Wednesday, 30 November 2022

 निगम चुनाव से नदारद निगम स्कूल के सवाल 


दिल्ली के स्कूलों में शिक्षक होने के नाते हम दिल्ली नगर निगम के चुनावों पर टिप्पणी करने से ख़ुद को रोक नहीं सकते/को बाध्य हैं। स्थानीय निकाय के इन चुनावों में भी हम भारतीय लोकतंत्र की उसी बीमारी के लक्षण देख रहे हैं जिसके बारे में डॉक्टर अंबेडकर ने चेताया था। दो बड़े दलों के इश्तेहार उनके स्थानीय प्रत्याशियों का परिचय नहीं करा रहे, बल्कि अधिनायकवादी केंद्रीय नेता के नाम और चेहरे पर वोट माँग रहे हैं। उधर एक अन्य प्रमुख दल भी अपना नायक खड़ा करने की कोशिश में लगा है। फिर, हमें यह भी बता दिया गया है कि इस लोकतंत्र में इन दलों की नज़र में चुनाव लड़ने के लिए सबसे ज़रूरी क़ाबिलियत धन-दौलत है। सोने पर सुहागा यह है कि इसकी भी कोई गारंटी नहीं है कि हमारा समर्थन जीतने के बाद डर या लालच के चलते हमारा नुमाइंदा दल नहीं बदलेगा। फिर भी, वफ़ादार वेतनभोगी कर्मचारी के रूप में हम न सिर्फ़ लोकतंत्र के इस जश्न का डंका पीटते हैं, बल्कि स्कूलों में विद्यार्थियों को भी इसकी महिमा के गुणगान में दीक्षित करते हैं। 


ऐसे में कोई हैरानी की बात नहीं है कि दिल्ली में बहुत-से लोगों की राजनैतिक चेतना में नगर निगम की भूमिका व औचित्य को लेकर समझ साफ़ नहीं है। ख़ुद हमारे स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकतर बच्चों के माता-पिता तक निगम के स्कूलों के प्रशासन व अस्तित्व को दिल्ली सरकार का ही हिस्सा समझते हैं। संविधान के संघीय ढाँचे व लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण के आदर्श पर हो रहे लगातार हमलों के संदर्भ में तथा 'एक देश, सब कुछ एक' के दरिद्र व कुरूप दर्शन के आगे लोगों के बीच स्थानीय निकाय के स्वतंत्र औचित्य, महत्व और भूमिका को स्थापित करना और भी चुनौतीपूर्ण व ज़रूरी हो गया है। इस तरह की तैयारी व संघर्ष की कमी के चलते, फ़िलहाल ये चुनाव एक तरह की राजनैतिक निरक्षरता के माहौल में हो रहे हैं। इसी का नतीजा है कि सार्वजनिक स्कूलों का, जिनमें दिल्ली सरकार व निगम दोनों के स्कूल शामिल हैं, बेशर्मी से दलगत नेताओं के व्यक्तिवादी प्रचार व महिमामंडन के लिए असंवैधानिक इस्तेमाल किया जाना आम होता गया है। वहीं दूसरी तरफ़, प्रमुख दलों के प्रचार अभियान में निगम के स्कूल व इनके हालात ग़ायब हैं और इनके घोषणापत्रों/संकल्पों में स्कूलों या शिक्षा को लेकर कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं दिखता है।
 
