Thursday, 28 November 2013

शिक्षक डायरी : एक मजदूर औरत की आकस्मिक मौत की गवाही


कुछ अपवादों को छोड़कर उनसे आधी उम्र के शिक्षक भी उन्हें नाम से बुलाते थे। उनकी मौत के बाद भी उनके लिए इस्तेमाल किए गये संबोधन में किसी औपचारिक इज़्जत की शब्दावली नहीं थी। चौदह साल पहले जब मैंने शिक्षण शुरू किया था तो वो उसी स्कूल में दैनिक वेतन पर शायद 600-900 रूपये मासिक कमा रही थीं। अपनी मौत के समय भी वो दैनिक वेतन पर ही नियुक्त थीं। अपनी उम्र के 21 साल उन्होंने एक ही स्कूल में दैनिक वेतन पर काम करते हुए बिता दिये। अंतिम तीन सालों में उनका काम एक 2500 मीटर वर्ग के प्रांगण में स्थित 1500 छात्राओं के निगम प्राथमिक विद्यालय की सफाई करना था। इसके पहले तो स्कूल में 2500 विद्यार्थी थे। जहां शौचालयों की संख्या विद्यार्थियों के अनुपात में हमेशा नाकाफी रही, कई छोटी उम्र के विद्यार्थियों को शौचालय के उपयुक्त इस्तेमाल के बारे में कभी समझाया नहीं गया, अक्सर या तो गलत बनावट के कारण या पानी की अनुपलब्धता के कारण शौचालय अनुपयोग की हालत तक आ जाते थे और दो पालियों में लगने की वजह से स्कूल की इमारत में सफाई का काम भी जटिल हो जाता था, वहां उन्होंने उतने ही रूपयों के लिए काम किया जितने रूपये 200-300 विद्यार्थी वाले एकल पाली के स्कूलों में काम करने वालों को मिलते हैं।
उस दिन जब मैं अपनी कक्षा को मध्यान्ह भोजन के लिए भेजकर हमेशा की तरह नीचे आया- जिस स्थल पर खाना बंटता है- तो मैंने इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया कि वो एक सीढ़ी के पास, बाहर, दीवार से टेक लगाकर बैठी हुई हंै। शायद 5-10 मिनट के अंदर ही - जब तक मध्यावकाश होने की घंटी बजी- मुझे यह मालूम हो गया था कि उनकी तबीयत खराब हो रही है। ऐसा संदेश मिला कि उन्हें चक्कर आ गये थे। उनके पास हमारे स्कूल में स्कूली स्तर पर ही 1500 रूपये मासिक पर शौचालयों की सफाई पर रखी गई महिला खड़ी थीं और स्कूल की अनुचर भी। शायद 5 मिनट में ही यह महसूस हो गया था कि बात सिर्फ चक्कर आने की नहीं है बल्कि कुछ गंभीर है। इस बीच उक्त महिलाकर्मी ने कहा कि वो अस्पताल ले जाने के लिए कह रही हैं। एक शिक्षक तब तक उनके घर फोन कर चुके थे और मेरे पूछने पर बताया गया कि उनके घर से उनका बेटा आ रहा है। काफी बच्चे उन्हें घेरकर खड़े थे। एक बार तो वो पूरी तरह लेट गईं, फिर उठकर बैठीं.....। जब महिलाकर्मी ने दोबारा यह कहा कि वो कह रही हैं कि उन्हें अस्पताल पहुंचा दिया जाये तो मैं दफ्तर में पूछने गया। मगर इस बार भी मुझे वही जवाब मिला कि उनके घर से बेटा चल चुका है और रास्ते में है। अब तक मेरी घबराहट काफी बढ़ गई थी। तब मैंने एंबुलंेस के लिए फोन किया और विद्यार्थियों को कक्षाओं में जाने को कहने लगा। एंबुलेंस के साथ सही तालमेल न होने के कारण वह थोड़ी आगे निकल गई और फिर मुड़ कर आई। इस दौरान 15 मिनट गुजर गये होंगे। जब उन्हें एंबुलेंस में चढ़ाया गया तो लेटते समय उनकी आंखे निर्जीव-सी लग रही थीं और चेहरा भी कस गया था। मुझे लगा कि हमने देर कर दी। जब मैं कक्षा में पहुंचा तो मन