साथियों,
आज हम ऐसे समय में हैं जब चारों ओर निराशा व असंतोष का माहौल व्याप्त है तथा समाज में बेरोजगारी, भुखमरी, भ्रष्टाचार व हिंसा लगातार बढ़ रही है। पूंजीवादी ताकतें अपने स्वार्थों को साधने के लिए उपभोक्तावादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे रही हैं। इसके लिए वे लोकप्रिय सांस्कृतिक माध्यमों के जरिये खासतौर से नौजवानों को आत्मकेन्द्रित बनाने की कोशिश कर रही हैं। औरतों, वंचित व कमजोर तबकों को लगातार हिंसा व शोषण का शिकार बनाया जा रहा है, जिसके फलस्वरूप उनके लिए आजादी केवल नाममात्र की है।
देश की आबादी के बहुसंख्यक लोग हाशिये पर जीवन जीने को मजबूर हैं और देश के तमाम आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संसाधनों पर कुछ मुट्ठी भर लोगों का कब्जा है। देश की शिक्षा व्यवस्था की स्थिति भी इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था से अछूती नहीं हैं बल्कि इसे और पुष्ट करने का ही काम कर रही है। धार्मिक रीति-रिवाजों व अंधविश्वासों का सबसे अधिक खामियाजा औरतों व वंचित वर्गाें को उठाना पड़ता है और संस्कृति के नाम पर उन्हें अपनी शोषण की स्थिति को आत्मसात् करने को मजबूर किया जाता है। देखा जाए तो शिक्षा का सही अर्थ विद्यार्थियों को तार्किक, चेतनशील तथा देश-समाज के प्रति जागरूक बनाना है ताकि वे अपने व सभी कमजोर वर्गों के विरूद्ध होने वाले शोषण को पहचानंे और उसके खिलाफ संगठित होकर संघर्ष करें। शहीद भगत सिंह का मानना था कि जो शिक्षा हमें अतार्किक, अवैज्ञानिक और भाग्यवादी बनाती है वह सही मायने में शिक्षा नहीं है। उन्होंने अपने लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं?‘ में स्पष्ट किया है कि मनुष्य को भाग्यवादी नहीं होना चाहिए अपितु तार्किक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। बहुत से लोग शिक्षा व नैतिकता का अभिप्राय ईश्वर में आस्था से लगाते हैं। जबकि हमें याद रखने की जरूरत है कि भारत में ही नास्तिकता की एक समृद्ध, विचारशील व मानवता के प्रति समर्पित परम्परा रही है जिसकी एक महत्वपूर्ण कड़ी शहीद-ए-आजम भगतसिंह भी थे। हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था से ऐसी नौजवान पीढ़ी तैयार करनी चाहिए जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस हो। आज भी समाज में तरह-तरह के अवैज्ञानिक दृष्टिकोण, नियतिवाद, अंधविश्वास आदि प्रतिगामी विचार व्याप्त हैं जिनका खात्मा हम तार्किक एवं वैज्ञानिक शिक्षा व्यवस्था से ही कर सकते हैं, और यह सिर्फ राज्य द्वारा पोषित समान स्कूल व्यवस्था के जरिये ही संभव है। परन्तु शिक्षा पर निजीकरण के बढ़ते हमले से समतावादी व वैज्ञानिक चेतना की शिक्षा की परिस्थितियों व सम्भावनाओं को खत्म किया जा रहा है। शिक्षा को विद्यार्थियों को विवकेशील बनाना चाहिए ताकि वे हर रूढि़वादी विचार की आलोचना कर सकें, उसे संदेह के दायरे में रखकर जांच-पड़ताल कर उसे चुनौती दे सकें। भगत सिंह के ही शब्दों में- विवेक एक ध्रुव तारा है जो सही रास्ता बनाकर चमकता रहता है, मगर कोरा विश्वास और अंधविश्वास खतरनाक होता हैै क्योंकि वह दिमाग को कुंद करता है और आदमी को प्रतिक्रियावादी बना देता है।
लोक शिक्षक मंच आपको भगतसिंह, राजगुरू व सुखदेव की शहादत को याद करके उन्हें श्रद्धान्जली देने के लिए 23 मार्च, शाम 4 बजे संत नगर, बुराड़ी में आयोजित सभा में आमंत्रित करता है।
भगतसिंह को जानें......
