आजकल के इस निराशा व त्रासदी के माहौल में दिल्ली के दिलकश स्थलों की बात करना बेमानी, शायद असंवेदनशील भी लग सकता है, मगर ज़िंदा दिनों और पलों को याद करके भी हम मुश्किल दौर से ग़ुज़रने की ताक़त पाते हैं। ये उन दिनों की बात है जब कोरोनावायरस के फैलने की आशंका के चलते होली से पहले ही दिल्ली के प्राथमिक स्कूलें की कक्षायें बंद कर दी गई थीं, लेकिन हम शिक्षक स्कूल जा रहे थे। हालाँकि, लगभग एक हफ़्ते बाद, जब प्रशासन को ख़तरे का स्तर और बढ़ता दिखाई दिया तो स्कूल पूरी तरह से बंद कर दिए गए। यानी, ये 5-7 दिन वो थे जब हम शिक्षक अपने विद्यार्थियों के बिना स्कूल में थे। वैसे तो यह कोई अनहोनी परिस्थिति नहीं थी क्योंकि हर साल अंतिम परीक्षाओं के बाद के कुछ दिन विद्यार्थी स्कूल नहीं आते हैं। (फिर, पिछले कुछ वर्षों में अत्याधिक सर्दी व प्रदूषण के चलते भी ऐसे दिन घोषित किये गए हैं।) हाँ, क्योंकि इस बार परीक्षाओं व परिणाम के संबंध में भी अनिश्चितता थी, इसलिए कुछ बचे-खुचे क़ाग़ज़ी कामों को निपटाने के बाद आपस में बात करने का समय भी था। तो इस परिस्थिति में किसी विषय पर बात करने के लिए मैंने स्कूल में मौजूद शिक्षकों, सफ़ाई कर्मचारी, आया व अटेंडेंट से एक प्रश्न पूछा। पिछले कुछ समय से हमारे आसपास, ख़ासतौर से दिल्ली में, राजनैतिक रूप से एक उत्तेजक माहौल रहा है। इसमें तीखे ध्रुवीकरण के साथ-साथ, नफ़रत व हिंसा तक के समर्थन में परोक्ष-प्रत्यक्ष विचार व्यक्त किये गए हैं। इस कारण मैंने एक ऐसा विषय चुनना चाहा जिसके माध्यम से कोई बात तो हो और फिर जिसे आकादमिक-शैक्षणिक दिशा दी जा सके। यह अलग बात है कि इससे पहले कि यह प्रक्रिया उस चरण पर पहुँचती, स्कूलों को लंबे समय (शायद अनिश्चितकाल) के लिए बंद कर दिया गया।
यहाँ मैं साथियों द्वारा उस सवाल की प्रतिक्रिया में दिए गए जवाबों को प्रस्तुत कर रहा हूँ। उम्मीद है कि अन्य साथी इस बारे में अधिक सधी हुई व गहरी टिप्पणी कर पायेंगे तथा, अगर ज़रूरी समझेंगे, तो इस या ऐसी प्रक्रियाओं को आगे ले जायेंगे। मैंने सबसे अनुरोध किया था कि वो दिल्ली का वो स्थल बतायें जहाँ उन्हें घूमने की दृष्टि से जाना सबसे ज़्यादा पसंद है।
