Tuesday, 13 December 2016

आधार : इंसानी गरिमा पर हमला

आख़िरकार 'आधारके संबंध में केंद्र सरकार द्वारा क़ानून इस साल मार्च में पारित किया गया। वो भी इसके बिल को धोखे से धन विधेयक के रूप में पेश करके ताकि राज्य-सभा की आपत्तियों व विरोध को दरकिनार किया जा सके। जबकि ख़ुद सर्वोच्च न्यायालय इस मुद्दे पर कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है या नहीं और 'आधारलोगों की निजता के अधिकार का उल्लंघन करता है या नहींअपना फ़ैसला सुनाने के लिए संविधान पीठ गठित करने की प्रक्रिया में था। ज़ाहिर है कि सरकार को इस विषय में क़ानून का पालन करने और संविधान-सम्मत राय जानने में दिलचस्पी नहीं थी।  

UPA-कांग्रेस के समय से ही इस पर काम शुरु हो गया था और साम-दाम-दंड-भेद से लोगों को ‘आधार’ कार्ड बनवाने पर मजबूर करने का सिलसिला कई सालों से चल रहा हैइसका मतलब यह भी है कि इतने सालों तकसुप्रीम कोर्ट के तमाम आदेशों के बावजूद कि 'आधारअनिवार्य नहीं हैसरकारें व प्रशासन इसको थोपते रहे जोकि सरासर ग़ैर-क़ानूनी था।
यहाँ तक कि जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया कि वो विज्ञापन प्रसारित करके लोगों को बताये कि'आधारपूरी तरह ऐच्छिक है और इसमें नामांकन कराना जन-सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए ज़रूरी नहीं है तो भी सरकार ने अख़बारों व टी. वी. पर कोई विज्ञापन जारी नहीं किया तथा रेडियो विज्ञापन ऐसी शब्दावली में और इस तरीके से जारी किये गए कि लोग असल क़ानूनी स्थिति समझ ही न पायें। जब देश की सर्वोच्च अदालत ने 'आधारपर रोक नहीं लगाई तब भी उसने 'आधारको अनिवार्य ठहराने से मना कर दिया है और सरकार को सिर्फ़ यह छूट दी है कि वो कुछ सेवाओं में इसे इस्तेमाल कर सकती हैलेकिन लोगों की मर्ज़ी सेजबरन नहीं। हालाँकि हम लोग अच्छी तरह वाकिफ़ हैं कि सरकार द्वारा कभी भी अदालत के आदेश का सम्मान नहीं किया गया और लोगों से ऐसा ही बर्ताव किया गया है जैसे कि सरकार से लाभ लेने के लिए 'आधारअनिवार्य हो। स्कूलों में शिक्षकों को आदेश दिए गए कि बिना ‘आधार’ कार्ड के विद्यार्थियों को दाखिले व वजीफे ना देने की धमकियां दी जाएं| कक्षा अध्यापिकाओं ने स्वयं को सरकारी एजेंट के किरदार में घुटते पाया| बैंकों व अन्य जन सुविधाओं के लिए भी ‘आधार’ को अनिवार्य बताया गया और हम लोग धमकियों के चलते ‘आधार’ बनवाने के लिए धक्के खाते रहे और क्योंकि हमेशा की तरह मजबूर थे इसलिए भाग-भाग कर 'आधारमें अपना नामांकन करवाते रहे। 

2011 में जब इस विषय में एक बिल संसदीय समिति को भेजा गया था जिसकी अध्यक्षता यशवंत सिन्हा कर रहे थेतो समिति ने इस योजना को अनैतिक बताते हुए इसे नामंज़ूर कर दिया था। योजना आयोग ने भी इसपर आपत्ति की थी। जब केंद्र में UPA (संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा) की सरकार थी तो मुख्य विपक्ष ने भी इस योजना का विरोध किया था। स्वयं नरेंद्र मोदी नेजब वो गुजरात के मुख्यमंत्री थेइस योजना पर प्रमुख सत्ताधारी दल को आड़े हाथों लिया था। 

आधार’ कार्ड एक ऐसा पहचान पत्र है जिसमें नाम, जन्म तिथि व पते के अलावा हमारी उँगलियोंअंगूठे और आँखों की पुतलियों के निशान भी लिए जाते हैं| (असल में तो यह एक नम्बर है लेकिन 'कार्ड' के नाम से व रूप में ही प्रचलित हो गया है।) हम याद कर सकते हैं कि शुरुआत में केवल 15 साल से बड़े व्यक्तियों के लिए अपनी उँगलियों और आँखों की पुतलियों की छाप देने का प्रावधान था। बाद में इसे घटाकर 5 साल कर दिया गया और अब तो नवजात शिशुओं का भी 'आधारमें एक तरह से जबरन नामांकन करवाया जा रहा है! बच्चों के संबंध में अब UIDAI ('आधार' के लिए ज़िम्मेदार सांविधिक प्राधिकरण जोकि पहले योजना आयोग व नीति आयोग के अधीन काम करता था और अब इलेक्ट्रॉनिक्स व सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तहत काम करता है) का यह भी निर्देश है कि कुछ वर्षों के बादजैसे 15 साल का हो जाने परउन्हें फिर से अपने अंगों की छाप दर्ज करानी होगी। इसी से यह दावा खोखला सिद्ध हो जाता है कि ये निशान बदलते नहीं हैं। इसपर ग़ौर करना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि अगर किसी के शरीर के अंगों की छाप लेने के लिए उस व्यक्ति की सहमति लेना अनिवार्य है तो फिर बच्चे इस बारे में अपनी सहमति/असहमति देने की स्थिति में कैसे हैं

आख़िर बिना किसी क़ानूनी आधार केसुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूदलोगों के शरीर के अंगों की छाप लेने का यह सिलसिला क्यों चलता चला गयाक्या कुछ गड़बड़ नहीं हैजो सरकारें सब बच्चों को जन्म प्रमाण-पत्रस्कूल दाख़िले आदि नहीं दे पाईं वो सबको 'आधारके अंदर लाने के लिए इतनी आतुर क्यों हैंलोगों को उनके हक़ दिलाने में नाकाम रहने वाली सरकारें इस योजना में इतने संसाधन क्यों झोंक रही हैंइतनी कामयाब कैसे हो रही हैं

जड़ें
भारत में जब ब्रिटिश साम्राज्य ने अपना प्रशासन व क़ानून व्यवस्था खड़ी की तो काग़ज़ी सबूतों व दस्तावेज़ों को लागू करना इस प्रक्रिया का एक प्रमुख हिस्सा था। लेन-देन व अदालती काग़ज़ों को प्रमाणिक बनाने के लिए औपनिवेशिक हुकूमत ने जो नियम गढ़े उनकी बुनियाद में ही नस्लीय भेदभाव था। इतिहासकार बताते हैं कि जहाँ यूरोपीय मूल के लोगों की गवाही के तौर पर उनके हस्ताक्षर लिए जाते थे वहीं भारतीय लोगों की गवाही के तौर पर उनकी उँगलियों के निशान लेने के पीछे साम्राज्यवादी राज की यह नस्लवादी धारणा थी कि भारतीय बेईमान व धोखेबाज़ होते हैं तथा उनपर भरोसा नहीं किया जा सकता है। असल में उँगलियों की छाप को तथाकथित विज्ञान बनाने का काम भारत में कार्यरत एक ब्रिटिश अधिकारी ने ही किया था। हाँभारत के भी दो बड़े अफ़सरों नेजोकि ख़ुद उच्च वर्ग व वर्ण से थेइस काम में उनकी मदद की थी। दुनियाभर में उँगलियों की छाप लेने के चलन के मूल में अपराधियों की पहचान करना ही रहा है। 

