Thursday, 5 October 2023

स्कूलों में नफ़रत और हिंसा के बढ़ते माहौल के बीच हम शिक्षकों को अपनी भूमिका तय करनी होगी


 आम मेहनतकश आबादी के लिए हमारे देश की सत्तोन्मुखी व मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था हमेशा से ही भेदभावपूर्ण व हिंसक रही है। एकलव्य के वर्णाधारित बहिष्करण के दृष्टान्त से लेकर सावित्रीबाई फुले के क्रांतिकारी प्रयासों के विरोध तक, शिक्षा व 'शिक्षक समुदाय' के इस हिस्से ने प्रगति और मानव मुक्ति का साथ नहीं दिया है, बल्कि दमन तथा अन्याय को क़ायम रखने की भूमिका निभाई है। दूसरी तरफ, बौद्ध, चार्वाक दर्शनों से लेकर जाति-व्यवस्था की मान्यताओं को नकारते मध्ययुगीन भक्ति-सूफी-संतों के आंदोलन और उसके बाद दमित-शोषित वर्गों की मुक्ति को समर्पित आधुनिक भारत के अनगिनत आंदोलनों तक, हमारे पास इस संकीर्ण 'शिक्षा' व्यवस्था को चुनौती देने का भी एक गौरवशाली इतिहास तथा समृद्ध परंपरा है। भले ही हम गुरु की महिमा के कितने दोहे पढ़-पढ़ा लें, दैनिक सभा में गुरुओं के सम्मान के भक्तिगीत शामिल कर लें और विद्यार्थियों व समाज के सामने अपनी ही तारीफ़ को नैतिकता का पैमाना बनाकर पेश करें, हक़ीक़त तो यह है कि इस देश में शिक्षकों के बड़े वर्ग की आदत, संस्कार और प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से कमज़ोर की शिक्षा से बेदखली, शिक्षा में असमानता और अन्याय के पक्ष में रही हैं। पिछले कुछ समय से शिक्षा जगत में जिस तरह की प्रत्यक्ष-परोक्ष संकीणर्ता तथा हिंसा की घटनाएँ सामने आई हैं उन्हें इसी कड़ी में देखते हुए भी उनके नए स्तर व रूप को पहचानने की ज़रूरत है। हमें तय करना होगा कि हमें क्या भूमिका निभानी है - शिक्षा को संकीर्णता, अवैज्ञानिक विचारों तथा दमन-उत्पीड़न के औज़ार की तरह इस्तेमाल करने की या मानव मुक्ति, न्याय व समानता के पक्ष में खड़ा करने की?

 इस देश में शायद ही कोई दिन बीतता हो जिसमें सामाजिक स्तर पर दलित उत्पीड़न का क्रूर अपराध सामने न आता हो। शिक्षा संस्थानों में भी दलित व महिला-विरोधी पूर्वाग्रहों व घृणा से उपजने वाला भेदभाव व हिंसा एक ऐसा सामान्य अनुभव है जिसे अकसर क़ानून व मुख्यधारा का मीडिया दर्ज ही नहीं करता है। मिड-डे-मील बनाने व परोसने को लेकर दलित महिला कर्मी के खिलाफ स्थानीय दबंग जाति से जुड़े लोगों द्वारा उकसाने पर बच्चों का भोजन लेने से इंकार (उत्तराखंड, तमिल नाडु), ख़ास वर्ग के शिक्षकों के लिए रखे गए मटके से पानी पीने पर दलित छात्र की पिटाई व उससे होने वाली मौत (राजस्थान), जातिगत अहंकार व दबंगई के चलते छात्रों द्वारा दलित भाई-बहन के घर पर घुसकर हमला (तमिलनाडु), तथाकथित उच्च-जाति के शिक्षक की मोटर साइकल छूने पर दलित छात्र की पिटाई (उत्तर-प्रदेश), उच्च-शिक्षा के श्रेष्ठतम संस्थानों में वंचित वर्गों के छात्र-छात्राओं की नियमित 'आत्महत्याएँ' आदि हिंसा के तमाम ऐसे सबूत हैं जो दबाए नहीं दबते और जिनका कड़ा प्रतिरोध भी होता है। इनके अलावा वज़ीफ़ों की कटौती, फ़ीस की बढ़ोतरी, नियुक्तियों में सामाजिक न्याय के प्रावधानों की अवहेलना जैसे अन्य नीतिगत प्रहारों की भी लंबी सूची है। 

 

