Tuesday 5 November 2024

‘अपार’: ‘डाटा पर डाका और शिक्षा पर ताला’ नीति का ताज़ा संस्करण



लोक शिक्षक मंच इस समय देशभर के स्कूलों में तमाम उम्र व श्रेणियों के विद्यार्थियों को 'अपार' नामक डिजिटल पहचान के अंतर्गत लाने के लिए चलाई जा रही प्रक्रिया पर अपनी चिंताएँ व आलोचना साझा कर रहा है। इस संदर्भ में हम अपना पक्ष निम्नलिखित तथ्यों व तर्कों के आधार पर रख रहे हैं।

1. जबकि 'अपार' में विद्यार्थी की निजी जानकारी साझा करने के लिए माता-पिता/अभिभावक द्वारा सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर करने की ज़रूरत से ही यह स्पष्ट होता है कि यह अनिवार्य नहीं है, फिर भी प्रशासन द्वारा स्कूलों, शिक्षकों, विद्यार्थियों व उनके माता-पिता/अभिभावकों तक इसे दबाव बनाकर यह संप्रेषित किया जा रहा है जैसे कि यह अनिवार्य हो। दबाव की इन परिस्थितियों में विद्यार्थियों के माता-पिता को अँधेरे में रखकर या उन्हें विश्वास में न लेकर उनकी सहमति को दर्ज करने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। 

2. वैसे भी, एक आम व्यक्ति के लिए 'अपार' के लिए जारी सहमति-पत्र की भाषा को, चाहे वो अंग्रेज़ी में हो या हिंदी में, समझना आसान नहीं है। ख़ुद शिक्षकों के लिए यह समझना, और फिर विद्यार्थियों के माता-पिता को समझाना, आसान नहीं है कि आख़िर ‘अपार’ में शामिल होने से दाँव पर क्या लग रहा है। डिजिटल पहचान व निजी डाटा-संबंधी विषय होने के नाते, इसके निहितार्थों को समझना उस वर्ग के लिए तो और भी दुरूह है जिसे इस विषय की समझ से वंचित रखा गया है। ऐसे में स्कूलों के माध्यम से करोड़ों बच्चों को ऐसी बारीक, अनजान व निजता के अधिकार का उल्लंघन करने वाली प्रक्रिया के अधीन लाना, विद्यार्थियों के माता-पिता और विद्यालयों व शिक्षकों के बीच के सहज-मासूम विश्वास व भरोसे के रिश्ते का दुरुपयोग करना है।      

3. शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 के तहत तो 8वीं कक्षा तक 'अपार' (या, काग़ज़ी या डिजिटल, किसी भी तरह की पहचान व उसके दस्तावेज़) को वैसे भी अनिवार्य नहीं किया जा सकता है। 

4. बरसों से शिक्षा जगत में यह एक गंभीर विमर्श का पहलू रहा है कि विद्यार्थियों को कक्षाई रोल नंबर व स्कूली प्रवेश संख्या जैसी अंकों की पहचान तक सीमित न किया जाए, बल्कि प्रत्येक बच्चे-बच्ची को उसके संपूर्ण व असीम मानवीय अस्तित्व के साथ बरता जाए। इस संवेदना के विपरीत हम देख यह रहे हैं कि विद्यार्थियों को पहले राजकीय शिक्षा विभाग के पटल पर एक संख्या की पहचान के तहत लाया गया, फिर यू-डाइस (UDISE) में PEN के अधीन लाया गया; और जैसे कि इतना-ही काफ़ी नहीं था, अब उन्हें एक और पहचान-संख्या अपनाने के लिए कहा जा रहा है। ‘आधार’ और बैंक खातों की संख्यात्मक पहचान तो अलग है ही। लगता है कि यह व्यवस्था स्कूली बच्चों को संख्याओं की भावनाशून्य पहचान में ढालकर, उन्हें छोटी उम्र से ही, बिना सवाल- जवाब किए, एक निरंकुश व सर्वव्यापी निगरानी तंत्र के अधीन सौंपने पर आमादा है।  

