Wednesday, 16 July 2014

शिक्षक डायरी : मेरी छात्राओं की शिक्षा यात्रा

                                                                                                                               फ़िरोज़ अहमद 

भावावेश में लिखे प्रस्तुत आलेख में मैंने अपनी छात्राओं की शैक्षिक यात्रा से अपना परिचय बयान किया है। इसका संदर्भ उनके सफ़र का वो ताज़ा पड़ाव है जिस पर वो बारहवीं कक्षा पास करने के बाद पहुँची हैं। यह मेरी उनसे पिछले लगभग दो महीनों की छुटपुट मुलाकातों पर आधारित है। यद्यपि यह स्पष्टतः एक व्यक्तिगत छटपटाहट का परिणाम है, फिर भी मुझे लगता है कि साथियों को इससे यह पुनस्र्थापित करने के लिए कुछ प्रामाणिक उदाहरण मिलेंगे कि कौन-से सामाजिक-राजनैतिक कारक किस तरह से हमारे स्कूलों की छात्राओं के समान शैक्षिक अधिकारों को बाधित ही नहीं करते बल्कि कुचल देते हैं। जाहिर है कि जब हम ऐसा मानने के पर्याप्त कारण पाते हैं तब हमारी जिम्मेदारी आलोचना करने और अफसोस जताने तक सीमित नहीं रह सकती। न्याय व समानता पर टिकी वैकल्पिक व्यवस्था से ही इस छटपटाहट से छुटकारा मिल सकता है। 
यह आलेख किसी सुनियोजित शोध पर आधारित नहीं है। असल में इसमें इस्तेमाल किये गए अनुभवों व सांख्यिकी तथ्यों को साझा करने में भी मुझमें एक अपराधबोध पैदा हो रहा है। इसलिए क्योंकि ये अनुभव व आँकड़े मेरे पूर्व-विद्यार्थियों से रिश्तों का आधार भी हैं और उनकी देन भी। इन बातों को सार्वजनिक करने में नैतिक-भावनात्मक शंका हो रही है कि कहीं मैं निज रिश्तों के अपनेपन को तथाकथित ज्ञान-निर्माण के लौकिक और सामाजिक हितों की खातिर सूली पर तो नहीं चढ़ा रहा हूँ। यह जानते हुए भी कि शोध या इस जैसी किसी चीज का नैतिक औचित्य ज्ञान व समझ के विकास को साझा करने में है, और इस नाते मैं जो भी इस नीयत से बयान कर रहा हूँ वह मुझे दोषमुक्त कर सकता है, मैं कांट की उस दलील से मुक्त नहीं हो पाता हूँ जिसमें उन्होंने किसी इंसान को साधन के रूप में इस्तेमाल करने को अनैतिक माना है। फिर अगर वो इंसान दोस्त हों, अज़ीज़ हों, विद्यार्थी हों... 
पृष्ठभूमि व आगाज
मैं दिल्ली के एक नगर निगम स्कूल में पढ़ाता हूँ। पंद्रह साल पहले जब मैंने पढ़ाना शुरु किया था तो मुझे तीसरी कक्षा मिली थी, जिसे मैंने पाँचवीं तक पढ़ाया। उसके बाद मैंने प्रथम कक्षा को पढ़ाना शुरु किया। (निगम के स्कूल पाँचवीं तक होते हैं और उसके बाद विद्यार्थी अन्य स्कूलों, अधिकतर सरकारी, में चले जाते हैं।) उस साल पहली कक्षा में मेरे पास लगभग 240 विद्यार्थी थे - 218 नए प्रवेश और, उस समय के नियम की वजह से, कुछ 30-40 पिछले सत्र से प्रथम में रह गए। इन ‘पुराने’ विद्यार्थियों में से अधिकतर स्कूल नहीं आते थे, बस उनके नाम रजिस्टर में दर्ज थे। मेरा स्कूल उस समय सह-शिक्षा का अवश्य था पर उसमें छात्र-छात्राओं के अलग-अलग अनुभाग थे और छात्र-छात्रा अनुपात 1:3 था। तो अप्रैल 2002 में मुझे 200 से अधिक छात्राओं के एक समूह को प्रथम कक्षा में पढ़ाने का मौका मिला। (हम एक हॉल में बैठते थे। ) अगले साल, जब वो दूसरी कक्षा में गईं, तो मेरे पास दो अनुभाग रह गए। चौथी में आते-आते मेरे पास एक ही अनुभाग रह गया था। ज़ाहिर है कि हर साल कुछ नई छात्राएँ आ जाती थीं और कुछ पुरानी छूट जाती थीं। (उस समय तक तीसरी कक्षा तक अनुत्तीर्ण नहीं करने की नीति थी पर उसमें भी माता-पिता की सहमति से विद्यार्थी को कक्षा में रोका जा सकता था या फिर हाजि़री कम होने की स्थिति में भी। मैं इन दोनों प्रावधानों का कुछ इस्तेमाल करता भी रहता था।) जब मार्च 2007 में मैं पाँचवीं कक्षा पढ़ा रहा था तो उसमें 55 छात्राएँ थीं। 2006 के मध्य में मैंने स्कूल के पास के इलाके में एक मकान किराए पर लेकर रहना शुरु कर दिया था। यह तथ्य इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इस वजह से मेरा विद्यार्थियों से स्कूल के बाहर व बाद का संपर्क बढ़ गया। उन 55 में से केवल 26 छात्राएँ ऐसी थीं जिन्हें मैं पहली से पढ़ा रहा था। इससे आपको उस दौर में कक्षा समूह में होने वाले बदलावों का एक अंदाज़ा लग सकता है। (आज, जबकि कानूनन आठवीं तक नो डिटेंशन नीति लागू है, सिवाय विद्यार्थियों के स्कूल छोड़कर जाने या नए स्कूल में आने की स्थिति के कोई कारण नहीं है जिससे कक्षा समूह में बदलाव आए। और यह एक सुखद व बेहतर स्थिति है। हाँ, कुछ स्कूलों में विद्यार्थियों को उनके तथाकथित अकादमिक वर्गीकरण के आधार पर अलग-अलग अनुभागों में बाँट देने का घटिया चलन ज़रूर अपनाया जाता है। कुछ पाठकों के लिए यह जानना मौज़ू हो सकता है कि निगम में, मेरी दृष्टि व अनुभव से उत्तम ही, यह नीति/परम्परा है कि एक शिक्षक अपनी कक्षा को प्रथम से पाँचवीं तक पढ़ाती है - हालाँकि इसके अपवाद भी होते हैं, कुछ मजबूरन और कुछ सायास।)
