फ़िरोज़
प्राथमिक शिक्षक
लगभग हर शिक्षक के पास विद्यार्थियों के लाजवाब जवाबों के अनुभव का ख़ज़ाना
होता है। ये जवाब मौखिक भी हो सकते हैं और लिखित भी, परीक्षाई भी हो सकते
हैं और संवादात्मक भी। इसी तरह, ये विभिन्न कक्षाई
स्तरों पर व अलग-अलग विषयों में मिल सकते हैं। अक़सर हम शिक्षक एक-दूसरे के
साथ अपने-अपने विद्यार्थियों के रोचक जवाबों को साझा भी करते हैं। कभी इसका
उद्देश्य हल्का-फुल्का मनोरंजन करना होता है, तो कभी गंभीर चर्चा
को न्योता देना भी होता है। हालाँकि, हम चाहें तो मनोरंजन की थोड़ी-सी
पड़ताल करने पर भी हमारे सामने गंभीर प्रश्न खड़े हो सकते हैं। रीडर्स डाइजेस्ट जैसी
अंग्रेज़ी पत्रिकाओं और चंपक जैसी बाल-पत्रिकाओं में ऐसे स्तंभ होते हैं जिनमें
प्रायः शिक्षक-विद्यार्थी संवाद के इर्द-गिर्द घटित रोचक प्रसंग भी स्थान पाते
हैं। स्कूलों के जीवन के संदर्भ के चुटकुलों की तो हमारी लोक-संस्कृति में भरमार
है और यह ख़ुशी की बात है कि विद्यार्थी इन्हें स्कूली मंचों, कक्षाओं में प्रस्तुत
करते रहते हैं। कम-से-कम उन स्कूलों की छोटी कक्षाओं के बारे में तो यह सच है
जिनका माहौल बाल-सुलभ और सहज होता है, सहमा हुआ या
अनुशासन-संस्कृति के नाम पर आपातकालिक नहीं। हाँ, ये ज़रूर है कि
क्योंकि हमारी संस्कृति सामंती है और हमारे स्कूल उसी में बसे हुए हैं इसलिए इन
क़िस्सों पर एक संवेदनशील नज़र रखना भी हमारा फ़र्ज़ है। उदाहरण के लिए, मुझे याद आता है कि
हमारे स्कूल की सभा में छात्राओं ने जो नाटक-गीत मंच पर प्रस्तुत किये
हैं कभी-कभी उनमें हास्य या सेवा-समर्पण की भावना के बहाने जातिगत व
स्त्री-विरोधी तत्व भी शामिल रहे हैं।
ख़ैर!
क़रीब-क़रीब तब से जब से मैंने प्राथमिक कक्षा में पढ़ाना शुरु किया मुझे भी
विद्यार्थियों के जवाबों ने विस्मित करना और गुदगुदाना शुरु कर दिया था। पिछले
पंद्रह वर्षों से भी ज़्यादा के समय से मैं सोचता रहा हूँ कि कम-से-कम भाषा (हिंदी), सामाजिक अध्ययन और पर्यावरण अध्ययन की
परीक्षाओं में प्राप्त होने वाले उन उत्तरों को सहेजकर रखूँ जो ज़रा 'हटकर' थे। बहुत दफ़ा उन्हें अपनी कार्य-योजना
डायरी में लिख भी लिया, लेकिन बात
उसके आगे नहीं बढ़ी। हाँ, विद्यार्थियों
को उत्तर-पुस्तिकायें
लौटाते समय यह ध्यान रखता आया हूँ कि उनके उन उत्तरों पर कोई सवाल, कोई सरसरी टिप्पणी तो करूँ जिन्हें
पढ़कर मज़ा आ गया या सोचने को मजबूर हो गया। अफ़सोस इस बात का है कि पहले
विद्यार्थियों की बहुत अधिक
संख्या के कारण और हाल के वर्षों में डिजिटल इंडिया व ई-गवर्नेंस के दबाव के कारण, शिक्षण पेशे का यह अभिन्न काम कभी
तसल्ली से नहीं हो पाया। जबकि CCE के तहत तो इसे अधिगम व मूल्याँकन में औपचारिक रूप से अनिवार्य स्थान दिया गया है! कहने का मतलब यह है कि जब CCE लागू नहीं था तब भी मज़ेदार व गंभीर
शिक्षण की माँग थी कि विद्यार्थियों के, विशेषकर 'ग़लत', जवाबों को संज्ञान में लेकर उनसे उनपर
