दिल्ली के स्कूलों में शिक्षक होने के नाते हम दिल्ली नगर निगम के चुनावों पर टिप्पणी करने से ख़ुद को रोक नहीं सकते/को बाध्य हैं। स्थानीय निकाय के इन चुनावों में भी हम भारतीय लोकतंत्र की उसी बीमारी के लक्षण देख रहे हैं जिसके बारे में डॉक्टर अंबेडकर ने चेताया था। दो बड़े दलों के इश्तेहार उनके स्थानीय प्रत्याशियों का परिचय नहीं करा रहे, बल्कि अधिनायकवादी केंद्रीय नेता के नाम और चेहरे पर वोट माँग रहे हैं। उधर एक अन्य प्रमुख दल भी अपना नायक खड़ा करने की कोशिश में लगा है। फिर, हमें यह भी बता दिया गया है कि इस लोकतंत्र में इन दलों की नज़र में चुनाव लड़ने के लिए सबसे ज़रूरी क़ाबिलियत धन-दौलत है। सोने पर सुहागा यह है कि इसकी भी कोई गारंटी नहीं है कि हमारा समर्थन जीतने के बाद डर या लालच के चलते हमारा नुमाइंदा दल नहीं बदलेगा। फिर भी, वफ़ादार वेतनभोगी कर्मचारी के रूप में हम न सिर्फ़ लोकतंत्र के इस जश्न का डंका पीटते हैं, बल्कि स्कूलों में विद्यार्थियों को भी इसकी महिमा के गुणगान में दीक्षित करते हैं।
Wednesday, 30 November 2022
निगम चुनाव से नदारद निगम स्कूल के सवाल
Monday, 28 November 2022
दिल्ली के सरकारी विद्यालय का एक दिन और दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार की शिक्षा नीतियाँ
I. बहिष्करण की संस्कृति : सबसे कमज़ोर तबके को बाहर निकालती दाखिले की नीतियाँ
मई – जून, 2022 के महीनों में दिल्ली के सरकारी विद्यालयों में दाखिले चल रहे हैं। कई अभिभावक अपने बच्चे का दाखिला करवाने के लिए, जो कागज़ बन पड़े, सारे लेकर स्कूल आ जाते हैं। अकसर उनके मन में यह डर होता है कि न जाने कौन सा कागज़ कम पड़ जाए और बच्चे को दाखिला देने से मना कर दिया जाए। आख़िर उन्होंने अपने पड़ोस में सुन रखा होता है कि ‘दिल्ली के सरकारी स्कूलों में दाखिला मिलना आसान नहीं है’।
जिनके पास आधार या पते का पक्का कागज़ नहीं होता, वो तो अकसर यह सोचकर स्कूल ही नहीं आते कि बिना आधार के बच्चे को दाखिला नहीं मिलेगा! भले ही कानून कुछ भी कहे, व्यवहार में तो उन्होंने यही देखा होता है!
स्कूल पहुँचने पर एक टीचर– या कभी-कभी दरवाज़े पर खड़े गार्ड ही- पेरेंट्स को यह बता देते हैं कि ‘सरकरी स्कूल में दाखिले के लिए उन्हें खुद ऑनलाइन फॉर्म भरना होगा। उन्हें आता है तो खुद भर लें नहीं तो किसी जानकार की मदद से या पैसे देकर इंटरनेट कैफ़े से फॉर्म भरवा लें’।
अभिभावक हैरान होकर पूछते हैं कि अगर उनका ऐसा कोई रिश्तेदार/पड़ोसी नहीं है, तो वो क्या करें? कैफ़े वाले कितने पैसे लेंगे? विडंबना यह है कि कोई अभिभावक यह नहीं पूछता कि ‘जो अभिभावक ऑनलाइन फॉर्म नहीं भर सकते वो स्कूल में आकर ऑफलाइनफॉर्म क्यों नहीं भर सकते? सारे नियम-कानून उसी को ध्यान में रखकर क्यों बनाए जाते हैं, जिसके पास पहले से ही सब कुछ होता है!
