Friday, 28 November 2014

पर्चा : धार्मिक नफरत और हिंसा : शिक्षा के समक्ष चुनौती


स्कूलों की एक अनिवार्य भूमिका विद्यार्थियों को समाज में घट रहे अन्यायों, अत्याचारों के खिलाफ जूझने के लिए तैयार करना है|  आज हमारे देश में धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण तेज़ी से बढ़ रहा है| विभिन्न समुदायों के बीच सदियों से चलते आये सह-अस्तित्व पर व्यवस्थित ढंग से हमले हो रहे हैं| हमारे शहर में भी साम्प्रदायिक तनाव,  डर और हिंसा की आहटें डेरा डाल रही हैं। पिछले कुछ महीनों में एक-के-बाद-एक कई इलाके जैसे त्रिलोकपुरी, बवाना, ओखला, करबला, बाबरपुर इस तनाव से गुज़रे|
इस तनाव के कारण कुछ इलाक़ों में तो विद्यार्थियों का स्कूल आना पूरी तरह बंद हो गया| समाज में व्याप्त ऐसे डर का बच्चों के दिलो-दिमाग़ पर कितना गंभीर असर पड़ता होगा?  जब हिंसा और डर के माहौल में स्कूल बंद होते हैं तो सबसे ज़्यादा नुकसान उन इलाकों में हिंसा का शिकार हुए वर्गों के बच्चों का और खासतौर से लड़कियों का होता है (तमाम तरह की हिंसा  का निशाना बनना, बेघर होना, स्कूल का छूटना, उपस्थिति कम होना आदि) | त्रिलोकपुरी जैसे इलाकों में हुई हिंसा के बाद जो परिवार पलायन कर गए उनके बच्चों की स्कूली शिक्षा में आये विराम की ज़िम्मेदारी किसकी है?  
क्या हम बच्चों में इन तनावों से उपजे सवालों,  डर और क्रोध से जूझने के लिए तैयार हैं? क्या हम विद्यार्थियों को सहज और सुरक्षित महसूस कराने के लिए तैयार हैं? क्या हम अपने विद्यालयों में प्रेम और न्याय के बीज बोने के लिए तैयार हैं? इस पर्चे के माध्यम से हम ऐसे ही कुछ सवालों व उम्मीदों को साझा करेंगें|

भारत के संविधान से..
अनुच्छेद 51क. मूल कर्तव्य 
(ड.) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं। 
 (ज) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे। 
अनुच्छेद 25 (धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार)
सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने,आचरण करने और प्रचार करने का समान हक़ होगा। 
अनुच्छेद 28 (शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता)
(1) राज्य-निधि से पूर्णतः पोषित किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। 
(3) राज्य से मान्यताप्राप्त या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली शिक्षा संस्था में उपस्थित होने वाले किसी व्यक्ति को ऐसी संस्था में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिए या ऐसी संस्था में या उससे संलग्न स्थान में की जाने वाली धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के लिए तब तक बाध्य नहीं किया जाएगा जब तक कि उस व्यक्ति ने, या यदि वह अवयस्क है तो उसके संरक्षक ने, इसके लिए अपनी सहमति नहीं दे दी है।  

हमारी ज़िम्मेदारी
1. व्यक्तिगत तौर पर अलग-अलग पृष्ठभूमियों से आते हुए भी हम शिक्षक एक लोकतान्त्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समतामूलक समाज के निर्माण के लिए कार्यरत हैं| यह हमारे विवेक का ही परिणाम है कि हम अपने पूर्वाग्रहों से लड़ते हुए विद्यार्थियों को तर्कसंगत एवं निरपेक्ष माहौल उपलब्ध कराने की कोशिश करते हैं| यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि भारत के संविधान के मूलभूत आदर्शों (न्याय, स्वतन्त्रता, समता और बंधुत्व) को अपनी कक्षाओं तक लाएं|   

2. शिक्षक होने के नाते हमारी ज़िम्मेदारी है कि हमारे शिक्षण और व्यवहार में किसी विशेष जाति, धर्म, लिंग, नस्ल, क्षेत्र आदि को निशाना बनाने वाले प्रसंगों और टिप्पणियों का कोई स्थान न हो।
3. हमें यह आत्मसात करने की जरूरत है कि भारत एक विविधतापूर्ण देश है| हमें विभिन्न पृष्ठभूमियों के विद्यार्थियों को मिलजुल कर काम करने के मौके देने होंगे जिससे वे सामूहिक प्रगति के लिए प्रयासरत हों| वे सभी सामाजिक रूढ़ियों के पार जाकर  सहज दोस्ती करने और एक-दूसरे की संस्कृति को बिना पूर्वाग्रह के जानने के लिए प्रेरित महसूस करें|