उदास था। उस दिन मैंने पांचवी कक्षा के विद्यार्थियों के बीच रस्साकशी व रिले दौड़ कराने की योजना बनाई थी पर उनके अस्पताल जाने के बाद हिम्मत नहीं हुई। जब हम अपनी कक्षा में बाल-सभा के अन्तर्गत विद्यार्थियों से कविता आदि सुन रहे थे तो लगभग 12.15 बजे एक साथी शिक्षिका का फोन आया कि सभी कक्षाओं को पंक्तिबद्ध नीचे ले आया जाये क्योंकि उन्हें सफाईकर्मी की मौत की खबर मिली थी। नीचे विद्यार्थियों को इस बारे में सूचित किया गया और एक मिनट के मौन के साथ उन्हें याद करने, श्रद्धांजलि देने, आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करने के बाद विद्यार्थियों को घर जाने को कह दिया गया। जहां वो तड़प रही थीं और हम शिक्षक कुछ अनजान, कुछ भ्रमित, कुछ लापरवाह व कुछ असमंजस में खड़े थे और बच्चे उनकी तड़प और अनदेखी के गवाह थे, वहीं हमने उनकी मौत की घोषणा कर के और एक मिनट का शोक व्यक्त कर अपना फ़जऱ् पूरा कर लिया।
अपने जीवन का 20 साल से भी अधिक दैनिक वेतन पर गुजार देने के बाद भी उन्हें संविधान के उदात्त मूल्यों के प्रति आस्थ-समर्पण रखने वाले कल्याणकारी राज्य से न्याय प्राप्त नहीं हुआ और न ही समाज और उसका बौद्धिक नेतृत्व करने का दंभ भरने वाले हम शिक्षक वर्ग से न्यूनतम संवेदनशीलता मिली। वो अपने कार्य-स्थल पर कराहती रहीं और हममें से कोई उनका दर्द नहीं समझ पाया। सिवाय उस औरत के जो उनकी ही तरह सफाई का काम करती थी। जब छुट्टी के बाद हममें से कुछ शिक्षक उनके घर गए तो वहां एक बिना प्लास्टर का, शायद 30 गज पर बना एक मकान पाया। उनका बेटा अंदर आंगन में तिरपाल लगा रहा था। वहां मुश्किल से 10 लोग बैठै थे, सारी औरतें। जब वरिष्ठ शिक्षकों ने स्कूल की ओर से उनके बेटे को कुछ रूपये सहायता के लिए दिये तो उसने थोडा़ इनकार करने पर लेते हुए कहा कि अगर उसकी पत्नी को स्कूल में नौकरी मिल जाती तो उन पर ‘कृपा’ हो जाती। 10-15 मिनट में ही जब हम चलने को हुए तो मैंने उससे पूछा कि वो अंतिम संस्कार कहां करेंगे। जवाब बताने के साथ न जाने उसने किस संदर्भ में कहा, ‘साॅरी सर, मैं आपको पहचान नहीं पाया और मैंने आपको भाई साहब कह दिया।’ मैं शर्म, दुख और सदमें से अवाक् रह गया। वो जिसकी मां कुछ देर पहले ही मरी थी सामाजिक ऊंच-नीच को लेकर इस कदर सतर्क था। ये मानस किस व्यवस्था और संस्कृति की देन है जो सामाजिक यथार्थ की कू्ररता के आभास को निजी त्रासदी के बेहद गमगीन मौके पर भी भूलने नहीं देता है? घर पर सामान रखकर जब मैं श्मशान घाट पहुंचा तो कुछ देर बाद उनका मृत शरीर लेकर 20-25 लोग वहां पहुंचे। वहां मैंने उनका दूसरा बेटा देखा जो कि लकवे का शिकार होकर और नशे की आदत के कारण कई सालों से परिवार को उचित सहयोग नहीं दे पा रहा है। उनके पति की मृत्यु 20-22 साल पहले ही हो गई थी। किसी ने बताया कि यह तो उनका पैतृक गांव है। तब समझ में आया कि पति के बिना, वापिस अपने माता-पिता के निवास क्षेत्र में जिंदगी बिताने पर औरत के मरने पर परिवार वालों के अतिरिक्त मुठ्ठी भर लोग भी नहीं जुड़ते। जिस संघर्ष के साथ उन्होंने जीवन गुजारा, उसी के तुल्य उन्हें मौत में बेगानापन और अंतिम-संस्कार में तिरस्कार मिला।
