आलोचनात्मक चिंतन के नाम पर. . .
मनोज चाहिल
हाल ही की बात है मैं अपनी एक मित्र के साथ कैंटीन में बैठा भोजन कर रहा था और इसी दौरान चर्चागत मजाक चल रहा था। अभी हम भोजन कर ही रहे थे कि हमारी एक और मित्र आई और हमारे साथ बैठ गई। हम तीनांे ही लोग दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं। हम अभी भी अपनी पिछली मजाक को ही आगे बढ़ा रहे थे। इतने में हमारी मित्र जो अभी अभी आई थी ने मुझसे पुछा- अच्छा ये बताओं तुम किस तरफ हो? पहले तो मैं समझ नहीं पाया पर फिर उससे पुछा कि आपके कहने का मतलब क्या है। इस पर उसने कहा कि अभी जो कार्टून को लेकर बहस चल रही है उसमें तुम किस तरफ हो? मैंनें अपनी मित्र की भावनाओं को समझते हुए उससे मजाक में ही कहा कि मैं तो ‘मायावती’ की तरफ हूं। मेरे इस जवाब पर उसकी प्रतिक्रिया देखने लायक थी। उसने कहा कि एक ‘शिक्षित’ व्यक्ति होते हुए भी तुम इस प्रकार के विचार रखते हो? मेरे द्वारा ‘शिक्षित’ की परिभाषा पूछे जाने पर उसने बताया कि शिक्षित मतलतब जो पढ़ा-लिखा हो। खैर इस मुद्दे पर हमारी बहस लगभग एक घण्टे चली और इसका कोई सार्थक परिणाम नहीं आया अपितु मुझे ‘जातिवादी’ होने का एक तमगा जरूर उसके द्वारा दे दिया गया। परन्तु इस बातचीत से कई गंभीर मुद्दे निकलकर आए। जो वर्तमान में चल रही कार्टून पर बहस को समझने में मदद करते है। एक प्रमुख मुद्दा जो निकलकर आया वह यह था कि कार्टून को किस रूप में देखा जाये। मेरी मित्र का कहना था कि ‘‘अरे! यह तो साफ-साफ दिखता है कि डा. अम्बेडकर संविधान रूपी घोंघे पर बैठे हैं और पण्डित नेहरू तथा वे दोनों मिलकर इसे आगे बढ़ा रहें हैं।’’ उससे पहले उसने मुझसे एक सवाल किया था कि तुम्हारे अनुसार कार्टून को किस रूप में देखा जाए और इस पर मेरी राय थी कि इसे देखने का नजरिया व्यक्ति दर व्यक्ति निर्भर करता है और यह व्यक्तिगत मसला है। परन्तु जब मैंने अपनी मित्र को यह बताया कि यह भी तो एक नजरिया हो सकता है कि (जिसे इस बहस में दलित दृष्टिकोण कहा जा रहा है) वास्तव में डा. अम्बेडकर घोंघे पर बैठे उसे हांक रहे हो और उनके पीछे खड़ें नेहरू उन्हें हांक रहें हो। इस पर मेरी मित्र की प्रतिक्रिया थी कि ‘तुम लोग’ जबरदस्ती बात को खींचने की कोशिश कर रहे हो और आलोचनात्मक चिंतन के विरोधी हो। यहां पर मेरा सवाल है कि क्या आलोचनात्मक चिंतन यही है? क्या एक पक्ष को जानना और उसे ही मानना आलोचनात्मक चिंतन है? और अगर यही आलोचनात्मक चिंतन है तो पूर्व पाठ्य-पुस्तकों और वर्तमान की ‘प्रगतिशील’ पाठ्यपुस्तकों में अंतर ही क्या है। पुर्व की पाठ्यपुस्तकों में भी तथ्य दिये होते थे और छात्रों को उन्हें ‘रटना’ होता था। अगर यहां पर भी आपका यही मानना है कि पाठ्यपुस्तक में दिए गए तथ्यों व सूचनाओं को छात्रों तक पहुचाना है तो मुझे नहीं लगता कि यह आलोचनात्मक चिंतन है। और यहां पर बहु-दृष्टिकोण और ज्ञान के निर्माण के लिए तो कोई जगह ही नहीं बचती जिसका हवाला राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 देती है।
