हमारे सामने समान स्कूल व्यवस्था के लिए लड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं है!
क्या हमारे सरकारी स्कूल जनता के लिए सुलभ हैं, जहाँ हम हक़ और इज़्ज़त से जा सकते हैं, जहाँ हमारे बच्चों को बढ़िया पढ़ाई मिल रही हो और जहाँ हमारे काम बिना परेशानी के किए जाते हैं? अगर नहीं, तो यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम, बच्चों के माता-पिता होने के नाते, अपने अधिकारों को जानें और जनता के प्यार, ख़ून-पसीने और टैक्स से खड़े किए गए इन स्कूलों को सचमुच 'जनता के स्कूल' बनाने के लिए संघर्ष करें।
1. 'आज़ादी का अमृत महोत्सव' मनाते हुए हमें पूछना चाहिए कि आख़िर क्यों 74 साल की आज़ादी के बाद भी इस देश में केवल कक्षा 8 तक की पढ़ाई को ही कानूनी हक़ का दर्जा मिला है! यानी, आठवीं तक की पढ़ाई करवाने की ज़िम्मेदारी तो सरकार की है लेकिन इसके आगे की पढ़ाई करवाने को लेकर सरकार के ऊपर कोई कानूनी बंदिश नहीं है। यह 2009 के शिक्षा अधिकार कानून की बहुत बड़ी कमी है। इसी कारण हम देखते हैं कि कक्षा 9-12 के बीच न जाने कितने बच्चों, ख़ासकर लड़कियों, की पढ़ाई छूट जाती है; क्योंकि उन्हें पढ़ाई पूरी करने के लिए उतनी मदद नहीं मिलती जितनी की उन्हें ज़रूरत होती है।
आप ही बताइए, क्या आज आठवीं क्लास तक की शिक्षा की कोई अहमियत है? सिर्फ़ 8वीं क्लास तक के शिक्षा अधिकार से हमारे बच्चों का क्या भला होगा? हम देश की मेहनतकश-मज़दूर आबादी हैं जिसके बच्चे कक्षा 12 तक की पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पा रहे। क्या हमें यह माँग नहीं करनी चाहिए कि सभी बच्चों को नर्सरी से लेकर कॉलेज तक मुफ़्त पढ़ाई का अधिकार हो, और यह ज़िम्मेदारी सरकार की है कि सभी बच्चों को यह पढ़ाई समान रूप से मिले?
2. माता-पिता की परेशानी का एक कारण यह भी था कि जबकि घरबन्दी के कारण हज़ारों परिवारों को शहर से गाँव लौटना पड़ा, उनका काम-धंधा ख़त्म हुआ पर फिर भी दिल्ली सरकार के स्कूलों में इस साल भी दाख़िलों के लिए उन्हें ऑनलाइन फ़ॉर्म भरने पर मजबूर किया गया। क्या सरकार को नज़र नहीं आता कि इससे हमारा पैसा और समय बर्बाद होता है!
हमेशा से अभिभावक स्कूल जाकर फ़ॉर्म भरते थे और बच्चे का दाख़िला हाथ-के-हाथ करवाते थे। लेकिन जबसे ऑनलाइन फ़ॉर्म भरवाया जाने लगा है तब से इंटरनेट की दुकानों पर 100-200 रु तक ख़र्च करने पड़ते हैं, डर लगता है कि बच्चे का नंबर स्कूल में आएगा या नहीं, तब कहीं जाकर एक-डेढ़ महीने बाद दाख़िला होता है। ढेरों बच्चों के परिवार इस चक्रव्यूह को भेद नहीं पाते और उनके लिए तो RTE क़ानून काग़ज़ का पुलिंदा साबित होता है। हमें जानना होगा कि सरकारें ऐसी नीतियाँ किसके फ़ायदे के लिए बनाती हैं, क्योंकि हम मेहनतकश लोग तो ऐसी व्यवस्था में बस पिसते ही हैं।
3. कुछ सरकारी स्कूल यह कहकर दाख़िला देने से मना कर देते हैं कि स्कूल में सीटें नहीं हैं। अगर सीटें नहीं हैं तो स्कूल की ज़िम्मेदारी तो यह है कि वो सरकार को स्कूल में और कमरे बनवाने या इलाक़े में नए स्कूल खोलने के लिए कहे। स्कूलों का काम सीट का रोना रोककर बच्चों को दाख़िला देने से मना करना नहीं है। अगर बच्चे को पड़ोस का सरकारी स्कूल ही दाख़िला नहीं देगा, तो फिर कौन देगा?