आख़िर ऐसा क्यों है कि अपने स्कूलों के हालात में क्रांतिकारी बदलाव लाने का दावा करने वाली सरकार का सत्ताधारी दल निगम के स्कूलों की बदहाली को मुद्दा बनाने का हौसला नहीं दिखाया? उधर 15 वर्षों तक निगम की सत्ता संभालने वाले दल के पास भी क्यों अपने स्कूलों के बारे में कहने के लिए कुछ नहीं है? इसका एक जवाब उन ताक़तों में है जो एक-समान रूप से इन दलों व इनकी सरकार/प्रशासन को संचालित करती हैं तथा एक-जैसी शिक्षा नीति में प्रकट होती हैं। उदाहरण के तौर पर, 'प्रथम' नाम की जिस बड़ी संस्था की सिफ़ारिश और प्रचार का असर राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 द्वारा स्कूलों की पढ़ाई में 'मूलभूत साक्षरता और गणना' पर विशेष ज़ोर देने में सामने आया है, उसी के इशारों पर दिल्ली सरकार के स्कूलों में 'मिशन बुनियाद' जैसे शिक्षा व बाल विरोधी कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं और हाल ही में तीसरे दल से जुड़े एक ट्रस्ट द्वारा उसी को 'शांति, निरस्त्रीकरण व विकास के लिए इंदिरा गाँधी पुरस्कार' से भी नवाज़ा गया है। इसी तरह, जहाँ दिल्ली सरकार मुट्ठीभर बच्चों के लिए कुछ मलाईदार स्कूल (SoSE) खोलकर वाहवाही लूटने की कोशिश कर रही है, वहीं निगम में भी ढेर-सारे स्कूलों को साधारण और चुनिंदा को 'प्रतिभा' का तमग़ा देकर बच्चों के बीच भेदभाव किया जा रहा है। इधर केंद्र सरकार ने भी देशभर के लाखों स्कूलों में से 16,000 स्कूलों को ख़ासतौर से चमकाकर एक और मलाईदार परत बिछाने की शिक्षा नीति की घोषणा की है। लोकतंत्र के रहते हुए भी स्कूलों की इस भेदभावपूर्ण व्यवस्था को सभी प्रशासन अपनी शान मानते हैं। ज़ाहिर है कि स्कूली शिक्षा को लेकर इन प्रमुख दलों की समझ और नीयत में कोई ख़ास मतभेद नहीं हैं। 
इसका एक और सबूत यह है कि तमाम दलगत टकराव के बावजूद, निगम प्रशासन का शिक्षा विभाग पिछले कुछ सालों से, अपनी संवैधानिक स्वायत्तता को ख़ुद ही दरकिनार करते हुए, लगातार दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय के पदचिन्हों पर चल रहा है। चाहे वो एनजीओ की घुसपैठ हो या मिशन बुनियाद को लागू करके बच्चों को बाँटना व उन्हें घटिया दर्जे का कोर्स पढ़ाना या देखादेखी 'हैप्पीनेस करिकुलम' अपनाना या महज़ नक़ल की एक होड़ के चलते 'मेगा पीटीएम' का शोर मचाना और कुछ शिक्षकों को शिक्षण व साथी शिक्षकों से काटकर 'मेंटर टीचर' बनाना, आज निगम और दिल्ली सरकार के स्कूलों के बीच संसाधनों के आधार पर कितना ही फ़र्क़ क्यों न हो, शिक्षा के नाम पर दोनों ही में बच्चों के साथ एक-सा क्रूर मज़ाक किया जा रहा है। इन सबके अलावा, निगम में भी शिक्षकों व स्कूलों के लिए उसी तरह की अड़ियल अफ़सरशाही से काम लिया जा रहा है जिसे दिल्ली सरकार के स्कूल व शिक्षक पिछले कई सालों से भुगत रहे हैं। इन स्कूलों व इनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों की हक़ीक़त से बेपरवाह होकर, सत्ता के नशे में धुत्त और फ़ोन के/ऑनलाइन घोड़े पर सवार ऐसे आदेश जारी किए जाते हैं जिनका एक नतीजा यह होता है कि पढ़ाई को एक किनारे करके स्कूल व शिक्षक डाटा भरने-भेजने में लग जाते हैं और दूसरा यह कि आनन-फ़ानन में यह डाटा गड़बड़ हो जाता है। जबकि अगर आप सूचना के अधिकार क़ानून के तहत भी निगम से ये डाटा माँगेंगे तो वो नहीं दे पाएगा! अब इस तानाशाही का ख़ामियाज़ा बच्चों के माता-पिता भी भुगत रहे हैं जिन्हें बिना किसी पूर्व जानकारी के, महज़ फ़ोन पर तुरत भेजे गए संदेश की ताक़त पर, दिहाड़ी व कामकाज छोड़कर, स्कूल में किसी ऐसी मीटिंग में शामिल होने का फ़रमान पहुँचा दिया जाता है जिसकी तैयारी करने का वक़्त या संसाधन स्कूल के पास भी नहीं होता। प्रशासन ने यह मान लिया है कि सब बच्चों के माता-पिता के पास सुचारु स्मार्टफ़ोन हैं जिन्हें वो बढ़िया ढंग से इस्तेमाल करना जानते हैं और जिन्हें उन्होंने स्कूलों के संदेशों/आदेशों के लिए समर्पित कर रखा है। अक़सर ये मीटिंग बच्चों या माता-पिता के हित में कम, और किसी प्रचारी हित में ज़्यादा होती हैं। विडंबना ये है कि इस प्रशासनिक ज़िद के चलते जिन माता-पिता के पास स्मार्टफ़ोन नहीं हैं, उनके बच्चों को योजनाओं से बाहर कर दिया जा रहा है और जिनके पास ये हैं वो परेशान हो रहे हैं! दिल्ली सरकार व निजी स्कूलों जैसी अन्य व्यवस्थाओं से ग़लत सीख लेते हुए अब निगम के स्कूलों में भी विद्यार्थियों के माता-पिता पर, उनकी जीवन-परिस्थितियों के प्रति असंवेदनशील होकर, यह नियम थोपने की कोशिश हो रही है कि वो निर्धारित समय में ही स्कूल आकर शिक्षक या प्रिंसिपल से मिलें। अलबत्ता, स्कूल प्रशासन भले ही, ऊपरी आदेशों के पालन के दबाव में, उन्हें कभी भी बुला सकता है!  
 