क़ानून के अंतर्गत अगर किसी आरोपी की उँगलियों के निशान लिए जाते हैं और वो निर्दोष साबित होता है तो पुलिस व संबंधित महकमों को उन निशानों को नष्ट करना होता है। इतना ही नहींऐसे मुजरिमों के रिकॉर्ड (उँगलियों के निशान,फ़ोटो आदि) भी नष्ट करने का प्रावधान है जिन्होंने सज़ा पूरी करने के 10-15 सालों बाद तक कोई अपराध न किया हो या जिनकी उम्र 80 वर्ष हो गई हो। 

1906-1907 में मोहनदास करमचंद गाँधी ने दक्षिण अफ़्रीका में भारतीय मूल के लोगों के जिस सविनय अवज्ञा आंदोलन में शिरकत की थी वो 1906 में लाये गए उस ट्रांसवाल ऑर्डनेन्स (अध्यादेश) के ख़िलाफ़ था जिसके अनुसार भारतीय मूल के लोगों के लिए अपने विवाहों को क़ानून की नज़र में वैधता प्रदान करने के लिए उन्हें रजिस्टर करना अनिवार्य कर दिया गया थाभारतीय मूल के 8 साल से बड़े सभी मर्दों के लिए प्रशासनिक रिकॉर्ड में अपनी उँगलियों की छाप देना और हमेशा एक शिनाख़्ती कार्ड धारण करना भी अनिवार्य कर दिया गया था।
यह महत्वपूर्ण है कि इस अध्यादेश का विरोध गाँधी से नहीं बल्कि उन साधारणकम पढ़े-लिखे लोगों से शुरु हुआ था जिन्हें यह अपमानजनक लगा था। परिणामस्वरूप पहले चरण में ट्रांसवाल में रह रहे लगभग 13,000 भारतियों में से सिर्फ़ 500 ने ही स्वयं को इसके तहत रजिस्टर किया था। 

जिन लोगों ने वी. शांताराम की प्रेरक फ़िल्म 'दो आँखें बारह हाथदेखी है उन्हें उसका वो दृश्य याद होगा जब जेलर उन क़ैदियों को वापस घर में पाकर जो भाग गए होते हैं - और जिन्हें वो भागा हुआ समझता है - भरोसे की जीत की ख़ुशी में उस काग़ज़ को फाड़ देता है जिसपर उनकी हथेलियों के निशान छपे होते हैं।

इन सभी प्रसंगों में जो उसूल काम कर रहा है वो यह है कि जब तक कोई क़ुसूर सिद्ध नहीं हो जाता तब तक व्यक्ति बेगुनाह है और गुनाहगार को भी सज़ा काटने के बाद कलंक-रहित जीने का मौक़ा मिलना चाहिए। 'आधारइंसाफ़ के इस उसूल को उलट देता है - इसके अनुसार हम सब गुनाहगार हैंधोखेबाज़ हैंचोर-उचक्के हैं। बच्चे भी। और हमएक आज़ाद देश के बाशिंदेइसे मान रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में 'आधारको जो चुनौती दी गई है उसमें मुख्य चिंता 'निजता के अधिकारको लेकर जताई गई है क्योंकि उन लोगों को - जिनमें पूर्व न्यायाधीशक़ानूनविदवकीलमानवाधिकार कार्यकर्तासेवानिवृत्त फ़ौजीसूचना अधिकार कार्यकर्ता आदि शामिल हैं - शक है कि सरकारें इसके माध्यम से नागरिकों की निजी जानकारियों पर नज़र रखेंगी जोकि असंवैधानिक व अलोकतांत्रिक है। उपरोक्त उदाहरण दिखाते हैं कि 'आधारमें सिर्फ़ निजता के उल्लंघन का ख़तरा नहीं है बल्कि इसकी मूल प्रक्रिया ही इंसान के आत्म-सम्मान और उसकी गरिमा के विरुद्ध है। लोकतंत्र का वादा हमें बाइज़्ज़त नागरिक मानने का हैभौतिक सुविधा/हक़ प्राप्त करने के लिए इज़्ज़त गिरवी रखने को मजबूर ग़ुलाम या प्रजा बनाने का नहीं।

सरकारी सोच
'आधारका बचाव करते हुए भारत सरकार के अटॉर्नी जनरल ने पूरी निर्लज्जता से सुप्रीम कोर्ट को बताया कि भारत में लोगों के पास वैसे भी कोई निजता का अधिकार नहीं है जिसकी बिना पर 'आधारपर रोक लगाई जाये। नागरिकों का मखौल उड़ाते हुए उन्होंने अदालत में यह भी कहा कि जिन्हें अपनी निजता की चिंता है वो जंगल में जाकर रहने को स्वतंत्र हैं और अगर ग़रीबों को सरकार से लाभ प्राप्त करने हैं तो उन्हें अपनी निजता का समर्पण करने के लिए तैयार रहना होगा। दूसरी तरफ़ मानहानि से जुड़ी IPC की धारा 499 को बचाने के लिए सरकार सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य पीठ में उसी दौरान कह रही थी कि निजता के अधिकार की सुरक्षा करने के लिए इस धारा को बनाये रखना ज़रूरी है। कुछ साल पहले जब कुछ नामी लोगों के फोन रेकॉर्ड करने की खबरें आईं थी तब अरुण जेटली ने लोकतन्त्र के लिए निजता के अधिकार की अनिवार्यता की वकालत करते हुए एक महत्वपूर्ण आलेख लिखा था। अर्थातसरकार की नज़र में ग़रीब-मेहनतकश को अपने रोटी-कपड़े मिल जाने का ही शुक्र मनाना चाहिएउसे अपनी निजताइज़्ज़तआत्म-सम्मान आदि की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि इन सब पर सिर्फ़ अमीरों को चिंता व दावा करने का हक़ है।  

हमें यह भी याद रखना चाहिए कि आज प्राइवेट कंपनियों द्वारा लोगों की निजी जानकारियों काहमारे डाटा का व्यापार होता है। 'आधारके क़ानून में निजी कंपनियों को भी इसे इस्तेमाल करने की इजाज़त दी गई है। रही बात सहमति की तो वो तभी मायने रखती है जब वो पर्याप्त जानकारी पर आधारित हो। यही कारण है कि लगभग सभी आधुनिक देशों में बच्चों समेत अपरिपक्व व्यक्तियों को शादी, संपत्ति आदि से जुड़े अपने जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय लेने का केवल बचाव का हक़ दिया गया है। यह भी साफ़ है कि सहमति किसी प्रक्रिया के पहले लेना ही मायने रखता है। 'आधारनामांकन में सहमति के दस्तखत प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद लिए जाते हैं। (निजता के हक़ को इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि सूचना के अधिकार क़ानून के तहत भी हम किसी स्कूल से ये जानकारी तो माँग सकते हैं कि कुल कितने विद्यार्थियों के अमुक प्रतिशत से अधिक अंक आये या किसी तारीख़ को कितने विद्यार्थी हाज़िर थेलेकिन ये जानकारी नहीं माँग सकते कि किसी विद्यार्थी के कितने अंक आये या वो किसी दिन हाज़िर था या नहीं।)
  