आलोचकों का कहना है कि दलित लोग इस लिए इसका विरोध कर रहें है कि पंडित नेहरू जो कि एक उच्च जाति से है एक निम्न जाति के डा. अम्बेडकर को चाबुक से हांक रहें हैं ऐसी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। और अगर एक बार के लिए यह मान भी लें कि उस कार्टून में पण्डित नेहरू के हाथ में चाबूक नहीं है या पण्डित नेहरू नहीं भी है तो भी क्या इस संभावना से इंकार किया जा सकता है कि कोई ‘दलित’ छात्र इसको इस तरह से समझे कि डा. अम्बेडकर जो कि एक दलित है और इसलिए कार्य करने में सक्षम नहीं होने के कारण संविधान निर्माण में उनके कारण देरी हो रही है।
शंकर पिल्लै ने बहुत सारे कार्टून बनायें और उन्हें कई पुरस्कारों से नवाजा गया। अपने समय के वे सर्वश्रेष्ठ कार्टूनिस्ट थे। यहां पर सवाल है कि क्या कला एवं सौन्दर्य के पाठ में मकबूल फिदा हुसैन को शामिल किया जा सकता है जोकि एक प्रसिद्ध चित्रकार है? वहां क्यों नहीं हमारे ‘आलोचनात्मक चिंतन’ के पक्षधर लोग आवाज उठाते? वहां नहीं उठा सकते क्यांेकि ऐसा करने से बहुसंख्यकों की भावनाएं आहत होती है और इससे बुद्धिजीवी भी बचते हैं। फिर यह आलोचनात्मक चिंतन का ठीकरा दलितों के नाम पर ही क्यों फोड़ा जा रहा है?
एक और बात जो बहस का मुद्दा है वह यह है कि कार्टून की भाषा किस प्रकार की होती है? विद्वानों का मानना है कि कार्टून में संकेतों का इस्तेमाल किया जाता है। पर क्या इन संकेतो को 11वी. और 12वीं कक्षा के छात्र समझ सकते हैं? योगेन्द्र यादव कहते है कि इसके लिए पाठ्यपुस्तक में एक पाठ अलग से दिया गया है कि कार्टून कैसे पढ़े। पर फिर भी मुझे लगता है कि कई कार्टून का निहितार्थ में स्वयं नहीं निकाल पाता तो क्या वे विद्यार्थी निकाल पायेगें और क्या वे वहीं निहितार्थ निकाल पायेंगे जो कलाकार ने कार्टून बनाते समय निकाला था? यहां पर मैं राज्य सभा चैनल पर कुछ दिनों पूर्व आई बहस का जिक्र करना चाहुंगा जिसमें कुष्ण कुमार, कांचा इलैया, मुशिरूल हसन, इरफान एवं योगेन्द्र यादव ने भाग लिया था। इस बहस में विद्यालय के छात्रों ने भी सहभागिता की थी और उन्होंने ऐसे ऐसे जवाब दिये कि मैं तो दांतो तले उंगली दबाता रह गया। ऐसा लग रहा था कि वे छात्र वहां पर मौजूद विशेषज्ञों से ज्यादा समझ रखते हो। और बहस में मौजूद विशेषज्ञों ने उनके द्वारा दिये गये जवाबों को अपने समर्थन में खुब भूनाया। और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह कार्टून विवाद अनावश्यक ही है। यहां पर मैं यह भी बता देना चाहुंगा कि वे विद्यार्थी जिस विद्यालय से आए थे वह मध्य दिल्ली का एक ‘प्रतिष्ठित’ निजी विद्यालय है और वहां पर किस वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं यह अंदाजा लगया जा सकता है। यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि वहां पर कितने दलित पढ़ते हैं और अगर दलित पढ़ते भी हैं तो उनका भी कौनसा वर्ग होगा। शायद यह चैनल की गरिमा का सवाल था या कुछ और कि उन्होनें सरकारी विद्यालय के किसी छात्र को अपने कार्यक्रम में नहीं बुलाया। क्या ये पाठ्यपुस्तकें सिर्फ इन निजी विद्यालयों के लिए ही बनी है? अगर आपको छात्रों की राय को जानना ही है तो वहां पर जाइये जहां दलित बहुल आबादी है और वहां पर पुछिए कि इसका क्या असर पड़ा है या पड़ता है। या दिल्ली के ही किसी सरकारी विद्यालय के विद्यार्थियों को इसके लिए बुलाया जा सकता था। परन्तु चूंकि कार्टून की समझ एक खास वर्ग के लोग रखते हैं अतः उनके द्वारा इस बात को प्रतिपादित किया गया कि यह अनावश्यक विवाद है।
