Wednesday, 24 April 2024

शिक्षण की कार्य-परिस्थितियों पर शिक्षकों के सर्वे की प्रारंभिक रपट


  हमें पढ़ाने दो!

    
                        हमें पढ़ाना है, हम पढ़ाएँगे 
                                      तुम्हारी सलाख़ों को 
                                      तोड़ते हुए 
                                      तुम्हारे षड्यंत्र को  
                                      नाकाम करते हुए 
                                      गहरे पानी पैठ   

पृष्ठभूमि 
वैसे तो हम शिक्षकों को हमेशा से ही ग़ैर-शैक्षणिक कार्यों के ख़िलाफ़ एक शिकायत रही है, मगर पिछले कुछ वर्षों से हम इस समस्या को एक विकराल रूप लेता देख रहे हैं। इस संदर्भ में प्राथमिक स्कूलों में सहायक स्टाफ़ की न या न के बराबर नियुक्तियाँ, जनगणना, चुनाव व आपदा प्रबंधन जैसे कार्यों में शिक्षकों को अनिवार्य रूप से लगाना, तथा मिड-डे-मील से लेकर वज़ीफ़ों के संबंध में स्कूलों के अंदर की ही तमाम तरह की ज़िम्मेदारियाँ कुछ प्रमुख कारक रहे हैं। 1990 के दशक से ही कॉरपोरेट-संचालित व निजी पूँजी प्रेरित ताक़तों ने सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को निशाना बनाने के लिए लगातार शिक्षकों को बदनाम करने का अभियान चलाया। एनजीओ व पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों द्वारा जारी रपटों के माध्यम से मीडिया व जनता में यह विमर्श फैलाया गया कि सरकारी स्कूल के शिक्षक अवैध रूप से अनुपस्थित रहते हैं और मौजूद रहते भी हैं तो पढ़ाते नहीं हैं। हम शिक्षकों ने भी इस दुष्प्रचार का माक़ूल जवाब नहीं दिया। इस तरह जनता के एक हिस्से में भी सार्वजनिक स्कूलों के शिक्षकों के विरुद्ध एक धारणा बैठ गई। इस तरह के दुष्प्रचार के कई ख़तरनाक परिणाम हुए - शिक्षकों के बहाने से पूरी सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को ही निशाना बनाया गया, अभिभावकों व शिक्षकों के बीच अविश्वास व दूरी बढ़ाई गई, ख़ुद जनता का वो वर्ग जिसके असल हित सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को मज़बूत करने से जुड़े थे, इस व्यवस्था को नाकारा मानकर निजी स्कूल व्यवस्था में ही अपना आसरा ढूँढने लगा, तथा सरकार के लिए भी स्कूली व्यवस्था में निजीकरण की नीति को तेज़ करने का रास्ता आसान हो गया। 

इस बीच 2017 में अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के तहत 6 राज्यों के 619 स्कूलों पर किए गए अध्ययन पर आई शोध रपट ने यह दिखाया कि शिक्षकों की अवैध अनुपस्थिति एक हौवा है, जबकि असलियत में अधिकतर अनुपस्थित शिक्षक या तो छुट्टी पर थे या फिर किसी-न-किसी अधिकृत काम के लिए स्कूल से बाहर भेजे गए थे। यह रपट कहती है, "स्पष्ट रूप से नीतिगत प्रयास इस मुद्दे को हल करने की तरफ रहे हैं पर मुख्यतः उनका नजरिया यह रहा है कि अध्यापकों पर पहले से ज्‍यादा नियंत्रण करके इसे ठीक किया जा सकता है। उदाहरण के लिए अभी हाल ही में, सरकार ने अपने आर्थिक सर्वेक्षण में, अध्यापक अनुपस्थिति की प्रवृत्ति पर लगाम कसने के लिए बायोमेट्रिक प्रणाली का सुझाव दिया। (भारत सरकार 2017)।" इसमें आगे कहा गया है, "हमने इस बात के साथ अपना निष्कर्ष रखा है कि उन बातों के लिए अध्यापकों पर उँगली उठाना और दोषारोपण करना, जो कि उनके नियंत्रण से परे हैं या व्यवस्थागत मसले का परिणाम हैं, नुकसानदायक है और सरकारी स्कूली प्रणाली पर यह विपरीत प्रभाव डालता है।" (https://azimpremjiuniversity.edu.in/field-studies-in-education/teacher-absenteeism-2017इसी दौरान 2018 में दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने सीपीआर (सेंटर फ़ॉर पॉलिसी रिसर्च) नामक संस्था के साथ मिलकर दिल्ली के सरकारी स्कूल के शिक्षकों के समय वितरण को लेकर एक अध्ययन कराया। इस अध्ययन में शिक्षा निदेशालय के 12 व नगर निगम के 24 स्कूलों सहित कुल 39 स्कूलों के कुल 200 शिक्षकों के साक्षात्कार लिए गए थे। जनवरी 2019 में 'रिपोर्ट ऑन टाइम अलोकेशन ऐंड वर्क परसेप्शन ऑफ़ टीचर्स' शीर्षक से जारी यह रपट भी इस निष्कर्ष पर पहुँची कि शिक्षक कई ज़िम्मेदारियों में उलझे हुए थे जोकि उन्हें शिक्षण के उनके प्रमुख दायित्व से विमुख कर रहा था। रपट के प्रथम अध्याय की शुरुआत में उद्धृत शिक्षकों के इन कथनों से हम आज और ज़्यादा जुड़ाव महसूस कर सकते हैं - "अपने विद्यार्थियों को पूरा समय न दे पाने की स्थिति के चलते मैं असहाय और दोषी महसूस करता/करती हूँ.... मैं सोचती/सोचता हूँ कि मुझे ये वेतन किस काम के लिए मिल रहा है।" "अधिकतर समय मुझे लगता है कि मैं एक क्लर्क हूँ।'
 