इस दौरान एक अभिभावक आकर कक्षा 10 में दाखिले के बारे में पूछती है। स्कूल बताता है कि दसवीं के फॉर्म तो मई के पहले हफ़्ते में ही ख़त्म हो गए। जिन बच्चों ने फॉर्म भरा था, उनका एंट्रेंसटेस्ट भी हो चुका है। अभिभावक परेशान होकर पूछती हैं ‘मई में तो सत्र लगभग शुरु ही होता है और दसवीं के दाखिले बंद भी हो गए! कृपया कुछ करिए नहीं तो मेरी बेटी का साल बर्बाद हो जाएगा।‘ विडंबना यह है कि कोई अभिभावक यह नहीं पूछती कि ‘जब मेरी बच्ची नौवीं पास है तो टेस्ट किस चीज़ का? 1 हफ़्ते में दाखिले शुरु करके बंद करने का क्या मतलब है?’
और इस तरह शुरु होता है आम इंसान का दिल्ली के सरकारी स्कूलों के जटिल और इलीटिस्ट चरित्र की सच्चाई से रूबरू होने का सफर। जो सरकार घरबंदी और कामबंदी के दौरान निजी विद्यालय छोड़कर आए बच्चों को दाखिला देकर यह विज्ञापन कर रही थी कि “सरकारी स्कूल बने पेरेंट्स की पहली पसंद”, वो गरीबों के बच्चों को दाखिला देने में इतनी आनाकानी क्यों करती है? जो स्कूल यह नहीं जानते कि मज़दूर परिवारों की क्या समस्याएं हैं, वो मज़दूरों के बच्चे की ज़रूरतों को कैसे समझ पाएँगे?
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी हर बच्चे को रेगुलर स्कूल पढ़ाना ज़रूरी नहीं समझती। तभी बिंदु 3.5 में कक्षा 3,5 और 8 में ही बच्चों को ओपन से पढ़ाने की बात कहती है। अभी तक तो सरकार के ऊपर 14 साल तक के हर बच्चे को स्कूली शिक्षा देने का दबाव था। लेकिन नई नीति के बाद वो दबाव भी खत्म हो जाएगा। यह नीति कक्षा 12 तक की रेगुलर स्कूली शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के बजाय कक्षा 10 में ही बच्चों को स्कूल छोड़ने (exit option) का प्रावधान भी देती है (बिंदु 4.2)।
स्कूलों में न तो कक्षा IX-XII के बच्चों के लिए पर्याप्त कमरे हैं और न ही पर्याप्त शिक्षक हैं। फिर भी 2020 में भी इस देश की शिक्षा नीति ने अपने बच्चों को यह गारंटी नहीं दी कि कक्षा 12 तक की शिक्षा को अनिवार्य बनाएँगे, बारहवीं तक हर 30 बच्चों के लिए एक कमरा और शिक्षक देंगे बल्कि यह नीति उन्हें तीसरी, पाँचवी, आठवीं, दसवीं, बारहवीं ओपन से करने में रास्ते सुझाती है।
II. मंदबुद्धि बनाने की संस्कृति : न्यूनतम उद्देश्य बना अधिकतम ; अब सरकारी स्कूल सिर्फ साक्षरता और गणना सिखाने के केंद्र हैं
स्कूल में एडमिशन चार्ज देखने वाली शिक्षिका अपनी कक्षा को पढ़ाना छोड़ एडमिशन के काम करना जारी रखती है। आख़िर सरकारी स्कूल की शिक्षिका स्कूल में ‘सिर्फ़’ पढ़ाने थोड़ा ही आती है। भले ही प्राइवेट स्कूलों में एडमिशनकरने, फ़ीस इकठ्ठा करने, डाटा भरने, बच्चे लाने-ले जाने आदि के लिए प्रशासनिक स्टाफ रखा जाता हो लेकिन सरकारी स्कूलों में अतिरिक्त स्टॉफ रखकर पैसा बर्बाद नहीं किया जाता। इसलिए सभी काम शिक्षकों से ही करवाया जाता है।