एक नज़र निगम के स्कूलों पर डालते हैं। शहर की शिक्षा व्यवस्था में निगम के स्कूलों पर एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी है। आज शहर के लगभग बीस फ़ीसदी बच्चे इन स्कूलों में पढ़ते हैं, हालाँकि 2012-13 में यह अनुपात 23 प्रतिशत था। जहाँ 2012-13 में निगम के 1,801 स्कूल थे जिनमें 9,36,841 बच्चे पढ़ते थे, वर्ष 2020-21 तक स्कूलों की संख्या घटकर 1,670 और बच्चों की संख्या 7,94,776 हो गई। यानी, इन 8 वर्षों में निगम ने अपने 131 स्कूल बंद कर दिए और लगभग डेढ़ लाख कम बच्चों को शिक्षा देने लगा। पिछले 10 सालों में ऐसा कोई साल नहीं था जिसमें निगम ने अपने स्कूल ख़त्म न किए हों। 2014 से 2017 के बीच तो 75 से ज़्यादा स्कूल ख़त्म कर दिए गए और पिछले 4 सालों में 50! एक तरह से निगम ने इन सालों में इतनी तरक़्क़ी की कि उसके 5 विद्यार्थियों में से 1 कम हो गया। 2012-13 से 2019-20 के दौरान निगम के स्कूलों की प्रथम कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या लगभग डेढ़ लाख से घटकर एक लाख से कम पर आ गई। बच्चों व स्कूलों की घटती संख्या निगम की घोर नाकामी का सबूत है, ख़ासतौर से तब जब हम शहर की बढ़ती आबादी और शिक्षा की ज़रूरत को ध्यान में रखें। हालाँकि, पिछले साल बच्चों की संख्या 9 लाख के ऊपर पहुँच गई, मगर इसका मुख्य कारण स्कूलों में आई कोई बेहतरी नहीं, बल्कि कोरोना-'लॉकडाउन' के चलते छोटे निजी स्कूलों का बड़ी संख्या में बंद होना और एक बड़े वर्ग पर छाया वित्तीय संकट था। जो भी हो, बीते वर्ष ही, अपनी ज़िम्मेदारी से बेख़बर, निगम ने 9 स्कूल और बंद कर दिए। स्कूलों के ख़त्म किए जाने के इस दौर में, पिछले 5 वर्षों में पार्षदों द्वारा निगम के सदनों में इस बाबत महज़ 3 सवाल और नए स्कूलों के बारे में केवल 5 सवाल पूछे गए। ऐसा नहीं है कि बच्चों के कम होने से छात्र-शिक्षक अनुपात (पीटीआर) बेहतर हो गया। जबकि क़ानून के हिसाब से प्राथमिक कक्षाओं में पीटीआर 30 होना चाहिए, निगम के स्कूलों में यह 43 है। हाँ, अफ़सरशाही की मनमानी का ताज़ा सबूत देते हुए निगम प्रशासन ने हाल ही में स्कूलों को यह अवैध संदेश ज़रूर दिया है कि शिक्षकों के पदों की माँग स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या के अनुसार नहीं, बल्कि बच्चों की औसत हाज़िरी के हिसाब से आँकी जाएगी। (यह बात अलग है कि निगम के भंग हुए तीनों सदनों की शिक्षा समितियों में ख़ुद पार्षदों की हाज़िरी 70% से ऊपर नहीं पहुँची!) ज़ाहिर है कि इस अवैध आदेश का मक़सद शिक्षकों के पदों में कटौती करना और बच्चों की शिक्षा के हक़ को चोट पहुँचाना है। मज़ेदार बात यह है कि एक तरफ़ तो, जाने किन रहस्यमयी ताक़तों के चलते, निगम के स्कूलों के भवन अकसर अपने निर्माण के कुछ सालों के बाद ही जर्जर अवस्था में पहुँचने लगते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ पिछले कुछ सालों में ऐसे नए भवन भी बने जिन्हें, क्योंकि कभी लोकसभा चुनाव होने थे, तो कभी विधानसभा और कभी निगम के ही, बारंबार उद्घाटन समारोह का सौभाग्य प्राप्त हुआ, भले ही बच्चों को उनमें खेलने-पढ़ने का अवसर कई-कई साल न मिला हो!  

निगम के शिक्षा बजट की बात करें तो वर्ष 2019-20 से 21-22 के बीच इसके अनुमान में 7% की कमी आई तथा वर्ष 21-22 में 65% शिक्षा बजट इस्तेमाल ही नहीं किया गया। वहीं एक बच्चे की शिक्षा पर निगम ने 2019-20 में लगभग 60,000 रुपये का अनुमान लगाया, जबकि ख़र्च महज़ 41,000 किया; यानी 3 का वादा करके 2 देना। वर्ष 2020-21 में यह राशि क्रमशः 53,000 रुपये और 35,000 थी (यानी, 5 के बदले साढ़े तीन)। निगम की बेशर्मी और हमारी चुप्पी का आलम ये है कि वर्ष 21-22 के लिए हर बच्चे पर महज़ 46,841 ख़र्च करने का अनुमान है, तो 22-23 में यह 29,077 रुपये होगा। मतलब, पिछले 4 सालों में ही निगम ने अपने स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे पर किया जाने वाला ख़र्च आधा कर दिया है। यह समझना मुश्किल है कि इस गिरते ख़र्च से निगम अपने स्कूलों और कक्षाओं को 'स्मार्ट' बनाने का दावा किस आधार पर करती आई है। शायद यह कटौती बच्चों के परिवारों को आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाने के लिए की जा रही हो! यही कारण है कि इस वर्ष अभी तक निगम के विद्यार्थियों को क़ानूनी हक़ के तहत मिलने वाली कॉपियाँ नहीं बाँटी गई हैं। यहाँ तक कि 'स्कूलबंदी' के दिनों के लिए देय पूरा मिड-डे-मील राशन भी अभी तक सभी विद्यार्थियों को नहीं मिल पाया है। बच्चों को वज़ीफ़े तो कई सालों से वैसे भी नहीं मिल पा रहे हैं क्योंकि एक तो बहुत-से बच्चों के पास बैंक खाते नहीं हैं और फिर इनकी शर्तें व आवेदन प्रक्रिया बेहद जटिल बनाई जा रही हैं। एक ताज़ा आदेश के अनुसार, जोकि केंद्र सरकार द्वारा नागरिकों को अधिकारों के बदले कर्त्तव्य का एहसास कराने की कोशिश का हिस्सा है, आठवीं कक्षा तक तो वैसे भी अनुसूचित जाति/जनजाति/पिछड़ा वर्ग/अल्पसंख्यक आदि बच्चों को वज़ीफ़े नहीं दिए जाएँगे क्योंकि उन्हें शिक्षा के अधिकार के क़ानून के तहत मुफ़्त में जो पढ़ाया जा रहा है! इस क़ानून की निरीह मौजूदगी में हालत ये है कि निगम के अधिकतर स्कूलों में बच्चे वर्दी, जूते से लेकर पढ़ाई के लिए कॉपी, बस्ते तक का ख़र्च ख़ुद उठाने को मजबूर हैं। इस साल तो बच्चों को किताबें भी गर्मी की छुट्टियों के ख़त्म होने के बहुत बाद में मिलीं, जबकि स्कूलबंदी के बाद होना तो यह चाहिए था कि किताब-कॉपी और भी वक़्त से बँटतीं। जब पढ़ाई-लिखाई के लिए शिक्षकों की उपलब्धता से लेकर, किताब-कॉपी के वितरण, वज़ीफ़े और पाठ्यचर्या की गंभीरता पर इतने सवाल खड़े हैं तो फिर खेलकूद की स्थिति अलग नहीं हो सकती है। दिल्ली प्रशासन के स्कूलों और देशभर में विकास तथा स्वच्छता की चमक-धमक का अनुसरण करते हुए निगम भी तेज़ी से अपने स्कूलों से खेल के मैदान ख़त्म करने पर लगा हुआ है। कहीं टाइल्स बिछाई जा रही हैं तो कहीं इन्हें सीमेंट से पाटा जा रहा है। एक तो नासमझी की पढ़ाई-लिखाई थोपकर बच्चों के स्कूल में खुलकर खेलने वाले मौक़े वैसे ही ख़त्म किए जा रहे हैं, ऊपर से रही-सही कसर इन कंक्रीट के फ़र्शों ने निकाल दी है। स्कूल के मैदानों को पक्का करने से कुछ लोगों की 'पक्की कमाई' ज़रूर हो जाती है। हाँ, कुछ स्कूलों में झूलेयुक्त पार्क विकसित हुए हैं, मगर इन झूलों को सामान्यतः निगम कोष से नहीं, बल्कि किसी निजी संस्था ने, संभवतः सीएसआर (कॉरपोरेट सामाजिक ज़िम्मेदारी की क़ानूनी बाध्यता) या किसी अन्य लाभ-हानि के सौदे के तहत लगाया है।   