बात की जाए और जब यह लागू ही है तो परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि इसकी गुंजाइश कम होती जा
रही है।
ये बात
मुझे अपने शिक्षण की तैयारी के कोर्स (बी. एड.) में ही समझ आ गई थी कि कैसे
काल्पनिक या हास्य प्रसंगों से गणित जैसे विषय के दर्शन या उसकी शिक्षण विधि से जुड़ी संकल्पनाएँ स्पष्ट की जा सकती
हैं। बल्कि ये कहना ज़्यादा सच होगा कि हमारे शिक्षक श्री शीतल प्रसाद त्यागी
द्वारा दिए गए उदाहरणों से समझा दी
गई थी। यह बताने के लिए कि गणित की
संकल्पनाओं का हमारे अनुभव जगत से कोई अनिवार्य सहचर्य नहीं है, वो 'औसत' को लेकर एक क़िस्सा सुनते थे कि एक
व्यक्ति ने एक नदी की
औसत गहराई पता की और फिर इससे संतुष्ट होकर कि उसकी लंबाई उक्त औसत से ज़्यादा है, नदी पार करने गया तथा डूब गया।
शिक्षण-अधिगम की रटंत
परंपरा पर जो क़िस्सा वो सुनाते थे उसे हक़ीक़त की देन बताते थे - कि कैसे एक कक्षा
में जब स्कूल इंस्पेक्टर ने एक विद्यार्थी से कोई पहाड़ा सुनाने को कहा तो उसने
जवाब दिया कि उसे पहाड़ा तो याद नहीं है, अलबत्ता अगर इजाज़त मिली तो वह पहाड़े की
धुन ज़रूर सुना सकता है!
इसी तरह
पिछले दिनों अपने परिवार के सदस्यों से प्राथमिक कक्षा की परीक्षा में दो मौलिक जवाबों के उदाहरण मिले। मेरी
तायाज़ाद बहन ने बताया कि उनके बड़े बेटे ने (शायद पाँचवीं कक्षा के) हिंदी के एक इम्तेहान में प्रधानाचार्य को फ़ीस-माफ़ी के लिए लिखे जाने वाले प्रार्थना-पत्र में यह लिखा कि क्योंकि
उसके माता-पिता ने हाल ही में फ़रारी कार ख़रीदी थी इसलिए उनके पास पैसों की कमी हो गई है और वो उसकी फ़ीस
नहीं दे पायेंगे! ज़ाहिर है कि ये विद्यार्थी एक मध्यम-वर्गीय परिवार से आता है, ऊँची फ़ीस वाले स्कूल जाता है और महँगी कारों के बारे में कुछ जानकारी भी रखता
है। इस तरह इसके द्वारा प्रस्तुत फ़ीस-माफ़ी का कारण इसके पारिवारिक परिवेश, स्कूली अनुभव-संसार और रुचि-जगत से सहज रूप से जुड़ा हुआ है। औरों के
लिए भले ही यह एक मज़ाक का विषय हो लेकिन उसके लिए तो यह बेहद ईमानदाराना ख़याल
है। मगर मज़ाक और बालपन की ईमानदारी
के बीच यह प्रसंग हमें अपने स्कूलों और समाज की घोर वर्गीय असमानता की स्थिति
के बारे में सोचने को भी आमंत्रित करता है। दूसरा उदाहरण मेरी चच्ची के (निजी अल्पसंख्यक) स्कूल की एक प्राथमिक कक्षा की छात्रा
का है जिसने इस्लामियात विषय की परीक्षा में आये एक सवाल के जवाब में लिखा कि
गुनाह (पाप) वो है जो हमें जहन्नुम (नर्क) में जाने में मदद करता है! अब भाषाई
दृष्टि से तो यह कथन ग़लत नहीं है मगर अगर जाँचकर्ता उक्त विषय के उद्देश्य का लिहाज़ करेंगी
तो उन्हें अंक देते वक़्त कुछ मानसिक जद्दोजहद ज़रूर करनी पड़ेगी। यह प्रसंग हमें यह
सवाल खड़ा करने के लिए उकसाता है कि आख़िर नाज़ुक उम्र के बच्चों को तथाकथित परलौकिक
व आस्था के विषय पढ़ाना कितना उचित है। क्या यह उनके विश्वास, निश्छलता व वयस्कों पर निर्भरता का
बेजा व धूर्ततापूर्ण फ़ायदा उठाना नहीं है?
