दिल्ली के शिक्षा मंत्री महोदय ने सभी नए भर्ती शिक्षक/शिक्षिकाओं को 07 दिसम्बर को एक खुले संवाद के लिए त्यागराज स्टेडियम में बुलाया। इस खुली चर्चा के अनुभवों को बहुत से साथियों ने अनोपचारिक बातचीत के दौरान बयाँ किया। इसी सन्दर्भ में एक साथी ने अपने अनुभवों को कलमबद्ध करके लोक शिक्षक मंच को भेजा है जो कि सभी पाठकों के लिए यहाँ पेश है। नाम न छापने के शिक्षक साथी के अनुरोध पर हम उनकी पहचान यहाँ नहीं दे रहे हैं। साथ ही हम साथी की अपील का भी समर्थन करते हैं और शिक्षक साथियों से अनुरोध भी करते हैं कि इस तरह के और अनुभवों को भी लेखनीबद्ध करें और अन्य साथियों से साझा करें।
संपादक
STOP STEALING OUR
TEACHING TIME!
मनीष सिसोदिया जी,
दिनांक 07/12/19 को त्यागराज स्टेडियम में आपने नए शिक्षकों के साथ हुई चर्चा-परिचर्चा में शिक्षा के उद्देश्यों को लेकर कुछ महत्वपूर्ण बिंदु उठाए –
· ‘critical
and analytical’ विद्यार्थी तैयार करना
· हर विषय के मूल में संवैधानिक मूल्यों को रखना
· कोर्स खींचना नहीं, पूरा पढ़ाना
आपकी इन बातों से सहमति रखने वाले कुछ शिक्षकों ने जब यह समस्या उठाई कि हम कक्षाओं में पढ़ा नहीं पा रहे हैं, तब आपने इस समस्या को यह कहकर ख़ारिज कर दिया कि कल शिक्षक अपने टिफ़िन उठाने को भी गैर-अकादमिक ठहराएंगे| आपने हमें धमकाया, ‘probably you need an
orientation program on what is teaching’. यह मानते हुए कि केवल ‘critical and
analytical’ शिक्षक ही ‘critical and analytical’ विद्यार्थी तैयार कर सकते हैं, हम कुछ बातें साझा करना चाहते हैं| Please consider
it an orientation on ‘how to take and respond to teachers’ feedback’ . प्री-बोर्ड परीक्षा से ठीक पहले आपके साथ 1.5 घंटे की चर्चा के लिए (स्थल पर किए गए दावे के अनुसार) 7,500 शिक्षक पूरा दिन अपनी कक्षाएं छोड़कर आए थे| वैसे भी इस वर्ष प्रदूषण तथा त्योहारों के कारण दूसरे सत्र में पढ़ा पाने के लिए समय की कमी बहुत ज़्यादा खली है| अन्यथा भी हम अपनी पाठ्यचर्या से न्याय तभी कर सकते हैं जब प्रत्येक दिन और प्रत्येक कक्षा को सर्वोपरि रखें| इसलिए अगर मैं चयन कर सकती तो प्रोग्राम में आने के बजाय स्कूल में पढ़ाती| क्या यह मेरा चयन नहीं होना चाहिए कि मैं शिक्षा मंत्री का सन्देश अखबार में पढूं या टीवी में देखूं या न भी देखूं?