5. न केवल यह एक अनावश्यक क़दम है, बल्कि हम इसे निजता, स्कूलों-शिक्षकों की कार्यकुशलता, विद्यार्थियों की अपनी निजी जानकारी व दस्तावेज़ों पर नियंत्रण आदि के संदर्भों में घातक समझते हैं। हमारा अनुभव गवाह है कि जैसे-जैसे शिक्षा व्यवस्था में प्रक्रियाएँ व प्रणाली अनिवार्य रूप से डिजिटल की गई हैं, वैसे-वैसे विद्यार्थियों, उनके माता-पिता, शिक्षकों व स्कूलों की मुश्किलें बढ़ी हैं, पारदर्शिता कम हुई है, ग़ैर-शैक्षणिक/अनावश्यक काम बढ़ा है तथा रास्ते जटिल हुए हैं। इस बिना पर हमारी आशंका है कि 'अपार' के आने से शिक्षकों-स्कूलों का ग़ैर-शैक्षणिक काम बढ़ेगा और, विशेषकर वंचित-मेहनतकश वर्गों से आने वाले, विद्यार्थियों व उनके माता-पिता के लिए व्यवस्था को समझना, सामान्य शैक्षिक हक़ों को प्राप्त करना तथा सरल-सहज व ज़रूरी कामों से गुज़रना और भी पेचीदा होता जाएगा। 

6. 'अपार' के लिए 'आधार' के अलावा मोबाइल नंबर व माता तथा पिता, दोनों के नामों को अनिवार्य किया गया है। 'आधार' अधिनियम के अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय के कई फ़ैसलों में यह स्पष्ट किया गया है कि 'आधार' सब्सिडी के लिए ही अनिवार्य है, संसद या संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार (जिसमें 14 साल तक के बच्चों के लिए 8वीं कक्षा तक की शिक्षा शामिल है) की प्राप्ति के लिए नहीं। भारत में न कोई क़ानून मोबाइल फ़ोन रखना अनिवार्य करता है और न ही राज्य स्तर पर ऐसा कोई आँकड़ा उपलब्ध है जो साबित करता हो कि देश के 100 प्रतिशत परिवार अब एक सुचारु मोबाइल फ़ोन रखते हैं। इसी तरह, विभिन्न फ़ैसलों में संवैधानिक न्यायालय यह आदेश कई बार जारी कर चुके हैं कि विशेषकर एकल माँ के बच्चों के दस्तावेज़ों में पिता का नाम अनिवार्य नहीं किया जा सकता है। इन तीनों संदर्भों में 'अपार' के लिए इन जानकारियों को अनिवार्य करना अनुचित है एवं तब तक ही स्वीकार्य हो सकता है जब तक कि 'अपार' स्वयं वैकल्पिक/ऐच्छिक है। 

7. सहमति पत्र में यह तो लिखा है कि 'अपार' की अनुमति वापस ली जा सकती है (जिससे भी यह साफ़ होता है कि कम-से-कम वैधानिक रूप से या उसूलन यह अनिवार्य नहीं है), लेकिन इसका कोई उल्लेख नहीं किया गया है कि अनुमति वापस लेने की प्रक्रिया क्या होगी। बहुत मुमकिन है कि या तो अभी तक इसे निर्मित ही न किया गया हो या इसे इतना जटिल रखा जाए कि ज़्यादातर लोग, यह समझ न पाने की स्थिति में कि क्या और कैसे करना है, थक-हार कर बैठ जाएँ। कुल मिलाकर, इससे ‘अपार’ की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आती है।

8. जब हम यह पढ़ते हैं कि 'अपार' में दर्ज तमाम सूचनाओं का अन्य पटलों पर दर्ज सूचनाओं से मेल होने व उसके 'अपडेटेड' होने की ज़िम्मेदारी माता-पिता, स्कूल व शिक्षक की है, तब हमारी यह आशंका स्वाभाविक हो जाती है कि आने वाले समय में 'अपार' में नामांकन व इसकी पहचान संख्या को प्रवेश से लेकर परिणाम तथा वज़ीफ़ों, यानी कि विद्यार्थियों के सभी ज़रूरी हक़ों के लिए अनिवार्य बना दिया जाएगा। इससे 'आधार' वाली वो त्रासदी फिर दोहराई जाएगी जिसमें लाखों बच्चों को प्रवेश से मना कर दिया गया व उनके शैक्षिक वर्ष सिर्फ़ इसलिए बर्बाद कर दिए गए कि उनके पास यह पहचान नहीं थी या बायो-मेट्रिक मशीन उनकी आँखों या उँगलियों की छाप लेने में सक्षम नहीं थी या उसमें दर्ज कोई जानकारी कहीं और दर्ज या माँगी जा रही जानकारी से हू-ब-हू मेल नहीं खाती थी। ऐसे में जबकि ‘आधार’ की शर्त के कारण लाखों बच्चों को पहुँचे शैक्षिक नुक़सान का ही कभी ऑडिट नहीं किया गया है, ‘अपार’ को लागू करना लाखों बच्चों के लिए एक और दुःस्वप्न साबित होगा। भारत के बच्चों को इस बात के लिए तैयार किया जा रहा है कि अब उनके मानवीय व संवैधानिक हक़ों की प्राप्ति एक अबूझ, अपारदर्शी व बहिष्कारवादी तंत्र की कृपा पर निर्भर है जो न उनकी चीख़-पुकार, रोना या आक्रोश की आवाज़ सुनता है और न ही किसी न्यायसम्मत, लोकतांत्रिक तर्क को स्वीकार करता है।   
 