मुझे याद
है कि शिक्षण के प्रारंभिक वर्षों में ही मुझे अपने विद्यार्थियों द्वारा कुछ
बुनियादी सबक़ मिलने लग गए थे। उदाहरण के लिए, मुझे इस बात का पक्का व गौरवान्वित
करने वाला विश्वास था कि मैं एक बौद्धिक कर्मी हूँ और इसलिए मेरा रिश्ता अपने
विद्यार्थियों के दिमाग़ से है, तुच्छ शरीर से मुझे कोई सरोकार नहीं है। ज़ाहिर है कि मैं इस विचार को एक
श्रेष्ठता भाव से अपने विद्यार्थियों तक भी पहुँचाता रहता था कि मुझे उनके भौतिक
संदर्भों, मसलन
घर-परिवार, कपड़े, रहन-सहन आदि, से दिलचस्पी नहीं है। ऐसे ही किसी
आत्म-मुग्ध संबोधन के बीच चौथी-पाँचवीं कक्षा के मेरे एक विद्यार्थी ने सवाल किया
कि जब उनकी सेहत की स्थिति से उनकी उपस्थिति, उनका सीखना प्रभावित होता है तो फिर एक
ऐसे शिक्षक के नाते जो ख़ूब घमंड से कहता है कि उसे उनके बौद्धिक विकास से सरोकार
है, मैं इन
चीज़ों से बेपरवाह कैसे हो सकता हूँ। यह कहकर वो हँसते हुये शायद खेलने या खाना
खाने चला गया और मुझे एकाएक अपनी बेवकूफ़ी का शिद्दत के साथ एहसास होने लगा। (शुक्र
है कि आज तक हो रहा है। अपने शिक्षक के अल्हड़ और बावले विचारों से तनिक सा परिचय
पाने के बाद, विद्यार्थी
उसे सुधारने व रास्ते पर लाने का कोई मौका छोड़ते ही नहीं। मैं भी ढीठ हूँ - कभी
साफ़ मुकर जाता हूँ, कभी नयी
सनक का जामा ओढ़ लेता हूँ और कभी अपने पद के तेवर दिखाकर उन्हें ही सिखाने लगता
हूँ। दोनों के बीच अपनी-अपनी काबीलियत साबित करने की ज़ोर-आज़माइश लगी रहती है।)
इस हिस्से
में मैं अपने द्वारा पढ़ाई पाँचवीं कक्षा की हिंदी की परीक्षा में दिये गए कुछ
मज़ेदार जवाब साझा करूँगा। इस प्रश्न-पत्र में इन प्रश्नों ने ऐसे उत्तरों को
प्रेरित किया -
1) अगर
तुम्हें घर में एक दिन की बादशाहत मिल जाये तो तुम क्या करोगी? ('रिमझिम-5' के नाटक-रूपी पाठ 'एक दिन की बादशाहत' के आधार पर।)
2)तुम
कौन-सा चुनौती भरा काम करना चाहती हो?