ऐसा नहीं है कि जातिगत भेदभाव व दमन हमारी आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में कोई अकेला विकार रहा है। शिक्षा संस्थानों व शिक्षकों के एक बड़े वर्ग के बीच जातिगत हिंसा के साथ साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह तथा भेदभाव सामान्य संस्कृति के अभिन्न अंगों की तरह रहते आए हैं। फ़र्क़ यह है कि इससे पहले राजकीय मशीनरी ने इतना खुलकर साम्प्रदायिक घृणा को प्रोत्साहित नहीं किया था। अब मुख्यधारा सहित सोशल मीडिया के सघन दुष्प्रचारी अजेंडा की बदौलत भारतीय समाज का कोई पहलू साम्प्रदायिक ज़हर से अछूता नहीं रह गया है। राजनीति व मीडिया के इस तालमेल से अकादमिक स्तर व सभ्य व्यवहार में बहुत गिरावट आई है। ऐसा नहीं है कि पहले स्कूलों में शिक्षकों द्वारा बच्चों के साथ प्रत्यक्ष सांप्रदायिक भेदभाव की घटनाएँ नहीं घटती थीं, लेकिन अब ऐसी घटनाएँ तेज़ी से बढ़ रही हैं और ख़तरनाक रूप से सामान्य होती जा रही हैं। इसका कारण हवाओं में घुला हुआ है। पिछले कुछ सालों में मुसलमानों के रहन-सहन, खान-पान, पहनावे, त्यौहारों, इबादत करने के तरीके, व्यवसायों, राजनीतिक माँगों आदि के खिलाफ़ लगातार इतनी ग़लतफहमियाँ पैदा की गयी हैं कि आपसी रिश्ते तेज़ी से बिगड़ रहे हैं। यह कतई अपने-आप नहीं हुआ है। फिल्मों से लेकर टीवी प्रसारणों और व्हाट्सऐप संदेशों के माध्यम से, लगातार व सुनियोजित ढंग से भारत की पहली सबसे बड़ी सामुदायिक आबादी (हिंदुओं) के दिमाग़ में यह बिठलाया जा रहा है कि उसकी सबसे बड़ी दुश्मन ग़रीबी, बेरोज़गारी, महंगी शिक्षा, चिकित्सा, प्रदूषित पानी-हवा नहीं है, बल्कि भारत की दूसरी सबसे बड़ी सामुदायिक आबादी (मुसलमान) है। इस संदर्भ में स्कूल पूर्वाग्रह व घृणा के इस तनावपूर्ण माहौल से अछूते नहीं रह सकते। शिक्षकों का एक हिस्सा भी इसी प्रोपेगेंडा का शिकार होता जा रहा है। आज शिक्षकों का एक वर्ग विद्यार्थियों के प्रति समान व्यवहार रखने की मर्यादा बरतना तो दूर, ख़ुद विद्यार्थियों में इस नफ़रती तथा हिंसक भाव को खुलकर प्रेषित कर रहा है।  

पिछले वर्ष दिसंबर में मनिपाल विश्वविद्यालय के एक मुस्लिम छात्र द्वारा अपने शिक्षक की एक फूहड़ व साम्प्रदायिक टिप्पणी के खिलाफ उसी वक़्त कक्षा में ही अपनी शिकायत दर्ज करने का वीडियो सामने आया था। उस कक्षा के अन्य विद्यार्थी खामोश थे। कुछ साल पहले दिल्ली के वज़ीराबाद इलाक़े के एक निगम स्कूल में धार्मिक आधार पर छात्रों के अलग-अलग सेक्शंस बनाने की खबर आई थी। मीडिया में आने के बाद इसकी कड़ी आलोचना और प्रशासनिक शिकायत हुई तो स्कूल के स्तर पर यह दलील सामने आई कि ऐसा छात्रों के बीच लड़ाई-झगड़ा रोकने के लिए किया गया था। 