यह अनुभव निगम विद्यालय में पढ़ाने वाले शिक्षक ने अपने साथ पढ़ाने वाले शिक्षक साथी के बारे में साझा किया। यह अनुभव हमें कुछ समय पहले प्राप्त हुआ पर हम इसे पाठकों के साथ किन्हीं कारणों से साझा नहीं कर पाए। इस बीच व्यवस्था के साथ विरोध के कारण इन शिक्षक साथी ने मिड-डे-मील का कार्य छोड़ दिया है पर इनका संघर्ष और निर्माण लगातार जारी है। हम अपने इस प्रेरणादायक शिक्षक साथी के संघर्ष और निर्माण को अपना सलाम पेश करते हैं।
....... संपादक
उनसे पहला परिचय
तब हुआ था जब उन्होंने एक अन्य साथी शिक्षक के साथ दूसरे स्कूल में आयोजित केंद्रीकृत
परीक्षा के बिगड़े स्वरूप के प्रति अपना विरोध दर्ज किया था। उन्होंने वहाँ परम्परा
के तहत अधिकार पा चुकीं विकृतियों को बर्दाश्त नहीं किया और छोटे-बड़े, नए-पुराने, अपने-बाहरी व कनिष्ठ-वरिष्ठ जैसे संकोचों के
सुसंकृत-शालीन दबावों को खारिज करके एक 'हंगामा' खड़ा कर दिया था। यह घटना उन दोनों शिक्षकों की नौकरी के पहले
ही वर्ष में घटी थी। उनके वो साथी तो नौकरी मिलने पर अपने राज्य लौट गए और वो आज भी, उस घटना के 6 साल बाद, उसी स्कूल में उसी शिद्द्त से संघर्ष और
निर्माण की प्रक्रिया में लगे हुए हैं। जब उनसे मित्रता बढ़ी तो उन्होंने मिलकर क्लास/स्कूल के लिए एक पुराना टी. वी.
खरीदने का प्रस्ताव रखा। जब प्रशासन से कक्षा में शैक्षिक उद्देश्य से फिल्में आदि
दिखाने की अनुमति की अर्ज़ी का कोई जवाब नहीं आया तो उन्होंने कक्षा में सप्ताह में
एक दिन फिल्में दिखाना शुरु कर दिया। फिल्मों का चयन वो मुख्यतः CFSI के केंद्र व उनकी सूची से करते हैं। आज स्कूल
की अन्य कक्षाएँ व विद्यार्थी भी उनकी इस पहलक़दमी का लाभ उठा रहे हैं। हालाँकि यह
स्थिति उत्साहवर्धक नहीं है कि उनकी अर्ज़ी का जवाब नहीं आया और एक सार्वजनिक स्कूल
में इस तरह के जायज़ प्रयास के लिए न तो कोई सार्वजनिक व्यवस्था है और न ही
सार्वजनिक वित्त उपलब्ध कराया जाता है। यह बात भले ही महत्वपूर्ण न हो कि वो
अनिवार्य रूप से स्कूल सबसे पहले पहुँचते हैं - तब भी जब वो हफ्ते में दो दिन
हरियाणा में स्थित अपने पारिवारिक घर से तीन-चार घंटे का
सफर करके आते हैं - मगर यह ज़रूर रेखांकित करने योग्य है कि वो जल्दी पहुँचकर अपनी
कक्षा की सफाई करते हैं (झाड़ू लगाते हैं), टाट पट्टियाँ बिछाते हैं और विद्यार्थियों को
खेल का सामान देते हैं। यह भी मानना होगा कि ऐसी स्थिति स्कूलों के दो पालियों में
चलने और नियमानुसार भी पर्याप्त संख्या में सफाई कर्मियों के नियुक्त न होने के कारण भी उत्पन्न हुई
है। यह भी दर्ज किया जाना चाहिए कि ऐसा वो स्वच्छ-भारत अभियान के पहले से, उसकी शपथ से अप्रभावित होकर भी, करते आ रहे हैं और इस देशव्यापी अभियान ने
अभी स्कूलों में वो न्यूनतम संसाधन भी उपलब्ध नहीं कराए हैं जो उन्हें इस काम से
मुक्त करने में सहायक हों। कक्षा की व्यवस्था करने के बाद वो एक बाल्टी
में पानी भरते हैं जिसे उनके विद्यार्थी मिड-डे-मील लेने से पहले हाथ धोने के काम में लाते हैं।
उनके पास मिड-डे-मील के एक हिस्से की ज़िम्मेदारी भी है और अपनी कक्षा के अलावा पूरे स्कूल के लिए
उन्होंने इस संदर्भ में तरल साबुन का बंदोबस्त किया है जिसका खर्चा
वो स्कूल के कोष से पूरा करते आए हैं। (हालाँकि, यहाँ भी परिस्थितिवश खीझकर पिछले कुछ समय से
वो खुद ही खर्च वहन कर रहे हैं और इससे हम व्यवस्था की अहमियत के साथ-साथ ऐसे एकाकी जीवट प्रयासों की सीमा से भी परिचित होते हैं।) टिफिन नहीं लाने वाले विद्यार्थियों के लिए