अभी स्कूल लगे 1 घंटा ही हुआ होता है कि खबर आती है कि अभी आधे घंटे में भ्रष्टाचार के खिलाफ़ शपथ खाते हुए बच्चों की फोटो भेजो और दो घंटे में प्लास्टिक के उपयोग के खिलाफ़ बच्चों से पोस्टर बनवाकर फोटो और रिपोर्ट भेजो। शिक्षक तुरंत आकाओं के आदेश पालन में लग जाते हैं। कुछ बच्चे भी मदद करने में लगा लिए जाते हैं। पूरे स्कूल में (रोज़ की तरह) आपाधापी मच जाती है। शिक्षक लगे रहते हैं और बच्चे अपनी कक्षाओं में बैठकर समय काटते हैं।
बचे हुए समय में पढ़ाई भी होती है। पिछले चार सालों से सरकारी विद्यालयों में कक्षा 3-9 के लिए पढ़ाई का मतलब “मिशन बुनियाद” है। मिशन बुनियाद का मतलब है कक्षा 3-9 के बच्चों को सिर्फ धाराप्रवाह हिंदी पढ़ना और जमा-भाग सिखाना।
दसियों साल की कोशिशों के बाद दिल्ली सरकार को एनजीओज़ का यह ज्ञान समझ आ गया कि “सरकारी स्कूलों के बच्चों को हिंदी पढ़ना और जमा-घटा करना नहीं आता इसलिए उनकी कक्षा की पढ़ाई बंद करो और सिर्फ साक्षरता और जमा-घटा सिखाओ। क्योंकि बच्चों को ढंग से हिंदी पढ़नी-लिखनी नहीं आती इसलिए इन बच्चों को बढ़िया कहानियाँ पढ़ाना, विज्ञान-इतिहास-भूगोल की बातें सिखाना बेकार है। इन्हें दिन-रात सिर्फ़ साक्षर बनाओ।
क्योंकि ये एनसीआरटी किताबें पढ़ने के लायक नहीं है इसलिए इनके लिए हम अलग किताबें तैयार करके आपको देंगे। हम इन्हें इतनी आसान कहानियाँपढ़ाएँगे कि इनके दिमाग़ पर कोई ज़ोर ही न पड़े। ऐसी कहानियाँ जिनमें न हाव-भाव होगा, न लॉजिक; न सच्चाई से जुड़ाव होगा, न कल्पना की उड़ान; न सर्वनाम निकलते होंगे, न कहानी का कोई मतलब निकलता होगा। आख़िर इन सब गुणों से भरी किताबें न बच्चे समझ पाते हैं और न शिक्षक समझा पाते हैं।“
मेंटर शिक्षक कक्षाओं में बैठकर जाँच कर रहे हैं कि मिशन बुनियाद में कहीं कोई शिक्षक अपने ढंग से तो नहीं पढ़ा रहा, जितना कहा गया है उससे ज़्यादा तो नहीं पढ़ा रहा, कक्षा की किताब से तो नहीं पढ़ा रहा। एक शिक्षक यह पूछना चाहती है पर पूछ नहीं पाती कि “बीएड में तो हम यह पढ़ते थे कि अच्छी विषयवस्तु बच्चों को ऊपर उठने में मदद करती है, यहाँ तो पूरी पढ़ाई ही नीचे आ गई है। क्या बढ़िया विषय-वस्तु के बिना बढ़िया शिक्षा की नींव रखी जा सकती है? सरकार ने कभी इतनी ताकत और निरीक्षण कक्षानुसार पढ़ाई करवाने में क्यों नहीं लगाया जितना इस साक्षरता प्रोग्राम में लगा रही है?