सबसे पहले यह निर्णय कर लेना चाहिए कि सब इंसान समान हैं तथा न तो जन्म से कोई भिन्न पैदा हुआ और न कार्य-विभाजन से। अर्थात क्योंकि एक आदमी गरीब मेहतर के घर पैदा हो गया है, इसलिए जीवन-भर मैला ही साफ करेगा और दुनिया में किसी तरह के विकास का काम पाने का उसे कोई हक नहीं है, ये बातें फिजूल हैं। इस तरह हमारे पूर्वज आर्यों ने इनके साथ ऐसा अन्यायपूर्ण व्यवहार किया तथा उन्हें नीच कहकर दुत्कार दिया एवं निम्नकोटि के कार्य करवाने लगे। साथ ही यह भी चिंता हुई कि कहीं ये विद्रोह न कर दें, तब पुनर्जन्म के दर्शन का प्रचार कर दिया कि यह तुम्हारे पूर्व जन्म के पापों का फल है। अब क्या हो सकता है? चुपचाप दिन गुजाारो! इस तरह उन्हें धैर्य का उपदेश देकर वे लोग उन्हें लम्बे समय तक के लिए शांत करा गए। लेकिन उन्होंने बड़ा पाप किया। मानव के भीतर की मानवता को समाप्त कर दिया। आत्मविश्वास एवं स्वावलंबन की भावनाओं को समाप्त कर दिया। बहुत दमन और अन्याय किया गया। आज उस सबके प्रायश्चित का वक्त है। (जून 1928 के ’किरती’ में छपे ’अछूत का सवाल’ नामक लेख से)
भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य बहुत अंधकारमय नजर आता है। इन धर्मों ने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। (’साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ नामक लेख जून 1928 के ’किरती’ में छपा था)
हमारा यह भी विश्वास है कि साम्राज्यवाद एक बड़ी डाकेजनी की साजिश के अलावा कुछ नहीं। साम्राज्यवाद मनुष्य के हाथों मनुष्य के और राष्ट्र के हाथों राष्ट्र के शोषण का चरम है। साम्राज्यवादी अपने हितों और लूटने की योजनाओं को पूरा करने के लिए न सिर्फ न्यायालयों एवं कानून का कत्ल करते हैं बल्कि भयंकर हत्याकांड भी आयोजित करते हैं। अपने शोषण को पूरा करने के लिए जंग जैसे खौफनाक अपराध भी करते हैं।.............शांति व्यवस्था की आड़ में वे शांति व्यवस्था को भंग करते हैं। (5 मई 1930 को लाहौर साजिश केस की सुनवाई के दौरान लिखे गए पत्र ’अदालत एक ढकोसला है’ से)
हमारी शिक्षा निकम्मी होती है और फिजूल होती है। और विद्यार्थी-युवा-जगत अपने देश की बातों में कोई हिस्सा नहीं लेता। उन्हें इस संबंध में कोई भी ज्ञान नहीं होता। जब वे पढ़कर निकलते हैं तब उनमें से कुछ ही आगे पढ़ते हैं, लेकिन वे ऐसी कच्ची-कच्ची बातें करते हैं कि सुनकर स्वयं ही अफ़सोस कर बैठ जाने के सिवाय कोई चारा नहीं होता। जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज ही अकल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है। इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें खुद ही समझ लेना चाहिए। यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को निकम्मी समझते हैं, जो सिर्फ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाए। (जुलाई 1928 के ’किरती’ में छपे लेख से)
प्रगति के समर्थक प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह पुराने विश्वास से संबंधित हर बात की आलोचना करे, उसमें अविश्वास करे और उसे चुनौती दे। प्रचलित विश्वास की एक-एक बात के हर कोने-अंतरे की विवेकपूर्ण जांच-पड़ताल उसे करनी होगी। यदि कोई विवेकपूर्ण ढंग से पर्याप्त सोच विचार के बाद किसी सिद्धांत या दर्शन में विश्वास करता है तो उसके विश्वास का स्वागत है।...........मगर कोरा विश्वास और अन्धविश्वास खतरनाक होता है। क्योंकि वह दिमाग को कुंद करता है और आदमी को प्रतिक्रियावादी बना देता है। (27 सितंबर 1931 के ’द पीपुल’ में छपे ’मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ नामक लेख से)
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