निगम के स्कूलों में सफ़ाई की स्थिति को लेकर अक्सर माता-पिता को शिकायत रहती है। वो इसका दोष स्कूल प्रशासन व सफ़ाई कर्मचारी को देते हैं, जोकि निगम प्रशासन व किसी भी सत्ता के लिए बेहद अनुकूल है। असलियत यह है कि जहाँ छोटे बच्चों के लिए स्वाभाविक रूप से अधिक सफ़ाई कर्मचारियों की ज़रूरत पड़ेगी, वहीं निगम की नीति इस बारे में अनजान बनी हुई है। दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग में, जहाँ परिसर में बड़ी उम्र के 100-150 विद्यार्थी व कोई 50-100 कर्मी होते हैं, दर्जनभर सफ़ाई कर्मचारी तैनात हैं, जबकि, एक आरटीआई अर्ज़ी के जवाब के अनुसार, निगम के हर स्कूल में, चाहे उसमें 100 बच्चे पढ़ते हों या 2,000, केवल एक पद स्वीकृत है। ज़ाहिर है, ऐसे में यह तय है कि विशेषकर बच्चों की बड़ी संख्या वाले स्कूलों में सफ़ाई बरतना नामुमकिन होगा। इस आरटीआई अर्ज़ी का जवाब देते वक़्त निगम ने इस बात को भी याद रखना ज़रूरी नहीं समझा कि ख़ुद उसके एक पुराने नियम/दिशा-निर्देश के अनुसार, किसी स्कूल में तैनात सफ़ाई कर्मचारी की संख्या छात्रों की संख्या के हिसाब से तय होगी। अर्ज़ी के जवाब के अनुसार तो निगम के सभी (1,661) स्कूलों में मिलाकर सिर्फ़ 1,314 सफ़ाई कर्मचारी तैनात थे, जबकि इनमें से महज़ 755 नियमित थे। एक अन्य अर्ज़ी के जवाब में निगम ने बताया कि निगम के 410 स्कूल ऐसे थे जहाँ नर्सरी व केजी कक्षाएँ बिना आया के चल रही थीं। ऐसे भी स्कूल हैं जहाँ निगम ने 4-5 साल से नर्सरी-केजी कक्षाएँ खोली हुई हैं मगर एक भी नर्सरी शिक्षिका तैनात नहीं की है। यानी, शिशुकाल से ही आत्मनिर्भरता को प्रेरित करना! नतीजतन, नर्सरी-केजी के नाम पर कम जागरूक माता-पिता की आँखों में धूल झोंकी जा रही है। इन 1,661 स्कूलों के लिए निगम ने महज़ 595 नर्सरी आया नियुक्त की हैं और उनमें से भी अधिकतर नियमित नहीं हैं। चाहे वो आया हों, सफ़ाई कर्मचारी या ऑफ़िस अटेंडेंट, निगम के स्कूलों में इन अनियमित/ठेके/दिहाड़ी पर रखे गए कर्मचारी को औसतन 14,000-15,000 से ज़्यादा नहीं मिलता है। इस मायने में, चाहे वो नियमित कर्मचारियों को नियुक्त करने का मामला हो या वक़्त से और सम्मानपूर्वक जीने के लिए वेतन देने का, निगम एक नाकाम नियोक्ता साबित हुआ है। 