2020 में दिल्ली के उत्तर-पूर्व के क्षेत्र में हुई साम्प्रदायिक हिंसा में स्कूली छात्रों द्वारा उपद्रवी भीड़ का हिस्सा बनने और धार्मिक स्थलों को निशाना बनाने की चिंताजनक खबरें/फ़ोटो सामने आई थीं। हाल ही में दिल्ली सरकार के एक स्कूल की शिक्षिका द्वारा कक्षा में पूर्वाग्रहों से ग्रसित तथा मुसलमानों के विरुद्ध नफरत फैलाने वाली टिप्पणियाँ करने की शिकायत आई। पुलिस द्वारा केस दर्ज किया गया है, लेकिन प्रशासन ने शिक्षिका तो क्या, विद्यार्थियों तक की काउन्सलिंग करने जैसा भी कोई क़दम नहीं उठाया है। सुनने में आया कि शिक्षिका की अभद्र टिप्पणियों के दौरान बाक़ी विद्यार्थी ताली बजा रहे थे। उधर जम्मू के कठुआ के एक सरकारी स्कूल में एक शिक्षक व प्रिंसिपल द्वारा एक छात्र को ब्लैकबोर्ड पर 'जय श्रीराम' लिखने पर पीटने की खबर आई। शिक्षकों को निलंबित कर दिया गया और पुलिस ने हिरासत में भी ले लिया। उत्तर-प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर के एक निजी स्कूल में एक शिक्षिका द्वारा एक मुस्लिम छात्र को कक्षा के अन्य छात्रों द्वारा सबक स्वरूप पिटवाये जाने की घटना की निंदा होने पर शिक्षिका व उनकी जातिगत पृष्ठभूमि के कुछ स्थानीय लोगों ने इसका बचाव यह कहकर भी किया कि शारीरिक दंड उनके इलाक़े का आम चलन है और उनके संस्कारों का हिस्सा है। पुलिस ने पीड़ित परिवार पर समझौता करने का दबाव बनाया मगर अंततः शिक्षिका के खिलाफ असंज्ञेय धाराओं में शिकायत दर्ज की गई, जिसके बाद से मीडिया में उनके कई साक्षात्कार आ चुके हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में पुलिस द्वारा दर्ज की गयी एफआईआर से असंतुष्टि जताई है। हाल ही में कर्नाटका के एक सरकारी स्कूल की शिक्षिका ने अपने विद्यार्थियों को डाँटते हुए उनकी धार्मिक पहचान को निशाना बनाया। शिकायत होने पर उनका तबादला कर दिया गया। इन घटनाओं में एक नई चीज़ खतरनाक ढंग से शिक्षा व्यवस्था व कक्षाओं में प्रवेश करती दिखाई दे रही है - छात्र-छात्राओं के बीच बढ़ती दूरियाँ, अविश्वास व बोई जा रही नफरत। कई प्रसंगों में खुद विद्यार्थियों ने जातिगत विभेद व साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों से रची हिंसा में हिस्सा/मज़ा लिया है या अपने सहपाठियों के खिलाफ हुई इस हिंसा को मौन गवाही (स्वीकृति) दी है। ज़ाहिर है कि यह एक परिणाम है जिसका दोष उन पर नहीं डाला जा सकता।ऐसा सभी तरह के स्कूलों में हो रहा है - सस्ते निजी स्कूल, राज्य सरकारों द्वारा संचालित स्कूल, केंद्र सरकार के जवाहर नवोदय जैसे विशिष्ट स्कूल आदि। अति-विशिष्ट निजी स्कूल इस प्रत्यक्ष हिंसा का अपवाद लग सकते हैं, मगर सिर्फ़ इसलिए कि वंचित वर्गों व मुस्लिम पृष्ठभूमि के बच्चे पहले-से ही उनसे बेदखल हैं। हालाँकि, 12 शहरों में 145 बच्चों व उनके अभिभावकों से की गई बातचीत पर आधारित नाज़िया इरम की 'मदरिंग अ मुस्लिम' किताब वो खामोश सच सामने लाती है जिसपर बात करने से हम हिचकते हैं - कि तथाकथित एलिट निजी प्रगतिशील स्कूलों में भी बच्चों-बच्चियों द्वारा पहचान-आधारित बुलींग (धमकी-प्रताड़ना) झेलना आम बात है। 