तो आज वो 218 छात्राएँ कहाँ हैं ? उनमें से लगभग 40 प्रतिशत के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है क्योंकि उनमें से कुछ को पाँचवीं से पहले और अन्यों को उसके बाद, अलग-अलग कक्षाओं से, स्कूल छोड़ना पड़ा। और शायद इलाका भी। हालाँकि उनमें से कुछ के बारे में मुझे आधी खबर और आधा विश्वास है कि उनकी पढ़ाई जारी रही होगी। फिर भी ठोस बात यही है कि इन चालीस फीसदी छात्राओं के बारे में आज सटीक जानकारी नहीं है। (इस बिना पर मैं कतई विद्यार्थी/बाल ट्रैकिंग प्रणाली का समर्थन नहीं करता हूँ। यह राज्य की सत्ता-प्रतिष्ठा का एक यांत्रिक निगरानी तंत्र अधिक है, बच्चों के अधिकारों का रखवाला कम।) 15 प्रतिशत के बारे में मुझे मालूम है कि उनकी पढ़ाई छूट चुकी है। 7 प्रतिशत के बारे में मुझे पता है कि उनकी शादी हो चुकी है - कुछ की बहुत पहले, कुछ की हाल ही में। इनमें से केवल दो ऐसी हैं जिन्होंने इस साल बारहवीं पास की। वैसे इन दोनों के भी आगे पढ़ने के आसार बहुत कम दिख रहे हैं। (असमंजस में हूँ कि उन दो-चार छात्राओं के बारे में अच्छा महसूस करूँ या बुरा जिन्होंने कम-से-कम ये निर्णय अपनी पसंद से लिया हालाँकि इससे उनकी पढ़ाई छूट गई और वो बहुत जल्दी उस सामाजिक कैद की गिरफ्त में आ गईं।) याद रखना होगा कि बारहवीं से पहले शादी करने वाली छात्राओं का प्रतिशत 7 तब है जब मैं कुल संख्या में उन 40 प्रतिशत को भी जोड़ रहा हूँ जिनके बारे में आज मुझे जानकारी नहीं है। ज्ञात छात्राओं में से गणना करने पर यह आँकड़ा 11 प्रतिशत आता है। जिस इलाके में मैं रहता हूँ वह दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर से 6-7 कि.मी. की दूरी पर है और यहाँ की आबादी मिश्रित है - स्थानीय गाँव के, हरियाणा, उत्तराखंड, बिहार व उत्तर-प्रदेश के। हमारे स्कूल में भी इन सभी पृष्ठभूमियों के विद्यार्थी पढ़ते हैं - हाँ, गाँव की पारम्परिक रूप से दबंग जातियों का प्रतिनिधित्व उनकी स्थानीय संख्या के अनुपात में नगण्य प्रतीत होता है। इस बात का समाजशास्त्रीय महत्व क्या हो सकता है कि 12वीं से पहले शादी करने वाली छात्राओं में से लगभग 80 प्रतिशत उत्तर-प्रदेश व बिहार की पृष्ठभूमि के परिवारों से हैं ?
उन आरंभिक 218 छात्राओं में से करीब 15 प्रतिशत आज 12वीं कक्षा में हैं क्योंकि किसी समय उन्हें एक अकादमिक वर्ष दोहराना पड़ा। इसी तरह 2 प्रतिशत अन्य छात्राएँ ग्यारहवीं या उससे नीचे की किसी कक्षा में पढ़ रही हैं। 31 प्रतिशत के बारे में मुझे ज्ञात है कि वो इस साल 12वीं पास कर चुकी हैं। इस तरह ज्ञात छात्राओं में से मैं लगभग 80 प्रतिशत को उनके पहली कक्षा में प्रवेश लेने के बारह साल बाद शिक्षा के किसी स्तर पर कायम देख पा रहा हूँ।   
पाठ्यक्रम, विषय व माध्यम की जंजीरें
अब तक मैं 84 छात्राओं के बारहवीं के परिणामों से अवगत हुआ हूँ। इनमें मेरे अनुभाग की वो छात्राएँ भी शामिल हैं जो आरम्भिक 218 में नहीं थीं बल्कि बाद की किसी कक्षा में साथ आई थीं। इनमें से केवल 4 ने विज्ञान से और 3 ने वाणिज्य से पढ़ाई करी है। अव्वल तो दिल्ली प्रशासन के जिस स्कूल में इन छात्राओं को 5वीं के बाद प्रवेश मिलता है उसकी उच्च कक्षाओं में वाणिज्य पढ़ने का विकल्प ही नहीं है। मैं ऐसी 6 छात्राओं को जानता हूँ जिन्हें दसवीं के बाद दूर के निजी स्कूल में दाखिला सिर्फ इस कारण लेने पर मजबूर होना पड़ा। इनमें से 2 को, जिन्हें हम पारम्परिक शब्दावली में होनहार कह सकते हैं, हिंदी से अंग्रेजी माध्यम के (और शायद अन्य तरह के भी जिनके बारे में उन्होंने मुझे नहीं बताया) बदलाव से इतनी परेशानी हुई कि उन्हें 11वीं कक्षा दोहरानी पड़ी। वहीं प्रशासन के स्कूल में दसवीं के बाद विज्ञान पढ़ने वाली छात्राओं को भी माध्यम बदलने से काफी दिक्कत आई। इनमें से एक को ग्यारहवीं दोहरानी पड़ी तो एक अन्य बारहवीं में आए अपने अंकों से बहुत निराश थी। यह वही छात्रा थी जिसने एक साल पहले मुझसे समान स्कूल व्यवस्था और मातृभाषा पर ‘भाषण’ सुनते हुए खीझकर कहा था कि सरकार को निजी स्कूलों को बंद कर देना चाहिए या अपनी जद में ले लेना चाहिए और बाद में जब विज्ञान अंग्रेजी में ही पढ़ाना है तो शुरु से ही क्यों नहीं पढ़ाया जाए ताकि उस जैसे विद्यार्थियों के साथ धोखा तो न हो। स्पष्ट है कि विज्ञान व अन्य विषयों की माध्यम भाषा जब बीच में बदल दी जाती है तो यह परिणामों पर नकारात्मक असर डालती है। एक विषय के रूप में भी अंग्रेजी हमारे विद्यार्थियों के परिणामों व आगे की संभावनाओं पर क्या असर डाल रही है, यह भी उनके अंकों से स्पष्ट हो जाता है। 