(पर्वतारोहण
पर आधारित एक लेख के आधार पर।)
3) अपनी नानी
या दादी या किसी बड़े-बूढ़े के स्वभाव व आदतों के बारे में पाँच वाक्यों का एक
अनुच्छेद लिखो।
('ननिहाल
में गुज़रे दिन' कहानी के
आधार पर।)
4) इन्हें
पूरा करो: क) वो इतना हँसती है कि.. ख) मेरा मन करता है कि.. ग)तुम तो ऐसे देख रही
हो जैसे.. घ) उसकी आवाज़ इतनी मीठी है.. ङ) मुझे इतनी ख़ुशी हुई..
पहले
प्रश्न के जवाब में सबसे अधिक छात्राओं ने खाने-पीने, घूमने, खेलने और हुक्म चलाने के बारे में लिखा लेकिन कुछ
उत्तर काफ़ी अलग क़िस्म के भी थे। इनमें एक तरफ़ घर का काम नहीं करने की नकारात्मक
आज़ादी का बोध था तो मौज-मस्ती करने के बाद घर के काम में हाथ बँटाने की नैतिकता
वाली आज़ादी का अजब बोध भी। परस्पर विपरीत लगने वाले इन दोनों बोधों की जड़ में एक पितृसत्तात्मक
पारिवारिक ढाँचे में स्त्री के श्रम की स्थिति का एहसास समान रूप से शामिल है परंतु उनके अपने-अपने व्यक्तित्व की
अभिव्यक्ति के साथ। सबसे कमाल के उत्तर उन दो छात्राओं के लगे जिन्होंने क्रमशः इस
ताक़त से लोकतंत्र लाने और इसे भाई-बहन में बाँट देने का इरादा जताया। सभी
व्यवस्थाजनक हताशाओं के बावजूद शायद ऐसे ही मासूम जवाबों को पढ़कर शिक्षण के प्रति
मोह बना रहता है। कुछ जवाबों से यह भी अंदाज़ा होता है कि 'बादशाहत' को ‘बादशाह’ समझ लिया गया। संभवतः इसी कारण उसे
सुधारने, उससे काम
करवाने, घर से
निकाल देने आदि के जनवादी और नेक विचार प्रकट हुये हैं!
दूसरे
प्रश्न के जवाब में ज़्यादातर छात्राओं ने पर्वतारोहण का ज़िक्र किया है, हालाँकि अंतरिक्ष में जाने व खोज-बीन
करने की मंशा भी ज़ाहिर की गई है। ये कोरी कल्पनायेँ नहीं हैं क्योंकि इन विषयों से
जुड़े पाठ उनकी किताबों में थे। यहाँ हमें बच्चों के सामने उनके सीमित
(वर्गीय-लैंगिक) यथार्थ से परे की दुनिया के प्रति सपने जगाने की दिशा में
पाठ्य-पुस्तक की संभावना का प्रत्यक्ष उदाहरण मिलता है। इसी प्रश्न के उत्तर में
शिक्षक को मुँह चिढ़ाता दस प्लेट गोल-गप्पे खाने की चुनौती लेने का बयान भी दिया
गया है और किसी के लड़ाई न करने का भी।
तीसरे
सवाल के संदर्भ में किसी भी छात्रा ने अनजाने वृद्ध व्यक्ति के बारे में नहीं लिखा, बल्कि सबने अपनी नानी या दादी के बारे
में ही लिखा। इस वर्णन में जो समान बातें हैं वो नानी-दादी के प्यार की ही हैं
लेकिन कुछ ख़ास, अप्रत्याशित
भी है। यह है उनके द्वारा खेती या अन्य काम करने का ज़िक्र। रोचक यह है कि इनमें से
अधिकतर ने यह बयान किया है कि उनकी नानी-दादी को खेत का काम करने का शौक़ है! जिस
वर्ग से ये छात्राएँ आती हैं उसमें एक बड़ी उम्र तक रोज़ी-रोटी कमाने व परिवार की आय
में योगदान देने के लिए मशक़्क़त करना मजबूरी है, हालाँकि इससे इंकार नहीं किया जा सकता
कि इस अवलोकन की अधिक आशाजनक, स्त्रीवादी व्याख्या भी की जा सकती है। इसके अलावा कुछ चित्रण बेहद लुभावना
है: दादी अकड़ू हैं लेकिन रोकती-टोकती नहीं हैं; नानी रोती नहीं हैं, बीड़ी पीती हैं और मज़ाक करती हैं; नानी को स्वेटर बुनना अच्छा लगता है और
कहानियाँ सुनाती हैं; नानी