इस सबके बावजूद शिक्षण को लेकर स्कूलों की परिस्थितियों में कोई सुधार नहीं आया है। उलटे, शिक्षकों की आम बातचीत में ग़ैर-शैक्षणिक कार्यों को लेकर खीझ बढ़ती हुई दिखती है। इसका एक नतीजा शिक्षकों के घटते मनोबल व गिरते उत्साह में भी सामने आया है। समस्या और विकट इसलिए हो जाती है कि इस परिघटना को हम शिक्षक तो देख-समझ रहे हैं, मगर शायद इसे आसानी से न मापा जा सकता है और न ही इस गंभीर मुद्दे पर सार्वजनिक मंचों पर कोई बात हो रही है। 'बर्नआउट' (ऊर्जा/उत्साह के ख़त्म हो जाने की परिघटना) का स्तर यह है कि, भले ही आर्थिक स्थितियाँ इसकी इजाज़त न दें मगर, कई शिक्षकों को समय से पूर्व रिटायरमेंट लेने के विचार पर बात करते सुना जा सकता है। शिक्षकों द्वारा पढ़ाने/नहीं पढ़ा पाने के मुद्दे पर नीतिगत फ़ैसलों और उपायों को देखते हुए 'मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की' वाली कहावत चरितार्थ होती है। ऐसे में लोक शिक्षक मंच ने सीधे शिक्षकों के बीच जाकर शिक्षण के लिए उपलब्ध समय पर उनकी राय जानने के लिए एक सर्वे करने का फ़ैसला किया। इसका एक उद्देश्य शिक्षकों के स्वर को पहचानकर उसे स्पष्ट व सार्वजनिक रूप देना था, तो दूसरा मक़सद दिल्ली से लेकर केंद्र सरकार तक फैले उस प्रचार की (आंतरिक गवाही के ज़रिये) ज़मीनी पड़ताल करना था कि स्कूली शिक्षा में, राज्य सरकार अथवा राष्ट्रीय शिक्षा नीति के चलते, ज़बरदस्त सुधार किए जा रहे/चुके हैं। 

सर्वे: सवाल, समयावधि व सैंपल 
चार संक्षिप्त व सीधे सवालों पर आधारित यह सर्वे ऑनलाइन व ऑफ़लाइन दोनों माध्यमों से नवंबर 2023 से जनवरी 2024 तक किया गया। इस सर्वे में कुल मिलाकर 212 शिक्षकों ने भाग लिया जिनमें से 93 (44%) नगर निगम स्कूलों के व 119 (56%) दिल्ली सरकार के स्कूलों के शिक्षक थे। सर्वे में शामिल शिक्षकों में महिला-पुरुष का अनुपात 90-122 (42%-58%) था। हमने आँकड़ों को दिल्ली सरकार व नगर निगम के शिक्षकों की राय के बीच तुलना के लिए आंशिक रूप से ही इस्तेमाल किया है, क्योंकि दोनों व्यवस्थाओं के शिक्षकों को शामिल करने का मुख्य उद्देश्य दिल्ली के संदर्भ में सर्वेक्षण नमूने (सैंपल) को न्यूनतम प्रातिनिधिक वैधता प्रदान करना था, न कि तुलनात्मक अध्ययन करना। शिक्षकों के कार्यानुभव काल को (20 साल से अधिक के एक तथा उससे कम के काल को 4 बराबर हिस्सों में रखकर) ज़रूर उनकी राय से जुड़े एक कारक के रूप में चिन्हित करने की कोशिश की गई थी, लेकिन, जैसा कि आगे बताया जाएगा, यह सर्वे इस बारे में कोई सुस्पष्ट चलन पकड़ने में असफल रहा। सर्वे में शामिल शिक्षकों का औसत कार्यानुभव लगभग 13 वर्ष था (नगर निगम शिक्षकों का 13.6 व दिल्ली सरकार के शिक्षकों का 12.4 वर्ष)। इस सर्वे की एक सीमा या कमी यह रही कि हमने इन प्रश्नों में यह स्पष्ट नहीं किया कि 'पहले की तुलना में' से हम कितने वर्ष पूर्व की तुलना करने को कह रहे हैं। हम मानते हैं कि यह सर्वे शिक्षकों की बड़ी संख्या पर आधारित नहीं है। कुछ संसाधनों व पहुँच की कमी के चलते और कुछ शिक्षकों की हिचक के कारण, हम ज़्यादा शिक्षकों तक पहुँचने या उन्हें शामिल करने में असमर्थ रहे। इसे हम अपनी नाकामी के तौर पर स्वीकार करते हुए आगे सुधार करने का इरादा रखते हैं।    

आँकड़े व विश्लेषण 
यहाँ हम प्रश्न 1, 2 व 4 से जुड़े आँकड़े रख रहे हैं। इन तीनों प्रश्नों में तीन विकल्प दिए गए थे, जिनमें से एक को चुनना था। पहला सवाल पढ़ाने के लिए उपलब्ध समय को लेकर शिक्षकों के हालिया अनुभव से संबंधित था। उन्हें बताना था कि यह समय पर्याप्त है, अपर्याप्त है या उनके लिए कहना मुश्किल है। दूसरे सवाल में उन्हें अपने शिक्षण में आए बदलाव को लेकर बताना था कि वो पहले के मुक़ाबले ज़्यादा व बेहतर पढ़ा पा रहे हैं, कम समय व कमतर पढ़ा पा रहे हैं या इसमें कोई ख़ास अंतर नहीं आया है। चौथे सवाल में उन्हें पढ़ाई की विषयवस्तु के बारे में बताना था कि उनकी नज़र में यह पहले के मुक़ाबले गहरी हुई है, हल्की हुई है या कोई ख़ास अंतर नहीं आया है। तीसरा प्रश्न वर्णनात्मक था जिसमें उन्हें उपलब्ध समय में महसूस किए गए बदलाव के कारणों को चिन्हित करना था। इस प्रश्न के संदर्भ में दिए गए जवाबों को अंत में रखा गया है। 