 लेकिन भारत का मीडिया स्थायी वैमनस्य का ऐसा माहौल क्यों रच रहा है और सरकार उसे रोक क्यों नहीं रही? सच यह है कि सांप्रदायिक संगठन तभी अपना फन फैला पाते हैं जब राज्य-पुलिस की ताकत उनके साथ हो। ब्रिटिश भारत में भी यही हुआ था। ब्रिटिश हुकूमत ने एक तरफ़ भारतीय जनता में पनप रहे जनवादी, मज़दूर-किसान आंदोलनों की ज़मीन कमज़ोर करने के लिए और दूसरी तरफ़ राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की ताक़त कमज़ोर करने की नीयत से प्रमुख समुदायों के दक्षिणपंथी संगठनों के उभार को प्रेरित किया। 'फूट डालो और राज करो' सिर्फ़ ब्रिटिश हुकूमत का सिद्धांत नहीं था, बल्कि यह हर दमनकारी और अलोकतांत्रिक सत्ता का सनातन औज़ार है। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं जब राजसत्ता ने जनता को परस्पर विरोधी समुदायों में बांटकर उनके वैमनस्यकारी संगठनों को प्रश्रय दिया और खुद को कानूनी वैधता प्रदान की।
 इतिहास के सबक़, आज का संदर्भ और हमारी भूमिका 
 दुनिया भर में औपचारिक/राजकीय शिक्षा व्यवस्था असमानता को पुनरुत्पादित करती आयी है। पूर्व-आधुनिक भारत में गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था ने दलितों और महिलाओं को शिक्षा से दूर रखा। नस्लवादी दक्षिण अफ्रीका के बांटू शिक्षा अधिनियम 1952 ने काले मूल के लोगों की पढ़ने की उम्र, पठन सामग्री, प्रति छात्र शिक्षकों की संख्या (PTR), शिक्षकों की गुणवत्ता, उच्च शिक्षा के मौके, फंडिंग आदि के पैमानों को श्वेत बच्चों के लिए तय पैमानों से निम्नतर बनाया। नाज़ी जर्मनी में भी राज्य ने किताबों को बदल दिया, पाठ्यचर्याओं में यहूदी-विरोधी भाव भर दिए, नस्ल के अध्ययन (रेस स्टडीज़) की कक्षाओं में बच्चों को यह सिखाया गया कि जर्मनी की सभी समस्यायों के लिए यहूदी ज़िम्मेदार हैं और उनसे नफ़रत की जानी चाहिए। इसका नतीजा वही हुआ जो सत्ता चाहती थी - न सिर्फ़ जर्मन शिक्षक यहूदियों के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह व घृणा के पाठ पढ़ाते, बल्कि जर्मन बच्चों द्वारा अपने यहूदी सहपाठियों का तिरस्कार करना तथा मज़ाक़ उड़ाना आम हो गया। यह एक पीढ़ी का मॉब लिंचर्स (ख़ूनी भीड़) में बदल जाना था। इसका अंजाम यहूदियों के सामूहिक क़त्लेआम, यातना शिविरों, द्वितीय विश्वयुद्ध तथा अंततः जर्मनी की तबाही में सामने आया। आज हमारी कक्षाओं और स्कूलों में भी वही माहौल बनाया जा रहा है। हम एक डरावने और बेहद ख़तरनाक मुहाने पर खड़े हैं। इस स्थिति का प्रतिकार किए बिना हम इतिहास में आगे नहीं बढ़ सकते।  