इस सवाल की पृष्ठभूमि में मेरा दिल्ली से पुराना रिश्ता था और दिल्ली दर्शन के नाम से जाने जाने वाली स्कूलों की ट्रिप की परंपरा जिसमें मैं 20 वर्षों से शिरकत करता आया हूँ। तीसरी कक्षा की सामाजिक अध्ययन की पुस्तक, मेरी दिल्ली, तो है ही इस शहर के बारे में। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से मैं दिल्ली के बदलते नक़्शे और स्वरूप से एक छटपटाहट महसूस कर रहा हूँ। देख रहा हूँ कि अब अधिकाधिक जगहों पर दीवारों, तारों, टिकटों, वक़्त, पहरेदारों, कैमरों आदि की पाबंदियाँ लगती जा रही हैं - सुरक्षा और विकास के नाम पर। जो जगह आज़ाद, दोस्ताना, स्वागतमय हुआ करती थीं, वो अब घूरती और दुत्कारती नज़र आती है। सो, मन उखड़ रहा है। शायद उम्र के साथ होने वाली थकान व ऊर्जा की कमी के अलावा यह भी एक कारण है कि क्यों मैं अपने विद्यार्थियों के साथ साल में पहले जितने भ्रमण नहीं कर पाता हूँ। (मगर मेरी व शहर और निज़ाम के हुक्मरानों की खता की सज़ा आख़िर उन्हें क्यों मिले?) अलबत्ता, आज भी जब विद्यार्थियों के साथ या स्कूल की ट्रिप में घूमने निकलता हूँ तो उत्साह जग जाता है, मेहनत की थकान की तरोताज़गी मिल जाती है।
यक़ीनन, हममें से हर एक के लिए दिल्ली के अपने मायने हैं। और अपने स्कूल के साथियों के संदर्भ में यही मैं जानना भी चाहता था। क्योंकि पिछले कुछ महीनों में स्कूल में कुछ नए सदस्य भी आये थे जिनसे बात करने, जिन्हें जानने का मौक़ा नहीं मिला था, तो मुझे यह भी लगा कि यह सवाल बातचीत की शुरुआत करने का एक अच्छा ज़रिया हो सकता है। मैंने सबको क़ाग़ज़ की छोटी-सी एक पर्ची दी जिसपर उन्हें अपनी पसंद लिखनी थी। इसका घोषित उद्देश्य था कि सब बिना किसी सामाजिक दबाव या संकोच के अपनी राय खुलकर व्यक्त करें। मैंने अक़्सर देखा है - और यह बात मुझपर भी लागू होती है - कि कुछ लोग समूह में अपनी बात खुलकर नहीं कह पाते हैं या उनका स्वर दबा दिया जाता है और वहीं सामाजिक रूप से आश्वस्त या प्रभुत्वशाली लोग अपनी बात बाक़ियों पर थोपने में कामयाब हो जाते हैं। लिखना लोगों को अपनी बात पर सोचने और क़ायम रहने के लिए प्रेरित व बाध्य, दोनों करता है। मैंने सबसे कहा कि वो जब फ़ुर्सत मिले तब मुझे पर्ची वापस कर दें। जिन लोगों ने पर्ची ली, उनमें से, सिवाय एक शिक्षक के, सभी ने एक दिन के अंदर ही अपनी राय लिखकर दे दी। उक्त शिक्षक ने भी समय माँगने के बाद अगले दिन बेहद ईमानदारी से बताया कि क्योंकि उन्होंने दिल्ली में बहुत-सी जगहें देखी ही नहीं हैं इसलिए उनके लिए जवाब देना कठिन व निरर्थक होगा। उन्होंने बताया कि पिछले कई सालों की नौकरी में वो सिर्फ़ पिछले साल ही स्कूल की दिल्ली दर्शन वाली ट्रिप पर गए थे; इसके अलावा वो दिल्ली में नहीं घूमे थे। यह सब साझा करते हुए वो अपनी स्थिति पर अफ़सोस व्यक्त कर रहे थे। लगभग इसी तरह के भाव के साथ प्रिंसिपल महोदया ने बताया कि पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से कैसे वो तब ही घूमने जा पाई हैं जब वो गाँव से आने वाले अपने रिश्तेदारों/मेहमानों को बाहर लेकर गई हैं। मैंने मन-ही-मन निश्चय किया कि इन दो साथियों को अपनी अगली पिकनिक ट्रिप में आमंत्रित करूँगा।