12वीं पास कर चुकी 51 छात्राओं के विस्तृत अंक मैं नोट कर पाया हूँ। (मैंने इसमें गृह-विज्ञान के अंक जानबूझकर दर्ज नहीं किये। मुझे लगता है कि अगर इसे एक गंभीर विषय की तरह लेना है तो इसे छात्रों को भी पढ़ाना चाहिए, अन्यथा किसी को नहीं। एक आर टी आई अर्जी से प्राप्त आँकड़े बताते हैं कि दिल्ली सरकार के तहत जहाँ छात्राओं के तीन-चैथाई से ज्यादा स्कूलों में गृह-विज्ञान पढ़ाने का इंतेजाम है, वहीं सह-शिक्षा स्कूलों में यह आँकड़ा 50 प्रतिशत से कम है और छात्रों के स्कूलों में तो महज 1 प्रतिशत है ! इस बिना पर इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है कि सह-शिक्षा स्कूलों में भी यह विषय खासतौर से किसे पढ़ाया जा रहा होगा।) चार विषयों के अंकों के आधार पर मैंने इन 51 छात्राओं के योग का प्रतिशत निकाला। मैंने पाया कि अंग्रेजी के अंकों को नजरअंदाज करने से छः छात्राओं के प्रतिशत में गिरावट आ रही थी (1 से 4 प्रतिशत तक), तीन छात्राओं के परिणाम पर कोई असर नहीं पड़ रहा था और 42 के परिणाम में बढ़ोतरी हो रही थी (1 से 10 प्रतिशत तक)। जाहिर है कि अधिकतर छात्राओं को सिर्फ अंग्रेजी माध्यम से ही नहीं बल्कि इसके एक विषय के रूप में होने से भी परिणाम में नुकसान उठाना पड़ रहा है। अगर सभी 51 छात्राओं के परिणाम प्रतिशत पर अंग्रेजी से पड़ने वाले असर की गणना करें तो इसका औसत लगभग 4 आता है। यानी, अगर अंग्रेजी के अंकों को शामिल न किया जाए तो एक औसत छात्रा को 4 प्रतिशत का फायदा हो सकता है। चूँकि 12वीं के अंक विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने के लिए निर्णायक होते हैं, इसलिए अंग्रेजी माध्यम व विषय दोनों का जबरदस्त खामियाजा हमारे विद्यार्थियों को भरना पड़ता है। मुझे याद है कि पहले निगम में दिल्ली में लागू नियमानुसार यह नीति थी कि चौथी-पाँचवीं में अंग्रेजी में पास होना अनिवार्य नहीं था। (हालाँकि मुझे यह भी याद है कि मेरे ही विद्यालय में एक बार 34 विद्यार्थियों को पाँचवीं में केवल इसलिए फेल कर दिया गया था क्योंकि परिणाम तैयार करने वाले तो क्या ‘रिजल्ट अप्रूव’ करने वालों तक को इस नियम की जानकारी नहीं थी ! इस धोखे व आपराधिक लापरवाही की वजह से उस साल 34 विद्यार्थियों का अकादमिक वर्ष अवैध रूप से बर्बाद हुआ और उन समेत किसी को इसका पता भी नहीं चला।) यह भी याद आता है कि कम-से-कम बिहार में पहले इस तरह का नियम दसवीं तक था - आज की स्थिति से अवगत नहीं हूँ। क्या यह नहीं किया जाना चाहिए कि जो अंग्रेजी माध्यम स्कूलों से न पढ़े हों उनका 12वीं का प्रतिशत अंग्रेजी के अंक हटाकर निकाला जाए? (क्या वर्तमान ‘बेस्ट ऑफ फोर’ का सूत्र इसी हेतु है?)
आर टी आई अर्जी के जवाबों से यह भी सिद्ध होता है कि दिल्ली सरकार अपने स्कूलों की उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं में विज्ञान व वाणिज्य पढ़ने के समान अवसर उपलब्ध कराने में नाकाम रही है। या मुकर रही है, क्योंकि वहीं तरह-तरह के वोकेशनल विषयों की बाढ़ सी आ गई है। क्यों नहीं सभी स्कूलों में - निजी हों या सार्वजनिक - सभी आधारभूत विषयों की कक्षाएँ उपलब्ध कराने की शर्त लगाई जाती? छात्राओं के 25 प्रतिशत से कम स्कूलों में विज्ञान की पढ़ाई उपलब्ध है, जबकि छात्रों के स्कूलों में यह संख्या 33 प्रतिशत से थोड़ी ज्यादा है और सह-शिक्षा स्कूलों में 42 प्रतिशत के करीब। कुल स्कूलों में से उच्च कक्षाओं में विज्ञान पढ़ने के अवसर एक-तिहाई से भी कम में उपलब्ध हैं। (आर टी आई के जवाब दिल्ली के समस्त स्कूलों से प्राप्त नहीं हुए हैं फिर भी इनसे एक तस्वीर जरूर उभरती है।) 
लैंगिक समाजीकरण व विवाह का घात