प्रश्न 1 
74% शिक्षकों का कहना है कि उन्हें निर्बाध रूप से पढ़ाने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है। 18% शिक्षकों के अनुसार उन्हें पर्याप्त समय मिलता है, जबकि 8% के लिए इस बारे में कहना मुश्किल है। 
निगम शिक्षकों व शिक्षा निदेशालय के शिक्षकों के विशिष्ट संदर्भों में ये आँकड़े क्रमशः 75, 14 व 11, तथा 73, 22 व 5 हैं। ज़ाहिर है कि निर्बाध रूप से पढ़ाने के लिए उपलब्ध समय को लेकर निगम के शिक्षकों का अनुभव निदेशालय के शिक्षकों की तुलना में थोड़ा अधिक नकारात्मक है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि जहाँ निदेशालय की उच्च कक्षाओं के शिक्षकों को कम-ज़्यादा फ़्री पीरियड (उचित ही) मिलते भी हैं, वहीं निगम के प्राथमिक शिक्षकों को क्योंकि सारा समय (उचित ही) अपनी कक्षा के साथ रहना होता है, इसलिए किसी भी अतिरिक्त, ग़ैर-शैक्षणिक कार्य को वे अनिवार्यतः अपने शिक्षण समय की बलि देकर ही अंजाम दे पाते हैं। एक अन्य कारण निगम स्कूलों में सहायक स्टाफ़ की ग़ैर-मौजूदगी या कमी का भी हो सकता है। इसके अलावा, हम अनुमान लगा सकते हैं कि उपलब्ध समय को लेकर निदेशालय के शिक्षकों का, निगम शिक्षकों की तुलना में, आंशिक हद तक अधिक संतुष्ट होने का एक कारण उनकी व्यवस्था में हालिया प्रशासनिक एवं पाठ्यचर्यागत फेरबदल का अधिक लंबे काल से गुज़रना हो सकता है, जिसने उनमें से एक वर्ग की सोच को एक समझौतावादी स्थायित्व की दिशा दे दी हो। ख़ैर, यह अटकल उतना महत्व नहीं रखती है क्योंकि कुल मिलाकर दोनों ही व्यवस्थाओं में न सिर्फ़ असंतुष्ट शिक्षकों का अनुपात लगभग तीन-चौथाई है, बल्कि दोनों में ही संतुष्ट शिक्षक भी एक-चौथाई से अधिक नहीं हैं।                    

प्रश्न 2
64% शिक्षकों के अनुसार वो पहले से कम समय व कमतर पढ़ा पा रहे हैं, 23% पहले से ज़्यादा व बेहतर पढ़ा पा रहे हैं और 13% ने इसमें कोई उल्लेखनीय फ़र्क़ महसूस नहीं किया है।  
निगम व निदेशालय के शिक्षकों के संदर्भ में ये आँकड़े क्रमशः 73, 17 व 10, तथा 57, 28 व 15 हैं। यहाँ भी निदेशालय शिक्षकों की तुलना में निगम शिक्षकों का अनुभव अधिक नकारात्मक है। फिर भी, पहले प्रश्न के जवाबों की तरह यहाँ भी संतोष का स्तर (निदेशालय के शिक्षकों के संदर्भ में) एक-चौथाई ही गया है, जबकि असंतोष उससे दुगने स्तर पर है। यहाँ हम एक विश्लेषण और जोड़ सकते हैं - जोकि ऊपर के प्रश्न से जुड़े आँकड़ों के लिए भी लागू होगा - कि निगम की स्कूली व्यवस्था में शिक्षकों को निदेशालय की व्यवस्था के मुक़ाबले, अनियोजित ही सही, कहीं अधिक स्वायत्ता प्राप्त थी। निगम शिक्षक इसका सकारात्मक इस्तेमाल करने के अभ्यस्त रहे हैं। हालिया बदलावों के चलते उन्होंने इस स्वायत्ता के सिकुड़ते जाने को और स्पष्ट रूप से व शिद्द्त से महसूस किया है। 
हालाँकि इस प्रश्न को पूछने का प्रमुख उद्देश्य पहले प्रश्न से प्राप्त आँकड़ों की एक तरह से पुष्टि करना था (जिसमें हमें कमोबेश कामयाबी भी मिली), लेकिन यह रोचक है कि जहाँ पढ़ाने के लिए उपलब्ध समय को लेकर 74% शिक्षक असंतुष्ट हैं, वहीं अपने द्वारा किए जाने वाले शिक्षण को लेकर यह दर 64% है। इसी तरह, जहाँ उपलब्ध समय को लेकर संतुष्ट शिक्षकों का दर 18% है, अपने शिक्षण के स्तर को लेकर यह दर आश्चर्यजनक रूप से 23% हो जाता है। यानी, कुछ शिक्षक ऐसे हैं जिनका यह मानना तो है कि उन्हें पढ़ाने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है, लेकिन वो यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि उनके शिक्षण पर इसका नकारात्मक असर पड़ा है। एक तरह से वो कह रहे हैं कि उन्होंने अपने शिक्षण पर इसका नकारात्मक असर नहीं पड़ने दिया है। हो सकता है कि बहुत-से शिक्षकों ने इस प्रश्न को तटस्थ रूप से न लेकर निजी रूप से लिया हो, जैसे कि यह उनकी प्रतिबद्धता की पड़ताल कर रहा हो! ख़ैर, यहाँ भी हमें बाल का खाल निकालने की ज़रूरत इसलिए नहीं है क्योंकि अन्यथा आँकड़े स्पष्ट हैं कि लगभग दो-तिहाई शिक्षक यह महसूस करते हैं कि पहले की तुलना में उनके शिक्षण में कमी आई है, जबकि सकारात्मक बदलाव स्वीकार करने वाले शिक्षकों का अनुपात एक-चौथाई से भी कम है