उन दिनों कुछ शिक्षिकायें छुट्टी पर थीं, इसलिए स्टाफ़ की कुल संख्या से कम जवाब मिले। स्कूल में मेरे अलावा तीन पुरुष शिक्षक और हैं, तथा अटेंडेंट व सफ़ाई कर्मचारी भी पुरुष हैं। ये दोनों युवा हैं, जबकि आया रिटायरमेंट के नज़दीक पहुँच चुकीं महिला हैं। मेरे पास 24 पर्चियाँ वापस आईं, जिनमें से 19 शिक्षिकाओं की थीं। कुछेक ने अपने नाम भी लिखे थे, हालाँकि मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा था। पर्चियाँ बाँटने व लेने की प्रक्रिया हँसी-मज़ाक के अंदाज़ में घटित हुई, जिस दौरान मुझसे यह भी पूछा गया कि मैं कहाँ की ट्रिप आयोजित करूँगा। क्योंकि उन दिनों शिक्षक-शिक्षिकायें आपसी समूहों में ही बैठते थे, इसलिए संभव है कि पर्ची में अपनी पसंद की जगह का नाम लिखते हुए उनमें से कुछ ने आपसी सलाह भी की हो। जवाब यूँ थे -
1. कमला नेहरु रिज; यमुना तट, जगतपुर [व्यक्ति इस जगह के क़रीब ही रहते हैं।]
2. यमुना किनारे के खेत/किनारा - 2 लोगों ने लिखा [सोचता हूँ कि जब केंद्र और राज्य सरकारें नदी व किनारों को व्यापार-पर्यटन के विकास तथा मछुआरों, किसानों के ‘प्रदूषित’ स्पर्श से मुक्त यानी ‘साफ़’ करने की योजनाओं को पूरी तरह अंजाम दे देंगीं तब उन्हें ये जगह कैसी लगेगी|]
3. कंझावला रोड बवाना (बाजितपुर की रोड) - दोनों तरफ़ खेत-खलिहान, नीलगायों के झुंड, विविध पक्षी, जंगल सफ़ारी का एहसास कराते हैं, ख़ासतौर से सुबह और शाम के वक़्त [मेरे लिए यह दिल्ली का अनजाना हिस्सा है, मगर तजुर्बा नहीं।]
4. अक्षरधाम मंदिर; कमला नगर मार्किट
5. इंडिया गेट - 3 लोगों ने लिखा [न जाने वो केंद्र सरकार की 20,000 करोड़ की उस योजना के बारे में क्या सोचते हैं जिसके तहत एक सनकी और स्व-केंद्रित महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए उस पूरे क्षेत्र का कायापलट करके उसके बचे-खुचे खुले व सार्वजनिक स्वरूप को भी खत्म किया जाने वाला है|]
6. अक्षरधाम - 3 लोगों ने लिखा [यह रोचक है कि एक शिक्षिका ने 'अक्षरधाम मन्दिर' और 3 ने सिर्फ 'अक्षरधाम' लिखा| क्या ये उनकी नज़र में इस स्थल के स्वरूप व माहौल के बारे में कुछ बताता है?]