जिन 58 छात्राओं के बारहवीं के विस्तृत परिणाम मैं नोट कर पाया हूँ उनमें से 3 के अंक प्रतिशत 85 से अधिक, 7 के 75 से 84 के बीच, 31 के 60 से 74 के बीच और 17 के 60 से कम हैं। जाहिर है कि इनमें से अगर सब चाहें भी तो उन्हें दि.वि.वि. के उत्तरी परिसर के किसी कॉलेज में प्रवेश मिलने की संभावना बहुत कम है। मैं उक्त परिसर की शर्त यहाँ जानबूझकर लगा रहा हूँ क्योंकि मुझे पता है कि इनमें से बहुतों ने बारहवीं पास करने तक दस रुपये के किराए का वो 6-7 कि.मी. सीधा व 20 मिनट लम्बा सफर भी अकेले नहीं किया है जोकि उनके स्कूल के ठीक सामने वाली सड़क से हर बस व ऑटो से कैंप नाम की उस जगह तक किया जा सकता है जहाँ से वह परिसर दस मिनट के पैदल फासले पर है। मैं यह भी जानता हूँ कि यह पैसे खर्च करके सफर करने व पढ़ने का भी उतना ही सवाल है जितना कि अपने और परिवार के विश्वास पर अकेले, स्वतंत्र बाहर निकलने का। जिन छात्राओं की पढ़ाई छठी से बारहवीं के बीच छूट जाने की वजह का मुझे अंदाजा है, उनके संदर्भ में तीन-चार तात्कालिक कारण गिनाये जा सकते हैं - जल्दी शादी (जिसके अपने कारणों में से एक आगे शामिल है); पिता का पहले से न होना या पढ़ाई के दौरान गुजर जाना - एक छात्रा के पिता की टाँगें एक दुर्घटना के बाद ऑप्रेशन में कटवानी पड़ीं और ग्यारहवीं तक आते-आते उसकी शादी भी हो गई और पढ़ाई भी छूट गई - छात्रा का स्वास्थ्य व यह कहना कि ‘मन नहीं लगता’। असल में इन सभी में परोक्ष रूप से सामाजिक असुरक्षा ही काम कर रही है। परिवार की आर्थिक असुरक्षा और तिस पर लड़की होने के नाते शादी रूपी ‘अंतिम सामाजिक सच’ का फंदा। तो जो माता-पिता सिर्फ यह कहते हैं कि अब वो खर्चा नहीं कर सकते फिर एकदम से अपनी बेटी की शादी नहीं कर देते बल्कि ‘सिलाई-कढ़ाई’ सिखाते हैं, उनमें और उनमें ज्यादा फर्क नहीं है जोकि या तो पढ़ाई छुड़ाकर ’जल्दी’ शादी कर देते हैं या फिर जिनकी बेटियाँ खु़द ही कहने लगती हैं कि अब उनका पढ़ने में मन नहीं लग रहा है। हर स्थिति में वो परिवार अपने-आपको असहाय, मजबूर पाता है। मुझे पता है कि वो औरत मुझे ख़ुशी-खु़शी नहीं बल्कि संकोच से बताती है कि अब वो बेटी को आगे नहीं पढ़ा पाएँगे और वो अपनी बेटी से बेहद प्यार करती है। मुझे पता है कि उस परिवार के दो छोटे बेटों ने भी पढ़ाई छोड़कर ‘काम संभाल’ लिया है। 
एक छात्रा जिसने बारहवीं पास की है अब और पढ़ने की इच्छा नहीं जताती। शायद उसे अपने घर की स्थिति ऐसी भावना व्यक्त करने का कर्तव्य सिखाती है। शायद यह उसी समाजशास्त्रीय परिघटना का उदाहरण है जिसके अनुसार मेहनतकश-वंचित वर्ग बहुत जल्दी भाँप लेता है कि इस शिक्षा में उसके लिए कुछ नहीं धरा है। उसकी माँ बताती हैं कि उसकी दादी तो पिछले दो सालों से कह रहीं हैं कि दसवीं पास करने के साथ ही उसकी शादी कर देनी चाहिए थी। इसी डर से परिवार पिछले दो-तीन सालों से गाँव नहीं गया है! उन्हें पता है कि दादी पोती को वापस पढ़ने नहीं जाने देंगी। पिता बड़े जोश से कहते हैं कि वो अपने बूते पर पढ़ा रहे हैं, किसी से उधार लेकर नहीं, और बेटी आगे पढ़ेगी, चाहे ‘ओपन’ से ही पढ़े। माँ में इतना विश्वास नहीं है - आखि़र बहू होने के नाते अपना प्रतिवाद एक सीमा तक ही ले जा सकती हैं। ये भी एक ‘होनहार’ छात्रा थी। अभी कल ही मिला तो दाखि़ले के बारे में कोई साफ़ बात उसने नहीं की। इसीसे साफ़ हो गया। जिस सामाजिक माहौल में बचपन से ही अपनी बड़ी बहनों और अपनी शादी की निरंतर चिन्तायुक्त चर्चा लड़कियाँ सुनती आ रही हों उसमें वो अपनी पढ़ाई की असल औकात बहुत जल्दी समझ जाती होंगी।
एक छात्रा ने, जिसकी शादी हो चुकी है, बहुत टाल-मटोल के बाद बताया कि उसे अपने बारहवीं के अंक पता नहीं हैं। उसने कहा कि ‘उन्होंने’ नेट पर देखकर बताया था कि वो पास हो गई है, विस्तृत परिणाम नहीं निकाला। यह छात्रा बहुत बातूनी, हाजि़रजवाब व आत्मविश्वास से भरी रहती थी। इस बार मुझसे बोली कि मेरी तरह शिक्षक बनना चाहती है। इससे पहले हँस कर कहती थी कि बहुत पैसा कमाने वाला कोई काम करना है और मैं उसके जज़्बे की, उद्देश्य की कटु आलोचना करता था। इस बार अपनी नैतिकता के मनमाफि़क बात सुनकर मन डूब गया। मैं सपाट जानकारी देकर चला आया।  
