23 जनवरी को उत्तरी दिल्ली नगर निगम के एक स्कूल के शिलान्यास के कार्यक्रम में जो कुछ देखा वो परेशान करने वाला था। अफ़सोस तो यह है कि समस्या सिर्फ प्रशासनिक अधिकारियों और जनप्रतिनिधि की समझदारी को लेकर नहीं थी बल्कि इसमें हम शिक्षक व प्रधानाचार्य भी शामिल थे।
निगम प्राथमिक बाल विद्यालय (तोमर कॉलोनी, बुराड़ी) के शिलान्यास कार्यक्रम के संदर्भ में कुछ चिंताएँ व आपत्तियाँ स्पष्ट तौर पर उभरीं जिनका सरोकार लोकतंत्र व सार्वजनिक स्कूलों की निरपेक्षता, गरिमा और मर्यादा क़ायम रखने से है।
यह शिलान्यास कार्यक्रम एक सार्वजनिक स्कूल के प्राँगण में था मगर उसमें दलगत झंडों का इस्तेमाल किया गया था। काम कर रहे व्यक्तियों को झंडे लगाने पर टोका गया तो वो बोले कि इसके आदेश उन्हें 'ऊपर' से मिले थे और वैसे भी वो मंच के ऊपर वाले हिस्से पर तीन झंडे ही लगाने जा रहे थे। (बाक़ी झंडे स्कूल के बाहर, सड़क पर लगे।) अधिक बात करने पर ज्ञात हुआ कि कार्यकर्ताओं की नज़र में उस दिन दल ने स्कूल को किराये पर/कब्ज़े में/ ले लिया था! उन्होंने बताया कि निगम ने तो सिर्फ एक नारियल (जोकि, डी-जे पर बजी उस वंदना की तरह, शायद इस धर्मनिरपेक्ष राज्य के विशेष वर्णगत और सांस्कृतिक मूल का द्योतक है) और कुछ मिठाई का ही औपचारिक खर्च उठाया था तथा बाक़ी खर्च - मंच, टेंट, कुर्सियाँ, सजावट, दरी, फूल-मालायें, डी-जे, खान-पान आदि - दल/पार्षद द्वारा होने पर स्कूल व उक्त कार्यक्रम पर दलगत हक़ होना जायज़ ही था। (बाद में कुछ साथियों ने बताया कि उन्हें ठेकेदार से पता चला कि कार्यक्रम में निगम कोष से सात लाख रुपये खर्च किये गए थे। कहना मुश्किल है कि वस्तुस्थिति क्या है।) ताज्जुब तो यह है कि हमारे सार्वजनिक स्कूलों की निरपेक्ष छवि को आघात पहुँचाता यह मंज़र विपक्षी दल के उपस्थित-आमंत्रित पार्षद को भी विचलित नहीं कर पाया। बाद में, पूछताछ करने पर, मालूम हुआ कि इस व्यवहार को ग़लत मानते हुए भी मुख्यधारा के दल आपत्ति इसलिए नहीं करते क्योंकि वो भी इसी संस्कृति का पालन करते हैं।
यह भी रोचक व महत्वपूर्ण था कि जिस आयोजन का प्रचार सुभाष की जयंती के अवसर के नाम पर किया गया था उसमें उपस्थित वक्ताओं ने उनके विचारों या राजनैतिक कर्मों की कोई चर्चा नहीं की। और तो और, वक्ताओं ने, जिनमें राज्य-सभा के सदस्य भी शामिल थे, या तो शिक्षा पर कोई गंभीर, विद्वतापूर्ण टिप्पणी नहीं की या फिर सतही और झूठे-भ्रामक, उत्तेजनापूर्ण जुमले फेंक कर चलते बने। उदाहरण के लिए, मुख्य-अतिथि उपस्थित जनसमुदाय व बच्चों को यह कह-कहकर उकसाते रहे कि अब परीक्षाओं को हटा देने से बच्चों ने पढ़ना छोड़ दिया है और उद्दंड हो गए हैं। यह ज़रूर है कि उनमें से अधिकतर अपने सम्बोधनों में घोर दलगत प्रकार का प्रचार करते रहे। शायद यह इसी माहौल का सफल परिणाम था कि एक छात्रा को बाद में यह कहते हुए सुना गया कि उक्त स्कूल को उक्त पार्टी बना रही है।