7. मिलेनियम पार्क
8. गुरुद्वारा रक़ाबगंज - उनके शब्दों में, “शांतिपूर्ण व सुंदर माहौल प्यारा लगता है”।
9. रेल संग्रहालय; बाल भवन (सबसे ज़्यादा पसंद); कमल मंदिर; राजघाट [उन्होंने छोटे बच्चों के साथ स्कूलों की ट्रिप पर ही इन स्थानों को देखा था।]
10. लोधी गार्डन
11. यमुना घाट; मायका (ताजपुर); शगुन की दुकान [मेरे अंदाज़े को सही सिद्ध करते हुए मुझे बताया गया कि यह दुकान उनके पड़ोस में ही है।]
12. जगतपुर स्थित बायो-डाइवर्सिटी पार्क
13. अपने गाँव के खेत; अपना घर - 2 लोगों ने लिखा
14. खेतों के नज़दीक शाम की सैर
15. हौज़ ख़ास; लोधी रोड [शायद उनके मन में लोधी गार्डन रहा होगा।]
16. अपना घर
18. राजघाट
19. साउथ दिल्ली
अगले दिन कुछ साथियों ने, अपनी उत्सुकता ज़ाहिर करते हुए, मुझसे 'परिणाम' बताने को कहा। मगर मेरे यह कहने पर कि इसमें परिणाम जैसा कुछ नहीं है, बल्कि विविध पसंदों का बयान है, सभी ने सहमति जताई। असल में, मेरे दिमाग़ में यह विचार स्पष्ट था कि इस तरह के अभ्यास से हमें न सिर्फ़ व्यैक्तिक स्वतंत्रता व विविधता की ख़ूबसूरती समझने में मदद मिलेगी, बल्कि यह भी साफ़ होगा कि क्यों लोकतंत्र का मतलब सभी विषयों में बहुसंख्या या गिनती से निर्णय लेना नहीं हो सकता।
एक बिंदु जिसपर मतभेद व हँसी-मज़ाक दोनों हुए वह था कुछ लोगों द्वारा अपने घर/मायके को दर्ज करना। ये पसंद महिलाओं ने ही दर्ज की थी। विवाह की लंबी अवधि के बाद भी महिलाओं द्वारा अपने मातृ-घर/गाँव में सुकून पाने का एहसास दर्ज करना मानीख़ेज़ लगा। हालाँकि, कइयों ने, जिसमें एक स्तर पर मेरा हल्का स्वर भी शामिल था, इस चयन पर यह कहते हुए ऐतराज़ भी किया कि घर/मायका कोई सार्वजनिक या भ्रमण का स्थल नहीं होता है। इससे पहले कि मैं स्कूली साथियों के साथ इस ब्यौरे व इसके विश्लेषण को साझा करता, स्कूलों को बंद करने के आदेश आ गए। वर्ना मेरी मंशा थी कि इस विवरण को एक चार्ट पर दर्शाकर स्कूल के सूचना पट पर लगाऊँ। हालाँकि, इतने कम जवाबों के आधार पर कोई सरलीकरण नहीं किया जा सकता है, फिर भी मैं कुछ सरसरी टिप्पणियाँ करने की जुर्रत कर रहा हूँ।
एक चीज़ जो साफ़ है वो है इस सूची पर लोगों की स्थानिकता का असर। हम जहाँ रहते हैं उस जगह से रिश्ता होना हमारे इंसान होने की ही एक निशानी है। हालाँकि, इसका एक दूसरा पक्ष यह भी है कि शिक्षक होने के नाते हम ख़ुद से अनुभवों व भावनाओं के अपने संसार का निरंतर विस्तार करने की उम्मीद भी करते हैं।
यह भी रोचक है कि इस सूची में कुतुब-मीनार, लाल क़िला, पुराना क़िला, हुमायूँ का मक़बरा, तुग़लकाबाद, जंतर-मंतर, जामा-मस्जिद जैसे दिल्ली के जाने-माने स्थल शामिल नहीं हैं। सबसे प्रमुख बात तो यह लगती है कि दिल्ली की ऐतिहासिकता को नज़रंदाज़ करते हुए इस सूची में 100 साल से पुरानी कोई इमारत नहीं है। गुरुद्वारा रक़ाबगंज ज़रूर लगभग 250 साल पुराना है मगर इसकी पहचान एक धार्मिक स्थल की है और पर्ची पर भी इसका ऐसा ही वर्णन किया गया था। इसके अलावा, हौज़ ख़ास और लोधी गार्डन तो और भी पुराने हैं लेकिन इनका नाम लिखने वालों ने किसी इमारत विशेष का ज़िक्र नहीं