उन्होंने स्कूल के फंड से आई उन प्लेटों को निकलवाया जो अल्मारियों में बंद पड़ी
थीं। ज़ाहिर है कि अपने इस दायित्व को निभाने में, जिसमें (लगभग 150) प्लेटों को रोज़ गिनकर निकालना, उन्हें धोने के लिए साबुन की व्यवस्था करना, सभी बच्चों (अधिकतम 1400) के लिए हाथ धोने के साबुन की व्यवस्था करना, हर कक्षा (35 कक्ष) में एक बार जाकर शिक्षकों को खाना आने की सूचना देना -
ताकि वो उसे चख लें - और फिर दोबारा जाकर विद्यार्थियों को खाने के लिए बुलाने से
लेकर प्लेटों को गिनकर और ढूँढकर रखना शामिल है, उनकी अपनी कक्षा का कुछ शिक्षण समय ज़ाया होता है। यह भी कोई आदर्श व्यवस्था की निशानी नहीं है। अक़्सर चार-पाँच विद्यार्थी खाने के
बाद अपनी जूठी प्लेट इधर-उधर छोड़ देते हैं। ऐसे में वो
उन प्लेट्स को ढूँढकर धोते हैं। कुछ साथियों ने कई बार उन्हें समझाने की कोशिश की कि वो प्लेट्स वितरित न करें
बल्कि बाक़ी विद्यार्थियों पर भी दबाव डालें कि वो घर से टिफिन लेकर आएँ पर उनका
कहना है कि एक तो दो-चार बच्चों की ग़ल्ती/लापरवाही के चलते पूरी व्यवस्था को ही
अनुदार बनाकर सबको प्रताड़ित करना अनुचित होगा और दूसरे उन्हें लगता है कि जो बच्चे
प्लेट जूठी छोड़ते भी हैं वो ऐसा किसी मजबूरी या
कारणवश ही करते हैं - जैसे, प्लेट धोने की लाइन लम्बी होना, घंटी बज जाना, भूल जाना आदि। खासतौर से इस संदर्भ में जब
राजसत्ता व समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग न्याय के इन बुनियादी उसूलों को ही बेशर्मी से पलट रहे हैं कि एक के कर्म की सज़ा
दूसरे को नहीं दी जा सकती, कि सामूहिक सज़ा अमानवीय है और चाहे सौ अपराधी छूट जाएँ, एक बेक़सूर को सज़ा नहीं होनी चाहिए, एक शिक्षक की इन्साफपसंदगी हौसला बनाए रखती
है। मिड-डे-मील के संदर्भ में उनकी कोशिश रहती है कि सभी
शिक्षक साथी उसे अपनी-अपनी कक्षा के समक्ष ग्रहण करें ताकि उसकी सम्पूर्ण जाँच भी
हो जाए व भोजन के बारे में बच्चों को आश्वासन/प्रेरणा भी मिले। अगर कभी खाना कम पड़ जाता है तो वो
वितरक पर दबाव बनाकर सुनिश्चित करते हैं कि रह गए बच्चों के खाने की व्यवस्था कराई
जाए। हालाँकि अधिकतर होता यही है कि जो खाना बचता है - याद रखिये, 1400 बच्चों का नामांकन है - उसे वो कक्षा-कक्षा घूमकर
खुद बाँटते हैं ताकि खाना बचे भी नहीं और वितरक को अगले दिन कम खाना भेजने का
बहाना भी न मिले। अपने इस काम में उन्होंने कुछ गीत व
नारे भी तैयार किये हैं जिन्हें वो खाना बँटवाते/बाँटते समय गा-गाकर बच्चों को
आकर्षित व आनंदित करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। फिर भी इसे नज़रंदाज़ नहीं किया
जाना चाहिए कि इस ज़िम्मेदारी के बोझ में वो खुद भी महसूस करते हैं कि कभी-कभार
उन्हें किसी बच्चे पर अनावश्यक ग़ुस्सा भी आ जाता है। तब उन्हें लगता है कि उन्हें
इस चुनौतीपूर्ण व बेमेल व्यवस्था में इस असम्भव दायित्व को उठाने की ज़िम्मेदारी
छोड़ देनी चाहिए क्योंकि यह (सेहत के अलावा, अतिरिक्त भागदौड़ के चलते जिसमें आ रही गिरावट के बारे में उन्हें यक़ीन है) उनकी इंसानियत को
भी क्षति पहुँचा रहा है। इस मायने में उनके उदाहरण को किसी अनुकरणीय मिसाल की तरह नहीं बल्कि चुनौतीपूर्ण
व विषम परिस्थितियों के बयान के रूप में लिया जाना
चाहिए।
वो अक्सर
अखबारों में आई शिक्षा से जुड़ी (व अन्य) खबरों की कतरनें काटकर साथियों से साझा