दावों का सच
जिस तकनीक का ढिंढोरा पीटा जा रहा है वो भी संदेह में है क्योंकि आजतक इतने बड़े स्तर पर यह साबित नहीं की गई है। इसमें दर्ज डाटा को चुराना भी संभव हैअन्यथा क़ानून में इसकी सज़ा रखने की ज़रूरत ही नहीं थी। आज अगर हमारा कोई पहचान पत्र ग़ायब होता है तो हम उसे दोबारा बना सकते हैं लेकिन अगर कोई हमारे इन अंगों की छाप की नक़ल करने में कामयाब हो जायेगा तो हम किसी भी तरह अपनी पहचान साबित नहीं कर पायेंगे। इसे 'Identity Theft'कहते हैं। इसे एक बार भेद लिया गया तो सुधारा नहीं जा सकताबदला नहीं जा सकता - जबकि बाक़ी पहचानों की रक्षा की जा सकती है। ये स्थिति उस परमाणु बम की तरह है जिसे पहले तो जोर-शोर से बना लिया जाता है पर उसके बाद दिन-रात यह चिंता रहती है कि इंसानी कौम को इस बम से कैसे बचाए रखा जाए|

बूढ़ेबीमार (विशेषकर आँखों के संबंध में)हाथ से मेहनत-मज़दूरी करने वाले लोगों के लिए यह तकनीक अप्रमाणित है क्योंकि वक़्त के साथ इन अंगों की छापखुरदुरेपन व गहराई में बदलाव आते हैं। हमारे जैसी बड़ी आबादी वाले देश में और धूप में काम करने वाले लोगों के लिए भी यह अप्रमाणित है। कई राज्यों से ये ख़बरें आ रही हैं कि राशन की दुकानों पर अंगों की छाप लेने वाली मशीनों के लगने के बाद से तकनीकी कारणों से कई लोगों को बिना राशन ही लौटना पड़ रहा है या कई-कई चक्कर लगाने पड़ रहे हैं क्योंकि कभी बिजली नहीं रहतीकभी इंटरनेट कनेक्शन नहीं रहता और कभी मशीन लोगों की उँगलियों के निशानों या आँखों की पुतलियों को पहचान नहीं पाती। 

एक तर्क यह दिया गया था कि ये उन लोगों के लिए लाभकारी होगा जिनके पास कोई दस्तावेज़ नहीं है। पर अगर ऐसा था तो इसे बाक़ी लोगों पर क्यों थोपा गयादूसरी तरफ़ अध्ययन यह बताते हैं कि कुल आबादी में ऐसे लोगों का हिस्सा मात्र 15% था और केवल 0.03% लोग ऐसे हैं - 5 लाख से भी कम! - जिन्हें, बिना किसी पूर्व-उपलब्ध दस्तावेज़ केमध्यस्थ के माध्यम से रजिस्टर किया गया है। वैसे भी एक लोकतान्त्रिक देश के लिए सभी लोगों को एक पहचान का दस्तावेज़ देने का इससे बेहतर उपाय क्या हो सकता है कि उसके सब बच्चे स्कूल जायेंस्कूल जाने पर तो सब बच्चों को पहचान-पत्र, TC, मार्कशीटप्रमाण-पत्र आदि अपने-आप ही मुहैया हो जाते हैं - फिर इन्हीं के आधार पर वोटर कार्ड व पैन कार्ड से लेकर ड्राइविंग लाइसेंस तक सभी अन्य दस्तावेज़ बनाने का भी प्रावधान पहले से ही है।
   
इस बात के साक्ष्य हैं कि डुप्लीकेट संख्याएँ पहचानने के ‘आधार’ से सरल और सस्ते तरीके उपलब्ध हैंकुछ लोगों ने यह साबित किया है कि सरकार द्वारा जनकोष की जिस बचत का श्रेय 'आधारको दिया गया है वो महज़ आँकड़ों की बाज़ीगरी है। यहाँ तक कि CAG ने भी अपनी एक रपट में दिखाया कि सरकार के इस दावे की तुलना में कि बैंकों में DBT योजना से 22,000 करोड़ रुपये बचे हैंअसल में 2,000 करोड़ की ही बचत हुई है वो भी तेल के गिरते दामों की वजह से। पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार 1-4-15 को 18.19 करोड़ रजिस्टर्ड उपभोक्ता थे मगर केवल 14.85 करोड़ सक्रिय थे। इनके अंतर - 3.34 करोड़ - को 'आधारद्वारा ख़ारिज बताया गया जबकि सच यह था कि इनमें से 2.66 करोड़ डुप्लीकेट कनेक्शंस नवंबर 2012 तक ही पहचान लिए गए थे वो भी 'आधारकी मदद के बिना। एक अध्ययन (IISD) के अनुसार तो दोहरे कनेक्शंस में से सिर्फ़ 1-2% 'आधारकी मदद से पहचाने गए हैं और इससे मात्र 12-14 करोड़ रुपये की बचत मानी जा सकती है। इसी तरह राशन कार्ड में भी 2.09 करोड़ दिसंबर 2010 तक ही ख़ारिज किये जा चुके थे, 'आधारकी पहचान के बिना। हमें याद रखना चाहिए कि इस तानाशाही योजना पर अबतक5,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा तो जनकोष से खर्च किया जा चुका है। कुछ अनुमानों के अनुसार इस योजना पर कुल 20,000 करोड़ रुपये तक की लागत आयेगी। 