शिक्षक शायद यही समझाने की कोशिश कर रहे थे कि स्कूलों के अंदर आज ऐसे प्रोग्राम अपवाद नहीं, सामान्य हो गए हैं| किसी-न किसी कारण से स्कूल में हर समय सर्कुलर्स की हलचल रहती है| कोई भी कर्मचारी अपने कार्यस्थल पर काम करते समय स्थिरता और शान्ति चाहती है| इसका एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि जब वो सुबह स्कूल आती है तब वो अपने मन में कामों की एक सूची बनाकर आती है| अपनी योजनानुसार काम कर पाना हमें सक्षम बनाता है| लेकिन हो यह रहा है कि स्कूल में घुसते ही डर लगा रहता है कि न जाने क्या सर्कुलर आ जाए और पूरी योजना उलट जाए| शायद कक्षा में पढ़ा ही न पाएं? कहीं एक या दो पीरियड सर्कुलर के कामों में ही न गुज़र जायें? तब हम कैलकुलेट करने लगते हैं किस कक्षा का कोर्स ज़्यादा पीछे चल रहा है और किसे प्राथमिकता देनी होगी| दिन-ब-दिन ये बेचैनी बढ़ रही है और काम में हमेशा अनिश्चितता और बिखराव रहने लगा है|
विभाग से अनुरोध है कि फ़टाक से whatsapp पर नए सर्कुलर भेजना और जवाब माँगना बंद करे| यह शिक्षण के लिए स्वस्थ नहीं है| ज़्यादातर सर्कुलर घोड़े पर सवार होकर आते हैं| शिक्षा में ऐसी इमरजेंसी क्यों पैदा की जा रही है? ऐसा लगता है कि विभाग को सारी जानकारी तभी चाहिए होती है, ‘तुरंत’| मानो स्कूल का अपना कैलेंडर कोई मायने नहीं रखता|
अनुरोध है कि शिक्षकों को नए निर्देश/सर्कुलर कम से कम उस कार्यदिवस में 12.40 या 2 बजे (बच्चों की छुट्टी के बाद जो आधे घंटे का समय मिलता है) के बाद दें ताकि पढ़ने पढ़ाने के लिए वांछित स्थिर मनोस्थिति बाधित न हो| हम अगले दिन की योजना उसी अनुसार बना सकें| यह देख सकें कि अगले दिन कक्षा के इतर पीरियड्स में हमें इन कामों को कैसे करना है| जितनी इमरजेंसी बनाएंगे उतनी बनती जाएगी और यह बात जितनी विद्यालय के स्तर पर सही जान पड़ती है उतनी ही विभाग के स्तर पर भी सही होगी| रोज़ नए फ़रमान मदद नहीं करते, दूर तक सोच पाना नहीं सिखाते, गहराई में उतरना नहीं सिखाते| हालांकि कई सर्कुलर तो गैर-ज़रूरी और शिक्षा-विरोधी भी लगते हैं| इस मुद्दे पर अगली बार बात कर लेंगे|
इस सच्चाई से हर शिक्षक जूझ रहा है कि पढ़ाने का समय घटता जा रहा है| चाहे शिक्षक कितनी भी चुनौतियों से गुज़र रहे हों पर जब उन पर कोर्स जल्दी खत्म करने का दबाव बनाया जाता है, तो उसमें सबसे ज़्यादा नुकसान विद्यार्थियों का होता है| जिस अध्याय के लिए सीबीएसई 10 पीरियड्स देती है, अगर शिक्षक को उसे 4 पीरियड्स में ख़त्म करना पड़े तो खानापूर्ति हो होगी| अध्याय तो ‘खत्म’ हो जाता है पर जो छूट जाता है वो है अध्याय के सिद्धांतों पर गहराई से चर्चा करना, बच्चों को प्रश्नों के उत्तर स्वयं खोजने का कौशल विकसित करने और विषय के महत्व को महसूस करने का समय देना आदि| यह वास्तविकता ‘critical and
analytical’ शिक्षा के बीज फूटने नहीं देगी| यह विषय का दम घोंटने जैसा है और हम शिक्षक लगातार इस पीड़ा से गुज़र रहे हैं|
अगर मैं सामाजिक विज्ञान की शिक्षिका हूँ तो अपनी पाठ्यचर्या से अनेक चीज़ें सिखाने की कोशिश करने की कला जानती हूँ; चाहे वो ईमानदारी हो या समानता या आलोचनात्मक दृष्टिकोण| कृपया आप कक्षा 6 से लेकर 12 तक की राजनीतिक विज्ञान की पुस्तकों को पढ़कर देखें| उनमें संवैधानिक मूल्यों को पढ़ाने के लिए कई मायनों में बेहतरीन, ऐतिहासिक, चिंतनशील सामग्री है| संविधान के विभिन्न आयामों पर विस्तृत चर्चा करने का स्कोप है| लेकिन उनको पढ़ाने का समय तो घटता जा रहा है और ‘संविधान @ 70’ जैसे adhoc कार्यक्रम पर पूरा ज़ोर है| यह कुंजीवादी शिक्षा पद्धति जान पड़ती है| आप नयी रोचक सहायक सामग्री भले उपलब्ध कराएं पर उन्हें इस्तेमाल करने की स्वायत्ता तो शिक्षक पर छोड़ें| इसके बाद आप नया देशभक्ति करिकुलम अनिवार्य बनाएंगे और डर है कि इसका समय इतिहास पढ़ाने के समय से काटकर निकाला जाएगा|