एक अन्य छात्रा के भाई से मुलाकात हुई जोकि ‘ओपन’ से स्नातक की पढ़ाई कर रहा है। मैंने उसकी बहन के नंबर पूछकर नोट किये तो कौतुहल व गर्व से उसने पूछा कि क्या किसी और के उसकी बहन से ज्यादा नंबर आए हैं। सचमुच उसके अंक बढि़या हैं (87 प्रतिशत)। वो घर पर नहीं थी तो मैंने उसके भाई से ही पूछा कि आगे क्या सोच रही है। वह बोला कि ‘उनके यहाँ’ वैसे भी शादी के बाद लड़कियाँ कमाने तो जाती नहीं हैं और न ही लड़के अपनी पत्नियों को बाहर जाकर नौकरी करने की इजाजत देते हैं, सो फिर आगे पढ़ाने का क्या फ़ायदा। उसने समझाया कि उसके उसके माता-पिता पढ़े-लिखे नहीं हैं तो उन्हें साधारण काग़ज़ी काम में परेशानी होती थी, सहारा लेना पड़ता था। उसकी बहन इतना तो पढ़ ही गई है कि उसे ये दिक्कत तो नहीं आएगी। मैंने घिसे-पिटे अंदाज़ में जि़ंदगी की अनिश्चितता का डर दिखाने की कोशिश की, कुछ उदाहरण दिए, तो मेरे सामने उसने माना कि जे.बी.टी. जैसा कोई कोर्स करने में कोई हर्ज नहीं है। असल में मैंने उसे समझाने के लिए पढ़ाई के उसी छुद्र उद्देश्य के दर्शन का सहारा लिया जिसकी विमर्श में मैं बौद्धिक स्तर पर घोर आलोचना करता रहता हूँ। 
हैसियत
एक और परिवार में दो बहनों में से एक ने बारहवीं में पढ़ाई छोड़ दी - कुछ बीमार रही, फिर ‘दिल नहीं लगा’ - तो दूसरी ने बारहवीं पास करके एक फ़ैक्ट्री में 5000 की नौकरी पकड़ ली। उन छात्राओं के संदर्भ में जिन्होंने इस साल बारहवीं पास की, फुलटाइम नौकरी का यह पहला उदाहरण है पर कई छात्राओं ने बताया कि वो ‘ओपन’ से इसलिए पढ़ना चाहती हैं ताकि साथ-साथ ‘कुछ और’ भी कर सकें। इसमें कम्प्यूटर और अंग्रेज़ी बोलना सीखने से लेकर छोटी-मोटी नौकरी तक शामिल है। इनमें वो छात्राएँ भी शामिल हैं जिनको किसी कॉलेज में अपनी पसंद का कोर्स मिल सकता था। जैसाकि मैंने ऊपर उल्लेख किया था, तीन छात्राओं के 85 प्रतिशत से अधिक अंक आए हैं और इनमें से किसी ने भी नियमित कॉलेज के फार्म नहीं भरे! मुझ जैसे रूमानी व आधारहीन उम्मीदें पालने वाले शिक्षक को भी अपने काम की सीमाओं का अनुभव हो गया। इस सामाजिक-आर्थिक यथार्थ से परिचय ने - जिसकी ज़रूरत मुझ जैसे अनर्गल ख़्याल रखने वाले को ही है - शिक्षा व्यवस्था की ही नहीं, मेरिट के सिद्धांत की और अपने कर्म की औकात याद दिला दी। साफ है कि मेरी यह समझ कि अधिकतर विद्यार्थी नियमित कॉलेजों में पर्याप्त सीटें न होने की वजह से ‘ओपन’ में प्रवेश लेने को मजबूर होते हैं एक नितांत मध्यवर्गीय/विलासी अनुभवहीनता पर आधारित पूर्वाग्रह पर टिकी थी। ऐसे परिवार व विद्यार्थी बहुत बड़ी संख्या में हैं जोकि मुख्यतः आर्थिक कारणों से नियमित पढ़ाई जारी नहीं रखना चाहते/नहीं रख सकते हैं। तीन साल के अनुत्पादक, निरर्थक, अनिश्चित परिणाम के वादे के समय का दाँव केवल विलासी वर्ग ही लगा सकता है और इसलिए उच्च शिक्षा की व्यवस्था राज्य को सामाजिक न्याय के उसूल पर ही खड़ी करनी होगी। तो उच्चतर शिक्षा में ‘तार्किक’ रूप से फीस बढ़ोतरी की जरूरत बताना व सार्वजनिक संस्थानों में ‘बहुत कम फ़ीस’ की आलोचना करना समाज के वंचित वर्गों के विद्यार्थियों को शिक्षा से और महरूम करने की ही दलीलें हैं। और हाँ, मेहनतकशों को पर्याप्त, न्यायसम्मत काम की परिस्थितियाँ व मेहनताना मिलना परिवारों की सामाजिक सुरक्षा के लिए भी ज़रूरी है और बच्चों की शिक्षा तक सहज पहुँच के लिए भी अनिवार्य है। अर्थनिरपेक्ष मेरिट व समान अवसर पर टिके सामाजिक उतार-चढ़ाव की व्यवस्था पर विश्वास तो तब हो जब कम आय के परिवारों से ‘उठने’ वाले वारिसों का अनुपात ज़्यादा आय के परिवारों से ‘गिरने’ वाले वारिसों के बराबर हो। सच तो यह है कि जिसे हम सब्सिडाइज्ड शिक्षा कहते हैं और जिसकी पूँजीवादी फुजूलखर्ची कहकर आलोचना करते हैं उसकी ही प्रत्यक्ष कीमत इतनी है कि समाज का अधिकांश हिस्सा उसे वहन नहीं कर सकता- परोक्ष खर्च की कौन कहे!
एक छात्रा ने, जिसके पिता दो साल पहले गुजर गए थे, आगे पढ़ने की इच्छा नहीं दिखाई। ( या छुपाई या मैं देख नहीं पाया या?) उसकी एक छोटी बहन ग्यारहवीं में गई है पर स्कूल में मरम्मत के संदर्भ में कक्षों की कमी के कारण उसके बैच को एक दूर के स्कूल में प्रवेश लेने को कहा जा रहा है। इस परिस्थिति में उनके सामने सवाल पैदा हो गया है कि वो ‘इतनी दूर’ जा पाएगी कि अब पढ़ाई छोड़ दे। उनकी माँ ने बताया कि वो पढ़ाना चाहती हैं, वो पढ़ना चाहती है और उसमें ‘आने-जाने’ का विश्वास भी है पर वक्त के साथ पैसा भी तो लगेगा - पास आसानी से बनता नहीं, डी.टी.