दिल्ली नगर निगम के स्कूलों के विद्यार्थियों की वर्दी बदलने का जो फैसला तीनों एम. सी. डी. में लिया गया है वह बेहद अनुचित समझ पर आधारित है. उत्तरी निगम की शिक्षा समिति का यह कहना कि अपनी वर्दी के अलग होने के कारण निगम विद्यार्थी अपने को हीन महसूस करते हैं ना सिर्फ निराधार है बल्कि स्वयं निगम प्रशासन व प्रतिनिधियों की हीन भावना दर्शाता है. शिक्षा व्यवस्था की कमान और नेतृत्व अब ऐसी ताकतों के पास है जिनकी शिक्षा के बारे में कोई संवैधानिक, न्यायसम्मत, समतामूलक और शिक्षाशास्त्रीय समझ नहीं है, बल्कि जो स्वयं मुनाफाखोर, निजी, कॉर्पोरेट संस्थाओं के आगे नतमस्तक है. हर ईमानदार-समझदार, प्रशिक्षित शिक्षक यह जनता है कि शिक्षा का उद्देश्य यह समझ बनाना भी है कि किसी व्यक्ति को मात्र उसके पहनावे से ना आँका जाये. इस सन्दर्भ में यह अफ़सोसजनक है कि नगर निगम की शिक्षा समिति इस कुशिक्षा को आदर्श मान रही है कि पहनावा मानसिक-व्यक्तित्व विकास का परिचायक है. लगता है कि समिति भारतीय परम्परा के श्रेष्ठ मूल्यों से भी परिचित नहीं है, संविधान का तो कहना ही क्या! असल में यह पूरी कवायद सरकारों द्वारा अपने दायित्वों से पल्ला झाड़ कर सार्वजनिक व्यवस्था को आउटसोर्स करने की है. आज जब निगम अपने जनकोष से विद्यार्थियों को वर्दी का कपडा या उसके लिए राशि उपलब्ध कराती हैं तो इससे विद्यार्थियों व उनके अभिभावकों का आत्मसम्मान सुरक्षित रहता है. जब यही काम एन. जी. ओ. की मार्फ़त कराया जायेगा तो यह हक की श्रेणी से गिर कर अपमानजनक दान-खैरात में बदल जायेगा. इससे शिक्षा व्यवस्था पर निजी ताकतों का शिकंजा बढेगा और शिक्षा की स्वायत्तता पर कुठाराघात होगा. अगर शिक्षा इनकी अनुग्रहीत हो जाएगी तो विद्यार्थियों में बराबरी और न्याय के लिए संघर्ष करना, निजी शक्तियों की राजनीति को समझना, उसकी आलोचना करना कैसे सिखा पायेगी?
आज जो वर्दी का कपडा या पैसा मिलता है उसमे विद्यार्थियों-विशेषकर छात्राओं- व उनके अभिभावकों के पास यह आज़ादी होती है कि वे पैंट, स्कर्ट, सलवार या निकर पहने पर जब निजी संस्था सिली-सिलाई वर्दी देंगी तो क्या यह आज़ादी बरक़रार रहेगी? इस बात का खतरा भी है कि विद्यार्थियों की वर्दी पर उक्त निजी संस्था का नाम भी छपा होगा जिससे कि विद्यार्थी एक चलते फिरते इश्तेहार बनने की अपमानजनक और निजता हरने वाली प्रक्रिया में शामिल होने को मजबूर हो जायेंगे. फिर जब जनकोष से कुछ सहायता-अधिकार उपलब्ध कराया जाता है तो उसकी बाबत शिकायत आदि की पूरी प्रक्रिया सबको प्राप्त होती है, पर निजी पूँजी और निजी संस्थाएं इस जवाबदेही से बरी रहती हैं. शिक्षा समिति अध्यक्षा का बयान यही दर्शाता है कि वे प्राइवेट स्कूलों को पब्लिक स्कूल कहकर उनके जनविरोधी चरित्र पर पर्दा डाल रही हैं. पब्लिक स्कूल, जैसा कि देश के तमाम जनवादी व समझदार शिक्षाविद