4. शिक्षक होने के नाते हम  सभी विद्यार्थियों को बराबर प्यार, ध्यान और सहज माहौल देने की कोशिश करते हैं, पर आज जरूरत इस बात की है कि हम हाशिये पर धकेल दिए गए वर्गों से आने वाले बच्चों के प्रति अधिक संवेदनशील हों। बुद्ध, नानक, कबीर, रविदास, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई, भगत सिंह से लेकर अम्बेडकर तक की विरासत से हमें वो आधारभूत पैमाना हाथ लगता है जिसके अनुसार हम अपनी दिशा तय कर सकते हैं|

5. आज शिक्षकों को धर्म के सवाल से बचने की नहीं, उसे इतिहास के नज़रिए से समझने की ज़रूरत है| इतिहास से पता चलता है कि राज्य और धर्म के गठबंधन ने लोगों को मानसिक गुलाम बनाकर उनके हक छीने| रोम के कॉनस्टेनटाइन, उत्तरी भारत के समुद्रगुप्त, सऊदी अरब के खलीफाओं आदि ने किसी न किसी धर्म को राज्य धर्म बनाकर शासन किया| यह सदियों के संघर्ष की देन है कि हम आज एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के नागरिक हैं जिसमें हर व्यक्ति धार्मिक और राजनीतिक बराबरी का अधिकारी है|

6. धर्म के नाम पर फैलने वाली अफवाहों के उद्देश्यों को समझने की ज़रूरत है कि कैसे इन अफवाहों से आपसी विश्वास और संबंधों में दरारें उत्पन्न की जाती हैं| इसके लिए हमें चीज़ों को ठहर कर देखने और समझने की ज़रूरत है| यही समझ हमें अपने विद्यार्थियों में भी विकसित करनी होगी ताकि वे ऐसे परिपक्व  नागरिक बन सकें जो न भड़कते हैं, न भड़काते हैं, न गुमराह होते हैं, न गुमराह करते हैं। 

7. हमें ऐसी कहानियों को खंगालने और साझा करने की ज़रूरत है जिनमें सभी समुदायों ने मिलकर विभाजक ताकतों के खिलाफ़ संघर्ष किया| एक ओर साम्राज्यवाद के खिलाफ  लड़ने वालों में भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और अशफ़ाक़ के क्रांतिकारी उदाहरण हैं तो दूसरी ओर गाँधी, सुभाष, खड़क सिंह, अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान आदि के जनांदोलनकारी उदाहरण भी हैं जिनमें सभी वर्गों की हिस्सेदारी रही। 1947 के खूनखराबे से लेकर आजतक हुए सभी नरसंहारों में हमें इंसानियत की लौ जलाए रखने वाले उन लोगों के उदाहरण भी मिलते  हैं जिन्होंने निःस्वार्थ भाव से  जान की बाज़ी लगाकर दूसरे समुदायों के लोगों की जानें बचाईं, उन्हें शरण दी और मानवता के सच्चे आदर्शों का पालन किया|

8. हमारी पाठ्यचर्या, विशेषत: इतिहास की किताबों में अक्सर कुछ सन्दर्भों/घटनाओं को ऐसे प्रस्तुत किया जाता है जिससे परस्पर धार्मिक विद्वेष और संकीर्ण पहचान को मज़बूती मिलती है| यही सोच बाद में समाज के ध्रुवीकरण और सांप्रदायिक हिंसा के लिए ज़मीन तैयार करती है| वर्षों की कोशिशों के बाद कहीं-कहीं महिलाओं, दलितों, आदिवासियों व अल्पसंख्यकों की कहानियाँ, चित्र व उदाहरण झलकने लगे हैं| किन्तु यह कोई मोहरबंद उपलब्धि नहीं है| ऐसे में हमारा बौद्धिक दायित्व है कि विद्यार्थियों को विभिन्न  मुद्दों के विविध पहलुओं से संवेदनशीलता से परिचित कराएं।

9. हमारे स्कूलों को भी लोकतांत्रिक होने और विविधता को स्थान देने की ज़रूरत है। क्या सिर्फ उन्हीं संस्कृतियों से परिचय कराया जाए जिनका स्कूल में वर्चस्व है? अगर किसी स्कूल में एक भी बौद्ध-जैन या आदिवासी नहीं है तो क्या तब भी  हमारी ज़िम्मेदारी और बच्चों का हक़  नहीं है कि इनके बारे में जानें? स्कूल धर्म-प्रचार और दकियानूसी विश्वासों के स्थान नहीं हो सकते। हाँ, स्कूल ऐसे स्थल ज़रूर हो सकते हैं जहाँ हमारे रिश्ते किसी संकीर्ण विचारधारा के अधीन ना हों|

