यह पत्र दिल्ली के स्कूलों में काम करने वाले शिक्षकों ने एनडीटीवी के प्राइमटाइम पर दिल्ली सरकार के स्कूलों पर दी गयी रिपोर्ट की प्रतिक्रिया में लिखी गयी, हालाँकि इसका जबाव अभी तक भी नहीं आया है. ..... ........ संपादक
आदरणीय रवीश जी, सोमवार दिनांक 28 मई को आपके कार्यक्रम Primetime पर दिल्ली सरकार के स्कूलों पर एक रिपोर्ट देखी। रिपोर्ट देख कर कुछ निराशा सी हुई। आपके programme पर propaganda देखने की आदत नही है। यह सही है कि दिल्ली सरकार ने अपने स्कूलों में infrastructure को काफी बेहतर बनाया है, और यह ज़रूरी भी है। लेकिन शिक्षा सिर्फ स्कूलों के infrastructure improve हो जाने से बेहतर नहीं हो जाती। ना ही CBSE की board की परीक्षा में आये नंबर इसका मापदंड हो सकते हैं। CBSE marks are only an indicator of good rote learning and we are sure you know that! फिर इसे भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता कि 'अच्छे' परिणामों को पाने के लिए कैसे 'साधारण' विद्यार्थियों को पहले ही बाहर कर दिया जाता है और कैसे व्ययव्था तरह-तरह के समझौतावादी हथकंडे अपनाती है।आम जनता आजकलinfrastructure की चकाचौंध और नम्बरों जैसे ऊपरी दिखावों को ही कई बार पूरा सत्य मान लेती है। और जब वह सत्य आपके कार्यक्रम में दिखाया जाता है तब तो कोई संदेह बचता ही नहीं।
हम कुछ teachers सरकारी स्कूलों में पढ़ाते हैं। हम इस दिखावे से त्रस्त हैं। शिक्षा का स्तर गिराया जा रहा है। सारा ध्यान infrastructure और दिखावे की चीज़ों पर है। एक swimming pool से सजी इमारत के अंदर किस स्तर और तरह की शिक्षा दी जा रही है? कितने स्कूलों में ये सहूलियतें हैं और कितने विद्यार्थियों को उपलब्ध हैं?
हम कुछ teachers सरकारी स्कूलों में पढ़ाते हैं। हम इस दिखावे से त्रस्त हैं। शिक्षा का स्तर गिराया जा रहा है। सारा ध्यान infrastructure और दिखावे की चीज़ों पर है। एक swimming pool से सजी इमारत के अंदर किस स्तर और तरह की शिक्षा दी जा रही है? कितने स्कूलों में ये सहूलियतें हैं और कितने विद्यार्थियों को उपलब्ध हैं?
केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार की शिक्षा नीतियों में फ़र्क़ हो सकता है लेकिन दिल्ली के सरकारी स्कूलों में भी कमज़ोर तबकों से आने वाले बच्चों को उसी तरह जबरन वोकेशनल विषयों की तरफ़ धकेला जा रहा है जिस तरह केंद्र सरकार, स्किलिंग के नाम पर, अपनी घोषित-अघोषित नीतियों में निर्देश दे रही है। इससे न सिर्फ़ लैंगिक भेदभाव मज़बूत हो रहा है - छात्रों एवं छात्राओं के स्कूलों के वोकेशनल कोर्सों की तुलना करके देख सकते हैं - और स्कूलों के अकादमिक चरित्र की क़ीमत पर सतही व बाज़ारू विषयों को घुसाया जा रहा है, बल्कि इन बच्चों की उच्च शिक्षा के रास्ते भी सिकुड़ रहे हैं। इसी तरह,अगर एक तरफ़ केंद्र सरकार कोर्स को आधा करने की मंशा जता रही है तो दिल्ली सरकार ने भी तीसरी कक्षा से नौवीं कक्षा तक बच्चों को न सिर्फ़ उनके तथाकथित अधिगम स्तर के अनुसार बांटने का शिक्षाशास्त्रीय दृष्टि से बेहद ग़लत काम किया है बल्कि NCERT की किताबों व पाठ्यक्रम की जगह हल्की सामग्री लागू कर दी है। असल में, अगर आप छानबीन करेंगे तो पायेंगे कि दोनों ही सरकारों में एक ही तरह की निजी संस्थाओं के कर्ताधर्ता बहुत ताक़तवर मगर ग़ैर-जवाबदेह स्थिति में हैं। दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग के नीति-निर्माण और कार्यवाही में NGOs का बहुत दख़ल है। ये अपने आप में एक चिंता का विषय है क्योंकि एक तो इनकी शिक्षा की समझ ही ग़लत है, और दूसरे इससे SCERT/NCERT/विश्वविद्यालयों के शिक्षा विभागों जैसे सार्वजनिक व अकादमिक संस्थान कमज़ोर किए जा रहे हैं। इसी कड़ी में आपको उस निर्णय को भी देखना होगा जिसके तहत इस सरकार ने सभी विद्यालयों को बराबरी के आधार पर चलाने के बजाय पिछली और बाक़ी सरकारों की तरह ही एक और विशिष्ट श्रेणी के स्कूल (schools of excellence) खोलकर असमानता की परतों को और गहरा कर दिया है। (आम व ख़ास ट्रेनों के बीच का फ़र्क़ और इससे होने वाले नुक़सान को आप से बेहतर कौन समझ सकता है!) यह सूची लंबी है पर एक तो एक अपीलीय ख़त की शिष्टता व सीमा भी कोई चीज़ होती है और दूसरे हमें आपकी छानबीन की पेशागत क़ाबीलियत पर भी भरोसा है। लगे हाथों आपको यह भी बताते चलें कि शिक्षकों को बिना इजाज़त सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों पर मीडिया में बोलने-लिखने की अनुमति नहीं है।
आपको निराश करने का मन तो नहीं था मगर क्या करें, हम शिक्षा से जुड़े हुए और इससे प्यार करने वाले लोग इस डर से चुप नहीं बैठ सकते कि दिल्ली सरकार की शानदार दिखने वाली शिक्षा नीतियों की आलोचना करके हम भाजपा-कांग्रेस के हाथ मज़बूत कर देंगे या एक तुलनात्मक रूप से कम हिंसक व अधिक साफ़ ऐसी सरकार को नुक़सान पहुंचा देंगे जिससे आम तथा प्रगतिशील लोगों ने काफ़ी उम्मीद रखी थी/है। ऐसा भी नहीं है कि कुछ भी अच्छा नहीं हुआ है। निश्चित ही स्कूल मैनेजमेंट समितियां पहले से बहुत मज़बूत हुई हैं और स्कूलों के भवनों व उनके रखरखाव में सुधार हुआ है। हालांकि, यह भी एक पड़ताल का विषय हो सकता है कि क्या ये सभी जगह एक सा या ज़रूरत के हिसाब से हुआ है। हमारी चिंता वहीं है जो आपकी पत्रकारिता में झलकती है - मीडिया मैनेजमेंट और ऊपरी चकाचौंध के प्रकाश में हक़ीक़त कहीं छुप न जाए। ये ख़तरा तब और बढ़ जाता है जब 'कुछ अच्छे' के साथ और उसकी आड़ में बहुत कुछ ख़राब व ख़तरनाक भी हो रहा हो और जनता के हितैषी-विश्वसनीय पत्रकार व बुद्धिजीवी भी न सिर्फ़ इसे देख न पा रहे हों बल्कि अनजाने में ही उसके यशगान में शामिल हो जाएं।
अगर आपको ज़रूरी लगे तो हम इस विषय पर आपसे और बातें साझा कर सकते हैं।
दिल्ली के कुछ शिक्षक