किया, जिससे हम इन्हें मानव-निर्मित प्राकृतिक क्षेत्र में गिन सकते हैं। इन दोनों ही इलाक़ों में ऐतिहासिक इमारतें, उनके संरक्षित अथवा जर्जर अवशेष व सुंदर बग़ीचे स्थित हैं इसलिए इन्हें किसी एक खाँचे में डालना कठिन है। मिलेनियम पार्क और बायो-डाइवर्सिटी पार्क भी इसी श्रेणी में रखे जा सकते हैं, हालाँकि दोनों का चरित्र व उद्देश्य अलग-अलग है - एक मनोरंजन के लिए निर्मित सार्वजनिक पार्क है तो दूसरा संरक्षण व पर्यावरण-शिक्षा का स्थल। कंझावला रोड का वर्णन भी प्रकृति व मानव निर्माण के बीच की इसी मधुर रेखा पर स्थित है। इनसे थोड़ा-सा हटकर यमुना किनारा व उसके पास के खेत हैं - मानव जीवन की अनिवार्य रेखा। यह उल्लेखनीय है कि यमुना न सिर्फ़ हमारे स्कूली इलाक़े के नज़दीक से बहती है - वो भी दिल्ली में अपनी स्वच्छ्तम व सुंदरतम अवस्था में - बल्कि हमारे स्कूल की सभाओं में, विशेषकर सर्दियों में जब प्रवासी पक्षी नदी पर व उसके किनारे आते हैं, हम इसका आकर्षक प्रचार भी करते रहते हैं! निश्चित ही यमुना के अलावा सिर्फ़ कमला नेहरु रिज के नाम से जाना जाने वाला क्षेत्र ही दिल्ली की विशुद्ध प्राकृतिक धरोहर है। ये दोनों हमारी सूची में शामिल हैं।
धार्मिक स्थलों में अक्षरधाम का चयन रोचक है क्योंकि एक शिक्षिका ने अपनी पसंद के मौखिक समर्थन में वहाँ दिखाई जाने वाली फ़िल्म का ज़िक्र तो किया मगर चित्त पर पड़ने वाले किसी प्रभाव का दावा नहीं किया। पिछले कई वर्षों से स्कूलों की ट्रिप अक्षरधाम जाती रही है। हो सकता है इस अनुभव ने राय बनाने में मदद की हो कि वह एक ऐसी जगह है जहाँ आपका अच्छा-ख़ासा दिन निकल जाता है। इसका मुख्य आकर्षण इसकी भव्यता है। गुरुद्वारा रक़ाबगंज का चयन करने वाली शिक्षिका ने अपनी आस्था के स्थल को सुकून से जोड़कर महसूस किया है। इनके अतिरिक्त, केवल कमल मंदिर का चयन अपनी धार्मिक पहचान से परे जाकर किया गया है। हाँ, एक शिक्षिका ने अपनी लिखित राय देने के बाद, अगले दिन प्रगति मैदान के पास स्थित मटका पीर की दरगाह का ज़िक्र उसी अंदाज़ में किया जिस भाव से अन्य शिक्षिका ने गुरुद्वारे के बारे में लिखा था। (कुछ लोगों के बीच वो जगह लज़ीज़ बिरयानी के लिए मशहूर है।)
दिल्ली में आधुनिक भारत के लोकप्रिय स्थलों में इंडिया गेट और राजघाट का चयन किया गया है और इन दोनों जगहों पर स्कूली ट्रिप जाती रहती हैं। रोचक यह है कि शिक्षक साथियों ने इन दो के अलावा स्कूली ट्रिप के नियमित व लोकप्रिय स्थलों को लगभग नहीं चुना है। रेल संग्रहालय व बाल भवन को चुनने वाली शिक्षिका नहीं थीं। इस सूची में केवल रेल संग्रहालय और अक्षरधाम ऐसी जगहें हैं जहाँ टिकट लगता है।
केवल दुकान-बाज़ार - और इसमें साउथ दिल्ली को शामिल कर सकते हैं - ही ऐसा स्थल है जोकि हमारी व्यावहारिक ज़रूरतों से जुड़ा हुआ है। उभरते हुए मॉल्स से पहले भी हम दिल्ली के बाहर से आने वाले अपने मेहमानों को ख़रीदारी के मक़सद से पालिका बाज़ार, सरोजनी नगर, चाँदनी चौक तो ले जाते ही थे। हमारी किताबों में इनके बारे में पाठ भी हैं, अलबत्ता अभी इन्हें स्कूली ट्रिप में शामिल नहीं किया जाता है!