उस दिन प्रोग्राम में आपने यह समझाने की कोशिश की कि कक्षा अध्यापिका का काम भी शिक्षक का ही काम है| बच्चों को लाइन में लगवाना शिक्षण का ही हिस्सा है| हम सहमत हैं| पर समस्या इतनी सरल नहीं है जितनी आपने बनाकर प्रस्तुत की| आज हम पूरे विद्यालय की पढ़ाई में बाधा डालकर लाइन लगवाकर बच्चों को 3 घंटे हॉल में इसलिए बिठाए रखते हैं क्योंकि कभी उन्हें प्रधानमंत्री को खेल दिवस पर सुनना है और कभी मुख्यमंत्री को डेंगू, प्रदूषण आदि पर बोलते हुए सुनना है| कल तक जो बातें, बिना समय-बर्बादी और दिखावे के, हम शिक्षक अपनी भूमिका के तहत सहज रूप से विद्यार्थियों तक पहुंचाते थे, आज उन्हें विद्यार्थियों के दिलो-दिमाग में नेताओं के चेहरे बिठाने का ज़रिया बना दिया गया है| अगर इस चलन पर विराम नहीं लगा तो पता नहीं यह कहाँ जाकर रुकेगा| स्कूलों की अकादमिक स्वायत्ता छीनकर शिक्षा के उच्च उद्देश्य पूरे नहीं किए जा सकते|
चुनाव आयोग जब शिक्षकों की मदद से सैकड़ों बच्चों के फॉर्म 6 स्कूलों में भरवाता है तो वो यह क्यों मानकर चलता है कि शिक्षकों के पास अपनी कक्षाएं छोड़कर चुनाव आयोग के काम करने का समय है? क्या शिक्षकों का अपना पढ़ाना महत्वपूर्ण नहीं है? जब बैंक खाते खुलवाने का काम शिक्षक करते हैं तो क्या यह अवश्यम्भावी नहीं है कि उन्हें यह समय पढ़ने-पढ़ाने के समय को काट कर निकालना पड़ता है? यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि ये काम बच्चों के हित में है या नहीं, बल्कि प्रश्न यह है कि क्या सरकारी स्कूल बच्चों को पढ़ाना छोड़कर विभिन्न सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों के कार्यान्वन केंद्र बन जाएं|
आपने अपने भाषण में कहा था कि हम सुविधाएं मांग सकते हैं| कृपया विद्यालय में पर्याप्त कला, संगीत, खेल व अन्य शिक्षक, आईटी, आया, सफाई कर्मचारी आदि नियुक्त करें| विभाग स्वयं सर्वेक्षण करवाए कि क्या शिक्षकों को पठन पाठन के लिए पर्याप्त समय मिल पा रहा है| अगर हम पढ़ा ही नहीं पा रहे हैं तो इस सारे तामझाम का क्या फ़ायदा? ऐसे में परिणाम धांधलेबाज़ी से तो ऊपर जा सकते हैं अन्यथा नहीं| कोई देखना चाहे तो आज स्कूलों का bureaucratization छिपा नहीं, खुला सच है|
शिक्षक साथियों से अपील है कि हम अपनी ‘न पढ़ा पाने की कसक’ को सामने लाएं| अगर हमें अपने विषयों की अकादमिक गहराई के साथ समझौता करना पड़ रहा है तो उसे लिखकर बताएं|
यह हम शिक्षकों को ही करना होगा कि कक्षा में पठन पाठन से ज़्यादा महत्व किसी सर्कुलर, आदेश और whatsapp सन्देश को न दें| जब गैर- अकादमिक कामों का बोलबाला स्कूलों के अन्दर ही बढ़ने लगा है तब हमें ही सचेत होना होगा| भले ही हमें पढ़ाने का कितना ही कम समय क्यों न मिला हो, हम यह लिखकर दे देते हैं कि कोर्स समय सीमा में पूरा हो गया| जब तक हम लिखकर नहीं देंगे कि नियमित कक्षाएं लेने के बावजूद कोर्स पूरा नहीं हो पाया या गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई नहीं हो पायी तब तक ज़मीनी हकीकत सामने नहीं आएगी| कोई बेचैन नहीं होगा और मशीन के पुर्ज़े घूमते रहेंगे|