 संस्कृति के नाम पर हमारे राजकीय संस्थानों में वर्चस्वशाली समूहों के प्रतीक छाए रहते हैं। राजस्थान उच्च न्यायालय में मनु की मूर्ति सम्मान-सहित स्थापित है। इन प्रतीकों का आधार सांप्रदायिक-जातिगत होता है। ऐसे में, हमारे सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों पर तो और भी निरपेक्ष, उदार और संवेदनशील होने की ज़िम्मेदारी थी। प्रतीक चिन्हों के रूप में स्कूलों में इस सांस्कृतिक भेदभाव के अनेक सबूत दिखाई देते हैं। एक समय तक इनका असर मूक था, लेकिन अब कई स्कूलों के स्टाफ़रूम की चर्चाएँ सीधा टीवी मीडिया की विषैली व तनावपूर्ण बहसों से प्रभावित नज़र आती हैं। एक वर्ग मुफ्त शिक्षा के सीमित अधिकार से लेकर मामूली मिड-डे-मील व घटते वजीफो सहित विद्यार्थियों को दी जानी वाली सहायता के अन्य प्रावधानों तक के प्रति केवल अपनी सैद्धांतिक असहमति नहीं बल्कि हिकारत का भाव तथा तीव्र नफरत व्यक्त करता रहता है। शारीरिक दंड के निषेध के अदालती आदेशों, संविधान द्वारा प्रदत्त सामाजिक न्याय के प्रावधानों और शिक्षा अधिकार अधिनियम के आधे-अधूरे व कमज़ोर वायदों के बावजूद 'अशिक्षित व पिछड़े तबकों' से आने वाले विद्यार्थियों के खिलाफ़ शरीरिक दंड का लम्बा इतिहास रहा है। यह कैसे मुमकिन है कि फिर यही वर्ग वंचित वर्गों के विद्यार्थियों के खिलाफ कोई पूर्वाग्रह व्यक्त न करे या भेदभाव प्रकट न करे! एक तरफ़ हम 'भय बिनु होइ न प्रीति' जैसे कथनों का सहारा लेकर शारीरिक हिंसा को उचित ठहराने की कोशिश करते हैं, तो दूसरी तरफ़ 'पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं' जैसे मुहावरों के आधार पर असमानता व ऊँच-नीच को एक प्राकृतिक नियम के समान स्थापित करते हैं।
 इस ऐतिहासिक संदर्भ में हालिया राजनैतिक-सांस्कृतिक सत्ता ने शिक्षा जगत पर 'करेला, उस पर नीम चढ़ा' का उदाहरण पेश किया है। उभरते हुए नए भारत में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (राशिनी) 2020 के तहत इंडियन नॉलेज सिस्टम (भारतीय ज्ञान प्रणाली) के नाम पर भारतीय ज्ञान के प्रगतिशील पहलुओं को पीछे धकेलकर अवैज्ञानिक तथ्यों व मान्यताओं को महिमामंडित और स्थापित किया जा रहा है। मनुस्मृति जैसे ग्रंथों को अकादमिक आलोचना के तहत नहीं, प्रेरणा के पाठों के रूप में कोर्स में प्रस्तावित किया जा रहा है। शिक्षा को सामाजिक ढाँचे, संस्कृति व राज्य की नीतियों में निहित अलोकतांत्रिक तथा अन्यायपूर्ण तत्वों के प्रति चेतना व आलोचनात्मक नज़रिया विकसित करने से रोकने की कोशिशें हो रही हैं। इसके विपरीत, विभिन्न कोर्सों, कार्यक्रमों द्वारा विद्यार्थियों की चेतना को कुंद करने और उन्हें मूक बनाने की कोशिश की जा रही है।  