प्रश्न 4
इस सवाल के जवाब में कि पहले की तुलना में पढ़ाई की विषयवस्तु में क्या असर आया है, 61% शिक्षकों का कहना है कि ये कमज़ोर/हल्की हुई है, 20% के अनुसार यह मज़बूत हुई है तथा 19% ने कहा कि इसमें कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं आया है। निगम व निदेशालय के शिक्षकों में ये आँकड़े क्रमशः 59, 14 व 27, तथा 62, 25 व 14 हैं। इसका मतलब है कि निगम शिक्षकों की तुलना में निदेशालय शिक्षकों का ज़्यादा बड़ा हिस्सा पाठ्यक्रम में गहराई आने की बात मानता है। जबकि इस बारे में तटस्थ राय रखने वाले शिक्षकों का अनुपात उल्टा है। यह रोचक है कि विषयवस्तु के गहरा होने और हल्का होने, दोनों ही को लेकर निगम के शिक्षकों की तुलना में निदेशालय के शिक्षकों का अधिक बड़ा हिस्सा सहमति जताता है! इसका कारण पाठ्यक्रम को लेकर निदेशालय में लाए गए बदलावों का लंबा सिलसिला और प्रशासन द्वारा शिक्षकों के एक वर्ग को इनसे जुड़ी अर्ध-प्रशासनिक संरचना में महत्व/भूमिका दिया जाना भी हो सकता है। बहरहाल, कुल मिलाकर, पिछले दो प्रश्नों से जुड़े आँकड़ों की तरह, यहाँ भी रेखांकित करने योग्य तथ्य यही है कि विषयवस्तु के मज़बूत होने की बात जहाँ शिक्षकों का केवल एक-पाँचवाँ हिस्सा स्वीकारता है, वहीं साठ प्रतिशत से ज़्यादा शिक्षक मानते हैं की यह कमज़ोर/हल्की हुई है। 
ध्यान देने की बात यह है कि यह प्रश्न ऊपर के दोनों प्रश्नों से सीधे संबद्ध नहीं है, बल्कि, एक तरह से, स्कूली शिक्षा के एक अन्य नीतिगत एवं बेहद महत्वपूर्ण आयाम को संबोधित करता है। ज़ाहिर है कि अगर विषयवस्तु कमज़ोर होती है, तो शिक्षण के लिए भरपूर वक़्त मिलने पर भी शिक्षक (और विद्यार्थी) क्या हासिल कर लेंगे! (यहाँ हम उन शिक्षकों की बात नहीं कर रहे हैं जो दी गई विषयवस्तु से परे/बाहर जाकर शिक्षण करते हैं।) मगर यहाँ हम देख रहे हैं कि कम-से-कम 60% शिक्षक पढ़ाने के लिए उपलब्ध समय, उनके स्वयं के शिक्षण पर इसके असर तथा विषयवस्तु, तीनों ही पैमानों को लेकर पिछले कुछ वर्षों में आए बदलावों के प्रति नकारात्मक राय रखते हैं। और ऐसा नहीं है कि शेष 40% शिक्षक इस बारे में सकारात्मक राय रखते हों - बल्कि हम कह सकते हैं कि लगभग 10% से 20% तटस्थ हैं, यानी सकारात्मक राय रखने वाले 20% के आसपास हैं। 

बिगड़ते हालात के कारणों की पड़ताल  
प्रश्न तीन का उद्देश्य शिक्षकों की नज़र से उन कारणों की निशानदेही करना था जिन्हें वो अपने अवलोकित बदलाव का ज़िम्मेदार मानते हैं। हालाँकि, जैसा कि ऊपर कहा गया, नकारात्मक राय रखने वाले शिक्षकों में से लगभग 90% ने कारण गिनाने की कोशिश की है, इनमें से ज़्यादातर (लगभग आधों) ने इसे 'अन्य/ग़ैर-शैक्षणिक/क्लेरिकल/विभागीय कार्य' (68 प्रविष्टियाँ) के सामान्य रूप में ही चिन्हित किया है। इसमें अगर 'काग़ज़ी काम' (31), 'डाटा कार्य' (13), 'रपटें भरना' (10), 'रिकॉर्ड' (6), 'अनर्गल कार्य' (6) और 'विभागीय आदेश' (5) जोड़ दें तो ऐसे शिक्षण-अवरोधी कामों का ब्यौरा नकारात्मक राय रखने वाले 80-90% शिक्षकों ने दिया है। इसी पीड़ा को साझा करते हुए यह दर्ज हुआ है कि कैसे कक्षा के बीच में शिक्षण से इन कामों के लिए तलब कर लिया जाना आम बात है। शिक्षण एक मानवीय कर्म है, वहीं इन कामों का स्वरूप बहुधा यांत्रिक होता है। शायद इसी बात की तरफ़ इशारा करते हुए शिक्षण पर पड़ने वाले इनके अवश्यंभावी कुप्रभाव को भी एक अवरोध के रूप में दर्ज किया गया है। 

इसकी अगली कड़ी में 'ऑनलाइन काम' (10), 'ऑनलाइन-ऑफलाइन, दोहरा काम' (10), 'रपट/आँकड़ों/फ़ोटो/वीडियो की तत्काल/आकस्मिक माँग' (9), 'एक ही रपट/डाटा की बारंबार माँग' (3) आदि ऐसे कारण हैं जो डिजिटल प्रशासन की ज़िद को सार्वजनिक स्कूली शिक्षा तथा शिक्षण के लिए घातक साबित करते हैं। यह निष्कर्ष इस बात से और बल पाता है कि पहली श्रेणी में जिन अवरोधों को गिनाया गया है उनका वीभत्स रूप भी शिक्षा में इसी 'डिजिटल नगरी, चौपट राज्य' की देन है। कहाँ तो ख़्वाब दिखाए गए थे कि डिजिटलीकरण से काम आसान हो जाएगा, और कहाँ तो हमारा साँस लेना भी दूभर हो रहा है। स्कूल में शिक्षण की तो छोड़िए, घर तक में आराम-सुकून छिन चुका है। हमें माँग करनी होगी कि छुट्टी में या स्कूल के बाद फ़ोन या मेल पर कोई काम न भेजा जाए और अगर करवाया भी जाए तो इसके लिए हफ़्ते में अधिकतम घंटों की कोई सीमा हो, हर वक़्त तलवार न लटकाई जाए, ओवरटाइम का नियम लागू हो आदि। जो व्यवस्था योजनाबद्ध ढंग से काम न करके या सुविचारित न होकर हमेशा आपातकाल में रहती हो वो हमें भी हमेशा आपातकाल में ही रखेगी। 'अकादमिक कैलेंडर के प्रति अगंभीरता', 'कोई फ़ीडबैक न लेना, बस एकतरफ़ा आदेश जारी करना', 'शिक्षकों की स्वायत्तता छीनना' व 'दबाव, तनाव, मानसिक उत्पीड़न' जैसे तत्वों की आपराधिक भूमिका की शिनाख़्त करते हुए विभिन्न शिक्षकों ने सत्ता के इस ग़ैर-जवाबदेह, अमानुषिक व अलोकतांत्रिक चरित्र की भलीभाँति पहचान की है। 
                                            