सी. बस मिलती नहीं, आती है तो जगह नहीं होती। ( इस संदर्भ में मालूम हुआ कि इस बार दूरी के कारण 11वीं में जाने के बाद स्कूल छोड़ने वाली छात्राओं की संख्या काफी बढ़ी है।) और यह तो तय है कि बड़ी बहन तो अब नहीं पढ़ेगी। ‘ओपन’ से भी नहीं। मुझे एक छात्रा ने तीन-चार बार बताया कि वो इस साल ‘ओपन’ में एडमिशन नहीं ले रही है क्योंकि फीस बहुत ज्यादा है, कोई और ‘कोर्स’ करेगी। हर बार उसने जो फीस बताई वो मुझे 35 हजार सुनाई दी जिस वजह से मैंने उसे हर बार टोका कि ‘ओपन’ में इतनी ज्यादा फीस हो ही नहीं सकती। मुझे लगा कि उसे कुछ गलतफहमी हुई है या वो मुझे टरका रही है। फिर उसे मालूम हुआ कि मैं ही गलत सुन रहा था तो वो जोर देकर बोली, ‘‘35 हजार नहीं सर, 35 सौ!’’ और अचानक मुझे महसूस हुआ कि फीस ‘ज्यादा’ होने का संकेत पाते ही मेरे कानों और दिमाग ने ‘35 सौ’ को ब्लॉक कर दिया था और ‘35 हज़ार’ सुन रहे थे। मेरी आर्थिक स्थिति का इंसान कल्पना ही नहीं कर पाया कि उच्च शिक्षा के लिए 35 सौ रुपये की फीस किसी को बड़ी लगेगी! इतने सालों से जिन रिश्तों की तारतम्यता के वर्गीय अलगाव की कुरूपता से परे होने का भरम पाला था आज छात्राओं के स्कूल पास करने पर उस आत्म-छल पर से पर्दा उठ रहा है। संबंधों की सारी दोस्ताना अपनाइयत और निश्छलता के बावजूद हमारे बीच वर्गीय विषमता की खाई और उसकी छाया जिंदा है। उनके उच्च शिक्षा की निर्मम व संकरी दहलीज पर आने और उससे लौटा दिए जाने से हम एक-दूसरे से फिर से परिचित हुए, नए रूप में, अजनबी से। छद्म-आवरण का खेल खत्म हो रहा है; अब इस नाटक को नए सिरे से, नई भूमिकाओं में, नई पटकथा के साथ खेलना होगा। 

इसी क्रम में एक पहलू एक अन्य छात्रा से बात करने पर उजागर हुआ। उसके 89 प्रतिशत अंक आए हैं पर उसके पिता उसका दाखि़ला एक नियमित कॉलेज में कराने की बात इसलिए सोच ही नहीं रहे थे क्योंकि उन्हें लगता था कि फ़ीस 30 हजार तक होगी। जब मैंने उनसे कहा कि दि.वि.वि. के एक औसत कॉलेज में सालाना फ़ीस 6000 तक होगी तो उन्हें हैरानी मिश्रित ख़ुशी हुई और बोले कि फिर तो किसी लड़कियों के काॅलेज में कोशिश की जा सकती है। (हालाँकि फीस के बारे में मेरा अनुमान भी तथ्य से कम था और अंततः उस छात्रा ने कॉलेज के फाॅर्म भी नहीं ही भरे।) उस समय तो मैं भी खुश था और इस पर विचार नहीं किया मगर बाद में सोचा कि शुरु से ही - पहली से पाँचवीं तक स्कूल भले ही सह-शिक्षा का था पर कक्षाएँ तो अलग-अलग ही थीं - लड़कों से अलग स्कूलों में पढ़ने के निश्चित ही कुछ फायदे होते हैं (जिसे नारीवादी विमर्श ने सिद्ध भी किया है), वे कई भेदभावों, गैर-बराबरी के बर्तावों का निशाना बनने से बचती हैं, पर इससे उनकी आगे की पढ़ाई के मानसिक विकल्प भी क्या सीमित नहीं हो जाते? जिन तीन छात्राओं के बारे में मुझे पता है कि उन्होंने नियमित कॉलेज में प्रवेश लिया है उन तीनों के कॉलेज केवल लड़कियों के लिए हैं। ऐसी छात्राओं को उत्तरी परिसर में प्रवेश मिलने की सम्भावना उन छात्राओं के मुकाबले एक-तिहाई से भी कम है जो दोनों प्रकार के कॉलेजों में पढ़ने के लिए तैयार हैं। घर से कॉलेज की दूरी और हफ्ते में एक-दो दिन नहीं बल्कि पाँच-छः दिन पढ़ने जाना, ये कारण तो पहले ही सीमाएँ तय कर देते हैं। उस पर लड़कियों के अलग कॉलेज की मजबूरी इन्हें और तंग कर देगी। 
जहाँ तक फीस की आशंका है, कुछ दोस्तों से इस पर चर्चा करने से यह बात सामने आई कि कैसे सांस्कृतिक, राजनैतिक विमर्श का माहौल पूँजी के हित में एक झूठी मानसिकता का निर्माण कर रहा है। मीडिया में लगातार प्रचार से, टी.वी.-फिल्मों में दर्शाए जा रहे एक प्रकार के शैक्षिक संस्थानों के चित्रण से, राजनैतिक नेतृत्व के बयानों व समारोहों में शिरकत से और सचमुच में फैलते निजी संस्थानों के जाल तथा उनके असली चरित्र से ज़मीनी परिचय की वजह से बहुत से लोगों के मन में से सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों की छवि, उनके फ़ीस व अन्य चीज़ों को लेकर अधिक खुले स्वरूप के अनुभव व उनकी याद तक का लोप होता जा रहा है। हमारे दिमाग में शिक्षा संस्थान के नाम पर चमक-धमक वाले, महँगे स्थलों का ही चित्र उभारा जा रहा है, जहाँ सुविधा-सम्पन्न परिवारों से फैशनेबल ढंग से पहनने-ओढ़ने व बर्ताव करने वाले लड़के-लड़कियाँ आते हैं। अन्य क्षेत्रों के संस्थानों की तरह इस मानसिक परिवर्तन का परिणाम यह होगा कि हम सार्वजनिक संस्थानों का मतलब ही भूल जाएँगे, उनकी माँग ही नहीं करेंगे, उनसे कुछ अपेक्षा ही नहीं रखेंगे और जहाँ वो दिखेंगे तो हम सवाल यह नहीं करेंगे कि उन तक समाज के और लोगों की पहुँच क्यों नहीं है बल्कि ‘स्वाभाविक’ रूप से यह पूछेंगे कि सरकारें फीस बढ़ाकर वहाँ ‘श्रेष्ठ’ सुविधाएँ क्यों नहीं उपलब्ध करातीं ताकि वो तरह-तरह की अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग सूचियों में ऊँचे स्थान पाकर देश का गौरव बढ़ाएँ। कल्पना के अराजनैतिकरण और विस्मृति का यह सुनियोजित भंवर इंसानियत के साझेपन के सामने गंभीर चुनौती है। 