सरकार का दूसरा तर्क था कि ‘आधार’ कार्ड नम्बर कम्प्यूटरीकृत है और प्रत्येक नागरिक की एक इलेक्ट्रॉनिक संख्या होगी जिससे भ्रष्टाचार कम हो जाएगा| राशन, गैस कनेक्शन, मनरेगा की अदायगी या स्कूलों में वजीफों को लेकर घपले नहीं होंगे| एक ही व्यक्ति को दो बार सुविधाएं नहीं मिलेंगीं| अगर ये इस देश के सबसे बड़े घोटाले हैं तो कंपनियों के उन लाखों-करोड़ों के बक़ाया ऋण और टैक्स चोरी का क्या जो कभी नहीं वसूला गयाजब सरकारें 'आधारव बैंक खातों की मदद से लाभों को सीधे लोगों तक पहुँचाने का तर्क देती हैं तो हममें से बहुतों को यह बात आकर्षक लगती है। लेकिन 'आधारव बैंक खातों का असल मक़सद सामाजिक कल्याण बढ़ाना नहीं बल्कि सार्वजनिक सेवाओं को सीमित करना है। खातों में पैसे भेजने की योजना का स्वाभाविक तर्क यह है कि सरकारें स्कूलराशनखाद आदि की सार्वजनिक व्यवस्था खड़ी नहीं करेंगी और इसके बदले इन क्षेत्रों को बाज़ार की ताक़तों के हवाले करती रहेंगी। इसकी राह आसान करने के लिए पहले बैंक खातों में किसी नाम से कुछ राशि हस्तांतरित की जायेगी और फिर सरकारी व्यवस्था को धीरे-धीरे बंद करके कहा जायेगा कि उस राशि को लेकर निजी व्यवस्था में अपना बंदोबस्त कर लो। मुख्य आर्थिक सलाहकार तो सरकार द्वारा सार्वजनिक व्यवस्था/सेवायें देने की जगह DBT (बैंक खातों में राशि हस्तांतरण) की बात साफ़ कह चुके हैं। कई ज़िलों में राशन बंद करके उसकी जगह लोगों को पैसे देने के प्रयोग की योजना की घोषणा की जा चुकी है। इसी तर्ज पर कई अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारवादी ताक़तें यह सुझा रही हैं कि सरकारों को अपने स्कूल-कॉलेज बंद कर देने चाहिए और इनके बदले लोगों को वाउचर (पैसे) देने चाहिए जिसे लेकर वो प्राइवेट स्कूल/कॉलेज में प्रवेश ले लें। अधिक-से-अधिक सेवाओं को इससे जोड़कर इसे बढ़ावा दिया जायेगा क्योंकि विश्व व्यापार संगठन (WTO) जैसी वैश्विक पूँजी की संस्थाएँ सरकारों पर यह दबाव बना रही हैं कि ज़्यादा-से-ज़्यादा क्षेत्रों को - यहाँ तक कि शिक्षा,स्वास्थ्य व अनाज वितरण को भी - बाज़ार के हवाले करके पूँजीपतियों के लिए मुनाफ़ा कमाने के अवसर बढ़ाये जायें। उधर दूर-दराज़ के इलाक़ों में बैंक नहीं हैंबैंकिंग मित्र हैं जिन्हें कमिशन मिलता है मगर क्योंकि ये कम है और लोग लाचार-मजबूर इसलिए वो लोगों से नाजायज़ व अवैध रूप से अतिरिक्त शुल्क (रिश्वत) लेते हैं। तो इस तरह 'आधारकी मदद से जिस 'कालाबाज़ारी', 'बिचौलियेपनको रोकने का दावा किया जा रहा है वो ऐसे व्यक्तियों द्वारा बेरोकटोक जारी है जिनके ख़िलाफ़ शिकायत व कार्रवाई करना इसलिए और भी दूर की कौड़ी है क्योंकि वो प्राइवेट हैसियत में हैं। उदाहरण के तौर पर जिन ग्राहक सेवा केंद्रों को बैंकिंग सेवायें मुहैया कराने के नाम पर अधिकृत किया गया है वो 100-150रुपये में खाता खोलते हैं जबकि SBI के लिए उन्हें सेवा शुल्क के रूप में 20 रुपये लेने का ही हक़ है। कुछ बैंकों में तो इसका कोई शुल्क नहीं है फिर भी ग्राहक केंद्र पर अवैध वसूली की जाती है। ठीक उसी तरह जैसे 'आधारनामांकन क़ानूनी रूप से मुफ़्त है लेकिन हम देखते हैं कि इसके लिए 200-500 रुपये तक वसूले जाते हैं। (ये कुछ उसी तरह है जिस तरह भ्रष्टाचार और 'काले धनको रोकने के नाम पर नोटों को ख़ारिज करने की जो तानाशाही प्रक्रिया चलाई गई उसी के दौरान जमकर भ्रष्टाचार व 'काले धन' का निर्माण हो गया।)

ज़ाहिर है कि ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार पर सरकारी तंत्र का एकाधिकार है| एक अन्य उदाहरण लें तो आज एक-के-बाद-एक सरकारी और निजी कॉलेजों में दाखिले सिर्फ ऑनलाइन कर दिए गए हैं| कम्प्यूटर को भ्रष्टाचार से ऊपर बताया जाता है| लेकिन हज़ारों-लाखों विद्यार्थियों से पूछें तो वे बताएँगे कि एक 100 रुपए के ऑनलाइन फॉर्म को भरने के लिए उन्हें 500-500 रुपए देने पड़े| कठिन परिस्थितियों से आने वाले कितने ही विद्यार्थी फॉर्म ही नहीं भर पाए| क्या ये धांधलेबाज़ी नहीं है? इससे पता चलता है कि इस राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्था में नयी तकनीकें नयी तरह की कालाबाज़ारी और बिचौलियापन लेकर आती हैंतो भ्रष्टाचार ख़त्म नहीं हुआ है बल्कि सिर्फ़ निजी हाथों में शिफ़्ट होकर और निरंकुश हो गया है। अगर मान लें कि देश में 50 करोड़ 'आधारनामांकन आउटसोर्स किये गए केंद्रों पर हुये हैं तो 100 रुपये प्रति नामांकन के हल्के हिसाब से भी 5000 करोड़ रुपये का कालाधन कमाया जा चुका है। इसी तरह अगर ग्राहक सेवा केंद्रों में खोले जा रहे खातों के माध्यम से बनाये जा रहे कालेधन का हिसाब लगायें तो वो भी हज़ारों करोड़ में आएगा। गैस कनेक्शन में भी जो भ्रष्टाचार है वो उन निजी केंद्रों के कारण है जिन्हें कमिशन पर यह काम आउटसोर्स किया गया है। असल में सार्वजनिक व्यवस्था में कुछ लोग भ्रष्ट हो सकते हैंलेकिन निजी व्यवस्था तो खड़ी ही भ्रष्ट उद्देश्योंकारस्तानियों व इंसान तथा संसाधनों के दोहन पर होती है। पूँजीवाद के नव-उदारवादी अवतार में जानबूझकर लोगों में दुष्प्रचार फैलाकर सार्वजनिक तंत्र के ख़िलाफ़ एक माहौल बनाया जाता है। इसका एकमात्र उद्देश्य निजी मुनाफ़े की ज़मीन का विस्तार करना और लोकतंत्र को कमज़ोर करके राज्य-समाज पर पूँजी का शिकंजा कसना होता है। 

असल में 'आधारसे जुड़े क़ानून के पारित होने से अब जाकर UIDAI नाम की उस संस्था को वैधता मिली है जो अबतक बिना किसी क़ानूनी आधार केकेवल प्रशासनिक आदेशों के दम पर इतनी ज़ोर-ज़बरदस्ती कर रही थी। साथ ही इससे निजी कंपनियों द्वारा 'आधारको इस्तेमाल करने का रास्ता भी साफ़ हुआ है। क़ानून कहता है कि UIDAI को शिनाख़्त करने के एवज़ में पैसा मिलेगा। पहले हमारी पहचान का पैसा किसी को नहीं मिलता था। अब क्योंकि यह एक धंधा है तो इसकी भरपाई भी हमीं से होगी। UIDAI ने कई निजी कंपनियों के साथ व्यापार समझौते किये हैं जिन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया है। यह क़ानून किसी भी तरह की सब्सिडी या सार्वजनिक सेवा मुहैया नहीं करता है। वैसे भी 'आधारहोने से सब्सिडी नहीं मिलेगी - उसके लिए पात्रता तो आपको तब भी सिद्ध करनी होगी। जैसे विधवा के लिए पति का मृत्यु प्रमाण-पत्र, 'लाडलीयोजना के लिए पुत्री का जन्म प्रमाण-पत्र आदि। दूसरी तरफ़ सरकार की नीति के अनुसार कितनी विधवाओं कोकितनी छात्राओं को आर्थिक सहायता मिलेगी उसकी संख्या पहले ही तय कर दी जाती है - इसमें 'आधारकोई मदद नहीं करेगा। ज़रूरत ऐसी योजनाओं को सार्वभौमिक बनाने की है, 'आधार' के बहाने सीमित करने की नहीं। 

निरंकुश राज्य व कॉर्पोरेट सत्ता का लोकतन्त्र पर कसता शिकंजा  
इस क़ानून में उस व्यक्ति को सुननेपूछनेबताने का कोई प्रावधान नहीं है जिसकी जानकारी UIDAI किसी को देगा। आप इस डाटाबेस से बाहर नहीं जा सकते। (धर्म छोड़ सकते हैंदेश छोड़ सकते हैंवैवाहिक संबंध बदल सकते हैं लेकिन कमबख़्त जाति की तरह न आप इसे छोड़ सकते हैं और न ये आपको छोड़ेगा!) 

