेजने कि जिद पर अड़ी हुई थी। यह बच्चा दिल्ली के एक साधारण से निजी स्कूल में पढता है , लगातार रोते हुए कह रहा था कि   मैं स्कूल नहीं जाउंगा मैडम मुझे मारती है। विद्यालयों में बच्चों को पीटा जाना कोई बहुत असाधारण घटना नही है , यह विद्यालयों में जाने अनजाने होती ही रहती है और यह भी लोगों का पूर्वाग्रह ही है कि यह केवल सरकारी स्कूलों की संस्कृति में पाया जाता है। इस पर पड़ताल करने कि जरूरत है कि लगातार अदालतों के फैसलों तथा कानूनों के बाबजूद बच्चों को सजाएँ देना क्यों बदस्तूर जारी है। शिक्षक साथियों से बातचीत में वे बच्चे को गीली मिटटी  और खुद को कुम्हार की उपमा देते हैं और बताते हैं कि जिस प्रकार कुम्हार सख्त हाथों से गीली मिटटी को सुन्दर बर्तनों में बदल देता है उसी तरह से वे शिक्षकों की भूमिका को भी देखते हैं और वर्तमान दौर में विद्यार्थियों के निम्न प्रदर्शन का कारण वे इस तरह के कानूनों को बताते हैं जिस कारण से अब वे सीखने पर ध्यान न देने वाले बच्चों पर किसी भी प्रकार की सख्ती नहीं कर पाते हैं।
शिक्षकों के एक संगठन की और से जारी कि गयी बुकलेट  शिक्षक, विद्यार्थी और ... (शारीरिक दंड पर एक रपट पुस्तिका)   के एक सर्वेक्षण के अनुसार 57 प्रतिशत शिक्षकों की राय में शिक्षण में विद्यार्थियों पर नियंत्रण आवश्यक है वहीँ अपनी कक्षा के कुछ अभिभावकों के बीच किए गए एक सर्वे में इसी सवाल के जवाब में 89 प्रतिशत अबिभावकों ने नियंत्रण को जरुरी बताया। इसी प्रकार कक्षा में विद्यार्थियों द्वारा अनुशासन भंग करने के फलस्वरूप 21 प्रतिशत शिक्षकों ने डांटकर समझाने को चुना और कक्षा में खड़ा करने को 9 प्रतिशत शिक्षकों ने चुना और सिर्फ 4 प्रतिशत शिक्षकों ने ही पीटने का चुनाव किया वहीँ अभिभावकों में से किसी ने भी पीटने को नही चुना हालांकि सबसे अधिक 83 प्रतिशत अभिभावकों ने भी डाँटकर समझाने को ही चुना। मार खाकर विद्यार्थियों की सीखने कि क्षमता और उनके व्यवहार में सुधार होता है के जवाब में 54 प्रतिशत शिक्षक इसका जवाब नहीं में देते हैं जबकि 25 प्रतिशत का जवाब कुछ हद तक है इसी सवाल के जवाब में 89 प्रतिशत माता पिता सुधार की बात से इंकार करते हैं। 66 प्रतिशत शिक्षक स्वीकार करते हैं कि शारीरिक दंड का इस्तेमाल कभी कभार और बहुत कम करते हैं , जबकि 78 प्रतिशत अभिभावकों का भी मत है कि शिक्षकों को इसका इस्तेमाल कभी कभार ही करना चाहिए। कानून द्वारा शारीरिक दंड को प्रतिबंधित करने के औचित्य को लेकर 56 प्रतिशत अभिभावक इसकी जरुरत को कुछ कुछ महसूस करते हैं जबकि 38 प्रतिशत शिक्षकों ने यही विकल्प चुना और इसके अलावा 57 प्रतिशत शिक्षक दण्डित करने या न करने का पैमाना खुद तय करना चाहते हैं।सर्वेक्षण में शामिल 40 प्रतिशत से अधिक अभिभावक अनपढ़ हैं जबकि अधिकतर शिक्षक और अभिभावकों ने एक मत से लगभग एक सामान राय ही व्यक्त किया है। अब सवाल उठता है कि बच्चों को पालने वाले माँ बाप और उनको पढ़ाने वाले शिक्षक जब एक ही तरीके से सोचते हैं तो क्यों कानून अवधारणा अलग है और यह जरुरत महसूस नही करता है कि इस तरह के अहम मसले पर उनकी भी राय को शामिल कर लिया जाए और क्या यह सरकार की जिम्मेदार नहीं बनती है कि