क़ानून भी तो यही कहता है न कि कम-से-कम आठवीं तक के बच्चों को अपने पड़ोस के स्कूल में दाख़िला लेने का हक़ है! हमने यह भी देखा है कि सरकारी स्कूल में दाख़िला जी का जंजाल बन गया है; डर लगा रहता है कि पता नहीं कौन-सा काग़ज़ माँग लिया जाएगा, किस काग़ज़ में क्या कमी निकालकर दाख़िला देने से मना कर दिया जाएगा। आख़िर ये कैसी व्यवस्था है कि जनता के पैसों से चलने वाले इन स्कूलों में जनता के ही बच्चों को आसानी से दाख़िला नहीं मिलता!
पर हमें भी अपने बच्चों के हक़ के लिए लड़ना होगा। अगर दाख़िला देने से मना किया जाएगा तो कहना होगा, 'लिखकर दो कि दाख़िला क्यों नहीं दे रहे हो' और फिर स्कूल इंस्पेक्टर, अधिकारी, सांसद, विधायक, पार्षद, बाल अधिकार आयोग के पास जाना होगा कि देखो अपनी बनाई व्यवस्था का हाल! अपने इलाक़े में ज़रूरत के हिसाब से और सरकारी स्कूल बनाने की माँग करनी होगी ताकि सभी बच्चों को उनके पड़ोस में ही आसानी से अच्छी पढ़ाई मिले। जब तक जनता अपनी चुनी हुई सरकारों, ख़ुद को जनता के सेवक बताने वाले नुमाइंदों और अफ़सरों से काम करवाएगी नहीं, ये हमारे काम करेंगे नहीं।
4. अगला सवाल पढ़ाई का है। क्या हमने इस पर नज़र रखी है कि सरकारी स्कूलों में हमारे बच्चों को पढ़ाया क्या जा रहा है? दाख़िला दिलवाकर हमारी ज़िम्मेदारी ख़त्म नहीं होती, बल्कि शुरु होती है। अपने और पड़ोस के बच्चों से बात करके देखेंगे तो पाएँगे कि स्कूलों में पढ़ाई के नाम पर मज़ाक हो रहा है। जानते हैं, कक्षा 8 तक के बच्चों को सिर्फ़ हिंदी पढ़ना-लिखना और गणित में जमा-घटा करना सिखाया जा रहा है!
अगर कुछ बच्चे लिखने-पढ़ने में कमज़ोर रह गए हैं तो उन्हें ज़्यादा पढ़ाओ और बाक़ियों के बराबर लाओ (2009 का RTE कानून भी यही कहता है)। यह तो मत करो कि सभी बच्चों को लकीर के फ़कीर बना दो और दिमाग़ खोलने वाली पढ़ाई से दूर कर दो। पर हो यही रहा है और हम बिना जाने इसे होने दे रहे हैं।
5. देश की 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने तो यह लिख दिया है कि उसका मक़सद कक्षा 8 तक के बच्चों को (सिर्फ़) साक्षर बनाना और ऊपर की क्लासों में पढ़ाई हल्की करके काम-धंधे सिखाना है। ज़रा सोचें, अगर बच्चे सिर्फ़ पढ़ना-लिखना और जोड़-घटा ही सीखेंगे, तो सोचना-समझना, अधिकार जानना कब और कैसे सीखेंगे? वैसे भी बिना स्कूल गए भी हम और हमारे बच्चे मेहनत-मज़दूरी और छोटे-मोटे काम-धंधे तो हमेशा से करते आए हैं; स्कूल तो हम उन्हें समझदार बनने और आगे बढ़ने के लिए भेजते थे।
काम-धंधों के कोर्स को स्कूल की पढ़ाई में डालकर हमारे बच्चे ऊँची पढ़ाई से और दूर हो जाएँगे। कारीगर और मज़दूर तो इन्हें हालात बना ही देते हैं, स्कूलों का काम तो इन्हें समझदार, जागरूक और ज्ञानी बनाना था। क्या महँगे प्राइवेट स्कूलों में भी - जहाँ धन्ना-सेठों, मंत्रियों और अफ़सरों के बच्चे पढ़ते हैं - सिर्फ़ क-ख-ग लिखना-पढ़ना और काम-काज के यही कोर्स सिखाए जाएँगे?