प्रशासनिक कारकों के अलावा, शिक्षकों ने उन अवरोधी तत्वों को भी सूचीबद्ध किया है जिनका, विडंबना को चरितार्थ करते हुए, अकादमिक ढोल पीटा जा रहा है - ईएमसी, देशभक्ति पाठ्यचर्या, हैप्पीनेस पाठ्यचर्या (10) (मज़दूर-मेहनतकश, वंचित वर्गों के बच्चों के हितों के विपरीत, उन्हें अपने अधिकारों के प्रति सुप्त बनाने वाले तथा अवास्तविक उपक्रम), गतिविधियाँ (16) तथा सेमिनार/वर्कशॉप/ट्रेनिंग (10)। इनमें (झूठी) शपथों, ग़ैर-शैक्षिक हस्तियों के जबरन दिखाए/सुनाए जाने वाले कार्यक्रमों, नियमित रूप से निर्देशित केंद्रीकृत प्रतियोगिताओं, साल भर निर्देशित होने वाले दिवस/सप्ताह/कार्यक्रम आदि अवरोधों का हवाला देते हुए शिक्षकों ने इस त्रासदी की नब्ज़ पकड़ी है। इन बयानों के अनुसार न केवल ये तथाकथित शैक्षिक उपक्रम असल में विद्यार्थियों को शिक्षा से दूर ले जा रहे हैं, उनके दिमाग़ को खोखला बना रहे हैं, बल्कि उन्हें उस दिखावे की संस्कृति में भी ढाल रहे हैं जिसके विरुद्ध तैयार करना शिक्षा की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए थी! इसी विश्लेषण के निचोड़ में कुछ शिक्षकों ने 'दिखावा/राजनैतिक प्रचार/प्रोपगैंडा' को शिक्षण में अवरोध के लिए ज़िम्मेदार माना है। 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति से उपजा FLN हो या फिर मिशन बुनियाद सरीखा निदेशालय से उपजा कार्यक्रम (जोकि FLN का ही पूर्व-अवतार है), दोनों को ही शिक्षकों ने विद्यार्थियों के विभाजन, समय की बर्बादी, कोर्स के साथ खिलवाड़, थोपे गए मॉड्यूल, शिक्षकों की स्वायत्तता पर हमले आदि के रूप में आरोपित किया है। (कोई हैरानी नहीं कि इन दोनों की प्रेरक शक्ति एक ही है!) इस तरह शिक्षकों ने यह स्थापित किया है कि शिक्षण में उनकी पेशागत स्वायत्तता का सम्मान किए बग़ैर सार्थक शिक्षा की बात करना बेमानी है। इस मूलभूत तथ्य को रेखांकित करते हुए कि विशेषकर छोटी उम्र के बच्चों (तथा बड़ी कक्षाओं में भी किसी भी विषय में सार्थक शिक्षण) के लिए कैसे 30-30 मिनट के पीरियड अनुकूल नहीं हैं, स्कूली दिनचर्या व समय-सारणी में प्रशासनिक हस्तक्षेप को अवरोध के रूप में कटघरे में खड़ा किया गया है। चाहे वो कक्षा की दैनिक योजना व श्रुतलेख जैसी गतिविधि तक को 'ऊपर' से संचालित/नियंत्रित करने का फ़ितूर हो या फिर प्रथम कक्षा में अनर्गल, केंद्रीकृत (वो भी लिखित) परीक्षाएँ आयोजित करने की ज़िद, शिक्षकों ने अपनी कक्षाओं में बढ़ते तानाशाही हस्तक्षेप को शिक्षण के लिए अवरोध का दोषी क़रार दिया है। 

नगर निगम के स्कूलों के कुछ शिक्षकों ने 'सहायक स्टाफ़ की कमी', 'संसाधनों की कमी', कंप्यूटर/आईटी की कमी' जैसे विशिष्ट कारण भी गिनाए हैं। यह रोचक है कि PTR (पीटीआर, छात्र-शिक्षक अनुपात) व 'स्कूली चार्ज' जैसे महत्वपूर्ण व सनातन कारकों को कम ही शिक्षकों (क्रमशः 3 व 6) ने दर्ज किया है। जबकि ये कारक आज भी बहुत-से स्कूलों में विद्यमान हैं, इनकी विस्मृति इस बात का सबूत है कि शिक्षण के लिए आज जो विषम हालात उत्पन्न हुए हैं उनके लिए अन्य, नए विकसित कारण अधिक विकराल रूप से ज़िम्मेदार हैं। ये कारण प्रशासनिक भी हैं, छद्म रूप से अकादमिक भी और नीतिगत भी। शिक्षा मंत्रालय/विभाग के हाथों ही ऐसी त्रासदी का शिकार होने के बाद यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि चुनाव ड्यूटी के नाम पर किसी शिक्षक को महीनों बीएलओ नियुक्त करके स्कूल व शिक्षण से मुक्त कर दिया जा सकता है और स्कूल में रहने पर भी साल भर दूसरे विभागों की स्कीमों/लक्ष्यों (वोटर कार्ड बनवाना, खाते खुलवाना, दवाई/टीकाकरण आदि) को कामयाब करने में व्यस्त रखा जा सकता है। इसे शिक्षकों की शालीनता कहिए या संकोच, इतना सब जानने व शिनाख़्त करने के बावजूद केवल दो शिक्षकों ने 'सरकार' शब्द का इस्तेमाल करते हुए उसकी नीति व नीयत को दोष दिया! 

अंत में 
शिक्षण एक बौद्धिक काम है, इसमें वक़्त और सुकून दोनों की दरकार है। संसाधनों की कमी हमेशा रही है, लेकिन आज संसाधनों के माध्यम भी नीतिगत तरीके से इन्हीं पर चोट पहुँचाई जा रही है। संसाधनों की सार्थक, ज़मीनी कमी बरक़रार है, बल्कि बढ़ी ही है, जबकि चुनिंदा जगहों/अवसरों पर, आकर्षक तरीकों से, संसाधनों को शिक्षा या विद्यार्थियों के हित में नहीं, उनके ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जा रहा है, शायद किन्हीं अन्य स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए। और तुर्रा ये कि इसी नीति का गुणगान किया जा रहा है, ढोल पीटा जा रहा है। ये परिघटना बरबस ही रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी 'तोते की शिक्षा' की याद दिलाती है जिसमें तमाम कृत्रिम उपायों, ख़र्चीले साधनों व दिखावटी प्रपंचों का परिणाम तोते की (शिक्षा की) समाप्ति के रूप में सामने आता है।   
     
हमारे सर्वे से यह बात साफ़ हुई है कि हम शिक्षक उस बीमारी को पहचान रहे हैं जिसने हमारे स्कूलों, हमारी कक्षाओं को जकड़ा हुआ है; हमारे पास उसका निदान भी है। मगर हमने संघर्ष करना छोड़ दिया है और फिर हम संगठित भी नहीं हैं। आज हमारे सामने यही चुनौती है, वर्ना कल शायद बचाने को कुछ न हो।   