हमें समझाते रहें हैं, तो हमारे सरकारी स्कूल हैं क्योंकि वे पब्लिक अर्थात सबके लिए है, एक खास, सुविधा-संपन्न वर्ग के लिए नहीं. इस तरह के वक्तव्यों से लोगों में यह गलत सन्देश जाता है कि प्राइवेट स्कूल शिक्षा की आदर्श तस्वीर प्रकट कर रहें हैं. अधिकतर प्राइवेट स्कूलों का श्रेष्ठतावादी, दिखावे का व मुनाफाखोर चरित्र तो शिक्षा पर कलंक है. वे और उनकी संस्कृति कभी भी एक समाजवादी-लोकतान्त्रिक गणतंत्र के लिए अच्छा उदहारण नहीं बन सकती. हमारे प्रतिनिधियों को यह भी समझना चाहिए कि सरकारी स्कूलों के अधिकांश शिक्षक व विद्यार्थी किसी हीन भावना से ग्रस्त नहीं हैं. हाँ, अगर नेतृत्व को अपना अपराधबोध सही ढंग से कम करना हो और सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाना है तो इसका सीधा-सरल उपाय यह है कि वे अपने बच्चों को निगम व प्रशासन के स्कूलों में पढने भेजें. जब सरकारी अफसरों, जनप्रतिनिधियों के बच्चे सरकारी स्कूल में पढने लगेंगे तो लोगों को सहज ही इनकी नीयत व व्यवस्था पर विश्वास हो जायेगा. जहाँ जनकोष से कोई योजना संचालित होती है- जैसे कि मध्याहन भोजन- तो उसमे अधिकार, समानता व सम्मान की भावनाएं काम करती हैं, पर ज्योंही किसी योजना को निजी धन व दान संस्थाओं की सदिच्छा के हवाले कर दिया जाता है तो उसमे असमानता, एक वर्ग की श्रेष्टता और दूसरे की निर्भरता तथा एक का एहसान और दूसरे का अपमान, ऐसी भावनाएं काम करती हैं. वैसे भी, लोग अधिकारों की बात राज्य से करते हैं, वे निजी खैरात-मदद की आस क्यों लगायें? राज्य की व्यवस्था सबके लिए होगी तो अगर वो आपातकाल में बंद भी हो जाये तो सबके लिए बंद होगी. इसके विपरीत निजी संस्थाओं की व्यवस्था हमेशा कुछ के लिए, कुछ इलाकों में और कुछ समय के लिए होगी. समाज को इस आकर्षक और खतरनाक धोखे से सचेत रहने, इसका विरोध करने और इसे ठुकराने की जरुरत है. हमें राज्य से समान स्कूल व्यवस्था चाहिए, भेदभावपूर्ण परतें बढ़ाने वाली कुछ मुट्ठीभर स्कूलों की रंग बिरंगी मृगमरीचिका नहीं.
सरकारें यह सिद्ध करने की कोशिश कर रही हैं कि सभी अन्य सार्वजनिक निकायों की तरह सरकारी स्कूल भी सबके लिए नहीं है, वरन केवल 'गरीब' तबके के लिए हैं. ऐसा दिखाकर वें इन स्कूलों से समाज के अन्य वर्गों का अलगाव और बढ़ा रहीं हैं ताकि इनके बीच दो ही सम्बन्ध रहें- उदासीनता या दया. दोनों ही लोकतान्त्रिक समाज, समानता के लिए नुकसानदेह हैं और शायद गणतांत्रिक बंधुत्व के संबंधो को, इसकी भावनाओं को कमजोर करने के लिए ही कभी निजी संस्थाओं की श्रेष्ठता व दरियादिली और कभी सार्वजनिक संस्थाओं की हीनता-दीनता की बातें बड़े सद्भाव के साथ दोहराई जाती है. अफ़सोस है कि मीडिया भी आलोचनात्मक पत्रकारिता के द्वारा इस षड़यंत्र का पर्दाफाश करने के बजाय इस जनविरोधी, सुविधाभोगी मुहिम को आगे बढ़ाने में सहयोग कर रहा है.