उत्तराखंड की हैं और उनकी भाषा समझ नहीं आती; नानी घुमाने ले जाती हैं; दादी अच्छी हैं लेकिन उनकी बातों से
दिमाग़ पक जाता है; दादी भूत
पर विश्वास नहीं करतीं, भेदभाव
नहीं करती और उन्हें घूमने-फिरने का शौक़ है आदि। एक ने अपनी नानी और दूसरी ने अपनी
दादी की ख़राब सेहत व तकलीफ़ के बारे में लिखा है। एक अन्य छात्रा ने बहुत प्यार से
अपनी मृत दादी को याद किया तो एक ने अपनी नानी के बचपन की चालाकी, नटखटपन और खेलकूद के बारे में लिखा है।
सिर्फ़ तीन छात्राओं ने अपने नाना के बारे में लिखा है। एक ने अपने मृत नाना को यह
कहकर याद किया है कि वो मज़ाकिया थे और परिवारजनों के सपनों में आते हैं; दूसरी ने कुछ बचाव की मुद्रा में उनके
नरम-गरम स्वभाव की चर्चा की है और तीसरी ने अपने नाना के साथ मछलियाँ पकड़ने जाने
के अनुभव के बारे में लिखा है। अपने नजदीकी परिजनों के बारे में लिखने में
विद्यार्थियों ने जो आत्मीयता व्यक्त की है वो निःसन्देह गाय और स्वतन्त्रता दिवस
पर लिखे जाने वाले निबंधों में नहीं मिलती मगर यही मासूम बेबाकी ये सवाल भी खड़ा करती
है कि क्या ऐसे निजी सवाल पूछना उचित है। कहीं हम अपने शिक्षक होने की
ज्ञानमीमांसीय सत्ता और विद्यार्थियों की उम्र के निश्छल विश्वास का फ़ायदा उठाकर
उनके निज जीवन में ताँकझाँक तो नहीं कर रहे? कुछ भी हो, ये वर्णन हमें बच्चों की उस
अवलोकन-क्षमता से परिचित कराता है उन्हें हम जिसके क़ाबिल नहीं समझते और इस तरह
नज़रंदाज़ करके शायद कुचल देते हैं।
हँसने की इंतेहा वाले वाक्य को पूरा करने के लिए सबसे सामान्य बात आँसू
निकलने की, पेट दर्द हो जाने की और पागल लगने की की गई है। किसी का
हँसना दूसरे को भी प्रभावित करता है इस ज्ञान का परिचय उन वाक्यों से मिलता है
जिनमें देखने वाले के भी पागल हो जाने, सबको हँसा देने व
रोने वाले के भी हँस देने की बात कही गई है। इसके अलावा अत्यधिक हँसने वाले के
दानव होने व उसके दाँत बाहर आ जाने के नतीजे की संभावना भी जताई गई है तो अत्यधिक
हँसी की तुलना चिड़िया की बोली तथा गुदगुदी से भी की गई है। जिस वाक्य को अपने मन
की इच्छा लिखकर पूरा करना था उसमें खेलने, खाने और घूमने के
ही उदाहरण ज़्यादा मिले हैं लेकिन भइया के साथ रहने, खट्टा
खाने, गाँव चले जाने, परी बन जाने, समुद्र देखते रहने, चाय पीने,
अच्छे अंक पाने और सारी खुशियाँ पा लेने जैसे साधारण परंतु नितांत निजी चाहतें भी
व्यक्त हुई हैं। जिस छात्रा ने ‘उसे ज़ोर से तमाचा मार दूँ’ लिखा उससे उसके ग़ुस्से के कारण व निशाने के बारे में अबतक पूछ नहीं पाया
हूँ। देखने के अंदाज़ को बयान करने के लिए भूत देख लेने,
(आँखों से) खा लिए जाने व पहली बार/कभी न देखे जाने की स्थितियों का इस्तेमाल सबसे
अधिक किया गया है। वहीं एक ने देखने वाली की तुलना भूखे शेर से, दूसरी ने बंदरों के ताकने से और तीसरी ने अपनी (देखे जाने वाले की) तुलना
मूर्ति से की है। मगर सबसे ज़्यादा सोचने पर उस छात्रा के वाक्य ने मजबूर किया
जिसने लिखा कि देखने वाली ऐसे देख रही है जैसे कि उसने अपने सपनों का राजा देख
लिया हो!