शिक्षकों की स्थिति भी बद से बदतर होती गई है। समय से वेतन का भुगतान न होना व अन्य बकाया राशि का न मिलना तो शहर की गुमनाम ख़बर हो गया है। बीच-बीच में विरोध-प्रदर्शन व हड़तालें भी हुईं, मगर कुछ शिक्षक यूनियन की कमज़ोर स्थिति के चलते, कुछ दिल्ली सरकार व निगम की खींचातानी से उपजे असमंजस के चलते और कुछ एकीकरण से उम्मीद के चलते, ये कोशिशें शिथिल पड़ती गईं।  उधर शिक्षा विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं आई है, बल्कि शिक्षक यूनियन की नामौजूदगी के चलते शिक्षकों ने इसे अपनी नियति मान लिया है। अपने जायज़ और सामान्य कामों के लिए रिश्वत देने को मजबूर हो चुके शिक्षक के लिए यह समझना मुश्किल नहीं है कि शिक्षित, संगठित कर्मचारी होते हुए जब उनका ये हाल है तो फिर निगम का तंत्र आमजन से कैसे पेश आता होगा। निगम में शिक्षकों के लिए एकमात्र (किंतु कई मायनों में बड़ा) संतोष का कारण उनको मिली शिक्षाशास्त्रीय संभावना थी। निगम की शिक्षाशास्त्रीय प्रणाली की ख़ूबसूरती थी कि एक शिक्षक कक्षा प्रथम को पढ़ाना शुरु करती थी और सभी विषय पढ़ाते हुए पाँचवीं कक्षा तक उनके साथ रहती थी। इससे न केवल घनिष्ठ आपसी संबंध बनते थे, बल्कि यह व्यवस्था समग्र व सर्वांगीण शिक्षा की अवधारणा को भी मूर्त करती थी। पिछले कुछ समय से आत्ममुग्ध प्रशासनिक नासमझी के चलते निगम के स्कूलों में इन तमाम बेहतर संभावनाओं को भी कुचला जा रहा है। साथ ही शिक्षकों पर अपमानजनक आदेश व नियम थोपे जा रहे हैं। उन्हें यह लिखित में प्रमाणित करने को कहा जाता है कि वो व उनके परिवार का कोई भी सदस्य खुले में शौच नहीं करता है! विभागीय कामों व दायित्वों-आदेशों को निभाने के लिए उन्हें जबरन अपने निजी यंत्र की सेवा देने के लिए डराया-धमकाया जा रहा है; यहाँ तक कि, वेतन काटने की अवैध व अनैतिक धमकी के सहारे, उन्हें तीन स्तरों पर हाज़िरी दर्ज करने को मजबूर किया जा रहा है, जिसमें अपने निजी स्मार्टफ़ोन पर एक ऐप डाउनलोड करके उसपर सेल्फ़ी भेजना शामिल है। शासन की डिजिटल व ऑनलाइन की सनक तथा डाटा की भूख के चलते शिक्षकों पर, स्कूलों में ही नहीं बल्कि घर पर भी, काम का बोझ बढ़ता जा रहा है, मगर ऐसे में भी निगम इन स्कूलों में कोई आईटी कर्मचारी नहीं दे पाया है। साफ़ है कि इसका ख़ामियाज़ा बच्चों को अपनी पढ़ाई व खेल की क़ीमत चुकाकर उठाना पड़ता है। आज निगम के स्कूलों के अधिकतर शिक्षक बेहद तनाव और निराशा की हालत में हैं। आलम ये है कि बहुत-से शिक्षक अपने काम को लेकर अब उत्साहित महसूस नहीं करते और उनका मनोबल तेज़ी से गिर रहा है। वक़्त से पहले रिटायर होने की चर्चा, चाहे वो हँसी हो और किसी अंजाम तक न पहुँचे, आम हो गई है। वरिष्ठ शिक्षक बिना किसी प्रेरणा के, मगर ढेर सारी सरदर्दी के साथ आने वाले, प्रिंसिपल के पद से भाग रहे हैं। कुल मिलाकर, निगम के शिक्षक ख़ुश नहीं हैं; तो फिर वो बच्चों को बेहतर ढंग से कैसे पढ़ा सकते हैं?

इधर ज्यों-ज्यों निगम के स्कूलों पर सवाल उठे हैं, त्यों-त्यों निगम ने, अलोकतांत्रिक प्रशासनिक चरित्र का सबूत देते हुए, बाड़ लगाने का चिर-परिचित रवैया अपनाया है। कभी वैध उद्देश्यों के लिए आने वाले मीडिया व लोगों के भी स्कूल में आने पर रोक लगा दी जाती है तो कभी सूचना के अधिकार की अर्ज़ी को मनमर्ज़ी से भटका दिया जाता है। ऐसे में हमें याद रखना चाहिए कि वो चमक-धमक वाले संस्थान जहाँ संतरी हमें गेट पर ही रोक और दुत्कार कर हमारी औक़ात बता देता है, कभी भी हमारे पक्ष में खड़े, लोकतांत्रिक संस्थान नहीं हो सकते। एक तरफ़ सत्ता सीसीटीवी लगाकर निगरानी और पारदर्शिता क़ायम करने का दावा करती है, वहीं दूसरी तरफ़ लोगों के आने-जाने और चीज़ों को ख़ुद देखकर सच्चाई जानने की आज़ादी पर सुरक्षा के नाम पर पाबंदी लगाती है। जवाब में हमें चुनना होगा लोकतांत्रिक समाज में टिकी उस समान स्कूल व्यवस्था को जिसमें निगम (या किसी भी तरह के राजकीय) स्कूलों को दयाभाव से महज़ 'ग़रीबों के बच्चों' के लिए नहीं, बल्कि बराबरी, इंसाफ़ व भ्रातृत्व के मूल्यों से सब बच्चों के लिए संचालित किया जाएगा। चूँकि जब ये स्कूल आपके-हमारे, पड़ोस के सब बच्चों के लिए होंगे, तभी तो हमें किसी स्कूल को ख़त्म करके उसकी जगह पार्किंग स्थल, बारात घर या दुकानें बनाना चुभेगा। आख़िर, कमिश्नर, मेयर व निदेशक से शुरुआत करते हुए सभी पार्षदों के लिए अपने बच्चों को निगम के स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य क्यों नहीं होना चाहिए? आइए, निगम चुनाव में राजनैतिक दलों व प्रत्याशियों से निगम स्कूलों व शिक्षा व्यवस्था के बारे में सवाल पूछें, अपने इलाक़े के निगम स्कूल को पहचानें व उससे जुड़ें और निगम स्कूलों को समान स्कूल व्यवस्था में स्थापित करने की माँग करें। 

Monday, 28 November 2022

दिल्ली के सरकारी विद्यालय का एक दिन और दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार की शिक्षा नीतियाँ  


 

I.                    बहिष्करण की संस्कृति : सबसे कमज़ोर तबके को बाहर निकालती दाखिले की नीतियाँ

मई – जून, 2022 के महीनों में दिल्ली के सरकारी विद्यालयों में दाखिले चल रहे हैं। कई अभिभावक अपने बच्चे का दाखिला करवाने के लिए, जो कागज़ बन पड़े, सारे लेकर स्कूल आ जाते हैं। अकसर उनके मन में यह डर होता है कि न जाने कौन सा कागज़ कम पड़ जाए और बच्चे को दाखिला देने से मना कर दिया जाए। आख़िर उन्होंने अपने पड़ोस में सुन रखा होता है कि ‘दिल्ली के सरकारी स्कूलों में दाखिला मिलना आसान नहीं है’।

जिनके पास आधार या पते का पक्का कागज़ नहीं होता, वो तो अकसर यह सोचकर स्कूल ही नहीं आते कि बिना आधार के बच्चे को दाखिला नहीं मिलेगा! भले ही कानून कुछ भी कहे, व्यवहार में तो उन्होंने यही देखा होता है!