                           इंसाफ़ करना तुम्हें भाता नहीं 
                           प्रशासन चलाना तुम्हें आता नहीं
                           संसाधन तुम दोगे नहीं 
                           राय हमारी लोगे नहीं 
                           मगर हम पढ़ाना चाहते हैं 
                           और पढ़ाना जानते भी हैं 
                           हम पढ़ाएँगे 
                           कक्षाओं को जिलाएँगे 
                           तुम्हारे अंधेरों के ख़िलाफ़ 
                           चुँधियाते लुटेरों के ख़िलाफ़


कुछ अन्य नतीजे, रोचक चलन व संकेत 
कार्यानुभव का असर         
सर्वे में एक कमी यह रही कि प्रश्न 2 व 4 के संदर्भ में 'पहले की तुलना' की राय शिक्षकों के कार्यानुभव से निरपेक्ष होकर पूछी गई, जबकि हाल ही में नियुक्त या 5 साल से कम समय से पढ़ा रहे शिक्षकों के लिए ये प्रश्न उतने सार्थक नहीं थे। हालाँकि, यह कहा जा सकता है कि कम-से-कम पहले प्रश्न का जवाब देते हुए इन कम अनुभवी/नव शिक्षकों को दिक़्क़त नहीं हुई होगी। बल्कि, क्योंकि यहाँ उन्हें 'पढ़ाने के लिए पर्याप्त समय की उपलब्धता' पर अपना हालिया अनुभव बताना था इसलिए इस संदर्भ में तो उनकी राय अधिक वस्तुनिष्ठ रही होगी। फिर भी, इस कमी की आंशिक रूप से भरपाई करने के लिए कार्यानुभव के 5 कालों (0-5, 6-10, 11-15, 16-20, 20+) को 3 (0-10, 11-20, 20+) में बदल दिया गया।  
तीनों ही प्रश्नों के संदर्भ में शिक्षकों के कार्यानुभव काल को लेकर कोई ठोस चलन देखने में नहीं आया। अनुमान के विपरीत, शिक्षकों की राय में कोई ऐसा रुझान नहीं मिला जो उनके कार्यानुभव की अवधि से स्पष्ट रूप से प्रभावित हो। यानी, चाहे वो कम अनुभवी शिक्षक हों या ज़्यादा अनुभवी, इन प्रश्नों के संदर्भ में उनकी राय में अधिक फ़र्क़ नहीं है। इसके कारणों का अनुमान ही लगाया जा सकता है - शायद यह शिक्षक वर्ग की शिक्षण के लिए अनुकूल परिस्थितियों को लेकर एक-जैसी अपेक्षा और संकल्पना का परिचायक हो या फिर शिक्षकों के बीच होने वाले दैनन्दिनी संवाद तथा पेशागत घनिष्ठता का सूचक हो। 

विरोधाभास    
हालाँकि, सर्वे के प्रमुख उद्देश्य की दृष्टि से यह अपने-आप में कोई महत्वपूर्ण अवलोकन नहीं है, फिर भी हम कुछ उत्तर-समूहों में उभरे विरोधाभासों को एक रोचक तथ्य के तौर पर साझा कर रहे हैं। 
क) प्रश्न 1 व 2 के बीच: सामान्य तौर पर हम अनुमान लगा सकते हैं कि पढ़ाने के लिए उपलब्ध समय को पर्याप्त बताने वाला शिक्षक अपने शिक्षण के बारे में यह नहीं कहेगा कि वो कम या कमतर पढ़ा पा रहा है (विरोधाभास a) या इसका उसके शिक्षण पर कोई असर नहीं पड़ा है (विरोधाभास b)। इसी तरह, पढ़ाने के लिए उपलब्ध समय को अपर्याप्त बताने वाले शिक्षक से भी सामान्यतः यह अपेक्षा नहीं होगी कि वो पहले से बेहतर/ज़्यादा पढ़ा रहा है (विरोधाभास c) या इसका उसके शिक्षण पर कोई असर नहीं पड़ा है (विरोधाभास d)। लेकिन लगभग 19% (यानी, 5 में से 1) शिक्षकों ने इनमें से कोई-न-कोई विरोधाभास दर्ज किया है। बल्कि, पढ़ाने के लिए उपलब्ध समय को पर्याप्त बताने वाले शिक्षकों में से 26% (यानी, इन 4 में से 1) ने प्रश्न 2 का विरोधाभासी (a या b) जवाब दिया है; वहीं, पढ़ाने के लिए उपलब्ध समय को अपर्याप्त बताने वाले शिक्षकों में से 20% (यानी, इन 5 में से 1) ने प्रश्न 2 का विरोधाभासी (c या d) जवाब दिया है। विरोधाभास c या d को हम इस तरह से समझ सकते हैं कि इन शिक्षकों द्वारा जहाँ पहले प्रश्न (समय की उपलब्धता) को व्यवस्था पर टिप्पणी के रूप में लिया गया है, वहीं दूसरे प्रश्न को स्वयं की प्रतिबद्धता या अपने शिक्षण के मूल्यांकन के तौर पर लिया गया है। यानी, ये कहना चाह रहे हैं, 'समय तो कम है, मगर मैं उतने ही जी-जान से पढ़ा रहा हूँ।' विरोधाभास a या b को समझना ज़्यादा मुश्किल है - आख़िर इसका क्या मतलब है कि आपके पास शिक्षण के लिए समय तो पर्याप्त है मगर आप पहले की तुलना में कम या उतना ही पड़ा रहे हैं? इसके कई अर्थ हो सकते हैं - पहले भी इसी स्तर पर पढ़ाता था (स्तर 'मैंटेन' किया है), अपने शिक्षण के बारे में सकारात्मक राय व्यक्त न करना शिक्षक की विनम्रता है, मात्रात्मक मायने में तो समय उपलब्ध है ('स्कूल तो उतने ही घंटे लग रहा है') मगर असल में नहीं आदि। 
वैसे, दूसरी तरफ़ से देखने पर हम आश्वस्त भी महसूस कर सकते हैं कि लगभग 80% शिक्षकों की राय में आंतरिक सुसंगतता है!
ख) प्रश्न 3 व अन्य प्रश्नों के बीच: प्रश्न 3 में शिक्षकों को पहले दो प्रश्नों में व्यक्त किए गए अनुभवों (बदलावों) के कारणों को दर्ज करना था। ज़ाहिर है कि तटस्थ राय व्यक्त करने वालों से यह अपेक्षा कम होगी कि वो इस बारे में कोई विश्लेषण करें। वहीं, पहले दोनों प्रश्नों को मिलाकर हालिया अनुभव को लेकर सकारात्मक अथवा नकारात्मक राय रखने वाले शिक्षकों से यह लगभग समान रूप से अपेक्षित होगा कि वो अपने अवलोकन की कुछ व्याख्या करें। यह रेखांकित करने योग्य है कि जहाँ सकारात्मक राय रखने वाले शिक्षकों में से आधों ने इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं की है, वहीं नकारात्मक राय रखने वालों में टिप्पणी न करने वालों का दर 10% से भी कम है। इसी तरह, जहाँ नकारात्मक राय रखने वाले शिक्षकों में से लगभग 90% ने अपने अवलोकन को व्याख्यायित करने की कोशिश की है, सकारात्मक राय रखने वाले शिक्षकों में यह दर मात्र 15% है। (इनमें भी 'सब ठीक है', 'समय होता नहीं है, निकालना पड़ता है' व 'विभाग ने संसाधन दिए हैं' जैसे वक्तव्य शामिल हैं।) इसका मतलब है कि जहाँ नकारात्मक राय रखने वाले शिक्षक अपनी बात समझाने के लिए कुछ तथ्य व तर्क रख रहे हैं, वहीं सकारात्मक राय व्यक्त करने वाले शिक्षक अपने समर्थन में ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। इससे भी दोनों पक्षों की विश्वसनीयता की ताक़त का अंदाज़ा होता है। सबसे मज़ेदार बात यह है कि पहले दो प्रश्नों के संदर्भ में सकारात्मक राय व्यक्त करने वाले लगभग 30% शिक्षकों ने प्रश्न 3 के जवाब में कार्य-परिस्थितियों पर नकारात्मक टिप्पणी की है! यानी, एक तरफ़ ये शिक्षक कह रहे हैं कि शिक्षण के लिए पर्याप्त समय उपलब्ध है और वो पढ़ा भी शिद्द्त से रहे हैं, मगर दूसरी तरफ़ वो भी इस बात को दर्ज कर रहे हैं कि ग़ैर-शैक्षणिक काम बढ़ा है आदि। इस गवाही को समग्र तथ्यों के प्रति उनकी निष्ठा कहा जा सकता है या फिर उनके ज़मीर की आवाज़। कुछ भी हो, यह विरोधाभास (सिर्फ़ 'राइट फ़्रॉम द हॉर्से'ज़ माउथ' नहीं, बल्कि 'राइट फ़्रॉम द प्योरब्रेड'ज़ माउथ') चीख़-चीख़ कर कार्य-परिस्थितियों की कड़वी सच्चाई बयाँ कर रहा है।