आधुनिक तकनीक से 'विकासका आभास होता है पर लोकतंत्र में सरकारों की असल जवाबदेही इंसानों के आमने-सामने वाले संपर्कों से है। किससे मिलेंकिससे शिकायत करेंकिसके आगे विरोध-प्रदर्शन करेंये विकल्प और निर्णय ही लोकतंत्र को जिलाये रखते हैं। जब स्कूल-कॉलेज में प्रवेशअस्पतालों में जाँचमंत्री से मुलाक़ात सबके लिए डिजिटल अपॉइंटमेंट लेनी होगीऑनलाइन अर्ज़ी लगानी होगी तो भारत का एक बड़ा वर्ग तो और बाहर होगा ही, इससे सिर्फ़ IT कंपनियों को सीधा लाभ पहुँचेगा तथा लोकतंत्र भी कमज़ोर होगा। उदाहरण के लिए नगर निगम के स्कूल में कोई भी आकरबिना किसी कागज़ी सबूत या पैसे केअपने बच्चे को प्रवेश दिला सकता है। वहींएक अन्य स्कूल में प्रवेश के लिए न सिर्फ़ तरह-तरह के काग़ज़ी सबूत माँगे जाते हैंबल्कि वहाँ यह नियम भी है कि आप चाहें सबूत ले भी आयें मगर एक निश्चित संख्या से ज़्यादा बच्चों को प्रवेश मिलेगा ही नहीं। हमें सोचना चाहिए कि आख़िर इन दोनों में से कौन-सी व्यवस्था लोगों के हित में हैअधिक लोकतांत्रिक है। लोकतंत्र बराबरी का नाम है। 

संविधान राज्य को ही ताक़त प्रदान करने के लिए नहीं है बल्कि लोगों के ऊपर राज्य की निरंकुश शक्ति पर लगाम लगाने के लिए भी है। क्योंकि 'आधारके डाटाबेस को शुरु से ही अदालत की अवमानना करकेलोगों से जबरन जमा कराया गया है इसलिए इसकी वैधता संदिग्ध है। UIDAI ने शुरु से दावा किया था कि बाक़ी दस्तावेजों में गड़बड़ियाँ हैं इसलिए यह उत्तम रहेगा मगर जिस आपा-धापीग़ैर-ज़िम्मेदारीआउटसोर्सिंग व जबरन तरीके से इसे किया गया है उसका नतीजा यह है कि इसमें ग़लतियों की भरमार है। अब जाकर इसमें दर्ज जानकारी में बदलाव करने की प्रक्रिया को लागू किया गया है लेकिन वो भी आसान नहीं है और उसमें भी बेईमानी से पैसे वसूले जा रहे हैं। 

'आधारके क़ानून में यह गुंजाइश रखी गई है कि हमारे बारे में और जानकारी इकट्ठी की जाये - आप-हम पूछ नहीं सकतेलड़ नहीं सकते। अगर हम शिकायत भी करें तो भी हम अदालत नहीं जा सकतेसिर्फ UIDAI ही अदालत जा सकता है! UIDAI का एक केंद्रीय डाटाबेस है। इसे चुराना मुश्किल है लेकिन अगर असंभव होता तो क़ानून में इसके लिए सज़ा का प्रावधान नहीं होता। अभी हाल ही में सरकार ने ये निर्देश जारी किये कि जिन संस्थाओं के पास 'आधारसे जुड़ी जानकारी है अगर वो उसे सार्वजनिक करती हैं या उससे छेड़छाड़ करती हैं तो क़ानूनी कार्रवाई की जाएगी। ज़ाहिर है कि इसकी संभावना हैअन्यथा ऐसे प्रावधान की ज़रूरत ही नहीं होती।         

सरकार आप पर नज़र रखे और आप सरकार को अपनी शिनाख़्त दें - इन दोनों के बीच बड़ा फ़र्क़ है। अब आप पर निगरानी रखने के लिए आपकी मंज़ूरी या सहयोग की ज़रूरत नहीं है। लोकतंत्र में पारदर्शिता सत्ता के साथ बढ़नी चाहिए लेकिन 'आधारके अनुसार ग़रीबमेहनतकशआम इंसान ही चोर हैंधोखेबाज़ हैं। दूसरी तरफ़ लगभग सभी प्रमुख राजनैतिक दलों ने न सिर्फ़ सूचना का अधिकार क़ानून के अधीन आने से मना कर दिया हैबल्कि देश-विदेश से चंदा लेने का ब्यौरा भी सार्वजनिक करने से इंकार कर दिया है। सरकारों का भी कहना है कि वो पारदर्शिता की इन क़ानूनी बन्दिशों से बरी हैं। सभी निगरानी साधारण नागरिक के लिए है।

आख़िर क्यों ?
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि CCTV कैमरे केवल डाँस बार के गेट पर ही लगाए जा सकते हैंअंदर नहीं. (द हिन्दूमार्च 3, 2016)
कोझीकोड (केरल) के ज़िला बाल संरक्षण अधिकारी ने अनाथ बच्चों को छुट्टियों के लिए गोद ले रहे परिवारों को आदेश दिया कि वो अपने पास उन बच्चों की फ़ोटो नहीं रखेंगे और न ही उनकी पहचान ज़ाहिर करेंगे. (द हिन्दूमार्च 13, 2016)
मध्य-प्रदेश के मुख्य-मंत्री बोले, 'कई जगहों से मुझे जानकारी मिली है कि पैसा खातों में नहीं जा रहा है। पेंशन 250-300रुपये मिलती हैकौन बैंकों के चक्कर लगाएगा। इसे नगद बाँटो। साइकिल का पैसा खातों में जा रहा हैलेकिन साइकिल दिखती नहीं। सभी विभाग योजनाओं को सरल करके लाएँ'. (दैनिक भास्करतिथि अज्ञात, 2016)