स्कूल पहुँचने पर एक टीचर– या कभी-कभी दरवाज़े पर खड़े गार्ड ही- पेरेंट्स को यह बता देते हैं कि ‘सरकरी स्कूल में दाखिले के लिए उन्हें खुद ऑनलाइन फॉर्म भरना होगा। उन्हें आता है तो खुद भर लें नहीं तो किसी जानकार की मदद से या पैसे देकर इंटरनेट कैफ़े से फॉर्म भरवा लें’।

अभिभावक हैरान होकर पूछते हैं कि अगर उनका ऐसा कोई रिश्तेदार/पड़ोसी नहीं है, तो वो क्या करें? कैफ़े वाले कितने पैसे लेंगे? विडंबना यह है कि कोई अभिभावक यह नहीं पूछता कि ‘जो अभिभावक ऑनलाइन फॉर्म नहीं भर सकते वो स्कूल में आकर ऑफलाइनफॉर्म क्यों नहीं भर सकते? सारे नियम-कानून उसी को ध्यान में रखकर क्यों बनाए जाते हैं, जिसके पास पहले से ही सब कुछ होता है!

इस दौरान एक अभिभावक आकर कक्षा 10 में दाखिले के बारे में पूछती है। स्कूल बताता है कि दसवीं के फॉर्म तो मई के पहले हफ़्ते में ही ख़त्म हो गए। जिन बच्चों ने फॉर्म भरा था, उनका एंट्रेंसटेस्ट भी हो चुका है। अभिभावक परेशान होकर पूछती हैं ‘मई में तो सत्र लगभग शुरु ही होता है और दसवीं के दाखिले बंद भी हो गए! कृपया कुछ करिए नहीं तो मेरी बेटी का साल बर्बाद हो जाएगा।‘ विडंबना यह है कि कोई अभिभावक यह नहीं पूछती कि ‘जब मेरी बच्ची नौवीं पास है तो टेस्ट किस चीज़ का? 1 हफ़्ते में दाखिले शुरु करके बंद करने का क्या मतलब है?’

और इस तरह शुरु होता है आम इंसान का दिल्ली के सरकारी स्कूलों के जटिल और इलीटिस्ट चरित्र की सच्चाई से रूबरू होने का सफर। जो सरकार घरबंदी और कामबंदी के दौरान निजी विद्यालय छोड़कर आए बच्चों को दाखिला देकर यह विज्ञापन कर रही थी कि “सरकारी स्कूल बने पेरेंट्स की पहली पसंद”, वो गरीबों के बच्चों को दाखिला देने में इतनी आनाकानी क्यों करती है? जो स्कूल यह नहीं जानते कि मज़दूर परिवारों की क्या समस्याएं हैं, वो मज़दूरों के बच्चे की ज़रूरतों को कैसे समझ पाएँगे?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी हर बच्चे को रेगुलर स्कूल पढ़ाना ज़रूरी नहीं समझती। तभी बिंदु 3.5 में कक्षा 3,5 और 8 में ही बच्चों को ओपन से पढ़ाने की बात कहती है। अभी तक तो सरकार के ऊपर 14 साल तक के हर बच्चे को स्कूली शिक्षा देने का दबाव था। लेकिन नई नीति के बाद वो दबाव भी खत्म हो जाएगा। यह नीति कक्षा 12 तक की रेगुलर स्कूली शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के बजाय कक्षा 10 में ही बच्चों को स्कूल छोड़ने (exit option) का प्रावधान भी देती है (बिंदु 4.2)।

स्कूलों में न तो कक्षा IX-XII के बच्चों के लिए पर्याप्त कमरे हैं और न ही पर्याप्त शिक्षक हैं। फिर भी 2020 में भी इस देश की शिक्षा नीति ने अपने बच्चों को यह गारंटी नहीं दी कि कक्षा 12 तक की शिक्षा को अनिवार्य बनाएँगे, बारहवीं तक हर 30 बच्चों के लिए एक कमरा और शिक्षक देंगे बल्कि यह नीति उन्हें तीसरी, पाँचवी, आठवीं, दसवीं, बारहवीं ओपन से करने में रास्ते सुझाती है।

 

II.                  मंदबुद्धि बनाने की संस्कृति : न्यूनतम उद्देश्य बना अधिकतम ; अब सरकारी स्कूल सिर्फ साक्षरता और गणना सिखाने के केंद्र हैं

स्कूल में एडमिशन चार्ज देखने वाली शिक्षिका अपनी कक्षा को पढ़ाना छोड़ एडमिशन के काम करना जारी रखती है। आख़िर सरकारी स्कूल की शिक्षिका स्कूल में ‘सिर्फ़’ पढ़ाने थोड़ा ही आती है। भले ही प्राइवेट स्कूलों में एडमिशनकरने, फ़ीस इकठ्ठा करने, डाटा भरने, बच्चे लाने-ले जाने आदि के लिए प्रशासनिक स्टाफ रखा जाता हो लेकिन सरकारी स्कूलों में अतिरिक्त स्टॉफ रखकर पैसा बर्बाद नहीं किया जाता। इसलिए सभी काम शिक्षकों से ही करवाया जाता है।