Sunday, 14 April 2024

Charter of Demands for School Education

 

Lok Shikshak Manch wishes to place the following facts and the associated demands regarding the present and evolving school education system before the political forces participating in the general elections for electing the 18th Lok Sabha. This charter is meant to voice the concerns and interests of the people in general, but especially those working in public schools and those whose children are enrolled in these schools, so as to take forward the idea of and campaign for a robust and equitable fully public funded common school system.

SCHOLARSHIPS AND RIGHTFUL AIDS

Observations and Concerns
1. The total withdrawal of social justice based scholarships at the elementary level is grave injustice to students from marginalised backgrounds. It is ironic that the government justified such a move on the grounds that these are not needed as the RTE Act has already ensured free education till grade 8. This is coupled with an increasing emphasis upon 'merit-based' scholarships, such as the PM Young Achievers' Scholarships. The latter kind are also limited in number and suffer from issues of complicated application process similar to the remaining scholarship schemes.
2. The condition of income certificate for applying for various scholarships is elitist, exclusionary and immersed in corruption, all of which impose additional costs upon parents.
3. Making the application process compulsorily online, that too at the level of the individual student (or her family), is expensive, wasteful, complicated and ultimately discouraging for the applicants.
4. The vast majority of students from the marginalised backgrounds is unable to fulfill the demand for caste certificates and many among those who do have such certificates, having migrated from elsewhere, do not possess these issued from the states they are studying in, in our case, Delhi. 
5. The compulsion of availing scholarships (and students’ all other rightful aids) only through (aadhar seeded) bank accounts denies the rights of many students whose parents are unable to open the accounts of their children for various reasons, ranging from exclusionary and unhelpful policies of banks to the additional costs involved in the process. This is compounded by the huge wastage of parents' and students' precious time and resources spent in long and uncertain queues in aadhar centres, banks or outsourced and unaccountable customer service centres of these banks, many of whom charge illegal and exorbitant fees for the minutest of services. All of this amounts to the tragic irony that families end up spending money and time for what should have been, and used to be till a point of time, available to them, as scholarships were meant to be, free of any prior expenditure on their part.
6. This massive denial, harassment, injustice and even exploitation is made worse by the almost absolute unaccountability about making any data public and the absence of grievance redressal and public audit around this issue. 

Demands
1. Budget allocation for scholarships and other rightful aids to students should be increased in proportion to the overall number and different categories of students.
2. Scholarship amounts and other rightful aids should be pegged with inflation. 
3. Scholarships should be decentralized. 
4. Students and parents should have the option of availing scholarships and other aids in the form of cash, which is the real DBT, instead of having a Bank account based pseudo DBT imposed upon them. 
5. All rightful aids, like uniforms, should be provided in kind rather than in cash. 
6. The social justice character of scholarships should be protected and enhanced by, among other things, easing the caste certificate linked conditions. 
7. Let there be a social audit of all scholarship schemes and rightful aids provided (and denied) to students across grades over the last 10 years. 