आज जो वर्दी का कपडा या पैसा मिलता है उसमे विद्यार्थियों-विशेषकर छात्राओं- व उनके अभिभावकों के पास यह आज़ादी होती है कि वे पैंट, स्कर्ट, सलवार या निकर पहने पर जब निजी संस्था सिली-सिलाई वर्दी देंगी तो क्या यह आज़ादी बरक़रार रहेगी? इस बात का खतरा भी है कि विद्यार्थियों की वर्दी पर उक्त निजी संस्था का नाम भी छपा होगा जिससे कि विद्यार्थी एक चलते फिरते इश्तेहार बनने की अपमानजनक और निजता हरने वाली प्रक्रिया में शामिल होने को मजबूर हो जायेंगे. फिर जब जनकोष से कुछ सहायता-अधिकार उपलब्ध कराया जाता है तो उसकी बाबत शिकायत आदि की पूरी प्रक्रिया सबको प्राप्त होती है, पर निजी पूँजी और निजी संस्थाएं इस जवाबदेही से बरी रहती हैं. शिक्षा समिति अध्यक्षा का बयान यही दर्शाता है कि वे प्राइवेट स्कूलों को पब्लिक स्कूल कहकर उनके जनविरोधी चरित्र पर पर्दा डाल रही हैं. पब्लिक स्कूल, जैसा कि देश के तमाम जनवादी व समझदार शिक्षाविद हमें समझाते रहें हैं, तो हमारे सरकारी स्कूल हैं क्योंकि वे पब्लिक अर्थात सबके लिए है, एक खास, सुविधा-संपन्न वर्ग के लिए नहीं. इस तरह के वक्तव्यों से लोगों में यह गलत सन्देश जाता है कि प्राइवेट स्कूल शिक्षा की आदर्श तस्वीर प्रकट कर रहें हैं. अधिकतर प्राइवेट स्कूलों का श्रेष्ठतावादी, दिखावे का व मुनाफाखोर चरित्र तो शिक्षा पर कलंक है. वे और उनकी संस्कृति कभी भी एक समाजवादी-लोकतान्त्रिक गणतंत्र के लिए अच्छा उदहारण नहीं बन सकती. हमारे प्रतिनिधियों को यह भी समझना चाहिए कि सरकारी स्कूलों के अधिकांश शिक्षक व विद्यार्थी किसी हीन भावना से ग्रस्त नहीं हैं. हाँ, अगर नेतृत्व को अपना अपराधबोध सही ढंग से कम करना हो और सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाना है तो इसका सीधा-सरल उपाय यह है कि वे अपने बच्चों को निगम व प्रशासन के स्कूलों में पढने भेजें. जब सरकारी अफसरों, जनप्रतिनिधियों के बच्चे सरकारी स्कूल में पढने लगेंगे तो लोगों को सहज ही इनकी नीयत व व्यवस्था पर विश्वास हो जायेगा. जहाँ जनकोष से कोई योजना संचालित होती है- जैसे कि मध्याहन भोजन- तो उसमे अधिकार, समानता व सम्मान की भावनाएं काम करती हैं, पर ज्योंही किसी योजना को निजी धन व दान संस्थाओं की सदिच्छा के हवाले कर दिया जाता है तो उसमे असमानता, एक वर्ग की श्रेष्टता और दूसरे की निर्भरता तथा एक का एहसान और दूसरे का अपमान, ऐसी भावनाएं काम करती हैं. वैसे भी, लोग अधिकारों की बात राज्य से करते हैं, वे निजी खैरात-मदद की आस क्यों लगायें? राज्य की व्यवस्था सबके लिए होगी तो अगर वो आपातकाल में बंद भी हो जाये तो सबके लिए बंद होगी. इसके विपरीत निजी संस्थाओं की व्यवस्था हमेशा कुछ के लिए, कुछ इलाकों में और कुछ समय के लिए होगी. समाज को इस आकर्षक और खतरनाक धोखे से सचेत रहने, इसका विरोध करने और इसे ठुकराने की जरुरत है. हमें राज्य से समान स्कूल व्यवस्था चाहिए, भेदभावपूर्ण परतें बढ़ाने वाली कुछ मुट्ठीभर स्कूलों की रंग बिरंगी मृगमरीचिका नहीं.
सरकारें यह सिद्ध करने की कोशिश कर रही हैं कि सभी अन्य सार्वजनिक निकायों की तरह सरकारी स्कूल भी सबके लिए नहीं है, वरन केवल 'गरीब' तबके के लिए हैं. ऐसा दिखाकर वें इन स्कूलों से समाज के अन्य वर्गों का अलगाव और बढ़ा रहीं हैं ताकि इनके बीच दो ही सम्बन्ध रहें- उदासीनता या दया. दोनों ही लोकतान्त्रिक समाज, समानता के लिए नुकसानदेह हैं और शायद गणतांत्रिक बंधुत्व के संबंधो को, इसकी भावनाओं को कमजोर करने के लिए ही कभी निजी संस्थाओं की श्रेष्ठता व दरियादिली और कभी सार्वजनिक संस्थाओं की हीनता-दीनता की बातें बड़े सद्भाव के साथ दोहराई जाती है. अफ़सोस है कि मीडिया भी आलोचनात्मक पत्रकारिता के द्वारा इस षड़यंत्र का पर्दाफाश करने के बजाय इस जनविरोधी, सुविधाभोगी मुहिम को आगे बढ़ाने में सहयोग कर रहा है.
मनोज चाहिल