9. एक विडंबना यह भी है कि जो व्यवस्था हमसे हमारी और बच्चों की तमाम तरह की निजी जानकारी इकट्ठा करती है, वो सूचना के अधिकार क़ानून के तहत भी माँगने पर ख़ुद कोई जानकारी नहीं देती है, ज़रूरी जानकारी को जनता से छुपाती है और स्वतंत्र पत्रकारों एवं शोधार्थियों के ज़मीनी अध्ययन की कोशिशों को दबाती है। इधर हम विद्यार्थियों को संविधान और सच्चाई के पाठ पढ़ाते रहते हैं, और उधर सरकारें ख़ुद ही संविधान द्वारा प्रदत्त व न्यायालयों द्वारा संरक्षित अधिकारों को कुचलती रहती हैं। जो हम पढ़ते थे, साँच को आँच क्या, वो या तो अब हमें शर्मिंदा करता है या व्यवस्था के निर्लज्ज ढोंग की हक़ीक़त बयान करता है। 

10. आज हमारे स्कूलों के अधिकांश शिक्षक घोर निराशा से गुज़र रहे हैं क्योंकि 'अपार' जैसे तमाम आकस्मिक कामों के चलते न तो वो सही मायनों में पढ़ा पा रहे हैं और न ही अपने विद्यार्थियों की समस्याओं के लिए ज़रूरी वक़्त निकाल पा रहे हैं। स्कूलों में शिक्षकों की इन कार्य-परिस्थितियों के नतीजतन, कई शिक्षक घोर तनाव व अवसाद का शिकार हो रहे हैं। आज सत्ता की मनमर्ज़ी एवं शिक्षा-विरोधी कार्यक्रमों के आदेशों की डिजिटल बाढ़ में हमारे स्कूलों का दम घुट रहा है। इसका नतीजा यह है कि होनहार-से-होनहार व कर्मठ-से-कर्मठ शिक्षक भी यह महसूस कर रहे हैं कि वो अपने विद्यार्थियों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी पूरी नहीं कर पा रहे हैं। शिक्षकों के एक बड़े वर्ग में इस बात को लेकर हताशा घर कर रही है कि न तो हम अकादमिक कर्म व शिक्षक-छात्र रिश्तों को समुचित वक़्त व गहराई दे पा रहे हैं और न ही, सब देखते-समझते हुए भी, अव्यवस्थित व आपसी बातचीत में कुंठा व आलोचना व्यक्त करने के अलावा, अपनी आँखों के सामने हो रहे इस अपराध और अन्याय के ख़िलाफ़ एकजुट होकर आवाज़ उठा पा रहे हैं। यह अमानवीय तंत्र हमें अपने कर्म और अपने विद्यार्थियों के प्रति बेईमान बना रहा है।      
                                
असल ज़रूरत शिक्षा के अधिकार को बढ़ाकर 12वीं कक्षा तक करने, सामाजिक न्याय पर आधारित छात्रवृत्तियां बढ़ाने, उनकी शर्तें व प्रक्रिया सरल करने, राशि बढ़ाने, प्रवेश प्रक्रिया सुगम बनाने, व्यवस्था को लोकतांत्रिक, विकेन्द्रीकृत व जनता के प्रति जवाबदेह बनाने, शिकायत तंत्र को पारदर्शी व मज़बूत करने आदि की है; नाकि विद्यार्थियों, परिवारों, शिक्षकों व स्कूलों को एक केंद्रीकृत डिजिटल मकड़जाल में उलझाने की।  