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 का तो मिशन ही देशभर के स्कूलों को शिक्षा के बजाय साक्षरता केंद्र बनाना है। नीति का बिंदु 2.2 कहता है, “शिक्षा प्रणाली की सर्वोच्च प्राथमिकता 2025 तक प्राथमिक विद्यालय में सार्वभौमिक मूलभूत साक्षरता और संख्या-ज्ञान प्राप्त करना होगा.. सभी प्राथमिक और उच्चतर प्राथमिक विद्यालयों में सार्वभौमिक मूलभूत साक्षरता और संख्या-ज्ञान के लिए राज्य या केंद्रशासित प्रदेश की सरकारें, 2025 तक प्राप्त किए जा सकने वाले चरण-वार कार्यों और लक्ष्यों की पहचान करते हए और उसकी प्रगति की बारीकी से जांच और निगरानी करते हए अविलम्ब एक क्रियान्वयन योजना तैयार करेंगी।”
मध्य प्रदेश में मिशन अंकुर, बिहार में मिशन आधार, गुजरात में प्रिय बालक जैसे फंक्शनल साक्षरता और गणना प्रोग्राम भी ज़ोर-शोर से चल रहे हैं। बस एक बार ये सरकारी स्कूलों के बच्चे साक्षर बन जाएँ, उसके बाद ज़रूरत लगे तो आगे पढ़ें, नहीं तो अपना आठवीं या दसवीं का सर्टिफिकेट लेकर कोई काम सीख लें। आख़िर जितना जल्दी ये काम-धंधा सीखेंगे, उतनी जल्दी देश के काम आएँगे।
III बेदख़ल करने की संस्कृति : अधिकतम बच्चों को नहीं मिलते ‘टारगेटेड’ वजीफ़े
स्कूली दिन के तीसरे घंटे में आर्डर आता है कि सभी कक्षा अध्यापिकाएँ जल्द से जल्द अपने बच्चों के खाते चेक करवाएँ कि उनके खातों में विभिन्न ग्रांट और वजीफों के पैसे आए हैं या नहीं। अगले दिन सभी बच्चों को पासबुकअपडेट करवाकर लाने को कहा जाता है। कई कोशिशों के बाद आधे बच्चे पासबुक लाते हैं और आधे बच्चे यह शिकायत करके रह जाते हैं कि बैंक वाले पासबुकअपडेट करने के लिए बार-बार चक्कर लगवा रहे हैं या उनका खाता लॉक हो गया क्योंकि न्यूनतम बैलेंस नहीं बचा था।
शिक्षक आपस में बात करते हैं कि “वैसे भी वजीफ़े कितने ही बच्चों को मिल पाते हैं? न जाने कितने अभिभावक तो कभी जाति प्रमाण पत्र ही नहीं बनवा पाते। जो जाति प्रमाण पत्र बनवा लेते हैं, उनमें से ज़्यादातर के पास आय प्रमाण पत्र नहीं होता। सबसे ग़रीब अभिभावक आय प्रमाण पत्र बनवाने के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ कहाँ से जुटा पाएगा? कहाँ जाएगा बच्चों के हक़ का वो पैसा जो उन्हें नहीं मिलेगा?’
एक शिक्षक ने अपने नगर निगम स्कूल में एडमिशन के दौरान किए गए अध्ययन में पाया कि “2020-21 में हुए दाख़िलों में से 118/472 (25%) अनुसूचित जाति व 158 (33%) पिछड़े वर्ग की पृष्ठभूमियों से थे। यानी, प्रवेश लेने वालों में से लगभग 60% बच्चियाँ इन वर्गों से थीं। वहीं, इनमें से 10% के पास भी जाति प्रमाणपत्र नहीं था।“