कुल मिलाकर यह एक विविध व संतुलित सूची है। मगर यक़ीनन इसमें दिल्ली के प्राकृतिक चरित्र को प्रमुखता से दर्ज किया गया है।
दो सवाल
इस गतिविधि से मेरे मन में दो और विचार/सवाल उभरे जो कि लोकतंत्र की व्यापक परिभाषा से जुड़ते हैं|
प्रचलित/लोकप्रिय व्याख्या के अनुसार लोकतंत्र बहुमत पर चलता है| लेकिन हम सभी की ज़िन्दगी में कुछ निर्णय ऐसे भी होते हैं जिनमें हम यह नहीं चाहते कि हमें, अपनी मर्ज़ी और पसंद के ख़िलाफ़, उधर ही जाना पड़े जहाँ बहुमत चाहे। हालाँकि यह जानने का कोई आसान तरीक़ा नहीं है कि कौन-से निर्णय महज़ बहुमत के आधार पर करने चाहिए और कौन-से निर्णयों में हर व्यक्ति की इच्छा-आज़ादी की इज़्ज़त करनी चाहिए। मगर इस चुनौती के प्रति सचेत रहना, इसे स्वीकारना ही हमें इससे ईमानदारी बरतने के लिए तैयार करता है।
क्या यह बेहतर नहीं होगा कि जो फ़ैसले सामूहिक ही करने हों, उनमें भी अकेले पड़े व्यक्ति को आश्वस्त करने, असहमतियों और विविध पसंदों/नज़रियों का लिहाज़ करने के उदार प्रयास किये जाएँ? उदाहरण के तौर पर, भोजन जैसा निजी मामला बहुमत के तईं नहीं लिया जाना चाहिए। जैसे, हम किसी स्कूल में 10 में से 8 लोगों के अंडा खाने के आधार पर शेष 2 बच्चों को मिड-डे-मील में अंडा खाने या भूखा रहने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। हमें निश्चित ही उस अकेले व्यक्ति को स्वीकार्य कोई विकल्प देना चाहिए, नहीं तो यह सरासर अन्यायपूर्ण होगा।
दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु विशेषज्ञता और सांस्थानिक उसूलों से जुड़ा है। अगर किसी विषय में विशेष ज्ञान/अनुभव अथवा पेशागत तैयारी की दरकार है तो क्या उसे सरल बहुमत के निर्णयों के हवाले किया जाना चाहिए? उदाहरण के लिए, किसी स्कूली ट्रिप के स्थलों के चयन का आधार शैक्षिक होना चाहिए और यह सरल बहुमत से नहीं बल्कि सार्वजनिक शिक्षा के उसूलों से तय होगा।
हो सकता है कि किसी स्कूल में सभी शिक्षक एक ही धार्मिक पहचान के हों और वो हर बार ट्रिप के स्थल को अपनी आस्था के आधार पर चुनें। तो यह न सिर्फ़ अन्य धार्मिक पहचान वाले विद्यार्थियों व शिक्षकों के साथ अन्याय होगा, बल्कि शिक्षा के बौद्धिक उद्देश्यों तथा सार्वजनिक शिक्षा की माँग पर भी खरा नहीं उतरेगा। बल्कि होना यह चाहिए कि विभिन्न स्थलों को बारी-बारी से, पाठ्यचर्या की ज़रूरतों के आधार पर चुना जाए ताकि विद्यार्थियों के ज्ञान का दायरा बढ़े। इनमें भी प्रशासन/शिक्षकों की अपनी पसंद ज़रूर प्रकट होगी, मगर हमें उसे थोपने का अधिकार नहीं है, बल्कि दूसरों को उसका औचित्य समझाना होगा। भले ही उसूल भी निर्विवाद नहीं होते और बनते-बिगड़ते रहते हैं, मगर इनकी ज़मीन को सार्वभौमिकता, न्यायसंगतता व तार्किकतता की कसौटी पर कसने की ज़िम्मेदारी हमारी है|