मध्यावकाश के बाद एक शिक्षक मेरी कक्षा में आए थे और मैंने उनसे अपने विचार साझा किये कि हमने एंबुलेंस देर से बुलाई। सहमति जताते हुए भी उन्होंने कहा कि क्योंकि यह घटना एक सफ़ाई करने वाली कर्मचारी के साथ हुई है इसलिए देरी हुई मगर इसमें यह भी जोड़ा कि ये तो समाज में सब जगह होता है और अप्रत्याशित नहीं है। मेरे यह कहने पर कि हमें, स्कूल को तो, समाज से एक कदम आगे होना चाहिए, उन्होंने कहा कि आखिर स्कूल समाज का ही तो एक अंग है। समय-समय पर इस क्रूर व्यवस्था में हिस्सेदारी करने के कारण व इसके वीभत्स स्वरूप पर समझौतापरस्त चुप्पी धरने के कारण हम अपनी ही नजरों में जलील होते रहते हैं। कभी-कभी हम्माम में एक-दूसरे के साथ होने का एहसास भी होता है। पर इस त्रासदी ने तो विद्यार्थियों के सामने मेरा नकाब उतार दिया। उन्होंने उस दिन देखा कि उनका प्यारा स्कूल, उनके पहुंचे हुए शिक्षक कितने निर्लज्ज हैं। उस दिन वो इस महान देश की महान, सनातन संस्कृति में दीक्षित हो गये- कि एक इंसान को मरते हुए देखा जा सकता है, कि बेबसी में मरते हुये व्यक्ति की जान की कीमत होती है, कि वह वर्ग, जाति, पेशे, लिंग आदि आधार पर कम-ज्यादा होती है, कि किसी को तड़पते हुये देखकर अविचल, उदासीन व निरपेक्ष रहना संभव है, कि इस बदसूरती, बदनीयती की आदत डालकर इसका अंग बन जाओ, इसे संस्कृति के शिखर पर स्थापित कर दो। और अपने वर्ग, लिंग, काम-जाति को देखो, पहचानो और याद रखो कि यही तुम्हारी औकात है। यही तुम्हारी नियती। उस दिन हमारा स्कूल विद्यार्थियों को उनकी सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा दे गया। हमारे हाथ किसी खून से सन गए तो क्या!
उस व्यक्ति में क्या था जो उसे तड़पते हुए देखकर हममें सहज मानवीय संवेदनशीलता की नहीं बल्कि सरकारी उपेक्षा की प्रतिक्रिया व्यक्त हुई? वो एक औरत थीं, एक बूढ़ी औरत, एक झाडू़ लगाने वाली, एक दैनिक वेतन पर झाडू़ लगाने वाली, 30 साल से दैनिक वेतन पर ही काम करने वाली, एक विधवा, एक दलित ..... वो क्या था? और हमारी सार्वजनिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था व विरासत में क्या है जो हम इतनी आसानी से क्रूरता व तिरस्कार दिखाते हुए, किसी के प्राण चले जाने के बाद भी फलते-फूलते रहते हैं?

2 comments:

Padam said...

समाज के इन असल तथ्यों को अब केवल "कुरीती" कहकर ही नहीं छोड़ा जा सकता .. इस से केवल सहानुभूति मिल सकती है.. जिसकी ज़रुरत हमें बिलकुल नहीं होनी चाहिए.. ज़रूरत है अब सुलगने की, उबलने की, जल उठने , धधक उठने की, ...
हमें अब सुधार की नहीं क्रांति की ज़रूरत है.. अब सोचना ये है -- "What is to be done"

Anonymous said...

बहुत ही मार्मिक एवं एक शिक्षक कि व्यथा को उद्घाटित करता आलेख। लोक शिक्षक मंच इसके लिए प्रशंसा पात्र है कि शिक्षकों के अनुभवों को साझा करने के लिए 'शिक्षक डायरी' नामक यह स्तम्भ रखा. यह इसी पहल का नतीजा है कि हमें ऐसा बेहतरीन अनुभवजनित आलेख पढ़ने को मिला। आलेख के लेखक तथा मंच दोनों बधाई के पात्र।