एक अन्य विद्यालय पर नज़र डालें तो 2021-22 में कक्षा 9-12 के कुल विद्यार्थियों में 7.5% एससी और 2.5% ओबीसी विद्यार्थी नामांकित थे। क्योंकि इनमें से केवल 9% एससी और 22% ओबीसी पृष्ठभूमि के बच्चे आय प्रमाण पत्र जमा करा पाए इसलिए केवल इन्हें वजीफ़ा मिला। यानी 91% एससी और 78% ओबीसी बच्चों को कोई वजीफ़ा नहीं मिला।दिल्ली के आंकड़ें बताते हैं कि 2021-22 में कक्षा 11-12 के एससी पृष्ठभूमि के 6242 विद्यार्थियों ने पोस्टमैट्रिक वजीफ़े का फॉर्म भरा लेकिन 41% की याचिका ख़ारिज कर दी गई। इसका सबसे बड़ा कारण आय प्रमाण पत्र की कमी थी।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 का भी यही मानना है कि वज़ीफ़े उन्हीं बच्चों को दिए जाने चाहिएँ जो merituous/इनके योग्य हैंजैसाकिबिंदु 6.4 एवं6.16 मेंस्पष्टहोताहै। कभी स्टेशनरी का पैसा पाने के लिए बच्चों के कक्षा परिणाम देखे जाने की शर्त डाल दी जाती है, कभी विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों को वजीफ़ा देने से पहले न्यूनतम उपस्थिति की शर्त डाल दी जाती है और कभी दस्तावेज़ों की सूची बढ़ा दी जाती है। वज़ीफों को लेकर नीति का पक्ष साफ़ है –जनख़र्च से हाथ खींचना।
IV विज्ञापन की संस्कृति : गैर बराबरियों को ‘अवसर’ बताकर बेचना
छुट्टी की घंटी बजती है और विद्यार्थी गलियारों के पोस्टर पार करते हुए निकलते हैं:
- “दिल्ली के हैप्पीनेसकरिकुलम (खुशी की पाठ्यचर्या; कक्षा VIII तक) ने लाखों बच्चों को सिखायाखुशरहना”। आख़िर जब बच्चे यह सीख जाएँगे कि ‘कभी शिकायत नहीं करनी चाहिए’ तो खुश ही रहेंगे।जब बच्चे यह सीख जाएँगे कि‘अगर तुम ख़ुश नहीं हो तो यह तुम्हारी कमी है नाकि तुम्हारे समाज की’तोअपनीहालतकेलिएखुदकोहीज़िम्मेदारठहराएँगे।
- “एंटरप्रेन्यूरकरिकुलम (निजी धंधे की पाठ्यचर्या; कक्षा IX-XII)दिल्लीकेबच्चोंकोनौकरीलेनेवालानहींनौकरीदेनेवालाबनाएगी”।जबयुवाठेलालगाकर,ऑटोचलाकर, अर्बनक्लैपआदिसेघर-घरजाकरसेवाप्रदानकरके 10-15,000 कमाएंगेतोयहसोचकरखुशहोनासीखेंगेकिकम-से-कमहमकिसीकीनौकरीतोनहींकररहे।नौकरीलेनेवालेबनगएतोसरकारकेसामनेपक्कीनौकरियोंकेलिएआंदोलनखड़ेकरें।
- “दिल्ली के बच्चे देशभक्ति पाठ्यचर्या पढ़कर बनेंगे कट्टर देशभक्त”। क्योंकि ‘मध्यवर्गीय देशभक्ति’ बच्चों को देशसेइतनाप्यारकरनासिखाएगीकिउन्हेंदेशमेंमौजूदगैर-बराबरीजैसीसमस्याएँनज़रहीनआए।जैसेउन्हेंअपनेहीस्कूलों में ठेके पर काम कर रहे गार्ड, सफ़ाई कर्मचारी, शिक्षक और आईटी सिर्फ़भारतीय नज़र आएँगे, परेशान मज़दूर नहीं।
NEP 2020 काबिंदु 4.28 कहताहैबच्चोंकोछोटीउम्रसेही‘सहीकामकरनाऔरनैतिकनिर्णयलेना’सिखायाजाएगा।नीतिकेऐसेकईप्रावधानपाठ्यचर्या को छोटे-छोटे ग़ैर-विषयगतकोर्सों में बाँटकर इसका शिथिलीकरण करनेऔरबिनागहनअकादमिकजाँच-पड़तालकेनितनएकोर्सडालनेकोबढ़ावादेतेहैं।
- “कक्षा 8 पास बच्चे स्कूल्सऑफ़एक्सीलेंस में दाखिले के लिए एंट्रेंसटेस्ट का फॉर्म भरें”। क्योंकि सभी सरकारी स्कूलों में समान ढाँचे और गुणवत्ता वाली शिक्षा देने से काफ़ी सस्ता है कुछ स्कूलों को चमकाकर उनका विज्ञापन करना।