अगर हमारे बच्चे इस पढ़ाई को करके निकले तो फ़ैक्ट्रियों में कम पैसों पर चुपचाप मशीन चलाने वाले मज़दूरों से ऊपर कुछ नहीं बनेंगे। कंपनियों को सस्ते और दुनिया-जहान व अपने हक़ों से अनजान मज़दूर ही चाहिए; चूँकि सरकारें इन कंपनियों के लिए काम करती हैं, इसलिए शिक्षा नीति भी इन कंपनियों को फ़ायदा पहुँचाने वाली बनाई जाती है। अपने बच्चों की पढ़ाई ठीक करवाने के लिए हमें ख़ुद ही लड़ना होगा।
6. इस लड़ाई में हमें शिक्षकों को भी साथ लेना होगा। आज प्रशासन की तानाशाही और डर का आलम यह है कि शिक्षक 'सरकारी नौकर' बनकर रह गया है। वह प्रशासन के ग़लत निर्णयों के ख़िलाफ आवाज़ नहीं उठा पा रहा है। न वो अपने लिए आवाज़ उठाकर यह कह पा रहा है कि ख़ाली पदों को भरा जाए ताकि स्कूलों में टीचरों की कमी न हो और वो पढ़ाने का काम बेहतर ढंग से कर पाए; और न वो बच्चों के लिए लड़ पा रहा है, जैसे कि यह माँग करके कि आपदा के नाम पर अलग-अलग ड्यूटी पर भेजे गए शिक्षकों को स्कूल वापस बुलाया जाए ताकि बच्चों की पढ़ाई का नुकसान न हो।
भले ही शिक्षा का क़ानून कहता रहे कि किसी भी स्कूल में 10% से ज़्यादा पद ख़ाली नहीं रहेंगे और शिक्षकों को पढ़ाने के अलावा दूसरी ड्यूटियों पर नहीं भेजा जाएगा, पर किसी भी क़ानून के सही बिंदु तो सरकार ख़ुद ही लागू नहीं करती। रही-सही कसर स्कूलों में झूठमूठ के कामों ने निकाल दी है, जिनके चलते शिक्षक लगातार ऑनलाइन डाटा भरते रहते हैं, दिखावटी फ़ोटो-वीडियो बनाते रहते हैं, सरकारी प्रचार के गैर-ज़रूरी प्रोग्राम चलाते रहते हैं। बस पढ़ाई नहीं करवा पाते। बल्कि सरकार के पढ़ाई से दूर ले जाने वाले हर आदेश का पालन करने में लगे रहते हैं।
हमें ही पूछना होगा कि स्कूलों में पूरे टीचर क्यों नहीं है; सिर्फ़ नाम की नर्सरी-केजी क्लास है या उसके लिए प्रशिक्षित टीचर भी हैं; छोटे बच्चों के लिए आया हैं या नहीं; प्रयोगशालाएँ व पुस्तकालयों के लिए कर्मचारी और बजट है या नहीं; विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों के लिए विशेष शिक्षक नियुक्त किए गए हैं या नहीं; आदि।
हमारे बिना नज़र रखे न तो हमारे बच्चों को पूरे शिक्षक मिलेंगे, न पूरी सुविधाएँ और न बढ़िया पढ़ाई।
