साथियों,
हर बार की तरह इस साल भी हमारे स्कूलों में 5 सितंबर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। यह तारीख शिक्षा में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़े किसी स्कूली शिक्षक या बराबरी के हक के लिए लड़े गए किसी आंदोलन या किसी परिवर्तनकामी मोड़ की याद में नहीं चुनी गई है, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति के जन्मदिन पर चुनी गई है जिसका शिक्षा के सार्वभौमिकरण में कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं रहा है। इसके बनिस्बत शिक्षा में अतुलनीय योगदान देने के लिए ज्योतिबा फुले, पंडिता रमाबाई, सावित्रीबाई फुले, गिजुभाई बधेका जैसे शिक्षकों के संघर्षों से जुड़ी तिथियाँ शिक्षक दिवस के लिए अधिक उपयुक्त लगती हैं। गैर-बराबरी पर टिकी व्यवस्था में शिक्षा और शिक्षक का काम समता व इंसाफ की राह तैयार करना है। जाहिर है कि यह काम संघर्ष के लिए प्रेरित करने वाले इतिहास बोध से ही हो सकता है। प्रशासनिक आदेशों और औपचारिक परंपराएं निभाने वाले कार्यक्रमों से तो शिक्षकों की बौद्धिकता के कुंद होने की ही संभावना अधिक है।
इस बार का शिक्षक दिवस समारोह इस औपचारिकता को और जटिल बनाएगा। सरकारी आदेश के अनुसार 5 सितम्बर को दोपहर 2ः30-4ः45 बजे के बीच हर विद्यालय में प्रधानमंत्री के भाषण का सीधा प्रसारण बच्चों को दिखाया जाना है। इस आदेश के कार्यान्वयन के लिए कहा गया है कि अधिकारी वर्ग स्कूलों में जाकर यह देखे कि आदेशों का पालन सख्ती से हो रहा है कि नहीं। जारी किए गए आदेश के अनुसार, इंतजामात में किसी भी तरह की कमी को गंभीरता से लिया जाएगा। यह शिक्षकों के आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचाकर उन्हें उनकी औकात याद दिलाने की ऐतिहासिक कवायद है। शायद ऐसा पहली दफा हुआ है कि शिक्षक दिवस के मौके पर शिक्षकों को प्रशासनिक तौर-तरीके से धमकी का तोहफा दिया गया है। इस बार के केन्द्रीकृत आयोजन ने स्कूलों और बच्चों के शिक्षक दिवस अपने-अपने ढंग से मनाने या नहीं मनाने की आजादी को भी छीन लिया है। भले ही इसे प्रधानमंत्री के सीधे बच्चों से बातचीत के सकारात्मक रूप में भी देखा जा रहा हो, पर क्या यह स्कूल जैसी स्वायत्त संस्था में तानाशाही हस्तक्षेप का नमूना नहीं है?
एक और विडंबना यह है कि दिल्ली सरकार के स्कूलों में हजारों शिक्षकों के पद खाली हैं। इसका मतलब है कि शिक्षकों की अनुपस्थिति में कुछ विषय या तो बच्चों को पढ़ाए ही नहीं गए या मजबूरन किसी अन्य विषय के शिक्षक द्वारा पढ़वाए गए। अगस्त के अंत में जो गेस्ट अध्यापक नियुक्त भी हुए, उन्हें 20-25 दिनों में ही पाठ्यचर्या पूरी कराने की जिम्मेदारी दी गयी ताकि बच्चे जैसे-तैसे पहले सत्र की परीक्षाएं दे सकें। ऐसे ढाँचे में ‘गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा’ का नारा महज एक खोखला मुहावरा बनकर रह जाता है। शिक्षकों का अनियमन कोई तकनीकी या वित्तीय समस्या नहीं है बल्कि यह नवउदारवादी हमले के तहत अपनाई जा रहीं नीतियों का परिणाम है। हर क्षेत्र में श्रम शक्ति का ठेकाकरण और अस्थायीकरण हो रहा है ताकि काम करने के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध हो सके। जिस शिक्षा व्यवस्था में अध्यापक हर समय अपनी नौकरी के लिए असुरक्षित है, उस व्यवस्था में कौन से सामाजिक मूल्य पल सकते हैं? ऐसे माहौल में शिक्षकों का अपने विद्यार्थियों में लोकतान्त्रिक और समतावादी समाज बनाने की समझ और हिम्मत पैदा करना एक चुनौती है।
साथियों, हम आपसे अपील करते हैं कि इस गैर-बराबरी पर टिकी व्यवस्था और तानाशाही के माहौल का विरोध करें और जनतांत्रिक, समतामूलक, सार्वभौमिक शिक्षा की स्थापना के लिए मिलजुलकर संघर्ष करें।
1 comment:
भारत में 5 लाख स्कूली शिक्षको की कमी है. सर्कुलर में एक तुगालकी फरमान और है कार्यक्रम शुरु होने से पहले सभी स्कूल भाषण सुनने वाले छात्रों की संख्या वेबसाइट लिंक पर अपडेट करें.
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