आलोचकों का यह भी कहना है कि इस प्रकार के कार्टून बच्चे समाचारपत्रों या मीडिया के द्वारा पढ़ते या देखते ही है अतः पाठ्यपुस्तकों में इनके होने पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। यहां पर यह बता देना आवश्यक है कि ‘चुनाव’ और ‘अनिवार्यता में काफी फर्क हैं। अभी भी हमारे देश में आधे से ज्यादा विद्यालय ऐसे हैं जहां पर पाठ्यपुस्तकों के अलावा कोई अन्य पाठ्य सामग्री उन्हें उपलब्ध नहीं होती है। और यहां पर जो भी पाठ्यपुस्तक में होगा वह पढ़ना ही उनके लिए बाध्यता होगी और ऐसा कोई और माध्यम नहीं है जिसके द्वारा वह इससे जुड़ी अन्य जानकारियों को प्राप्त कर सकें। अतः यह आवश्यक है कि जो पाठ्य सामग्री अनिवार्य है उसे कम से कम इस तरह से रखा जाये कि वह किसी भी वर्ग की भावनाओं को ठेस न पहुंचाये।
इस विवाद को विद्वत् समाज के उपर एक प्रहार के रूप में और संसद की मनमानी तथा हस्तक्षेप के रूप में देखा जा रहा है। यह सच है कि इस मामले को बहुत अधिक राजनीतिक रूप दिया गया और इसके परिणामस्वरूप हुई घटनाएं निन्दनीय है। परन्तु क्या एन.सी.ई.आर.टी. संसद से बड़ी संस्था है? क्या संसंद में बैठे जन-प्रतिनिधियों को कोई अधिकार नहीं है कि वे यह देख सकें के देश के बच्चों को क्या पढ़ाया जा रहा है? इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान पाठ्यपुस्तकें पूर्ववर्ती पाठ्यपुस्तकों से हर रूप में श्रेष्ठ है और बच्चों को आलोचनात्मक चिंतन के लिए जगह प्रदान करती है। परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं की इनकी समीक्षा की व इनमें सुधार की कोई गुंजाईश नहीं है और ये अपने आप में एकदम पूर्ण हैं। उचित तो यह होता कि इस संस्था के द्वारा इस मुद्दे के प्रकाश में आने के बाद इस पर विचार विमर्श किया जाता और अगर यह लगता कि इस कार्टून से से किसी समूह विशेष की भावनाएं आहत हो रही है तो अपनी गलती स्वीकार कर इस विवादित कार्टून को हटाया जाता। डा. अम्बेडकर जो कि दलित आइकन है और तब जब दलित राजनीति अपने चरम पर है उसमें दलित उनका अपमान बर्दाश्त नहीं करेगा।
इससे अच्छा होगा कि शिक्षकों के लिए एक सहायक पुस्तिका तैयार की जाये जिसमें यह तथा इस जैसे अन्य कार्टून डाले जाये ताकि शिक्षक इससे जागरूक हो और वे अपने स्तर पर इस पर बहस करवा सकें। साथ ही यह भी आवश्यकता है कि हमें विद्यालयों में समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं को पढ़ने के लिए विद्यार्थियों को प्रेरित करें और कोशिश करें कि उनके इनके प्रति रूचि जागृत हो। मुझे नहीं पता कि एन.सी.ई.आर.टी. की इस पाठ्यपुस्तक समिति में दलितों का कितना प्रतिनिधित्व था पर यह आवश्यक है इस प्रकार के कार्यों में दलितों का उचित प्रतिनिधित्व हो जिससे इस प्रकार के विवाद खड़ंे ना हों।
3 comments:
bachho ki kshamtao ko janane ke liye pige ki theory ko phir padho..............
http://mazdoormorcha.com/jun/5.pdf
Ashwani ji apne comment ka thoda sa khulasa kijiye...