आज शिक्षा पर कई प्रकार के राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक हमले हो रहे हैं जिन्हें समझने और जिनसे जूझने के लिए पूरे शिक्षक वर्ग को साथ आना होगा| आज हमें खुद को समाज के दूसरे हिस्सों के संघर्षों से जोड़ने की ज़रूरत है, वे संघर्ष जो मेहनतकश द्वारा श्रम के ठेकाकरण तथा अस्थायीकरण के खिलाफ जारी हैं| जिस तरह अलग-अलग श्रेणियों में बांटकर (पैरा/गेस्ट/स्थायी) शिक्षकों की लड़ाई कमज़ोर की जाती है उसी तरह सांप्रदायिक दरारें डालकर मेहनतकश वर्गों का संघर्ष भी कमज़ोर किया जाता है। धार्मिक हिंसा के बाद जहाँ मज़दूरों को और खराब परिस्थितियों में और कम मेहनताने पर काम करने को मजबूर होना पड़ता है, वहीं महिलाओं की थोड़ी बहुत आज़ादी पर भी डर के ताले लगा दिए जाते हैं।

शिक्षक साथियों से अपील

·         विद्यार्थियों को तर्कसंगत एवं निरपेक्ष शैक्षिक माहौल उपलब्ध कराएं जिनमें वे एक-दूसरे के साथ काम करें तथा अन्य संस्कृतियों के प्रति संवेदनशील बनें।
·         व्यक्तिगत भाषा एवं व्यवहार में किसी विशेष जाति, धर्म, लिंग, नस्ल, क्षेत्र आदि को निशाना बनाने वाली टिप्पणियों का विरोध करें।
·         विद्यार्थियों के सामने ऐसे आदर्श प्रस्तुत करें जिनसे वे आपसी मतभेदों और विवादों से निबटने के लिए हिंसा को नहीं संवाद को चुनें।  
·         धर्म के सवाल को समझने के लिए संकीर्णता से नहीं, ऐतिहासिक व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से काम लें।   
·         विद्यालयों को सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक स्थल बनाएं जहाँ धार्मिक पर्वों, प्रार्थनाओं पर पुन:विचार किया जाए।  
·         शिक्षकों के संघर्ष को समाज के अन्य वर्गों के संघर्षों के साथ जोड़कर देखें और सामूहिक संघर्ष के लिए प्रयास करें।  


