क्या भला हो जाएगा, उन्हें सनातन सिरफिरे कह कर चुप कर दिया गया।
असल में देश में शिक्षा की आम स्थिति पर नजर डालें तो शुरुआती धुंधलके के बाद यह साफ होने लगता है कि शिक्षा में निजीकरण की हिमायत करने वाले स्वार्थ समूहों और भारतीय राज्य के चरित्र में कोई खास अंतर नहीं रह गया है। अगर निजीकरण के समर्थक सार्वभौम शिक्षा अधिकार को पहले ही कदम पर सफल होते नहीं देखना चाहते तो खुद सरकार भी अपनी जन-प्रतिबद्धताओं और दबावों के लिहाज से उतना ही करना चाहती है जिससे न आम जनता उसके विरोध में जाए और न ही वह लॉबी बिफर जाए जो देश के संसाधनों पर परंपरा और कानूनी ढांचे के तहत नियंत्रण करती आई है। गहराई से देखें तो निजी शिक्षा के पैरोकारों द्वारा कानून बनते ही न्यायालय की शरण में जाना विरासत और कानून से मिले उस संरक्षण की ही प्रतिक्रिया थी। इस वर्ग को लगता है यह देश और उसके संसाधन नैसर्गिक रूप से उसी के हैं, जबकि देश के वंचितों को यह नहीं लगता कि वे कुछ भी अधिकार से मांग सकते हैं।
बहुत-से लोगों को लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद अब निजी स्कूल खुलेआम इस कानून का उल्लंघन करने की हिमाकत नहीं करेंगे, लेकिन यह बात कौन नहीं जानता कि शिक्षा के निजीकरण से मुनाफा कूटने वाली लॉबी इस मसले को किसी न किसी बहाने खुद कानून की ही प्रक्रिया में फंसाए रख सकती है। गौर करें कि जैसे-जैसे भारत भौगोलिक अभिव्यक्ति (अंग्रेज प्रशासक ऐसा ही सोचते थे) से उठ कर एक राष्ट्र के रूप स्थिर होता गया है वैसे-वैसे देश के अभिजन समूहों की ताकत बढ़ती गई है।
नतीजतन, इससे पहले कि दुर्बल नागरिक समझ पाएं कि यह देश उनका भी है, अभिजन समूह सत्ता पर अपनी पकड़ और मजबूत करके विकास और प्रगति के मुहावरे गढ़ लेते हैं। देश के रोजमर्रा के लोकतंत्र में ऐसे मुहावरों का जाप चलता रहता है। वर्चस्वशाली समूह संविधान के संकल्प दोहराते हुए ठीक ऐसा करते जाते हैं कि बराबरी, साधनों के न्यायपूर्ण बंटवारे और कमजोर वर्गों को आर्थिक रूप से सबल बनने वाली प्रक्रियाएं मजबूत न होने पाएं। अलग से कहने की जरूरत नहीं कि वर्गीय विशिष्टता के आग्रह से उपजी यह मानसिकता रातोंरात खत्म होने वाली नहीं है।
गौर से देखें तो शिक्षा अधिकार को मुकम्मल तौर पर लागू करने में सिर्फ धन की कमी एकमात्र समस्या नहीं है। उसके सामने सबसे बड़ी बाधा नवउदारवाद का वह तर्क और नीतिगत माहौल है जो आर्थिक स्वार्थ-समूहों ने अपने पक्ष में खड़ा किया है और जिसमें शिक्षा किसी भी अन्य व्यवसाय की तरह एक आर्थिक उपक्रम यानी मुनाफे का धंधा बन गई है। अब स्कूलों का विज्ञापन इस तरह किया जाता है गोया किसी होटल या रिसोर्ट की सुविधाओं का बखान किया जा रहा हो। देश के छोटे-बडेÞ नगरों और उनसे लगे इलाकों में खुल रहे उच्चवर्गीय स्कूलों को देख कर और सतत प्रचार के चलते निम्नवर्गीय मानस भी इस खुशफहमी का शिकार हो सकता है कि जैसे पूरा देश अमेरिका बन जाएगा। लेकिन हकीकत यह है कि ऐसी संस्थाएं समाज में विषमताओं को गहराने का काम कर रही हैं। नवउदारवाद जनकल्याण के कार्यों को अर्थव्यवस्था पर गैर-जरूरी बोझ मानता है।
पिछले दो दशक में इस सोच के चलते सरकार ने भी जैसे यह मान लिया है कि शिक्षा का कोई सार्वभौम और समान ढांचा जरूरी नहीं है। जिसकी जैसी हैसियत है उसके लिए वैसे स्कूल उपलब्ध हैं। जो महीने में पांच हजार का खर्च वहन कर सकते हैं वे अपने बच्चों को वातानुकूलित और कथित अंतरराष्ट्रीय स्तर वाले स्कूलों में भेज सकते हैं और जिनके पास साधन नहीं हैं उनके लिए सरकारी और गली-मुहल्लों के निम्नवर्गीय स्कूल हैं। कहना न होगा कि भारत जैसे विषमतापूर्ण समाज में बेहतर हैसियत के लोग संसाधनों का बड़ा हिस्सा डकार जाना चाहते हैं। और ऐसा करते हुए उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि देश-समाज के आम बच्चों को किस तरह की शिक्षा मिल रही है।
बहरहाल, अगर सरकार समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है, जो कि सिद्धांतत: उसका दायित्व भी है, तो फिर सवाल उठता है कि उसे समान शिक्षा प्रणाली लागू करने से कौन रोकता है? और यहीं से यह सवाल राज्य की प्राथमिकताओं तक जाता है। आखिर अब जिस शिक्षा अधिकार को संविधान के 21-ए में वर्णित जीवन के अधिकार के समकक्ष दर्जा दिया गया है वह लोकतंत्र के छह दशकों तक क्यों नीति-निर्देशक तत्त्वों में दबा रहा?
लोक में सरकार का एक अर्थ यह भी होता है कि वह जो चाहे कर सकती है। अगर बुनियादी शिक्षा उसके लिए वाकई कोई सरोकार है तो न उस पर होने वाले व्यय के आंकड़ों में गफलत होती और न धन की कमी पड़ती। एक आधे-अधूरे अधिकार को लेकर भी जब सत्ता का रवैया यह है तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि जनता के बाकी मसले उसके एजेंडे में कहां होंगे!
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