किसी भी कानून को लागू करने से पहले उससे जुड़े हुए सभी लोगों की एक बेहतर समझदारी बनाई जाए और इसी क्रम में क्या देश भर में चल रहे शिक्षक प्रशिक्षण केन्द्रों की जिम्मेदारी नही बनती है कि वो शिक्षकों को शारीरिक दंड के प्रति जागरूक करें और कक्षा को नवीन पद्धति और सृजनात्मकता के साथ बच्चों के साथ किस प्रकार काम किया जा सकता है बताए। सरकारों के लिए भी यह एक सबक हो सकती है कि केवल शिक्षा अधिकार का खोखला कानून बना देने से ही बच्चों को शिक्षा नही मिल जाएगी बल्कि यदि बच्चों को एक सम्मानजनक जीवन जीने की शिक्षा देनी है तो इस दिशा में काम किये जाने की जरुरत है।              
इन सब के अलावा एक और बात की भी पड़ताल करने की जरुरत है की वो कौन लोग और संस्थाएं हैं जो की इसके पैरवीकार हैं और वो क्या कारण हैं कि उनको इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी दिखाई नही पड़ती है उनको ये बहुपर्ती स्कूली व्यवस्था भी नही दिखती है, जहाँ खुलेआम शिक्षा बाजार में ख़रीदे बेचे जाने वाले सामान में बदली जा रही है और समाज के सबसे गरीब और उपेक्षित बच्चों के लिए सरकार ने सरकारी स्कूलों का जर्जर होता हुआ ढांचा रख छोड़ा है जहाँ स्कूल का मतलब एक सुविधा विहीन इमारत है। ऐसा नही है कि कुछ दशक पहले सुविधाएँ पूरी थी पर शिक्षा एक मानवीय क्रियाकलाप है और इसी के फलस्वरूप शिक्षक और विद्यार्थी के बीच एक सुदृढ़ मानवीय रिश्ते थे और इसी के फलस्वरूप सरकारी विद्यालयों के बच्चे भी कुछ संख्या में ही सही नौकरियों की लाइन में आ ही जाया करते थे। 
नवउदारवाद के दौर में जब विश्वबैंक ने सरकार की नीतियों को प्रभावित करना शुरू किया उसके फलस्वरूप भारत में यह जरुरी था कि जनता का जो भरोसा इन सरकारी विद्यालयों को प्राप्त है उसको नष्ट किया जाए इसके लिए उसने तरह तरह के समूहों के द्वारा शिक्षकों को नकारा साबित करने का अभियान चलवाया और इसी अभियान में से एक अभियान यह शारीरिक दंड को प्रतिबंधित करने की वकालत भी थी जिसमें यह साबित किया गया कि शिक्षक बर्बर और अमानवीय है और इस तरह के कानून से ही बच्चों को बचाया जा सकता है। इस प्रकार शिक्षक और विद्यार्थी के बीच के सहज मानवीय सम्बन्ध में एक दरार ला दी गयी है जिसका असर विद्यालयों में दिखाई भी दे जाता है और इसी का असर है कि शिक्षकों से बातचीत में वे काफी निराश दीखते हैं।  
  
अब सवाल उठता है कि क्या कारण है कि आज अदालतें एक पक्ष में हैं और अभिभावक और शिक्षक दूसरे पक्ष में। क्या कारण है कि शिक्षक अतीतजीवी होकर पिछले को ही बेहतर मान रहे हैं और नवाचारों को सिरे से ख़ारिज कर रहे हैं। इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण बात है कि किसी भी कानून को लागू करने से पहले जो सामाजिक तैयारी करने कि आवश्यकता होती है और वक्त के साथ जिन परिवर्तनों को स्वाभाविक तौर पर समाज का हिस्सा बन जाना चाहिए उनके बिना ही मूल्यों को कानून बना कर जल्दी पा लेने कि जल्दबाजी है। इस पूरी घटना पर शिक्षक रुष्ट है कि उनके अधिकार उनसे छीने जा रहे हैं चूँकि मिलाजुलाकर शिक्षा व्यवस्था में बच्चे ही उनकी पूँजी थे और अविभावक परेशान कि बिना सख्ती किए बच्चे पढ़ेंगे सीखेंगे कैसे ?