कार्टून देखने का नजरियाः-
सर्वप्रथम कार्टून को देखने का नजरिया कैसा हो, हम सभी व्यंग्य रचनाएं पढ़ते हैं उसमें बहुत सी बातों को लेकर व्यंग्य किया जाता है या मजाक उड़ाया जाता है। हां इतना जरूर होता है कि व्यंग्य रचनाओं में व्यंग्य व्यवस्था अथवा व्यवस्थागत मूल्यों पर बनाया जाता है। हरिशंकर परसाई ने जब भोलाराम का जीव लिखा तो उन्होंने व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को निशाना बनाया इसी प्रकार तीसरे दर्जे के श्रद्धेय में उन्होनें कवियों और उनकी छदम हैसियत का मजाक उड़ाया है। किंतु जब हम उसे गूढ़ रूप में पढ़ते हैं तो उन रख्नाओं को लेकर हमारी राजनैतिक समझ साफ होती है और लगता है कि परसाई ने उसमें पूरी की पूरी राजनीति उठेल दी है। इसी प्रकार जब हम बचपन में चार्ली चैपलीन की कोई फिल्म देखते थे तो वह हमें महत हंसाने वाला व्यक्ति ही प्रतीत होते थे। एक समझदारी और उम्र के साथ हमारी उनकी फिल्मों को लेकर समझ दुरस्त हुई और एक समय तो उनकी फिल्में पूंजीवाद के दुष्परिणामों तक को समझने में हमारी सहायता करती है। जब कोई विद्यार्थी जो कि इस घोंघे पर अम्बेडकर के चाबुक लिए बैठै देखता है तो वह लोटपोट हुए बिना नहीं रह सकता है उसकी सबसे पहली प्रतिक्रिया होगी कि कैसे कोई व्यक्ति घोंघे पर सवारी कर सकता है यह मजाक एक सवर्ण बालक तो कर पाएगा पर क्या उसी समय एक दलित बालका जो कि अपने परिवार में बाबा साहेब को दलित उद्धार का प्रतीक मानता हो तो क्या वह उस कार्टून पर उसी तरह हंस पायेगा? कुछ लोगों ने यहां तक कहा कि उस समय बाबा साहेब ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दी थी। यह संभव है कि उस समय बाबा साहेब ने भी इस पर मजा लिया हो या इसे नजर अंदाज कर दिया हो पर इसे बाबा साहेब को दलित मसीहा मानने वाली अब की पीढ़ी बर्दाश्त नहीं कर सकती है। यह इसी प्रकार है कि मित्रों में आपस में गाली गलौच और भद्दे मजाक संभव है पर यही बात यदि कोई मेरे विद्यार्थियों के सामने करे तो वह हो सकता है तो हो सकता है कि वो अपनी हिंसक प्रतिक्रिया इस पर दें।
उस समय आप विद्यार्थियांे से यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि वह आपके और मेरे रिश्तों को समझते हुए इसे आलोचनात्मक दृष्टि से देखें। इसके पश्चात् चलिए यह मान भी लिया जाए कि घोंघे को अम्बेडकर हांक रहे हैं और नेहरू घोंघे को पीछे से हांक रहे हैं तो भी क्या कोई भी इससे इंकार कर सकता है कि जहां शिक्षा में शोध कर रहें व्यक्ति ‘हमारे‘ और ’तुम्हारे’ की भाषा में बात कर सकते हैं तो और आए दिल दलित उत्पीड़न की घटनाएं होती रहती है उस समाज व्यवस्था में शिक्षक उस कार्टून के साथ न्याय कर पाएगा और क्या कोई इस बात से इंकार कर सकता है कि इस कार्टून को लेकर शिक्षक दलित विद्यार्थियों का मानसिक उत्पीड़न नहीं करेगा। इसी देश से पेंटिंग में महारत हासिल एम. एफ. हुसैन को देश छोड़ने को मजबूर किया उस समय ये आलोचनात्मक चिंतन की बात नहीं आई और न तो किसी बुद्धिजीवी ने इनके निष्काषन को पाठ्यपुस्तकों में जगह दी तो फिर सारी आलोचनात्मक चिंतन की बात दलितों पर ही क्यों? क्या ऐसा नहीं लगता है कि जिस प्रकार दलित आवाज को आज राजनीति में महत्व दिया जा रहा है वह स्वर्ण मानसिकता से ग्रसित बुद्धिजीवियों को हजम नहीं हो पा रही है उनसे ये देखा नहीं जा रहा है दलित अस्मिता की लड़ाई एक चरम पर पहुंची है और अब दलित पहले के मुकाबले अधिक एकजूट है।
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