7. आपने यह भी देखा होगा कि इस साल घरबन्दी और काम-धंधे की परेशानी के चलते बहुत-से परिवारों ने अपने बच्चों को निजी (प्राइवेट) स्कूलों से निकालकर सरकारी स्कूलों में दाख़िल करवाया है। अख़बारी रपट के अनुसार इस साल करीब 2.5 लाख़ बच्चों के दाख़िले दिल्ली सरकार के स्कूलों में हुए हैं, जोकि पिछले सालों के मुक़ाबले बहुत बड़ी संख्या है। नगर निगम के स्कूलों में हुए दाख़िलों का भी यही हाल है।
ढेरों छोटे-मोटे निजी स्कूल बंद ही हो गए हैं। कुछ परिवारों ने ऐसा इसलिए भी किया क्योंकि उन्हें लगा कि जब पढ़ाई ऑनलाइन ही होनी है तो इस खानापूर्ति के लिए फ़ीस का चढ़ावा क्यों दिया जाए! ये हालात सिर्फ़ इस या उस इलाक़े तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि कमोबेश देश के अधिकतर शहरी इलाक़ों की हक़ीक़त यही है।
कोरोना के समय चाहे अस्पताल थे, चाहे स्कूल, चाहे नौकरियाँ, हर जगह प्राइवेट ने हमारा साथ छोड़ा और सरकारी अस्पताल, स्कूल और राशन व्यवस्था ही हमारे काम आई। क्यों? क्योंकि प्राइवेट का मतलब ही होता है निजी मुनाफ़े के लिए काम करने वाली संस्था। लोगों के बुरे समय में सार्वजनिक (पब्लिक/सरकारी) व्यवस्था ही हमारा सहारा होती है।
फिर भी जब सरकारी स्कूलों को बदनाम, ख़स्ताहाल और बर्बाद करके बेचा या बंद किया जाता है, तो क्या हम इन्हें बचाने की लड़ाई लड़ते हैं? याद रखिए, किसी भी इलाक़े के तमाम सार्वजनिक स्कूल, चाहे वो नगर निगम के हों या दिल्ली सरकार के, सरकार द्वारा ख़रीदी या अधिग्रहित की गई ज़मीन पर नहीं बने हैं, बल्कि ग्राम सभा द्वारा दान की गई ज़मीन या जनता की साझी/पब्लिक भूमि पर खड़े हैं।
हरियाणा जैसे राज्यों में जब कहीं गाँव के स्कूल में बच्चों की गिरती संख्या को बहाना बनाकर सरकार ने बंद करने की कोशिश की है, तो गाँव के लोगों ने अपना स्कूल बचाने के लिए अपने बच्चों को निजी स्कूल से निकालकर गाँव के सरकारी स्कूल में प्रवेश दिलाया है। (हालाँकि, इस ताक़त के पीछे यक़ीनन इन गाँवों की सामाजिक व्यवस्था का कुछ सामंती चरित्र भी है।) ये जज़्बा हर गाँव या तबक़े को हासिल नहीं है। क्या हम भी इसी जज़्बे से अपने इलाक़े में सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़वाने और इनके अंदर अच्छी शिक्षा बचाने के लिए लड़ेंगे?