रोजगार
बहुत सी छात्राएँ ऐसी हैं जिन्हें पता ही नहीं है कि वो क्या करना चाहती हैं, तो बहुत सी ऐसी हैं कि उन्हें अभी कुछ भी काम करके कमाना है - ‘कोर्स’ करना है। कई छात्राएँ इधर-उधर से इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स कर रही हैं। यह जानकर खुशी तो नहीं होती पर समझ सकता हूँ। पूछने पर एक ने बताया भी कि स्कूल की पढ़ाई से अंग्रेजी बोलनी नहीं आई। वही नौकरी के बाजार का सवाल। (जिसे समझने की मैं हैसियत नहीं रखता हूँ पर एक कुंठित, आदर्शवादी आलोचना जरूर करता हूँ।) गुस्सा इस पर भी आता है कि नौकरी के लिए सिर्फ हमारे विद्यार्थियों को ही दसवीं के बाद वोकेशनल विषय और फिर बारहवीं के बाद निष्ठुर बाज़ार की मारकाट में क्यों उतरना पड़े ? अगर सरकारों को युवाओं को रोजगारपरक ‘शिक्षा’ देनी है तो पहले उन परिस्थितियों को समाप्त करें जिनमें एक वर्ग के बच्चे बालपन से रोजगार की चिंता में घुलते व ढलते जाते हैं और दूसरे वर्ग के बच्चे बचपन से प्रतिष्ठा को गढ़ते जाते है। एक ओर कम शिक्षा से जल्द मिलने वाला, कम आय, कम लुत्फ और अधिक श्रम वाला रोजगार है, दूसरी ओर लम्बी व महँगी शिक्षा के बाद ज्यादा आय और ताकत वाले पद हैं। दोनों के खेमे बँटे हुए हैं। मुक्त बाजार के वो पैरवीकार जो स्कूलों में परस्पर प्रतिस्पर्धा का महत्व इसलिए गाते हैं कि इससे लोगों के विकल्प बढ़ते हैं, वक्त आने पर उस खूबसूरत चुनाव की बात नहीं करते जिसमें सब लोग अपनी पसंद की शिक्षा व अपने शौक का काम प्राप्त कर पाएँगे। इन वोकेशनल कोर्सेस में विद्यार्थी का चुनाव कहाँ है? ये तो बाजार, उद्योग की जरूरत के चुने हुए कोर्स हैं। यह कुछ हद तक सच है कि हम वर्तमान जगत की संभावनाओं में से ही अपने पसंदीदा काम का चुनाव कर सकते हैं। पर वो सम्भावनाएँ सबके लिए समान रूप से खुली तो हों, सबको पर्याप्त अवसर व जानकारी तो हो। एक साल पहले एक छात्रा ने एयर होस्टेस बनने की इच्छा जताई थी। इस काम के दर्शन से असहमत होते हुए भी मुझे उसकी चाहत सुनकर अच्छा लगा था। इस बार जब मिला तो उसकी बातों से लगा कि उसकी ‘अक्ल ठिकाने आ गई’ थी - कोई कम्प्यूटर कोर्स या ‘ओपन’ करने की बात करती रही। मैंने भी याद नहीं दिलाया। 
यह जानते हुए कि वो नियमित कॉलेज में प्रवेश लेना नहीं ‘चाह’ रही हैं और शायद इतने अंकों पर उन्हें कम-से-कम उत्तरी परिसर में प्रवेश मिल भी न पाए, मैं अधिकतर छात्राओं से बोल ही देता था कि उन्हें नियमित कॉलेज में दाखिला लेने की कोशिश करनी चाहिए, वहाँ बेहतर पढ़ाई होती है, दिमाग को और खुलने के लिए अकादमिक माहौल मिलता है आदि। जब ऐसा ही कुछ मैंने एक छात्रा से भी कहा तो थोड़ा रुककर और धीमी आवाज़ में वो बोली, ‘‘सर, स्कूल तो रोज़ एक ही यूनिफाॅर्म में चले जाते थे मगर कॉलेज तो...’’ मेरा मुँह बंद हो गया और दिमाग खुल गया। कितने मिथक, झूठ, पूर्वाग्रह मैं अपने वर्गीय परिवेश की विरासत से पाले बैठा हूँ! जब कभी सच से मुलाकात होती है तो शर्म भी आती है और आँख खुलने का सुकून भी होता है।
एक छात्रा की माँ अस्पताल में काम करती हैं और पिता नहीं हैं। कुछ माह पहले उसने पहली बार नर्स बनने की बात की थी पर इस बार बोली कि पैसों की कमी के कारण उसकी माँ कह रही हैं कि वो अगले साल प्रवेश दिला देंगी, इस साल वह ‘ओपन’ में या किसी और कोर्स में दाखि़ला ले ले। यह महत्वपूर्ण है कि जिन 5-10 छात्राओं ने स्पष्ट उद्देश्य व्यक्त किये उनमें से अधिकतर ने नर्सिंग का कोर्स करने की बात कही। ठीक ही तो है - हमारी छात्राएँ नर्स बनेंगी और वो डॉक्टर बनेंगे। और ये मुझे क्या हो गया है? बहसों में प्रिंसिपल से लेकर साथी शिक्षकों को यह समझाने वाला कि मैं तो इसी को शिक्षा की सफलता मानता हूँ और इसी में खुश हो जाऊँगा कि मेरा कोई विद्यार्थी भले ही रिक्शा चला रहा हो पर किसी के आगे सर न झुकाए, आत्म-सम्मान से सराबोर हो- आज अपने विद्यार्थियों के नर्स जैसे मानवीय पेशे चुनने पर विचलित क्यों है?
