Thursday, 4 September 2014

Towards A More Democratic Teachers’ Day


Friends,
Like every year, 5th September 2014 will also be celebrated as Teachers’ Day in our schools. This day is celebrated not in memory of any teacher who had fought for social equality or any movement for equality of rights or in remembrance of any revolutionary turn in history. Rather it was chosen to celebrate the birth date of a person who has made no remarkable contribution to the universalisation of education. Instead dates associated with struggles of teachers like Jyotiba Phule, Pandita Ramabai, Savitribai Phule, Gijubhai Badheka, who have made exceptional contribution in education, look more appropriate for Teachers’ Day. In a system rooted in inequality, the role of education and teachers is to prepare the way for a more egalitarian and just society. This can happen when knowledge of history is embedded in an understanding of struggles. Programs based on administrative commands and formal traditions can only obtuse the intellect of teachers.
This year’s Teachers’ Day celebration shall further crystallize such formal traditions. As per the government directive, all schools are required to show Teachers’ Day address of the Prime Minister to their students between 3:00-4:45 pm. To enforce implementation of this directive officials are required to ensure that the ‘directions are being complied in letter and spirit’. It is further communicated to schools through a circular that ‘any laxity in the arrangements shall be viewed seriously’. It’s an exercise to hurt the self-respect of teachers and ‘show’ them their position in educational hierarchy.  It might be happening for the first time on Teachers’ Day that teachers have been given a present of threats wrapped in an administrative fashion. This year’s design of a centralized program takes away from schools and students freedom to celebrate or not celebrate this day in their own ways. Even if it’s seen positively by some as an interaction between the Prime Minister and students, is it not an example of dictatorial intervention in the functioning of autonomous institutions like schools?
Another piece of irony is that thousands of teaching posts are lying vacant in schools of Delhi government. In the absence of teachers some subjects were either not taught to students or teachers of other subjects were made to undertake this task. The guest teachers who were finally appointed in the last week of August were asked to complete syllabus in a short period of 20-25 days so that students can anyhow sit for first term examinations. The slogan of ‘quality education’ remains nothing but a hollow phrase in such a system. De-regularization of teachers is not a technical or financial issue but a result of neoliberal policies whereby labour power in each sector is being increasingly used at low wages on a contractual and informal basis. What kind of social values can grow in a system where teachers are ill-paid, fragmented and insecure about their jobs all the time? It would be a challenge in such a situation for teachers to inculcate an understanding and strength to build a democratic and egalitarian society among students.
Friends, we appeal to you to protest against this atmosphere of tyranny and systemic inequality and join the struggle for democratic, equitable and universal education.


’शिक्षक दिवस’ को जनतांत्रिक बनाओ!


साथियों,
हर बार की तरह इस साल भी हमारे स्कूलों में 5 सितंबर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। यह तारीख शिक्षा में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़े किसी स्कूली शिक्षक या बराबरी के हक के लिए लड़े गए किसी आंदोलन या किसी परिवर्तनकामी मोड़ की याद में नहीं चुनी गई है, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति के जन्मदिन पर चुनी गई है जिसका शिक्षा के सार्वभौमिकरण में कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं रहा है। इसके बनिस्बत शिक्षा में अतुलनीय योगदान देने के लिए ज्योतिबा फुले, पंडिता रमाबाई, सावित्रीबाई फुले, गिजुभाई बधेका जैसे शिक्षकों के संघर्षों से जुड़ी तिथियाँ शिक्षक दिवस के लिए अधिक उपयुक्त लगती हैं। गैर-बराबरी पर टिकी व्यवस्था में शिक्षा और शिक्षक का काम समता व इंसाफ की राह तैयार करना है। जाहिर है कि यह काम संघर्ष के लिए प्रेरित करने वाले इतिहास बोध से ही हो सकता है। प्रशासनिक आदेशों और औपचारिक परंपराएं निभाने वाले कार्यक्रमों से तो शिक्षकों की बौद्धिकता के कुंद होने की ही संभावना अधिक है। 
                  इस बार का शिक्षक दिवस समारोह इस औपचारिकता को और जटिल बनाएगा। सरकारी आदेश के अनुसार 5 सितम्बर को दोपहर 2ः30-4ः45 बजे के बीच हर विद्यालय में प्रधानमंत्री के भाषण का सीधा प्रसारण बच्चों को दिखाया जाना है। इस आदेश के कार्यान्वयन के लिए कहा गया है कि अधिकारी वर्ग स्कूलों में जाकर यह देखे कि आदेशों का पालन सख्ती से हो रहा है कि नहीं। जारी किए गए आदेश के अनुसार, इंतजामात में किसी भी तरह की कमी को गंभीरता से लिया जाएगा। यह शिक्षकों के आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचाकर उन्हें उनकी औकात याद दिलाने की ऐतिहासिक कवायद है। शायद ऐसा पहली दफा हुआ है कि शिक्षक दिवस के मौके पर शिक्षकों को प्रशासनिक तौर-तरीके से धमकी का तोहफा दिया गया है। इस बार के केन्द्रीकृत आयोजन ने स्कूलों और बच्चों के शिक्षक दिवस अपने-अपने ढंग से मनाने या नहीं मनाने की आजादी को भी छीन लिया है।  भले ही इसे प्रधानमंत्री के सीधे बच्चों से बातचीत के सकारात्मक रूप में भी देखा जा रहा हो, पर क्या यह स्कूल जैसी स्वायत्त संस्था में तानाशाही हस्तक्षेप का नमूना नहीं है?                                         
                 एक और विडंबना यह है कि दिल्ली सरकार के स्कूलों में हजारों शिक्षकों के पद खाली हैं। इसका मतलब है कि शिक्षकों की अनुपस्थिति में कुछ विषय या तो बच्चों को पढ़ाए ही नहीं गए या मजबूरन किसी अन्य विषय के शिक्षक द्वारा पढ़वाए गए। अगस्त के अंत में जो गेस्ट अध्यापक नियुक्त भी हुए, उन्हें 20-25 दिनों में ही पाठ्यचर्या पूरी कराने की जिम्मेदारी दी गयी ताकि बच्चे जैसे-तैसे पहले सत्र की परीक्षाएं दे सकें। ऐसे ढाँचे में ‘गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा’ का नारा महज एक खोखला मुहावरा बनकर रह जाता है। शिक्षकों का अनियमन कोई तकनीकी या वित्तीय समस्या नहीं है बल्कि यह नवउदारवादी हमले के तहत अपनाई जा रहीं नीतियों का परिणाम है। हर क्षेत्र में श्रम शक्ति का ठेकाकरण और अस्थायीकरण हो रहा है ताकि काम करने के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध हो सके। जिस शिक्षा व्यवस्था में अध्यापक हर समय अपनी नौकरी के लिए असुरक्षित है, उस व्यवस्था में कौन से सामाजिक मूल्य पल सकते हैं? ऐसे माहौल में शिक्षकों का अपने विद्यार्थियों में लोकतान्त्रिक और समतावादी समाज बनाने की समझ और हिम्मत पैदा करना एक चुनौती है। 
            साथियों, हम आपसे अपील करते हैं कि इस गैर-बराबरी पर टिकी व्यवस्था और तानाशाही के माहौल का विरोध करें और जनतांत्रिक, समतामूलक, सार्वभौमिक शिक्षा की स्थापना के लिए मिलजुलकर संघर्ष करें।