अभी स्कूल लगे 1 घंटा ही हुआ होता है कि खबर आती है कि अभी आधे घंटे में भ्रष्टाचार के खिलाफ़ शपथ खाते हुए बच्चों की फोटो भेजो और दो घंटे में प्लास्टिक के उपयोग के खिलाफ़ बच्चों से पोस्टर बनवाकर फोटो और रिपोर्ट भेजो। शिक्षक तुरंत आकाओं के आदेश पालन में लग जाते हैं। कुछ बच्चे भी मदद करने में लगा लिए जाते हैं। पूरे स्कूल में (रोज़ की तरह) आपाधापी मच जाती है। शिक्षक लगे रहते हैं और बच्चे अपनी कक्षाओं में बैठकर समय काटते हैं।

बचे हुए समय में पढ़ाई भी होती है। पिछले चार सालों से सरकारी विद्यालयों में कक्षा 3-9 के लिए पढ़ाई का मतलब “मिशन बुनियाद” है। मिशन बुनियाद का मतलब है कक्षा 3-9 के बच्चों को सिर्फ धाराप्रवाह हिंदी पढ़ना और जमा-भाग सिखाना।

दसियों साल की कोशिशों के बाद दिल्ली सरकार को एनजीओज़ का यह ज्ञान समझ आ गया कि “सरकारी स्कूलों के बच्चों को हिंदी पढ़ना और जमा-घटा करना नहीं आता इसलिए उनकी कक्षा की पढ़ाई बंद करो और सिर्फ साक्षरता और जमा-घटा सिखाओ। क्योंकि बच्चों को ढंग से हिंदी पढ़नी-लिखनी नहीं आती इसलिए इन बच्चों को बढ़िया कहानियाँ पढ़ाना, विज्ञान-इतिहास-भूगोल की बातें सिखाना बेकार है। इन्हें दिन-रात सिर्फ़ साक्षर बनाओ।

क्योंकि ये एनसीआरटी किताबें पढ़ने के लायक नहीं है इसलिए इनके लिए हम अलग किताबें तैयार करके आपको देंगे। हम इन्हें इतनी आसान कहानियाँपढ़ाएँगे कि इनके दिमाग़ पर कोई ज़ोर ही न पड़े। ऐसी कहानियाँ जिनमें न हाव-भाव होगा, न लॉजिक; न सच्चाई से जुड़ाव होगा, न कल्पना की उड़ान; न सर्वनाम निकलते होंगे, न कहानी का कोई मतलब निकलता होगा। आख़िर इन सब गुणों से भरी किताबें न बच्चे समझ पाते हैं और न शिक्षक समझा पाते हैं।“

मेंटर शिक्षक कक्षाओं में बैठकर जाँच कर रहे हैं कि मिशन बुनियाद में कहीं कोई शिक्षक अपने ढंग से तो नहीं पढ़ा रहा, जितना कहा गया है उससे ज़्यादा तो नहीं पढ़ा रहा, कक्षा की किताब से तो नहीं पढ़ा रहा। एक शिक्षक यह पूछना चाहती है पर पूछ नहीं पाती कि “बीएड में तो हम यह पढ़ते थे कि अच्छी विषयवस्तु बच्चों को ऊपर उठने में मदद करती है, यहाँ तो पूरी पढ़ाई ही नीचे आ गई है। क्या बढ़िया विषय-वस्तु के बिना बढ़िया शिक्षा की नींव रखी जा सकती है? सरकार ने कभी इतनी ताकत और निरीक्षण कक्षानुसार पढ़ाई करवाने में क्यों नहीं लगाया जितना इस साक्षरता प्रोग्राम में लगा रही है?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 का तो मिशन ही देशभर के स्कूलों को शिक्षा के बजाय साक्षरता केंद्र बनाना है। नीति का बिंदु 2.2 कहता है, “शिक्षा प्रणाली की सर्वोच्च प्राथमिकता 2025 तक प्राथमिक विद्यालय में सार्वभौमिक मूलभूत साक्षरता और संख्या-ज्ञान प्राप्त करना होगा.. सभी प्राथमिक और उच्चतर प्राथमिक विद्यालयों में सार्वभौमिक मूलभूत साक्षरता और संख्या-ज्ञान के लिए राज्य या केंद्रशासित प्रदेश की सरकारें, 2025 तक प्राप्त किए जा सकने वाले चरण-वार कार्यों और लक्ष्यों की पहचान करते हए और उसकी प्रगति की बारीकी से जांच और निगरानी करते हए अविलम्ब एक क्रियान्वयन योजना तैयार करेंगी।”

मध्य प्रदेश में मिशन अंकुर, बिहार में मिशन आधार, गुजरात में प्रिय बालक जैसे फंक्शनल साक्षरता और गणना प्रोग्राम भी ज़ोर-शोर से चल रहे हैं। बस एक बार ये सरकारी स्कूलों के बच्चे साक्षर बन जाएँ, उसके बाद ज़रूरत लगे तो आगे पढ़ें, नहीं तो अपना आठवीं या दसवीं का सर्टिफिकेट लेकर कोई काम सीख लें। आख़िर जितना जल्दी ये काम-धंधा सीखेंगे, उतनी जल्दी देश के काम आएँगे।

 

III बेदख़ल करने की संस्कृति : अधिकतम बच्चों को नहीं मिलते ‘टारगेटेड’ वजीफ़े

स्कूली दिन के तीसरे घंटे में आर्डर आता है कि सभी कक्षा अध्यापिकाएँ जल्द से जल्द अपने बच्चों के खाते चेक करवाएँ कि उनके खातों में विभिन्न ग्रांट और वजीफों के पैसे आए हैं या नहीं। अगले दिन सभी बच्चों को पासबुकअपडेट करवाकर लाने को कहा जाता है। कई कोशिशों के बाद आधे बच्चे पासबुक लाते हैं और आधे बच्चे यह शिकायत करके रह जाते हैं कि बैंक वाले पासबुकअपडेट करने के लिए बार-बार चक्कर लगवा रहे हैं या उनका खाता लॉक हो गया क्योंकि न्यूनतम बैलेंस नहीं बचा था।

शिक्षक आपस में बात करते हैं कि “वैसे भी वजीफ़े कितने ही बच्चों को मिल पाते हैं? न जाने कितने अभिभावक तो कभी जाति प्रमाण पत्र ही नहीं बनवा पाते। जो जाति प्रमाण पत्र बनवा लेते हैं, उनमें से ज़्यादातर के पास आय प्रमाण पत्र नहीं होता। सबसे ग़रीब अभिभावक आय प्रमाण पत्र बनवाने के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ कहाँ से जुटा पाएगा? कहाँ जाएगा बच्चों के हक़ का वो पैसा जो उन्हें नहीं मिलेगा?’