वैसे एक राष्ट्रीय पहचान पत्र बनाने का प्रस्ताव NDA सरकार द्वारा 2003 में लाया गया था मगर इसे UPA सरकार ने 2009 में जाकर योजना आयोग के अधीन UIDAI का गठन करके कार्यान्वित किया। अब इसमें बायोमेट्रिक पहचान शामिल थी। इसने इनफ़ोसिस नामक सूचना प्रौद्योगिकी कंपनी के पूर्व संस्थापक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी नंदन नीलेकणि की अध्यक्षता में काम करना शुरु किया। यह महत्वपूर्ण है कि आज के दौर में सरकारें सामाजिक समस्याओं को सुलझाने के लिए व्यापारियों व तकनीकज्ञों के सुझाये उपाय लागू कर रही हैं। नंदन नीलेकणि ने अपनी किताब 'Rebooting India' में 'आधार DBT के संभावित फ़ायदों में सरकार द्वारा लोगों को अपने बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ाने के लिए खातों में 'वाउचरराशि देना भी गिनाया है। ज़ाहिर है कि इस योजना में सरकार द्वारा सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था की ज़िम्मेदारी नहीं लेना तो निहित है। इस पृष्ठभूमि के व्यक्ति एक ख़ास अंदाज़ में सोचते हैं जिसमें केंद्रीकृत नियंत्रण,लोकतांत्रिक-संवैधानिक मूल्यों का तिरस्कार जैसे तत्व शामिल होते हैं। क्योंकि ये आम लोगों के जीवन से भी कटे होते हैं इसलिए हमें महज़ आँकड़ों या अपने प्रयोगों के जीवों की तरह देखते हैं। इस सोच में इंसान से ज़्यादा महत्व तकनीकी/प्रौद्योगिकी को दिया जाता है। यानी लोग भले ही वंचित हो जायेंपरेशान होंउनके विरोध करने की ताक़त छिन जायेउनके अधिकार धूमिल हो जायेंलेकिन तकनीकी को हर हाल में कामयाब बनाना हैथोपना है। 'आधारभी समाज और देश के प्रशासन पर इसी बढ़ते कॉरपोरेट शिकंजे का उदाहरण है। यही कारण है कि नंदन नीलेकणि जैसे लोगों को भारत की आम जनता में बेईमानी नज़र आती है जिसे रोकने के लिए वो बायोमेट्रिक पहचान वाला 'आधारलाते हैं,जबकि हमें यह भूलने के लिए कहा जाता है कि असल में तो ये नंदन नीलेकणि के वर्ग की ही निरंकुश शक्तियाँ हैं जो कभी सत्यम इंफ़ोटेक का 10,000 करोड़ का तो कभी 2G स्कैम का 30,000 करोड़ का घोटाला कर जाती हैं। यह हमारे देश-समाज पर इन कॉरपोरेट शक्तियों की बढ़ती कब्ज़ेदारी का ही परिणाम है कि विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन का नाम उस हौंडा कंपनी के साथ जोड़ दिया जाता है जो अपने मज़दूरों का लगातार दमन कर रही है और दूसरी तरफ़ प्रधानमंत्री निजी कंपनियों के प्रचार में सुशोभित होते हैं। जब हमें निजी कंपनियों की चमक-धमक वाली सहूलतों से चकाचौंध करने की कोशिश की जाती है तो हमें यह महत्वपूर्ण तथ्य भूल जाने के लिए कहा जाता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की सेवाओं को निजी हाथों में देने का मतलब ही है कि वो क्षेत्र (स्थानसेवा) अब सबके लिए नहीं रहेगा और उसके प्रबंधकों की जवाबदेही लोगों या संविधान के प्रति नहीं बल्कि मुनाफ़े के प्रति होगी।

यही वह सोच है जिसके अनुसार नए स्कूल खोलनेस्कूलों मे ज़रूरी सुविधाएं देनेपर्याप्त संख्या में शिक्षकों व अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति करना या नियमित रूप से अकादमिक निरीक्षण-सहयोग उपलब्ध कराने पर ध्यान देने के बदले कक्षाओं मे CCTV लगाना बेहतर होगा। इसी तरह अगर रेल टिकट देने के लिए कंप्यूटरकृत व्यवस्था लागू की जाती है तो इसमे हर्ज़ नहीं हैंलेकिन अगर रेल टिकट लेने के लिए स्मार्ट-फोन का होना या साइबर कैफे जाना अनिवार्य कर दिया जाए तो यह सरासर मक्कारी होगी। ठीक इसी तरह की व्यवस्था करके राष्ट्रपति भवन मे खुले नए संग्रहालय से भारत की अधिकांश जनता को बाहर कर दिया गया है क्योंकि इसमे प्रवेश लेने के लिए टिकट स्थल या खिड़की पर नहीं मिलेंगे बल्कि इसके लिए पहले ऑनलाइन बुकिंग करानी होगी। यही है ऑनलाइन का कमाल ई-गवर्नेंस व डिजिटल इंडिया के नाम पर एक ओर निजी कंपनियोंसाइबर कैफे के धंधे को बढ़ावा देना और दूसरी ओर मुट्ठी भर लोगों तक सिमटता तंत्र।

आज सरकारें कह रही हैं कि वो राशन नहीं देंगी, सीधे अकाउंट में पैसा देंगी| सरकारी स्कूल खोलने-चलाने के बजाय लोगों को वाउचर (पैसे) देने की बात कही जा रही है जिसे लेकर माँ-बाप अपने बच्चों का दाखिला प्राइवेट स्कूल/कॉलेज में करवा लें| सरकारें अस्पताल नहीं बनाएँगी बल्कि लोगों को पैसे देंगी ताकि वो निजी अस्पतालों में इलाज के लिए जा सकेंसरकारों की मंशा यही है कि हर वो सुविधा जो पहले सरकार की ज़िम्मेदारी थी अब बाज़ार के हवाले हो जाए| हम हर सुविधा प्राइवेट क्षेत्र से खरीदेंगे तो क्या हमारे लिए जीवनयापन और महंगा नहीं हो जाएगा? क्या हम सब नहीं जानते कि प्राइवेट के चक्कर इंसान की जेब कैसे खाली कर देते हैं?

आधार’ में एक बहुत बड़ा खतरा इस बात का है कि इसकी पहुँच की कोई सीमा नहीं है| हमारी सभी जानकारी और शारीरिक निशान सरकार के ऐसे डाटाबेस में चले जायेंगे जिस पर हमारा कोई काबू नहीं होगा| इन आंकड़ों को बदलती सरकारें जैसे चाहे इस्तेमाल करेंगी, जिसे चाहे बेचेंगी और हम असहाय रह जायेंगेअगर सरकारें हमारी सारी निजी जानकारियाँ पुलिस को या प्राइवेट कंपनियों को दे दें तो इसके क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं? डाटा के व्यापार के क्या खतरे हो सकते हैं? उदहारण के तौर पर अगर whatsapp या फेसबुक पर लिखी हमारी पसंद-नापसंद, सोच से सम्बंधित जानकारियाँ व्यापारिक कंपनियों को मिल जाएं तो वे अपने मुनाफ़ों के लिए इनका इस्तेमाल करने से नहीं चूकेंगीं| उन्हें पता होगा कि किसे क्या बेचा जाए और लोन लेने के लिए कैसे उकसाया जाए|

टी.वी. पर एक प्रोग्राम बिग बॉसकाफी प्रचलित है| उसमें एक घर के सभी सदस्य दिन-रात कैमरे की निगरानी में रहते हैं, उनके उठने-बैठने, खाने, सोने, बात करने, यहाँ तक कि सोचने पर भी कैमरे की नज़र होती है| अगर हमारा जीवन भी ऐसा हो जाए कि हमारी हर हरकत पर किसी की नज़र हो, हमारे हर मैसेज को कोई पढ़ रहा हो, तो हमें कैसा लगेगा? हमें डर है कि आगे चलकर ‘आधार’ का इलेक्ट्रॉनिक नम्बर सरकारी एजेंट बनकर ऐसे ही काम करेगा|