CURRICULUM AND PEDAGOGY

Observations and Concerns
1. Curriculum is becoming increasingly centralised and micro-controlled. 
2. Curriculum has been fractured, made ad-hoc and subservient to motivated, casual and urgent/immediate compliance diktats. 
3. Examples include continuous competitions and events directed from all kinds of Ministries, imposition of unending, meaningless, ready-made pledges, enforced and resource-wasteful attendance in academically numbing programs like Pariksha pe Charcha etc.
4. Elements from time-table, modules, worksheets, classroom activities, assessment to class-organisation in terms of students’ groups and seating arrangements, almost all aspects of teaching are being centralised and decisions taken away from the hands of teachers.
5. Decreasing scope for schools and teachers to organise and undertake things on their own, as per their academic concerns and needs, is diminishing their identity and autonomy. Features of school and teaching as essential as games, debates, environmental science etc are losing out in a barrage of bureaucratic diktats. All this has made teachers feel like strangers in their classrooms and alienated from the promise of their profession. Teachers’ and schools’ control over their work is vanishing. Large number of teachers and school heads are going through a loss of agency, morale and facing consequent burnout. Ironically, but not surprisingly, under these circumstances schools and teachers are not in a position to make meaningful and constructive use of what material resources are being provided by bodies like the SCERT and NCERT. The shadow of centralisation, dilution and disruption has come to hang over our schools. 
6. Politically motivated deletions and additions from curriculum are an attack on the objective of inculcating scientific temperament among students. Examples include deletion of Evolution Theory, Industrial Revolution, Understanding Partition etc.
7. The character of vocational courses and their imposition in public schools is designed against the interests of students from working classes and historically marginalised caste backgrounds, and girls. These courses are not only anti-education and anti-labour, but, in fact, exactly contrary to how a truly work-based education should be organised. Instead of equipping students by respecting the principles of equality, freedom and dignity in and of work, the purpose is to push the already disadvantaged away from higher education and turn them into cheap and willing labour for the profiteering stranglehold of the industrial and commercial masters. 

WORKING CONDITIONS IN SCHOOLS – TECHNOLOGY, DIGITALISATION, DATA AND RESOURCES

Observations and Concerns
1. Almost all aspects of school are being digitalised, irrespective of any substantive needs or issues of rights and justice. These include the day-to-day administration, teaching, application processes for admissions and scholarships, reports of curricular/co-curricular events, continuous and often repetitive data-entry etc.
Much of this digital, data supplying work is unfathomable, non-productive and makes huge demands not only on the health and personal time and resources of teachers, but also leads to great loss in the time available to teach. The claim of time-saving and efficiency which was touted in favour of the introduction of digital mode of work, has turned out to be a false promise. Teachers have found their work increasing, if not doubling, without any concomitant help in terms of additional hands for those tasks.
2. This digitally imposed emergency in the working conditions of teachers often compels teachers to take recourse to a studio-like manipulation of images, videos and data, a fakery which is in-built in this mode of administration.
3. Teachers have been put under the indignity of facing CCTV surveillance of their class (which now includes providing live feed to parents' phones), compulsory marking of attendance through biometrics and selfies (on insecure apps) and the humiliation of self-certifying their (and family members') ODF practice.
4. This state of affairs is compounded by the virtual denial by the administration to share information or data, including that demanded under the RTI Act, with the people. We find ‘data, data everywhere, but not for the public to sip!’
5. Researchers and journalists are not allowed access to physically visit institutions or collect facts on ground. Only selective pieces of (mis)information are placed before the public for purposes which suit propagandist interests. 
6. With recruitment always lagging behind, most schools continue to run with a shortage of teaching/non-teaching staff. There is a dire need of not just filling vacant teaching posts but also increasing hiring of teaching staff in accordance with increasing academic and non-academic workload on teachers but also for decreasing Pupil Teacher Ratio in a manner that children from marginalised backgrounds can receive the academic help they require and deserve. 

RIGHT TO EDUCATION 

Observations and Concerns
1. The increasing and obsessive emphasis on ‘outcomes’ has led inevitably to policy measures taken in the name of FLN. These, whether rooted in the globally pushed SDGs or more proximate forces like Pratham and other market-oriented, anti-educational private, corporate bodies, NGOs etc, have caused immense harm to the cause of education and the rights of children, especially those enrolled in public schools, a majority of whom come from deprived backgrounds.
The removal of child-friendly and educationally just clause of No Detention under the RTE Act was, under the policy of outcomes-based FLN, bound to be followed with the removal of the clause of age-appropriate admissions. This has come to pass. 
2. These shifts signify that it is children who, regardless of their socially unjust conditions, have to be ‘school ready’ instead of schools being ready for them. 
On the one hand, children are being admitted in pre-primary grades in schools without required arrangements in terms of space, rooms, toilets, teaching and non-teaching staff etc being made available for them. On the other hand, it is being conveyed to schools that allocation of teachers’ posts will be based not on the legally mandated statistics of PTR, but by the duplicitous concept of average attendance of students! 
3. But even prior to any of this, there is the constant suppression of children’s rights when they are denied admission and end up losing precious years for the crime of not having Aadhaar with Delhi address or for not having bank accounts. Thus, children from vulnerable and migrant family backgrounds are facing an increasing push-out and being left to the ‘open schooling’ system (a system which, in fact, forecloses chances of their further and regular education).
             
CONSOLIDATED DEMANDS (OTHER THAN wrt SCHOLARSHIPS)

1. ‘I can’t teach. I demand the right to teach and the freedom to do so meaningfully and with dignity.’
2. Let all public funded schools flourish on an equal footing in terms of resources and attention. Abolish all inegalitarian layers across and within public schools.
3. Stop digital tyranny in schools and ensure that privacy, dignity and health of students and teachers are not compromised for carrying out of instructions/orders. 
4. Fix an upper limit on the time spent by teachers on school-related, especially digitally communicated and demanded tasks after school hours. Provide digital allowance and overtime for any such tasks. 
5. Provide sufficient time for teachers to reflect, plan for their classes and engage with students.
6. Stop bombarding orders to be implemented on an urgent/immediate basis.
7. Stop using schools to push the agendas, including regressive, divisive and hateful ones, of various ministries.
8. Ensure the ease of doing education, especially for the children from historically marginalised sections, through unconditional admissions in lower grades, and continuous and free access till higher grades. 
9. Extend the right to education till 18 years/12th grade.
10. Guarantee rigour in curriculum and teachers’ pedagogic agency.
11. Reinstitute the no-detention policy and withdraw FLN and all other curricular compromises.
12. Stop direct or surreptitious privatisation of schools through handing over of recruitment of non-teaching personnel to private agencies or elements of the curriculum and training to unaccountable NGOs. 
13. Ensure that there is no shortage of teaching and non-teaching personnel in any school and take account of the growing needs and legitimate leaves by recruiting on a permanent/regular basis 5-10% over and above the extant norms.
14. Stop mindless, wasteful, concrete-obsessed and environmentally disastrous construction of and in schools and ensure that all school campuses are environment friendly, green, accessible and provided with soft grounds, and ample spaces which are open, sunlit and airy.  
15. Withdraw the imposition of anti-working class and anti-education vocational courses in public schools.