एक शिक्षक ने अपने नगर निगम स्कूल में एडमिशन के दौरान किए गए अध्ययन में पाया कि “2020-21 में हुए दाख़िलों में से 118/472 (25%) अनुसूचित जाति व 158 (33%) पिछड़े वर्ग की पृष्ठभूमियों से थे। यानी, प्रवेश लेने वालों में से लगभग 60% बच्चियाँ इन वर्गों से थीं। वहीं, इनमें से 10% के पास भी जाति प्रमाणपत्र नहीं था।“

एक अन्य विद्यालय पर नज़र डालें तो 2021-22 में कक्षा 9-12 के कुल विद्यार्थियों में 7.5% एससी और 2.5% ओबीसी विद्यार्थी नामांकित थे। क्योंकि इनमें से केवल 9% एससी और 22% ओबीसी पृष्ठभूमि के बच्चे आय प्रमाण पत्र जमा करा पाए इसलिए केवल इन्हें वजीफ़ा मिला। यानी 91% एससी और 78% ओबीसी बच्चों को कोई वजीफ़ा नहीं मिला।दिल्ली के आंकड़ें बताते हैं कि 2021-22 में कक्षा 11-12 के एससी पृष्ठभूमि के 6242 विद्यार्थियों ने पोस्टमैट्रिक वजीफ़े का फॉर्म भरा लेकिन 41% की याचिका ख़ारिज कर दी गई। इसका सबसे बड़ा कारण आय प्रमाण पत्र की कमी थी।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 का भी यही मानना है कि वज़ीफ़े उन्हीं बच्चों को दिए जाने चाहिएँ जो merituous/इनके योग्य हैंजैसाकिबिंदु 6.4 एवं6.16 मेंस्पष्टहोताहै। कभी स्टेशनरी का पैसा पाने के लिए बच्चों के कक्षा परिणाम देखे जाने की शर्त डाल दी जाती है, कभी विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों को वजीफ़ा देने से पहले न्यूनतम उपस्थिति की शर्त डाल दी जाती है और कभी दस्तावेज़ों की सूची बढ़ा दी जाती है। वज़ीफों को लेकर नीति का पक्ष साफ़ है –जनख़र्च से हाथ खींचना।

 

IV विज्ञापन की संस्कृति : गैर बराबरियों को ‘अवसर’ बताकर बेचना

छुट्टी की घंटी बजती है और विद्यार्थी गलियारों के पोस्टर पार करते हुए निकलते हैं:

- “दिल्ली के हैप्पीनेसकरिकुलम (खुशी की पाठ्यचर्या; कक्षा VIII तक) ने लाखों बच्चों को सिखायाखुशरहना”। आख़िर जब बच्चे यह सीख जाएँगे कि ‘कभी शिकायत नहीं करनी चाहिए’ तो खुश ही रहेंगे।जब बच्चे यह सीख जाएँगे कि‘अगर तुम ख़ुश नहीं हो तो यह तुम्हारी कमी है नाकि तुम्हारे समाज कीतोअपनीहालतकेलिएखुदकोहीज़िम्मेदारठहराएँगे

- “एंटरप्रेन्यूरकरिकुलम (निजी धंधे की पाठ्यचर्या; कक्षा IX-XII)दिल्लीकेबच्चोंकोनौकरीलेनेवालानहींनौकरीदेनेवालाबनाएगी”।जबयुवाठेलालगाकर,ऑटोचलाकर, अर्बनक्लैपआदिसेघर-घरजाकरसेवाप्रदानकरके 10-15,000 कमाएंगेतोयहसोचकरखुशहोनासीखेंगेकिकम-से-कमहमकिसीकीनौकरीतोनहींकररहे।नौकरीलेनेवालेबनगएतोसरकारकेसामनेपक्कीनौकरियोंकेलिएआंदोलनखड़ेकरें।

- “दिल्ली के बच्चे देशभक्ति पाठ्यचर्या पढ़कर बनेंगे कट्टर देशभक्त”। क्योंकि ‘मध्यवर्गीय देशभक्ति’ बच्चों को देशसेइतनाप्यारकरनासिखाएगीकिउन्हेंदेशमेंमौजूदगैर-बराबरीजैसीसमस्याएँनज़रहीनआए।जैसेउन्हेंअपनेहीस्कूलों में ठेके पर काम कर रहे गार्ड, सफ़ाई कर्मचारी, शिक्षक और आईटी सिर्फ़भारतीय नज़र आएँगे, परेशान मज़दूर नहीं।

NEP 2020 काबिंदु 4.28 कहताहैबच्चोंकोछोटीउम्रसेही‘सहीकामकरनाऔरनैतिकनिर्णयलेना’सिखायाजाएगा।नीतिकेऐसेकईप्रावधानपाठ्यचर्या को छोटे-छोटे ग़ैर-विषयगतकोर्सों में बाँटकर इसका शिथिलीकरण करनेऔरबिनागहनअकादमिकजाँच-पड़तालकेनितनएकोर्सडालनेकोबढ़ावादेतेहैं।

- “कक्षा 8 पास बच्चे स्कूल्सऑफ़एक्सीलेंस में दाखिले के लिए एंट्रेंसटेस्ट का फॉर्म भरें”। क्योंकि सभी सरकारी स्कूलों में समान ढाँचे और गुणवत्ता वाली शिक्षा देने से काफ़ी सस्ता है कुछ स्कूलों को चमकाकर उनका विज्ञापन करना।