वैसे तो आवाज़ की मिठास की तुलना चीनी, गुड़ व कोयल जैसी
अपेक्षाकृत सुलभ चीज़ों से की गई है लेकिन इसमें सामान्य को असामान्य ढंग से
प्रयुक्त करने के अधिक साहित्यिक उदाहरण भी हैं – जैसे,
मोतीचूर के लड्डू से उसकी तुलना करना व उसके आगे कोयल की कूक का भी फीका पड़ जाना। इसके
अलावा जहाँ एक वाक्य में आवाज़ की मिठास से बाँसुरी के बजने के आभास की बात आई है, वहीं आवाज़ के मालिक के सार्वभौमिक रूप से लोकप्रिय होने, उसे घर ले आने की इच्छा जागने, आवाज़ चुरा लेने का
मन करने, सुनकर झूमने, बार-बार सुनने
और सुनने के लिए तरसने जैसे प्रभावों का भी उल्लेख किया गया है।
अंतिम वाक्य के संदर्भ में
ख़ुशी के मारे नाचने और हँसने के ज़रा सहज ख़यालों का इज़हार अधिक किया गया है। लेकिन
इस उत्तर में ख़ुशी की इंतेहा इन लफ़्ज़ों में भी बयान की गई – जितनी पहले कभी नहीं
हुई थी, पूरा घर सर पर उठा लिया, शर्मिंदा हो
गई, चक्कर आने लगा, सब्र नहीं कर पाई
आदि। यह महत्वपूर्ण है कि कुछ छात्राओं ने अत्यधिक ख़ुशी का संबंध पागल हो जाने व
रोने के विपरीत किन्तु भावनात्मक रूप से संबद्ध क्रियाओं से भी जोड़ा है। परिवार
में बचपन से ही लड़कियों को समाज में उनके लैंगिक रूप से दोयम दर्जे से जुड़े अनिश्चित
व असुरक्षित अस्तित्व को आत्मसात करने की समझ में संस्कारित करने का एक उदाहरण इस
वाक्य से मिला: मुझे इतनी ख़ुशी हुई कि मम्मी बोली हँस मत,
बाद में रोना पड़ेगा।
इसके बावजूद कि मैं इनमें से कई छात्राओं को पाँच सालों से पढ़ा रहा था और हमारे
बीच एक अपेक्षाकृत नजदीकी रिश्ता भी था, इन जवाबों ने मुझे
उनकी ज़िंदगी और संसार के नए आयामों से परिचित कराया। दूसरी ओर, कुछ विद्यार्थियों के संदर्भ में इन अभिव्यक्तियों ने उनके व्यवहार में आ
रहे बदलावों को और बेहतर ढंग से जानने-समझने में भी मदद की। मगर शायद यह तभी संभव
हो सकता है जब कक्षा में एक दोस्ताना माहौल रचने का सायास प्रयास किया जा रहा हो व
विद्यार्थियों को शिक्षक पर भरोसा हो। इसके लिए कक्षा में हँसी-मज़ाक होना (जिसमें
दुराग्रह-मुक्त टाँग खींचना-खिंचवाना भी शामिल है) व शिक्षक द्वारा मुहावरे-युक्त
बोलचाल का इस्तेमाल करना भी लाभदायक है। साथ ही, यह भी ज़रूरी
है कि उनकी पाठ्य-सामग्री उनको मात्र अबोध बच्चे समझकर नसीहतों से लबरेज़ न हो, बल्कि उनकी बौद्धिकता व भावनात्मकता का सम्मान करते हुये उन्हें रुचिकर व