‘अपार’ के तहत ‘एक देश, एक छात्र पहचान' को एक लुभावने नारे की तरह पेश व इस्तेमाल किया जा रहा है, जैसे कि यह किसी गंभीर समस्या का समाधान हो या विद्यार्थियों की माँग हो। जबकि हक़ीक़त यह है कि निजी-सरकारी स्कूलों की पहले-से मौजूद अन्यायपूर्ण खाई बढ़ती जा रही है, PM-SHRI या स्कूल्स ऑफ़ एक्ससेलेन्स के नाम पर सरकारें खुद सरकारी व्यवस्था के भीतर ही असमानता को बढ़ाने वाली और देश को ऊँच-नीच व आम-ख़ास में बाँटने वाली तरह-तरह की परतें खड़ी कर रही हैं, शिक्षा के बजटीय आवंटन में कटौती की जा रही है, उच्च-शिक्षा के राज्य-पोषित संस्थानों तक में सेल्फ-फाईनेन्स कोर्सों को बढ़ावा दिया जा रहा है व फ़ीस की बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है, नियमित व पर्याप्त संख्या में भर्तियाँ नहीं की जा रही हैं, छात्रवृत्तियों को सामाजिक न्याय से काटा जा रहा है, उनकी प्रक्रिया व शर्तें जटिल की जा रही हैं और राशि को ज़रूरत के हिसाब से बढ़ाया नहीं जा रहा है। दूसरी तरफ़, विशेषकर सरकारी स्कूलों में शिक्षकों को तरह-तरह के ग़ैर-शैक्षणिक कामों में उलझा कर और पाठ्यचर्या के साथ नियमित व नित नए खिलवाड़ करके मेहनतकश-मज़दूर वर्ग के बच्चों की शिक्षा को कमज़ोर किया जा रहा है। ऐसे विषम हालातों में जब शिक्षा व्यवस्था में अमीर-ग़रीब के बच्चों के बीच इतना सुनियोजित भेदभाव व असमानता है, 'वन नेशन, वन स्टूडेंट आईडी' का नारा एक छल से ज़्यादा कुछ भी नहीं है।         

होगा ये कि - जैसा कि 'आधार' के साथ हुआ था, जिसे ऐच्छिक कहकर लाया गया था और जो अब जनता के गले में पैसे, वक़्त और अधिकारों की बलि रूपी फाँसी के फंदे की तरह पड़ गया है - धीरे-धीरे इस 'ऐच्छिक' 'अपार' के बिना विद्यार्थियों के प्रवेश, ट्रांसफर, परिणाम, वज़ीफ़े, खाते आदि रोक दिए जाएँगे और फिर उन्हें व शिक्षकों-स्कूलों को एक मजबूरी की स्थिति में लाकर इसे सफल घोषित कर दिया जाएगा। चाहे इसमें कितना वक़्त बर्बाद हो या कितने-ही विद्यार्थियों की पढ़ाई छूट जाए। हमारा मानना है कि, अपनी श्रेष्ठ संभावना में भी, 'अपार' शिक्षा को और चौपट करने वाली, जनविरोधी व अलोकतांत्रिक सनक से ज़्यादा कुछ नहीं है; मगर साथ ही, इसका इस्तेमाल शिक्षा के असल मुद्दों से भटकाने, विद्यार्थियों के डाटा के व्यापारी इस्तेमाल तथा एक केंद्रीकृत निगरानी-नियंत्रण तंत्र के लिए भी किया जाएगा। 

हम माँग करते हैं कि
1. ‘अपार’ से जुड़े तमाम आदेश तत्काल प्रभाव से वापस लिए जाएँ। 
2. ‘अपार’ या किसी भी अन्य केंद्रीकृत डिजिटल अथवा बायो-मेट्रिक पहचान को बच्चों के लिए लागू न किया जाए। 
3. बच्चों से जुड़े सभी निजी डाटा, रिकार्ड आदि को स्कूली अथवा विकेंद्रीकृत स्तर पर ही जमा किया जाए। 
4. पिछले दस वर्षों में ‘आधार’ की अनिवार्यता के चलते बच्चों को पहुँचे शैक्षिक व आर्थिक नुक़सान के सामाजिक ऑडिट के लिए व्यापक स्तर पर जनसुनवाइयाँ आयोजित की जाएँ। इस नुक़सान के लिए नीति-निर्माताओं के स्तर पर जवाबदेही तय करते हुए भुक्तभोगी बच्चों को हर्जाना दिया जाए। ऑडिट की रपटों को बाल अधिकार संरक्षण आयोगों द्वारा जनता के बीच जारी किया जाए। 

लोक शिक्षक मंच 
नवंबर 2024
दिल्ली