 हम जिन स्कूलों में पढ़ाते हैं उनमें भी हमें खतरे के संकेत पहले ही पहचानने होंगे। चाहे वो विद्यार्थियों की साइकलों और व्हाट्सऐप स्टेटसों पर उभर रहे धार्मिक पहचान के मासूम अथवा आक्रामक प्रतीक हों, चाहे उनके द्वारा अपनाए जा रहे पहनावे या शरीर पर धारण निशान हों, हमें उन्हें इस बात के लिए प्रताड़ित करने का कोई हक़ नहीं है। ज़रूरत है उन्हें विश्वास में लेकर इन विषयों पर धैर्यपूर्वक बात करने की। न्याय न हिजाब पहनने वाली छात्रा को स्कूल से बेदखल करने में है और न ही 'जय श्री राम' के नारे लगाने वाले छात्र को दंडित करने में। शिक्षक होने के नाते हमें अपनी कक्षा या स्कूलों में किसी भी भेदभावपूर्ण या पूर्वाग्रहजनित विचार-व्यवहार के विरुद्ध अपना सख़्त ऐतराज़ दर्ज करना होगा। हाँ, विद्यार्थियों के विरुद्ध धार्मिक, जातिगत या पहचान के किसी भी आधार पर भेदभाव करने, पूर्वाग्रहों को संप्रेषित करने व शारीरिक हिंसा अपनाने वाले शिक्षकों को निश्चित ही काउन्सलिंग की ज़रूरत है। भेदभावपूर्ण, पूर्वाग्रहजनित व हिंसात्मक व्यवहार शिक्षकों की पेशागत गरिमा के प्रतिकूल तो है ही, यह संवैधानिक-वैधानिक रूप से भी नाजायज़ है। ऐसा व्यवहार दर्शाने पर ऐसे शिक्षकों का नैतिक साथ नहीं दिया जा सकता है और न ही बचाव किया जा सकता है।

 

चाहे वो ब्रह्मकुमारीज़ व इस्कॉन जैसी धर्म-विशेष संबंधी संस्थाओं को स्कूलों में कार्यक्रम आयोजित करने हेतु प्रवेश देना हो या दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा आयोजित विभिन्न वर्कशॉप के समारोहों में धर्म-सापेक्ष कर्मकांड/तत्वों को शामिल करना हो; हमें इस पक्षपातपूर्ण, असंवैधानिक व शिक्षा-विरोधी नीति का विरोध करके राज्य के पंथनिरपेक्ष मूल्य को बचाना होगा। हमें स्वयं पंथनिरपेक्षता के पाठ और उद्देश्य को ताज़ा करना होगा कि क्यों राज्य का कोई धर्म नहीं होना चाहिए, क्यों धर्म को जनता का निजी मामला रहना चाहिए, क्यों पंथनिरपेक्षता के बिना लोकतंत्र खोखला है।

 हम स्कूलों में 15 अगस्त, 26 जनवरी, संविधान दिवस मनाने के अलावा, डॉ. अंबेडकर-गाँधी-भगत सिंह-सुभाष से जुड़े दिवसों पर इनका नाम लेते हैं, स्तुतिगान करते हैं, शपथ लेते-दिलाते हैं, लेकिन आज़ादी के आंदोलन, संविधान और इन लोगों द्वारा दिए गए कौमी-एकता के तथा इंसानियत की साझी गरिमा को स्थापित करने वाले विचारों को भूल चुके हैं। जिस तरह यौनिकता, यौन शिक्षा और यौन हिंसा जैसे मुद्दों पर समझदारी से बात करने की हमारी कोई तैयारी नहीं है, उसी तरह से हम जातिगत व धार्मिक पूर्वाग्रहों के विषय पर भी या तो नकार की स्थिति में होते हैं या एक डरे हुए मौन की स्थिति में। जबकि हमारे पास भारत के अतीत में रही विविध दार्शनिक व लोक धाराओं से लेकर मध्यकालीन भक्ति-सूफ़ी संतों से होते हुए 1857 की क्रांति में साझी क़ुर्बानियों और आज़ादी के राष्ट्रीय आंदोलन में शहीद उधम सिंह, ख़ुदाई ख़िदमतगार, आज़ाद हिन्द फ़ौज जैसी बेहतरीन विरासत भी मौजूद है। अगर हमें अपनी इस विरासत को सच्चे अर्थों में ज़िंदा रखना है तो हमें स्कूलों को यांत्रिक व अर्थहीन कार्यक्रमों की जकड़न से निकालकर जीवंत, उदार व प्रगतिशील संवाद के स्थल बनाना होगा। तभी हम शिक्षक दुनिया को ख़ूबसूरत और न्यायपूर्ण बनाने की अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा पाएँगे।