लोक शिक्षक मंच 7
अक्टूबर को श्रीनगर के एक सरकारी
स्कूल में प्रधानाचार्य सुपिंदर कौर और शिक्षक दीपक चंद की चिन्हित हत्या
पर शोक और रोष व्यक्त करते हुए इस अमानवीय हिंसा की कड़ी निंदा करता है। इन हत्याओं
को जम्मू-कश्मीर में हाल में हुई आम, निहत्थे नागरिकों की हत्या की कड़ी में
देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि लोगों की धार्मिक व क्षेत्रीय पहचान को आधार बनाकर
निशाना बनाया जा रहा है। इसका प्रमुख उद्देश्य लोगों के बीच आपसी अविश्वास, डर, पलायन आदि के हालात
पैदा करना ही हो सकता है।
इतिहास में युद्ध की परिस्थितियों में भी शिक्षा व उपचार जैसे
नागरिक अधिकारों व सेवाओं के क्षेत्र में कार्यरत कर्मियों को हिंसा का निशाना
नहीं बनाने का घोषित-अघोषित नियम लागू रहा है। निहत्थे आम नागरिकों के साथ-साथ
शिक्षकों की चिन्हित हत्या इस बुनियादी उसूल को भी पलटते हुए युद्ध व
सशस्त्र संघर्ष की तमाम हदों का उल्लंघन करती है। हमें विश्वास है कि इन शहीद
शिक्षकों के साथी शिक्षक, उनके विद्यार्थी व स्थानीय समुदाय साथ आकर उनकी यादों व उनके
परिवारों के प्रति अपनी संवेदनशीलता ज़ाहिर करेंगे और इस तरह नफ़रत व अमानुषिक हिंसा
के इस कृत्य के इरादों को नाकाम साबित करेंगे।
जबकि दो साल के ऊपर से जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं
को नज़रबंद रखा गया है तथा वर्षों से वहाँ अति-सैन्यीकरण की परिस्थितियाँ बनी हुई
हैं, ऐसे में इन हत्याओं को अंजाम दिया जाना हमारे सामने कई सवाल खड़े
करता है। आख़िर चप्पे-चप्पे पर नाकेबंदी, आम लोगों पर कड़ी पाबंदियों और निर्बाध
सैनिक-सशस्त्र प्रशासन के बावजूद हालात बेहतर/'सामान्य' क्यों नहीं हो रहे
हैं? लोकतांत्रिक व्यवस्था का दावा करने में जवाबदेही से बचा नहीं जा सकता है।
इन निर्मम हत्याओं की घोर निंदा करते हुए हम उन तमाम सैनिक-सशस्त्र
कार्रवाइयों की अनदेखी नहीं कर सकते जिनके चलते दुनियाभर में स्कूल, शिक्षक, विद्यार्थी, बच्चे तथा उनके
परिवार डर व आतंक के साये में जीते-मरते हैं। इन कार्रवाइयों में न सिर्फ़ 'संदिग्ध' स्कूलों, शिक्षकों व
विद्यार्थियों पर पहरे बिठा दिए जाते हैं, बल्कि युद्ध की 'असामान्य' परिस्थितियों व
विशेष क़ानूनों का हवाला देते हुए स्कूलों को सैन्य शिविरों में तब्दील कर दिया
जाता है। ऐसी सशस्त्र-अघोषित युद्ध सरीखी परिस्थितियों में बच्चों की शिक्षा को
सहज ही बलि पर चढ़ा दिया जाता है।
आज 'शांतिपूर्ण' हालातों में भी हम दिल्ली में ही सार्वजनिक स्कूलों के अर्ध-सैनिक
बलों के शिविरों में बदल दिए जाने के मूक गवाह हैं। इसके अलावा, ये हत्याएँ हमें उस तंत्र की
तानाशाही के प्रति भी सजग रहने को प्रेरित करती हैं जो अन्यथा 'शांतिपूर्ण' परिस्थितियों में भी
शिक्षकों की पढ़ने-बोलने-लिखने-संगठित होने-विरोध दर्ज करने के अधिकारों को 'अहिंसक' तरीक़ों से कुचलकर
शिक्षा व शिक्षकों के प्रति अपना असल रवैया प्रकट करता है। शारीरिक हिंसा की तरह
वैचारिक हिंसा भी घातक है।
हम माँग करते हैं कि-
- सुपिंदर कौर व दीपक चंद की हत्याओं के ज़िम्मेदार लोगों को गिरफ़्तार
किया जाए।
- हिरासत में लेने के बाद उन लोगों पर त्वरित न्यायिक कार्रवाई हो और
उनके इरादों व तारों का पर्दाफ़ाश हो।
- सभी शिक्षकों,
विशेषकर अल्पसंख्यक समुदायों से आने
वालों को सुरक्षा का भरोसा दिलाने के लिए प्रशासन स्थानीय लोगों को साथ लेकर शांति
व विश्वास की संयुक्त बैठकें आयोजित करे।
- जब तक शिक्षक सुरक्षित महसूस न करें तब तक उन्हें सशरीर उपस्थित रहकर ड्यूटी निभाने के लिए मजबूर न किया जाए।