चुनौतीपूर्ण साहित्य उपलब्ध कराये। वहीं यह भी आवश्यक है कि किताबों में विविध
प्रकार के पाठ हों और स्कूलों में विविध प्रकार की पुस्तकें पढ़ने के लिए आसानी से
उपलब्ध हों। यानि एक ‘समृद्ध पाठ्य वातावरण’ हो।
यह स्पष्ट है कि इतना सब करने के बाद भी रोचक जवाब तो तब ही मिलेंगे जब
प्रश्न रोचक पूछे जायेंगे। सीधे-सपाट, वस्तुनिष्ठ व बंद
प्रकार के प्रश्नों के उत्तर भी लकीर-के-फ़कीर वाले ही होंगे। हाँ, उत्तरों की संभावना सवालों के स्वरूप पर निर्भर तो करती है लेकिन इसके
लिए यह भी ज़रूरी है कि कक्षा में विद्यार्थियों को इस तरह के अभ्यासों से जूझने की
आदत डाली गई हो। अन्यथा यह भी हो सकता है कि आपके खुले व प्रेरित करने वाले प्रश्नों
के बदले में भी आपको नीरस जवाब या कोरे पन्ने मिलें। मगर जो बात विद्यार्थियों के
बारे में सच है, वही हम शिक्षकों पर भी फिट बैठती है। मज़ेदार
प्रश्न तो हम तब बनाएँगे जब हम प्रश्न-पत्र बना रहे होंगे। लेकिन कुछ हमारे सुविधाजनक
व्यक्तिगत रुझान के स्तर पर और कुछ स्कूली प्रशासन की स्थानीय निजी प्रकाशकों से लाभप्रद
साँठ-गाँठ के स्तर पर कई दफ़ा हमारे द्वारा प्रश्न-पत्र तैयार करने की नौबत ही नहीं
आती। रही-सही क़सर नव-उदारवाद के शिकंजे में लागू की जा रही वो नीतियाँ निकाल रही
हैं जिनमें (सरकारी स्कूलों के गिरते स्तर व तथाकथित गुणवत्ता के नाम पर) अधिकाधिक
परीक्षाएँ न केवल केंद्रीकृत की जा रही हैं बल्कि इन्हें टेस्टिंग व्यापार में लगी
निजी कंपनियों को आउटसोर्स किया जा रहा है। अतः एक तरफ़ अपने पेशे की गरिमा, उसकी अस्मिता को बनाए रखने के लिए व दूसरी तरफ़ अपने विद्यार्थियों के
जवाबों को पढ़कर मुस्कुराने और सोच में पड़ जाने की ख़ुशी बचाए रखने के लिए हमें पाठ, परीक्षा व मूल्याँकन तय करने की अपनी बौद्धिक ज़िम्मेदारी तथा हक़ के लिए
लड़ना होगा। ख़ुद से, अपनी कक्षाओं में,
अपने स्कूलों में, प्रशासन से, सरकार
के गलियारों व कॉर्पोरेट बोर्ड-कमरों में जहाँ नीतियाँ बनाई जा रही हैं... लिखकर, एकजुट होकर, सड़कों पर
उतर कर। यही हमारे विद्यार्थियों के सही मायनों में शिक्षा के अधिकार का तकाज़ा भी
है, वरना उनका अस्तित्व लालची वैश्विक पूँजी के शोषित श्रमपरायण, जातिगत हीनता-श्रेष्ठता बोध से ग्रस्त धर्मपरायण और दमनकारी राज्य के कर्तव्यपरायण
जीव तक सीमित कर दिया जायेगा।