8. पिछले डेढ़-दो साल में घरबंदी और कामबंदी ने हमारी आर्थिक कमर तोड़ दी, और इसके साथ स्कूलबंदी ने हमारे बच्चों की पढ़ाई को बर्बाद करके रही-सही कसर निकाल दी। हमारे बच्चे महँगे निजी स्कूलों के बच्चों की तरह लैपटॉप, टैब पर क्लासें तो नहीं ही कर पाए, बल्कि ऑनलाइन की झूठमूठ की पढ़ाई ने हमारी गाढ़ी मेहनत की जमा पूँजी को भी लील लिया। यानी ऑनलाइन पढ़ाई के चक्कर में हम पर दोहरी मार पड़ी - फ़ोन और नेट पर पैसा भी ख़र्च हुआ और पढ़ाई के नाम पर हाथ कुछ नहीं आया। इस तरह हमारी पूरी एक पीढ़ी को दाँव पर लगाकर सरकार ने धूमधाम से डिजिटल और ऑनलाइन पढ़ाई की कामयाबी का बिगुल बजाया।
स्कूल बंद करने का फ़ैसला करते हुए न सबको पढ़ने की ज़रूरी सुविधा दी गई और न ही हम जैसों के बच्चों का ख़याल रखा गया। उन्हें पता है कि चाहे 10 साल स्कूल बंद रहें या हमेशा के लिए बंद कर दिए जाएँ, उनके बच्चों का तो कुछ बिगड़ना नहीं है; बल्कि हमारे बच्चों की पढ़ाई छूट जाने या बंद होने से उनके वर्ग का भला ही होना है। अगर सरकारें सबकी होतीं, सबके लिए सोचतीं, तो या तो सब बच्चों के लिए बराबर इंतेज़ाम करतीं, या सब स्कूलों की पढ़ाई को रोक देतीं ताकि किसी के साथ नाइंसाफ़ी नहीं होती। मगर हुआ ये कि लक्षद्वीप जैसी जगह पर भी, जहाँ कोई केस नहीं था और भारत के मुख्य भाग से कटा होने के चलते हो भी नहीं सकता था, सब स्कूलों को ज़बरदस्ती बंद कर दिया गया। जब इस नाते कि उनके बच्चे स्कूल नहीं आ सकेंगे, सब बच्चों की असली पढ़ाई रोक दी गई, तो फिर इस नाते ऑनलाइन पढ़ाई क्यों नहीं रोकी गई कि सबके पास ये सुविधा नहीं है? ज़रा सोचिए, ऑनलाइन पढ़ाई से हमारे बच्चों का भले ही कोई फ़ायदा हुआ हो या न हुआ हो, मोबाइल और डाटा के व्यापारियों के मुनाफ़े में ज़रूर ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई है! अगर सब बच्चे एक ही तरह के स्कूलों में एक जैसी सुविधा पाते हुए साथ-साथ पढ़ते, तो ऐसा अन्याय नहीं होता।
9. हद तो यह है कि हमें बाँटने के लिए कानून में भी पूरा मसौदा तैयार है। RTE जैसे कानूनों में कभी हमें यह लालच दिया जाता है कि प्राइवेट स्कूलों में 8वीं तक की उन 25% सीटों के पीछे भागो जो ग़रीब/कमज़ोर वर्गों से आने वाले बच्चों के लिए रखी गई हैं। कभी हम 'ख़ास' स्कूलों के पीछे भागने लगते हैं, जैसे केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, सैनिक स्कूल, प्रतिभा विद्यालय, और अब दिल्ली के नए लॉलीपॉप स्कूल, स्कूल्स ऑफ़ स्पैशलाइज़्ड एक्सीलेंस। क्या इस दौड़ में भागकर हम अपने वर्ग के सभी बच्चों का भला कर सकते हैं? 10 सीटों वाले स्कूल में चाहे आपका बच्चा जाए या पड़ोसी का, जाएँगे तो सिर्फ़ 10 ही। बाक़ी 1000 कहाँ जाएँगे? हम क्यों साथ आकर सभी स्कूलों में सभी बच्चों के लिए एक-जैसी बढ़िया पढ़ाई की माँग नहीं कर रहे?