पर्चा : वर्णवाद पर आधारित गैरबराबरी का पुरजोर विरोध करें।


मुक्ति अकेले नहीं मिलती,
अगर वह कहीं मिलती है,
तो सबके साथ मिलती है
0 मुक्तिबोध
साथियों , 
सदियों से जातिप्रथा का भयावह दंश झेलने वाले समुदायों से प्रतिरोध के स्वर उभर रहे हैं। यह प्रतिरोध दृढ संकल्प के साथ उपस्थित होता हुआ स्वर है जो अपने साथ चेतना, जागरूकता और निर्माण की गूंज लिए हुए है। भारतीय समाज जातिव्यवस्था के ताने-बाने की सड़ांध में इस तरह लिप्त है कि जैसे ही इस व्यवस्था के खिलाफ कोई आवाज बुलंद होती है तो सदियों से सत्ता पर काबिज वर्ग उन आवाजों को दबाने के लिए एकजुट हो उठते हैं। 
विभिन्न जातियों के बीच शक्ति-संबंधों को धार्मिक ग्रन्थों के जरिए सांस्कृतिक वैधता प्रदान की गई। भारत के इतिहास में शिक्षा ने ’उच्च’ जातियों के ग्रन्थों को ‘ज्ञान’ का श्रेष्ठ आधार माना और शोषित जातियों के अनुभव-संसार को हमेशा बहिष्कृृृृृृृृृृृृृत किया। यह त्रासदी है कि लोहार, नाई, धोबी, चर्मकार, बढ़ई, किसान, राजमिस्त्री जैसे मेहनतकश वर्गों ने जिस ज्ञान का सृृृृृृजन व विस्तार किया उसे शिक्षा में जगह ही नहीं दी गई, बल्कि शिक्षा ने एक हथियार की तरह उनके काम, रचनाओं और स्वाभिमान पर लगातार ऐसा प्रहार किया जिससे वे उबरने में आज तक संघर्षरत हैं। आज भी हमारे स्कूलों, कॉलेजों में जो शिक्षा मिलती है वह जाति आधारित ताने-बाने और संस्कारों को मजबूत करती हुई दिखाई पड़ती है। 
इस वर्णवादी व्यवस्था के कारण न जाने कितनी जिंदगियां छल और कपट का शिकार होकर मिट जाती हैं। फिर भी अगर किसी तरह कुछ दलित अपनी पहचान बना भी लेते हैं तो उनको कई तरह के हथकंडों से घेरा जाता है। जिस उपेक्षा और छींटाकशी का शिकार उन्हें होना पड़ता है वह उनके आत्मविश्वास को कुचलकर रख देता है, जिसकी परिणति एम्स और आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में दलितों की आत्महत्या जैसी घटनाओं में उभर कर सामने आती है। जहां कहीं भी दलितों ने नाममात्र की जमीन, शिक्षा व नौकरियां प्राप्त की हैं, अक्सर वहां उन्हें रोकने के लिए हिंसा का सहारा लिया जाता है। बथानी टोला, लक्ष्मनपुर बाथे, बंत सिंह, खैरलांजी, गोहाना, मिर्चपुर, भगाना जैसी घटनाएं इसके कुछ उदाहरण हंै। 
जातिगत दुर्भाव के एक रूप को सरकारी विद्यालयों में मिलने वाली विभिन्न छात्रवृतियों के संदर्भ में भी देखा जा सकता है, जहां फॉर्म भरने से लेकर छात्रवृृृृृृृŸिा मिलने तक दलित छात्र-छात्राओं को बहुधा असंवेदनशील प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। संविधान के तहत किए गए इन प्रावधानों के प्रति कई बार शिक्षकों व सहपाठियों की समझ एक संकुचित धारणा प्रकट करती है। जबकि स्थिति यह है कि एक तरफ ये अपर्याप्त राशि दलित वर्गांे के अधिकांश हिस्से को तो प्रमाणपत्र के अभाव में मिल ही नही पाती। दूसरी तरफ शिक्षा के बाजारीकरण के इस दौर में हमारे विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रहे हैंै। हमारे विद्यालय समाज का प्रतिबिंब हंै और जो विश्वास व मान्यताएं हम घर-पड़ोस से लेकर आते हैं, वहां उनका पुनर्बलन होता है। हमारी शिक्षा समाज में सही मान्यताओं का संचार करने और भेदभाव मिटाने में काफी हद तक असफल रही है और यह हमारे सामने एक गंभीर चुनौती है। 
यहाँ हमें एक और सवाल उठाने की जरुरत है कि क्या इस व्यवस्था में अन्याय सिर्फ दलित छात्र-छात्राओं के साथ हो रहा है या किसी न किसी रूप में सब बच्चे इसका शिकार हो रहे हैं। क्या हमारी शिक्षा एक न्यायसंगत समाज की कल्पना करने का अवसर दे रही है? क्या बराबरी पर आधारित समाज के निर्माण की लड़ाई सिर्फ दलितों की लड़ाई है या पूरे समाज की? आज हमें इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है। जब इंसाफ का सवाल शिक्षा व शैक्षिक संस्थानों के केन्द्र में होगा तो यह दलितों तक ही सीमित नहीं रहेगा बल्कि इसमें महिलाओं, आदिवासियों, विक्लांगों, अल्पसंख्यकों और मजदूरों सभी की साझी लड़ाई शामिल होगी।  
हम अपील करते हैं कि-
-वर्णवाद पर आधारित गैरबराबरी का पुरजोर विरोध करें।
-समानता पर आधारित समाज के निर्माण में सहयोग दें। 

                             
ओमप्रकाश वाल्मिकीः साहित्य में दलित विमर्श स्थापित करने वाले साहित्यकार

हिन्दी सहित्य के क्षेत्र में दलित अस्मिता का प्रश्न उठाने वाले प्रारंभिक साहित्यकारों में ओमप्रकाश वाल्मिकी का नाम प्रमुख है। उनकी आत्मकथा जूठन वर्ष 1997 में आयी और इसने दलित अभिव्यक्ति को एक क्रांतिकारी पहचान दी। - दलित साहित्य के बारे में उनका कहना है-“दलित साहित्य समाज में समानता, भाईचारा और मानवीय स्वतंत्रता की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध है। समाज में मनुष्य ही सर्वोपरि है। इस प्रकृति में जो कुछ भी हमारे सामने है, वह मनुष्य की ही देन है। इसलिए मनुष्य की महत्ता को स्वीकार करते हुए दलित साहित्य मनुष्यता का साहित्य है।”
लेखन की दुनिया में कदम रखने के कारणों को बताते हुए उनके लेख मेरे लिखने का कारण के कुछ अंश-