ज़ाहिर है कि अगर ऐसा कोई कार्यक्रम किसी सार्वजनिक स्कूल के प्राँगण में स्कूल समय में ही होता है तो उससे स्कूली दिनचर्या, पठन-पाठन व बच्चों के शैक्षणिक व अन्य हितों का हनन होना तय है। हालाँकि उक्त कार्यक्रम में उस दिन शीतलहर के चलते घोषित अवकाश होने के कारण ऐसा नहीं हुआ, लेकिन यह संयोग था, सुनियोजित नहीं। यह हमारे सार्वजनिक स्कूलों व उनमें पढ़ने वाले बच्चों की पढ़ाई के प्रति एक अगम्भीर रवैये का संदेश देता है। साफ़ है कि अगर उस दिन स्कूल में बच्चे उपस्थित होते तो या तो उन्हें जल्दी घर भेज दिया गया होता या फिर पहले से ही नहीं आने के संकेत दिलाये गए होते। फिर अगर शीतलहर या बाल-स्वास्थ्य से जुड़े अन्य कारणों के चलते बच्चों की छुट्टी कर दी गई है मगर फिर भी उन्हें ऐसे कार्यक्रमों में बुलाया व इस्तेमाल किया जाता है तो यह उनके स्वास्थ्य, अधिकारों व स्वयं शासनादेश के प्रति ग़ैर-ज़िम्मेदारी प्रकट करता है। हाँ, घोषित अवकाश होने के बावजूद उस दिन स्कूल की कुछ छात्राओं को 'सांस्कृतिक' कार्यक्रम प्रदर्शित करके आयोजन सँवारने के लिए बुलाया गया था। (यह बात हमारे लिए अलग से चिंताजनक है कि इस बार भी संस्कृति के नाम पर ऐसे ताज़ा फ़िल्मी गाने व नृत्य ही परोसे गए थे जिनके बोलों तथा भंगिमाओं से औरत का दोयम, परनिर्भर और शरीर-केंद्रित दर्जा ही पुनर्स्थापित होता है। और हमारी छात्राओं को इस आत्मघाती प्रस्तुतिकरण के लिए तैयार किया जाता है, प्रेरित किया जाता है, पुरस्कृत किया जाता है जिससे वो अपने उत्पीड़न के मूल्यों, उसकी परिस्थितियों को एक आदर्श, एक उत्सव की तरह देखने लगती हैं।) अगर सार्वजनिक स्कूल में किसी ऐसे कार्यक्रम का स्वरूप प्रशासनिक न होकर दलगत है तब तो किसी भी परिस्थिति में बच्चों को उसमें इस्तेमाल करना ठीक नहीं है। यह बच्चों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को दरकिनार करके, उनकी मासूमियत को निजी, दलगत राजनैतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उपयोग करने का क्षुद्र संदेश देता है। मगर उस मजमे में बैठे सैकड़ों लोगों में से खुद अभिभावकों ने भी इसपर कोई ऐतराज़ प्रकट नहीं किया। मगर जब कुर्सियों पर ख़ास लोग बैठे हों और दरियों पर केवल औरतें या लड़कियाँ, तो ऐसे में समाज में व्याप्त वर्ग-विभाजन तथा पितृसत्ता इतनी साफ़ नज़र आती है कि किसी प्रतिरोध की संभावना ही कम दिखाई देती है।
उस कार्यक्रम में भोजन का भी प्रबंध था मगर आम जनता के लिए वह साधारण नाश्ता था और ख़ास मेहमानों/लोगों के लिए पकवान-युक्त थाली। यह सामंती संस्कृति में डूबा बेशर्मी भरा भेदभाव था। लोकतंत्र में, लोकतान्त्रिक प्रतिनिधियों द्वारा सार्वजनिक स्वरूप के कार्यक्रमों में ऐसा भेदभाव प्रदर्शित करना लोकतंत्र के मूल्यों के अपमान का संदेश देता है।