हम प्राइवेट स्कूलों में दाख़िले के लिए पैसे का ज़ोर लगाते हैं; अपनी पसंद के सरकारी स्कूल में दाख़िले के लिए जान-पहचान निकालते हैं, ऐसे काम न बने तो 'ऊपर' से सिफ़ारिश लाते हैं, और ये सब न हो तो गिड़गिड़ाते भी हैं। पर इससे हम इस ग़लत व्यवस्था को और मज़बूत करते हैं। क्या हमें यह नहीं करना चाहिए कि सिर्फ़ अपना काम निकलवाने के बजाय एकजुट होकर सभी बच्चों के दाख़िलों और बेहतर शिक्षा के लिए लड़ें? जब हम सबके लिए लड़ेंगे तो हमारे बच्चे का भला भी अपने-आप होगा। नहीं तो जैसे अपने ही हक़ के लिए आज हम गिड़गिड़ा रहे हैं, कल हमारे बच्चे गिड़गिड़ाएँगे। हमारी माँग होनी चाहिए कि सब बच्चों के लिए उनके पड़ोस में बराबरी की पढ़ाई वाले और पूरी सुविधा, पूरे स्टाफ़ वाले सरकारी स्कूल हों।
अंत में
कल अगर हमने सार्वजनिक, यानी साझी स्कूल व्यवस्था को मज़बूत करने और समान स्कूल व्यवस्था खड़ी करने की लड़ाई लड़ी होती, तो आज घरबंदी और स्कूलबंदी के क्रूर दौर में निजी (प्राइवेट) स्कूलों से धोखा खाने की नौबत नहीं आती।
दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है जिसने निजी स्कूलों की बदौलत अपने लोगों को शिक्षित किया हो और तरक़्क़ी हासिल की हो। कई देशों में एक इलाक़े के सभी बच्चे एक-साथ पढ़ते हैं, चाहे उनके परिवारों की आर्थिक-सामाजिक हैसियत कुछ भी हो। ऐसे देशों में प्राइवेट स्कूल या तो हैं ही नहीं, या नाममात्र हैं। हमें राम मनोहर लोहिया के इस नारे को याद करने की ज़रूरत है - 'राष्ट्रपति की हो या हो मज़दूर की संतान, सबकी शिक्षा एक समान!'
जब उनके-हमारे, यानी अमीर-ग़रीब, सबके बच्चे एक-साथ पढ़ेंगे तो सरकारी/निगम के स्कूल सचमुच साझे हो जाएँगे और पढ़ाई का स्तर अपने आप सुधरेगा। सब स्कूलों को बेहतर बनाने का इससे ज़्यादा सस्ता और टिकाऊ उपाय कोई नहीं है!
लेकिन जब सारे बच्चे एक-साथ एक ही स्कूल में पढ़ेंगे, तब भी ऐसा हो सकता है कि अफ़सर और मज़दूर के बच्चों के बीच में भेदभाव बरता जाए। किसी को ज़्यादा मौक़ा दिया जाए, किसी को कम। हमारे स्कूलों में जातिगत और लड़के-लड़की के बीच के भेदभाव का इतिहास भी यह साबित करता है कि स्कूल एक होने से ही सबके साथ होने वाला व्यवहार बराबरी का नहीं हो जाता। फिर, स्कूल के एक होने से स्कूल के बाहर की दुनिया भी एक नहीं हो जाएगी। किसी को घर पर काम करना पड़ता है, परिवार की कमाई के लिए हाथ बँटाना पड़ता है, तो कोई बिना इन मजबूरियों के पूरा ध्यान और वक़्त पढ़ाई पर लगाने को आज़ाद होता है।
तो समान स्कूल व्यवस्था एक ज़रूरी शर्त है, पूरी शर्त नहीं।
सिर्फ़ शिक्षा और स्कूल समाज में ऊँच-नीच, अमीर-ग़रीब का फ़र्क़ ख़त्म नहीं कर सकते, लेकिन बच्चों को बराबरी और इंसाफ़ का सपना देखना तो सिखा सकते हैं, इसके लिए विचार तो जगा सकते हैं और इस सपने को पूरा करने के लिए उन्हें तैयार तो कर सकते हैं!
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