कुछ अनिश्चित सम्भावनाएँ लोगों की कल्पना में, उनकी भौतिक परिस्थितियों की सीमाओं के बावजूद, छिपी रहती हैं - कहीं कुछ नया, अद्भुत या असाधारण करने के लिए खोज निकालें। मगर मन इस बात को भी लेकर कचोटता रहा कि हमारे विद्यार्थी, उनके परिवार, उस सामाजिक पूँजी से भी महरूम थे जिसका लाभ संपन्न तबके के परिवारों के बच्चे यूँ ही उठाते रहते हैं - कौन-कौन से कोर्स उपलब्ध हैं, कहाँ-कहाँ से हो सकते हैं आदि। भेड़चाल तो मैं भी चला था स्कूल बाद पर पिता की स्थायी सरकारी नौकरी की वजह से और इस साफ समझ के कारण कि मुझे शिक्षक ही बनना है, मुझे उस भेड़चाल से भी फायदा ही हुआ, कोई खास कीमत नहीं चुकानी पड़ी। मगर मेरे अधिकतर विद्यार्थी घोर सामाजिक असुरक्षा और अपने शौक की अस्पष्टता के कारण इस सुविधाजनक स्थिति में नहीं हैं। (वैसे शौक नाम की शह का सामजिक असुरक्षा व  विपन्नता में पलने का सवाल भी पैदा नहीं होता। शौक से काम चुनने की विलासिता को पालना तो दूर, ये ख्याल उनके तसव्वुर में भी नहीं आ सकता।) एक मित्र ने बताया कि ग्यारहवीं-बारहवीं के विद्यार्थियों के लिए कॅरियर काउंसलिंग का प्रावधान है पर उन्हें नहीं पता कि कितने स्कूलों में और किस गंभीरता से इसे अंजाम दिया जा रहा है। वैसे मैं कॅरियर काउंसलिंग के नाम से घबराता हूँ। सैद्धांतिक आपत्ति तो यही है कि कोई किसी के कहने से, प्रभावित होकर अपनी पसंद क्यों तय करे, यह तो प्यार की तरह लाभ-हानि से परे, मन की आवाज़ होनी चाहिए। मगर डर का कारण यह सम्भावना है कि कहीं इसमें छात्राओं को वर्गीय और लैंगिक आधार पर एक खाँचे में डालकर ब्यूटीशियन, स्टेनो, शिक्षक जैसे विकल्पों तक सीमित न कर दिया जाता हो। मैं तो चाहूँगा कि छात्राओं को पत्रकारिता, जासूसी, नाविक, पर्यावरण संरक्षण, प्लंबर, जानवरों के इलाज, ट्रेन चालन, बढ़ई, कला आदि, और उनके द्वारा पूछे गए पेशों से जुड़ी सहज जानकारी बिना किसी पूर्वाग्रह के दी जाए। (भले ही शिक्षा के बाज़ार के चलते ये एक भरम रहेगा। फिर श्रेष्ठ तो यही है कि बच्चे साहित्य पढ़कर या किसी अन्य तरह किसी काम के बारे में रूमानी ख्याल जगाकर अपनी पसंद तय करें।) इस बार लगा कि अपने-अपने पड़ोस में, अपने स्कूलों में, अपने विद्यार्थियों के साथ तो हमें कल्पना व यथार्थ मिश्रित यह काम सुनियोजित रूप से साल-दर-साल करते रहना चाहिए। यह जानते हुए कि वर्तमान व्यवस्था की बंदिशें इनमें से अधिकतर विकल्पों को बेमानी करार देकर खारिज कर देंगी, शिक्षक होने के नाते अगर हमें यथार्थ की अमानवता को तोड़ने का उद्देश्य शिक्षा के समक्ष रखना है और उसकी शिक्षा भी देनी है तो फिर इस यथार्थ से परे सुंदरता, मुक्ति व न्याय के सपनों को भी संजोये रखना होगा। इस दिशा में हमें उचित साहित्य चुनना होगा, साहित्य पर मुक्तिकामी चर्चा करनी होगी और प्रतिरोधी-सुंदर साहित्य रचना भी होगा। 
पुनश्चः
जिस छात्रा के एक फैक्ट्री में नौकरी करने का उल्लेख मैंने ऊपर किया था उसकी बड़ी बहन ने - जोकि खुद पढ़ाई छोड़ चुकी है - गर्व से बताया कि छोटी तो ‘बहुत कुछ करना चाहती है’। उसने यह भी बताया कि वहाँ उन्हें खड़े होकर काम करना पड़ता है। हफ्ते में एक छुट्टी मिलती है पर कोई और छुट्टी लेने पर दिहाड़ी कट जाती है। खाना वहीं से लेना पड़ता है, उसके पैसे कटते हैं। खाओ चाहे न खाओ। इसी तरह तबीयत खराब होने पर वहीं से दवा लेनी पड़ती है और उसके पैसे भी कटते हैं। कम्पनी की बस से जाते हैं ताकि लेट न हों और उसके पैसे भी कटते हैं। मैं पूछ नहीं पाया कि 5000 में से आखिर हाथ में कितने मिलते हैं। काम दस घंटे का है, बीच में आधे घंटे का लंच। असल में काम की अनिवार्यता, थकान, नीरसता व कौडि़यों के भाव सस्ता श्रम, इन सबकी हमारी छात्राओं को आदत है। इन तत्वों से तो बचपन से ही लड़की होने के नाते घर-परिवार (और कभी-कभी स्कूल) की परम्परा अभ्यस्त करा देती है। श्रम के शोषण का सुहागा पीस रेट पर सपरिवार - अधिकतर माँ, बहनों व पड़ोसनों के साथ - काम करते-करते प्राप्त हो जाता है। वो तो बचपन से ही चूडि़यों पर सितारे चिपका रही हैं, हाथ पर गोंद के धब्बे रहते हैं, नाखूनों में मैल जम गई है, खाल पर निशान पड़ गए हैं, ऐलर्जी तक हो गई है - तो क्या! यही तो प्रैक्टिस, तैयारी है। किसी के घर पर बादाम तोड़े जाते हैं, कोई प्लास्टिक के टुकड़े जोड़कर ‘माल’ बना रही है। कमा लेते हैं पाँच-छः लोग मिलकर, पाँच-छः घंटे काम करके, 40-60 रुपए। अगर तीस घंटे मानव.श्रम के 90 रुपये भी मान लें तो एक घंटे के 3 रुपए के हिसाब से आठ घंटे प्रतिदिन की मेहनत के 24 रुपए हुए। हममें से उनको जिन्हें वर्गीय विषमता का सामाजिक यथार्थ देखने-समझने-महसूस करने में मुश्किल होती है, कुछ और नहीं तो शायद ये संख्याएँ ही हमारी छात्राओं की जीवन परिस्थिति से परिचित करा पाएँ।           

2 comments:

Anonymous said...

बहुत ही शानदार आलेख! लेखक बधाई के पात्र हैं जिन्होंने अपने व्यक्तिगत अनुभवों (जो प्रत्येक शिक्षक को होते हैं- अगर महसूस करें तो) को एक बड़े धरातल पर रखा और कई प्रश्न हमारे समक्ष खड़े किये। आशा करता हूँ लोक शिक्षक मंच द्वारा हमें और भी शिक्षकों के अनुभवों से हमें परिचित कराया जायेगा। ऐसे आलेख को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाने की जरुरत है.

Unknown said...

Firoz sir un students m se ek bhi thi jise aapse padhne Ka soubhgye prapt hua Aapke is lekh ko padh m m unhi Dino m wapas chali ...muje Soch ke ye gravh mehsus hota h ki aapne hmari zindgi ki itni kareeb se parkha aap jesa shikhsk vaykti shyd Kabhi dusra ho bhi na ...aapse padhna mere Jeevan ki sabse badi baat h h muje shuru m afsos tha ki m ase school se padhai Yaha muje ek Acha adhar pardhn Nahi Kar paaya parntu wahi dusri aur jab ye sochti Hu ki us school m aap jesa shikhsk mujud h to bahut Khush mehsus Hoti h ..thank you so so much sir ise likhne ke liye ...aapki Vidyarthi SARITA