हमें लग सकता है कि ऐसे दिशा-निर्देश तय करने की ज़रूरत है जिनका पालन हमारे सार्वजनिक स्कूलों में होने वाले हर कार्यक्रम में हो ताकि स्कूलों और लोकतंत्र की निरपेक्षता व गरिमा अक्षुण्ण रहे मगर मसला यह है कि ऐसे नियमों का प्रावधान पहले से ही है। ज़ाहिर है कि यह स्कूल प्रशासन पर है कि वो अधिकारियों व दलगत सत्तासीन ताक़तों के ग़ैर-क़ानूनी व अनैतिक आदेशों को - जोकि हमेशा मौखिक होते हैं - कितनी सच्चाई और साहस से नकार सकते हैं। यह अवलोकन अवश्य ही उम्मीद जगाने वाला था कि जिन तीन अलग-अलग स्कूलों के शिक्षकों ने उक्त कार्यक्रम को देखा उनमें से अधिकतर ने उसके दलगत स्वरूप पर अपनी नाराज़गी व असहमति ज़ाहिर की। हो सकता है कि इस आपत्ति में कुछ अंश आयोजकों के व्यक्तित्व-व्यवहार में विनम्रता की उस प्रकट कमी के चलते रहा हो जोकि किसी एक दल के नेतृत्व के चरित्र तक सीमित नहीं है। एक अन्य कारण उस दबाव का भी हो सकता है जोकि किसी भी 'बड़े आयोजन' पर मेहमान-नवाज़ को महसूस कराया जाता है - पितृसत्ता में बेटी के माँ-बाप की तरह वो भी एक तरह की अग्नि-परीक्षा से ग़ुज़र रहा होता है। इस संदर्भ में तो यह स्कूल के चौकीदार के अनुभव से और भी रेखांकित हुआ। कार्यक्रम की पूर्व संध्या पर उन्होंने मैदान में पानी लगाकर छोड़ दिया था जिससे कि वहाँ - जोकि तयशुदा जगह थी - टेंट व मंच लगाना असम्भव हो गया तथा फिर कार्यक्रम को पक्के फर्श पर आयोजित करना पड़ा। (हालाँकि इससे आयोजन संबंधी कोई नुकसान नज़र नहीं आया।) इस 'अनहोनी' पर न सिर्फ उन्हें व प्रधानाचार्य को खूब खरी-खोटी सुननी पड़ी बल्कि इंतेज़ाम के लिए रात में स्कूल में रुके कार्यकर्ताओं ने शराब के नशे में चौकीदार से अभद्र भाषा का प्रयोग भी किया।
इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर हमारे राजनैतिक, शैक्षिक व प्रशासनिक कार्यक्रमों के कर्मकांडी स्वरूप के बारे में सवाल खड़े करने को मजबूर किया। ऐसा लगता है कि इन क्षेत्रों के तथाकथित आधुनिक चरित्र के दावे पूर्णतः खोखले हैं और मूलतः ये क्षेत्र हमारी सामंती, धर्माधारित संस्कृति की ग़ैर-बराबरी, फुज़ूलखर्ची, असामाजिकता, हिंसा, शोषण व अमानवीयता पर ही खड़े हैं व इन्हें ही पोषित करते हैं। साथ ही, यह अनुभव, जिसे कि कई लोग साधारण परिघटना बताते हैं, हमारे लोकतान्त्रिक प्रशासन और सार्वजनिक संस्थाओं के तथाकथित निरपेक्ष चरित्र की घटिया हक़ीक़त भी बयान करता है। इस राज्य पर मासूम, शरीफ लोगों की जमात का बस नहीं है - यह निर्मम, बदतमीज़, बदमिज़ाज ताक़तों का गढ़-गठबंधन है। जबतक हम अपनी शिक्षा, राजनीति व संस्कृति में इन सामंती तथा कर्मकांडी तत्वों को न सिर्फ बर्दाश्त करते रहेंगे बल्कि बढ़ावा तक देते रहेंगे तबतक हमारे अनुभव इन कटुताओं से भरे रहेंगे।
मैंने देखा
बच्चों को सत्ता के निजी हितों
के लिए इस्तेमाल होते हुए
मैंने देखा
बच्चों को घोषित अवकाश पर भी
शासनादेश से स्कूल बुलाये जाते हुए
मैंने देखा
स्कूल की निरपेक्ष गरिमा को
दलगत प्रचार से तार-तार होते हुए
मैंने देखा
लोकतंत्र में जनता को आम नाश्ता
और ख़ास लोगों को पकवान बँटते हुए
मैंने देखा
सुभाष की जयंती पर नए स्कूल
पुराने समाज का शिलान्यास होते हुए