  •  हजारों सालों की घुटन, अंधेरे में गुूंजती चीत्कारों और भीषण यातनाओं से मुक्त होकर जब कोई खुली हवा में सांस लेने की कोशिश करता है तो उसके सामने सिर्फ चमत्कृत कर देने वाली चकाचैंध ही नहीं होती, उसकी अपनी अस्मिता का सवाल और पहचान भी उतनी ही तीव्र होती है। अज्ञानता और उत्पीड़न की परतों को तोड़कर जब पुस्तकों में छपे ‘शब्दों‘ से साक्षात्कार हुआ, तो मेरे जैसे अनेक दलित लेखकों की अपनी अपनी अभिव्यक्ति फूटकर बाहर आयी, मूक वेदनाएं तड़प उठी और आक्रोशित चेतना साहित्य की एक ऐसी धारा के रूप में प्रवाहित हुयी जिसमें मुक्ति-संघर्ष की अनुभूतियों को प्रचंड, दग्ध आवेग तो है ही, संवेदनाओं की सूक्ष्म प्रस्तुति भी है। इसमें यथार्थवादी जटिलताएं और मानवीय भावनाओं का महीन कसाव है, जो कलास्वादों और प्रतिमानों के पारंपरिक स्वरूप से भिन्न है। कल्पना के आधार पर सृजित गंभीर चिंतन से पूरित रचनाएं दलित पीड़ा को कभी उद्वेलित नहीं कर पायी।
  •  हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित साहित्यकारों, मानवीय अनुभूतियों और संवेदनाओं की व्याख्या करने वाले विद्धानों व समीक्षकों के अंतः-करण जब संकीर्णताओं और घिनौनेपन से भरे हों, तब चुप कैसे रहा जा सकता है? ‘वसुधैवकुटुम्बकम‘ सूत्र वाक्य दोहराने वाले अपने ही धर्म और समाज के एक हिस्से को नारकीय स्थिति में पहुंचाकर उनके मानवीय अधिकार तक छीन लें तो महानता और शब्दों का खोखलापन स्वयं नंगा नाच हो जाता है। अशिक्षित 
  •  हिंदी साहित्य में जो सहज और सामान्य दिखाई पड़ता है वह सिर्फ बाह्य रूप है। भीरत ही भीतर ऐसा बहुत कुछ है जो ‘उन्हें‘ और ‘हमें‘ अलग अलग खेमों में बांटकर देखता है, यह एक भयानक ़त्रासदी है। तरह तरह के साहित्यिक आंदोलनों को समावेश कर लेने वाले हिंदी जगत को चारण काल, भक्ति काल, नवजागरण काल, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कहानी, नई कविता, जनवादी साहित्य, वामपंथी साहित्य, माक्र्सवादी साहित्य, गांधीवादी साहित्य, ललित साहित्य, वैदिक साहित्य, लौकिक साहित्य आदि कहने से कोई एतराज नहीं है, लेकिन दलित साहित्य या अंबेडकरवादी साहित्य कहने से उनकी भवें तन जाती है। सारी संवेदनाएं सूखे रेत की मानिंद मुठ्ठी से फिसल जाती हैं। वैचारिक असहमति को स्वीकार करने की परंपरा सिर्फ दिखावा है। 
  •  कुछ लोग अतीत पर गर्व कर सकते हैं, मेरे लिए अतीत एक भयावह स्याह रात है, जिसके गर्भ में असंख्य एकलव्य और शंबूक चीख रहे हैं, कितने ही कर्ण अपने जीवन रूपी धंसे रथ के कीचड़ से बाहर निकालने के संघर्ष में दिन-रात मारे जा रहे हैं। 
  •  दलितों को अस्पृश्य, अंत्यज बनाकर समाज से अलग कर देने के लिए इस देश में न तो कोई बाबर आया था, न कोई अंग्रेज। यहीं के हमारे अपने तथाकथित महान संस्कृति के लोग थे, जिन्होंने गत तीज हजार वर्षों में, जितने जुल्म ढाए, जितना शोषण किया, उतना तो विदेशाी शासक भी नहीं कर पाए। यह पीड़ा बार-बार उकसाती है, और मेरे लिखने का कारण बनती है।