कुछ अन्य उदाहरण  
UK (यूनाइटेड किंगडम) में जिन दो कालों में राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी किये गए हैं वो दोनों विश्व युद्धों का समय था। दोनों बार युद्ध के बाद पहचान-पत्र ख़ारिज कर दिए गए क्योंकि यह माना गया कि लोगों को इस तरह से मजबूर करना सिर्फ़ आपातकालीन समय के लिए ही जायज़ है। UK में ही 2006 में पहचान-पत्र का जो क़ानून पारित हुआ उसमें बायोमेट्रिक छाप दर्ज करना शामिल था लेकिन 2010 में इसे ख़ारिज कर दिया गया और फ़रवरी 2011 में National Identity Register की 500 हार्ड ड्राइव्स को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया। जो कारण हर बार उभर कर सामने आये उनमें नागरिक जीवन में राज्य की दख़लंदाज़ी के प्रति चिंतानौकरशाही व पुलिस की सत्ता की निरंकुशता के बढ़ने का विरोध और व्यक्ति की स्वतंत्रता व गरिमा के प्रति प्रतिबद्धता प्रमुख थे। योजना की भारी व बढ़ती लागत को भी एक कारण माना गया तथा लोगों का समर्थन तेज़ी से विरोध में बदल गया जिसके आगे सरकार को झुकना पड़ा। चीन जैसे देश में भी 2006 मेंयह मानते हुए कि बच्चों की पहचान के लिए उनकी उँगलियों के निशान लेना उनकी मासूमियत के साथ ज़्यादती हैइसपर रोक लगा दी गई। कई देश ऐसे हैं जहाँ लोगों की बायोमेट्रिक पहचान नहीं की जाती है क्योंकि इसे मानवीय गरिमा के विपरीत समझा जाता है। वहीं ऐसे देश भी हैं जहाँ इसे अपनाने के बादव्यापक विरोध के चलते वापस लेना पड़ा है। बहुत-से देशों में यह केवल वयस्कों के लिए लागू है। भारत में भी अभी इसपर अदालत का अंतिम फ़ैसला आना बाक़ी है। साफ़ बात है कि अगर लोगों की बायोमेट्रिक पहचान लेना इंसानी गरिमा के विरुद्ध है तो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि कुछ लोग अपने अंगों की छाप देने के लिए ख़ुद तैयार हैं। ठीक उसी तरह जैसे क़ानून में यह नहीं माना जाता है कि किसी ने ख़ुद ग़ुलाम होना मंज़ूर कर लिया है तो उसे ग़ुलाम बनाने वाले को कोई सज़ा नहीं दी जायेगी या फिर ग़ुलामी वैध हो जाएगी। रोचक यह है कि विश्व बैंक जैसे वित्तीय संस्थाओं द्वारा जिन देशों में बायोमेट्रिक पहचान-पत्र अनिवार्य करने के दबाव - शालीन भाषा में इन्हें 'सलाहकहा जाता है - डाले जा रहे हैं उनकी सूची में पाकिस्तानबांग्लादेशनेपालभूटान आदि के साथ भारत भी शामिल है। इन देशों में एक समान बात यह है कि अंतरराष्ट्रीय पूँजी यहाँ अपना बाज़ार फैलाने और सस्ता श्रम हासिल करने की कार्रवाई कर रही है - और सरकारें इसमें उनका रास्ता आसान करने की समर्पित भूमिका निभा रही हैं। पाकिस्तान में तो एक तरह का बायोमेट्रिक पहचान-पत्र कई वर्षों से लागू है और ज़ाहिर है कि इससे वहाँ न भ्रष्टाचार क़ाबू में आया है और न हिंसा। इस पूरे परिदृश्य में ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जब कुछ व्यक्तियों ने अमरीका जैसे देश में प्रवेश करने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि उन्हें अपनी बायोमेट्रिक पहचान दर्ज कराने का अपमान सहन करना गवारा नहीं था। इसमें साहित्यकार भी शामिल हैं और आतंकवाद के विरुद्ध काम करने वाले क़ानूनी विशेषज्ञ भी जिनकी सीधी सी दलील है कि राष्ट्र-राज्यों के ख़िलाफ़ हथियार उठाने और जान देने वाले विद्रोही तो ख़ुद ही गोपनीयता नहीं चाहते हैंबल्कि वीडियो जारी करके अपनी पहचान व अपने मिशन का उद्देश्य दुनिया को बताना चाहते हैं। इसी कड़ी में हमें यह भी पूछना चाहिए कि आख़िर क्या बात है कि असम व मिज़ोरम में 'आधारनामांकन 10% से भी कम है जबकि क़ानूनन आज भी यह राष्ट्रीयता का सबूत है ही नहीं। 

विरोध की ज़रूरत
इधर पंजाब से ये ख़बरें आई हैं कि कुछ निजी कॉलेजों में अनुसूचित जाति/जनजाति के छात्रों को वज़ीफ़े लेने के लिए रोज़ बायोमेट्रिक हाज़िरी लगाना अनिवार्य करने का ज़बरदस्त विरोध हुआ है जिसके बाद प्रशासन को अपना अपमानजनक आदेश पलटना पड़ा है। इससे न सिर्फ़ विद्यार्थियों को चिन्हित होकर सार्वजनिक रूप से पंक्तियों में लगना पड़ रहा था बल्कि यह उनपर धोखाधड़ी का एक लाँछन भी था। जाधवपुर विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने भी परिसर मे लगाए गएCCTV कैमरों का विरोध करके उन्हें हटवाने मे कामयाबी हासिल की है।  दिल्ली में अशोक अग्रवाल ने दक्षिणी नगर निगम के ख़िलाफ़ उच्च न्यायालय में शिकायत की है कि न केवल बच्चों को शिक्षा अधिकार क़ानून के अनुसार किताब-कॉपीवर्दी आदि नहीं दी गई हैंबल्कि ठोस सामग्री के एवज़ में बैंक खातों में पैसे जमा करने की योजना से बच्चों के साथ नाइंसाफ़ी हो रही है। (क्योंकि एक तो जिस सामान के लिए जो राशि दी जाती है वो बाज़ार की क़ीमत के हिसाब से नाकाफ़ी होती है और उसका दाम साल-दर-साल बढ़ता भी रहता हैदूसरे कई परिस्थितियों में परिवार उस राशि को तय सामग्री पर ख़र्च नहीं कर पाते हैं और कभी खाते में न्यूनतम जमा राशि न होने के कारण बैंक उसमें से कटौती कर लेते हैं।) उनका कहना था कि अदालत आदेश दे कि निगम व सरकार विद्यार्थियों को दी जाने वाली सुविधाओं को सामग्री के रूप में मुहैया करायेंन कि उनके बदले खातों में पैसे जमा कराने का तिकड़म अपनायें। ताज़ा ख़बर के अनुसार मध्य-प्रदेश में लोकसभा के एक उपचुनाव के मद्देनज़र राज्य-सरकार ने प्रभावित ज़िलों के प्रशासन को ये आदेश जारी कर दिए हैं कि लोगों को राशनपेंशन आदि देने के लिए बैंक खातों, 'आधारव मशीनों पर उँगलियों की छाप की मिलान की शर्तें न लगाई जाएँ क्योंकि मुख्यमंत्री को ऐसी शिकायतें मिल रही थीं कि इससे लोगों को बहुत परेशानी हो रही हैउन्हें धक्के खाने पड़ रहे हैंबैंक मित्रों को घूस देनी पड़ रही है और कई बार चक्कर काटने के बाद भी बैंक से ख़ाली हाथ वापस लौटना पड़ रहा है। उधर 12 सितंबर को आये एक और फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यह आदेश दिया कि जब तक इस विषय में वो कोई अंतिम निर्णय नहीं देता तब तक विद्यार्थियों के वज़ीफों के लिए 'आधारअनिवार्य नहीं है। 14 सितंबर को UGC ने एक नोटिस जारी करके सभी विश्वविद्यालयों को निर्देश दिए कि किसी भी विद्यार्थी को वज़ीफ़ा पाने के लिए 'आधारजमा कराना ज़रूरी नहीं है। विश्वविद्यालयों के छात्र अधिक जागरूक हैंपरिपक्व हैं और सबसे बड़ी बात संगठित हैं। वहीं निगम व दिल्ली सरकार के स्कूलों में पढ़ने वाले जिन लाखों छोटी उम्र के बच्चों को भी अदालत के इस फ़ैसले का इंसाफ मिलना चाहिए वो और उनके परिवारजन पहले-से भी अधिक कमज़ोर हालत में पहुँचा दिए गए हैं - पहले वज़ीफ़ा लेने के लिए स्कूल में पढ़ना काफ़ी था (और पैसे होने की कोई शर्त नहीं थी) लेकिन अब उन्हें ख़ुद पैसे जमा करके खाता खोलना होगायानी वज़ीफ़ा लेने वाले के पास पैसे होना ज़रूरी हैफिर उन्हें पैसे लगाकर 'आधारमें नामांकन कराना होगा (और कुछ ग़लती होने पर दोबारा पैसे लगाने होंगे)तब कहीं जाकर नाममात्र का वज़ीफ़ा आएगा। ऊपर से निगम व दिल्ली सरकार दोनों में ही प्रशासन जनविरोधी अफ़सरशाही के चरित्र का परिचय देते हुए न सिर्फ़ पढ़ने वाले बच्चों को सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुसार लाभ नहीं दे रहा हैबल्कि रोज़ आदेश-दर-आदेश जारी करके एक तरफ़ वंचित वर्गों पर दबाव बना रहा है और दूसरी तरफ़ अदालत की अवमानना कर रहा है। जबकि शिक्षा विभागों से ये अपेक्षा करना जायज़ है कि वो अपने स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के मानव अधिकारों की रक्षा करने के लिए तत्पर रहेंगे। 