अंत में
इस तरह के सवाल इसलिए भी किये जाते हैं कि कोई आपसे भी आपकी पसंद पूछे। मुझसे एक-दो लोगों ने पूछा भी। मुझे भी मुश्किल आई। चतुर जवाब दूँ, तो अच्छे मौसम और प्यारे दोस्तों के साथ में मुझे दिल्ली की वो सब ऐतिहासिक व प्राकृतिक जगहें पसंद हैं जहाँ भीड़ न हो। बताना ही पड़े, तो मैं सर्दियों में हमारे इलाक़े का यमुना का किनारा, लाल क़िले के एकांत कोने में आज़ाद हिंद फ़ौज की यादों को समर्पित सलीमगढ़ का छोटा व हरा-भरा हिस्सा और फ़िरोज़शाह कोटला के बाँह-पसारे खुले खंडहर चुनूँगा। इसके अलावा दिल्ली का एक राज़नुमा सुंदर अनुभव है जोकि किसी एक स्थल तक सीमित नहीं है - वो है दिन में केवल दो वक़्त, सुबह-ओ-शाम, चलने वाली रिंग रेल, जो लगभग ख़ाली चलती है और जिसके कुल 2 घंटे के सफ़र का अरावली की चट्टानों के बीच का हिस्सा मुझे बेहद प्यारा लगता है। ये मनमोहक सफ़र आप मात्र 10 रुपये में कर सकते हैं। तंगदिल आशिक़ की तरह यमुना के उस प्रिय किनारे और रिंग रेल, दोनों के बारे में दोस्तों से कहता आया हूँ कि किसी को न बतायें ताकि इनकी ख़ूबसूरती बरक़रार रहे। मगर अब सरेआम ऐलान करने का वक़्त आ गया है क्योंकि यमुना के अनछुए किनारे की तरह रिंग रेल का भविष्य भी सुरक्षित नहीं है - घाटे के बहाने इसे बंद करने की तैयारी हो रही है।
अगले दिन चर्चा में यह यह भी निकलकर आया था कि हमारा चयन इस बात से भी प्रभावित होगा कि वो जगह हमें ख़ुद पसंद है या हमें विद्यार्थियों को दिखाने-घुमाने के लिए चुननी है। वैसे, बच्चों और बड़ों दोनों के लिहाज़ से तीन मूर्ति ऐसी जगह है जहाँ भागने-दौड़ने के लिए खुला मैदान, निहारने के लिए ऊँचे-बड़े दरख़्त, इतिहास में झाँकने के लिए भवन-खंडहर तथा ब्रह्माण्ड को जानने के लिए तारामंडल, सब बाँहें पसारे खड़े हैं। बच्चों के लिहाज़ से भी दो उद्देश्य हो सकते हैं - मनोरंजन व शैक्षिक। मनोरंजन के हिसाब से तो मैंने छोटे बच्चों को हर उस जगह पर ख़ुश पाया है जहाँ उन्हें टोका न जाये। फिर भी, इतने सालों में मैंने उन्हें रेल संग्रहालय (अगर वो रेल की सवारी कर पायें, अन्यथा तो ऐसी महँगी जगहें दुःख और पीड़ा ही देती हैं), राजघाट के क़ालीननुमा टीले, इंडिया गेट पर चिल्ड्रेंस पार्क के झूलों, चिड़ियाघर, ऐसे क़िले-खंडहरों जहाँ वो भागदौड़ व खोजबीन कर सकें (दिल्ली में इनकी कमी नहीं है, बशर्ते डंडा हिलाते-सीटी बजाते गार्ड आपको लज्जित न कर दें), नदी-तालाबों के उन्मुक्त किनारों, इन सब स्थलों पर मौज-मस्ती करते पाया है। आपकी पसंद जो भी हो, ऐसे में फिर वही स्थल सबसे खूबसूरत बन जाता है।
अब आप ख़ुद सोचिये और दोस्तों से पूछिए कि स्थिति के 'सामान्य' होने पर सबसे पहले कहाँ जाना है।