करते हैं। मुझे तो क़रीब-क़रीब रोज़ ही कई कतरनें पकड़ा देते हैं जिन्हें मैं गृहकार्य मानने लगा हूँ! यह महत्वपूर्ण है कि
उनके द्वारा थमाई गई अधिकतर कतरनें या तो शिक्षा पर हो रहे निजीकरण-व्यावसायीकरण
के नीतिगत हमलों के बारे में होती हैं या फिर शिक्षक संगठनों व समाज के अन्य वर्गों द्वारा सार्वजनिक
व्यवस्था के पक्ष में हो रहे संघर्षों की। अक्सर इन खबरों में उनके राज्य, हरियाणा, के स्कूल शिक्षकों के सांगठनिक संघर्षों के जो उदाहरण होते हैं उन्हें वो कम-से-कम दिल्ली
की तुलना में एक बेहतर मिसाल मानते हैं।
चूँकि शिक्षक एक
सार्वजनिक बुद्धिजीवी है इसलिए उसका अपने विद्यार्थियों से रिश्ता स्कूल के काल
और प्रांगण तक ही सीमित नहीं है, इस समझ को उनके उन प्रयासों में प्रकट होते देखा जा
सकता है जो वे व्यवस्था की अन्य इकाइयों के साथ पत्र-व्यवहार के
माध्यम से भी करते रहते हैं। इनमें, उदाहरण के लिए, पाठ्यपुस्तक ब्यूरो को किताबों में ग़लत जानकारी व खराब छपाई को लेकर शिकायत
करना तथा सड़क पर स्पीड-ब्रेकर के न होने और बसों में
विद्यार्थियों - जोकि उनके स्कूल के नहीं हैं - को नहीं चढ़ने देने से होने वाली परेशानियों के संबंध में
कार्रवाई की माँग करना भी शामिलरहा है। यह उनकी निरंतर पैनी होती राजनैतिक चेतना को दर्शाता है कि
वो सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों के स्कूल आने-जाने में परिवहन की समस्या को एक तरफ
शिक्षा-अधिकार से जोड़कर देखते हैं और दूसरी तरफ निजी स्कूलों को सार्वजनिक परिवहन
की बसें मुहैया कराने की ग़लत नीति के प्रकाश में। इसी कड़ी में उन्होंने
लगातार पत्र-व्यवहार करके न सिर्फ मिड-डे-मील के मानकों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने
की कोशिश की है,
बल्कि खाना
बाँटने वाली कर्मियों के मेहनताने से जुड़ी जानकारी प्राप्त करके उनके
पक्ष में दबाव बनाने की कोशिश भी की है। इसी चेतना के परिणामस्वरूप वो सेमीनार में या
अन्य स्कूलों में जाने पर वहाँ भी सार्वजनिक व्यवस्था के हितों के विरुद्ध काम कर
रहे पूर्वाग्रहों, NGOs, निजी संस्थाओं आदि के संबंध में बात रखते हैं, सामग्री साझा करते हैं और लिखते हैं।
उनके कक्षाई
शिक्षण के बारे में कुछ भी कहना इसलिए भी अनुचित होगा क्योंकि उसका कोई प्रत्यक्ष
सबूत या मापदंड प्रस्तुत करने की स्थिति नहीं है, मगर विद्यार्थियों के साथ उनके रिश्तों में
स्नेह,
संवेदनशीलता व
प्रतिबद्धता लगातार बढ़ती गई है। अनुभव के साथ समाज के शोषित, मेहनतकश व हाशिये पर धकेल दिए गए वर्गों से
आने वाले बच्चों के प्रति उनकी संवेदनशीलता गहरी होती गई है और इसका एक उदाहरण
उनकी कक्षा में उन बच्चों की सहज उपस्थिति व भागीदारी है जिन्हें CWSN के रूप में चिन्हित किया जाता है। उनके विद्यार्थियों को यह भरोसा है कि वो 'सर' के साथ मज़ाक ही नहीं कर सकते बल्कि उन्हें छेड़ भी सकते हैं और उनसे उनकी
शिकायत भी कर सकते हैं। शायद यही कारण है कि जब छुट्टी के बाद वो कक्षा छोड़ते हैं
और सामान समेटते हैं तो कुछ विद्यार्थी स्वयं भी रुककर उनका साथ देते हैं, उनके साथ चलते हैं …। ऐसे में जबकि ग़ुज़रते वक़्त के साथ एक तरफ बच्चों के साथ उनका जुड़ाव और प्रगाढ़ होता गया
है,
उनके व्यवहार में बच्चों के प्रति कोमलता बढ़ती गई है और दूसरी
तरफ राज्य व व्यवस्था के चरित्र को लेकर उनका विश्वास कम होता गया है व सवाल बढ़ते गए हैं, हमें भी यह सोचना चाहिए कि क्या इन दोनों बदलावों के
बीच कोई सहज-सीधा संबंध तो नहीं है।