16 सितंबर को UIDAI के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने बिज़नस स्टैंडर्ड को दिए एक साक्षात्कार में अधिकतर सवालों के गोलमोल जवाब देते हुए यह बात मानी कि UIDAI को रोज़ डेढ़ लाख शिकायती फ़ोन आ रहे हैं जिनमें से वो कुछ को ही निपटा पाते हैं। इस संख्या से भी स्थिति की भयावहता का कुछ आभास होता है।

इस बीच अक्टूबर में आई एक ख़बर में इलाहाबाद में एक दलित की भूख से हुई मौत के पीछे एक कारण यह भी बताया गया कि 'आधार' नहीं होने के कारण उसे PDS से राशन नहीं मिल रहा था।     

सवाल
आख़िर हम ख़ुद ऐसे कितने लोगों को जानते हैं जो अनुचित ढंग से एक-साथ दो जगहों से लाभ प्राप्त कर रहे हैं? अगर नहीं जानते या इस संबंध में केवल एक-दो पर शक ही करते हैं तो यह दावा कितना सही है कि यह एक व्यापक परिघटना है या देश के लिए एक गम्भीर समस्या है? फिर इसकी बिना पर क्या बाक़ी लोगों को प्रताड़ित करना न्यायोचित है? इंसाफ़ का उसूल तो यह है कि चाहे सौ क़सूरवार छूट जाएँ लेकिन एक बेगुनाह को सज़ा नहीं होनी चाहिए। क़ानून के दर्शन का एक अन्य सिद्धांत यह है कि आरोप लगाने वाले को आरोप सिद्ध करना होता है और जिस पर आरोप लगाया गया है यह उसकी ज़िम्मेदारी नहीं है कि ख़ुद को निर्दोष साबित करे। 'आधार' व इस तरह की प्रशासनिक-राजनैतिक तकनीकें न्याय के इन सनातन उसूलों को उलटकर एक नाइंसाफ़ी का राज्य स्थापित करती हैं। ऐसे समाज में सभी एक-दूसरे का साथ देने के बजाय एक-दूसरे को शक की नज़रों से देखने लगते हैं। विडंबना यह है कि ऐसा हम अपने ही वर्ग-साथियों के ख़िलाफ़ करते हैं जबकि हमें उस वर्ग की कारस्तानियों के विरुद्ध लामबंद होने की ज़रूरत होती है जो ठीक हमारी नाक के नीचे से सार्वजनिक संसाधनों व हमारी मेहनत को लूट रहा होता है। क्या सरकारें यह दावा कर सकती हैं कि जब, उनके कहे अनुसार, 'आधार' व अन्य तरीक़ों से (जिनमें अब नोटों को ख़ारिज करना भी शामिल है) भ्रष्टाचार पर जो लगाम लगेगी और उससे जो पैसा जनकोष में आएगा उसका इस्तेमाल सार्वजनिक संस्थान खोलने, उन्हें मज़बूत करने व आर्थिक-सामाजिक असमानता दूर करने के लिए किया जायेगाअगर इससे कंपनियों व धन्ना सेठों की सत्ता तथा पुलिसिया दमन पर अंकुश लगाने में कोई मदद नहीं मिलेगी तो फिर यह हमारे लिए निरर्थक ही नहीं बल्कि अहितकर है।
  
हम मानते हैं कि ‘आधार’ एक ऐसी अविश्वास की संस्कृति पर आधारित है जिसे अभी नहीं नकारा गया तो जो बढ़ती चली जाएगी और हमारे जीवन का प्रत्येक हिस्सा सरकारी नियंत्रण की चपेट में आ जाएगाअगर ‘आधार’ राज्य द्वारा सुविधाएं देने का यंत्र हो सकता है तो क्या इसे कुछ लोगों को जन सुविधाओं व नागरिक अधिकारों से वंचित रखने के यंत्र के रूप में भी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है? हो सकता है कि कल जिसके हाथ में इसका रिमोट कण्ट्रोल हो वो हमारी नागरिकता भी तय करने लगे| क्या जिनके आधारकार्ड नहीं बन पायेंगे या नहीं बनाये जायेंगे या फिर जो इसे बनाना नहीं चाहेंगे, वो इस देश के नागरिक नहीं होंगे?

आज हम ख़ुद पर शक की नज़र रखने के लिए पैसे चुका रहे हैंभाग-दौड़ कर रहे हैंवक़्त लगा रहे हैं और अपनी इज़्ज़त गिरवी रख रहे हैं। अपनी पहचान या रज़ामंदी के लिए हस्ताक्षर करने में हम सक्रिय होते हैंकुछ करते हैंअपने इंसानी हस्तक्षेप को दर्ज करते हैं। वहींहम अपनी उँगलियोंअपनी आँखों की पुतलियों के निशान देते नहीं हैंवो हमसे लिए जाते हैं। वो हमारे शरीर से ली जाने वाली छाप हैंचेतन मस्तिष्क के हस्ताक्षर नहीं। निशान मृत शरीर से भी लिए जा सकते हैं इसलिए वो हमारे ज़िंदा होने के जैविक सबूत भर हो सकते हैंव्यक्ति होने की प्रस्तुति नहीं। शरीर के अंगों की छाप की तुलना पालतू जानवरों पर किये जाने वाले गोदनों से की जा सकती है। दोनों को लेने में किसी अन्य'मालिककी भूमिका होती हैकिसी सत्ता के द्वारा चिन्हित किये जाने का उद्देश्य होता है। यह हमपर मयस्सर है कि हम ख़ुद को और आने वाली इंसानी पीढ़ियों को कौन-सी पहचान की विरासत सौंपना चाहते हैं - इज़्ज़तआज़ादी और निडरता की या अपमानबेड़ियों और चुप्पी की।