स्कूलों की
एक अनिवार्य भूमिका विद्यार्थियों को समाज में घट रहे अन्यायों, अत्याचारों के खिलाफ जूझने के लिए तैयार
करना है| आज हमारे देश में धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण तेज़ी से बढ़ रहा है| विभिन्न समुदायों के बीच सदियों से चलते आये सह-अस्तित्व
पर व्यवस्थित ढंग से हमले हो रहे हैं| हमारे शहर में भी साम्प्रदायिक तनाव, डर और हिंसा की आहटें डेरा डाल रही हैं। पिछले कुछ महीनों में एक-के-बाद-एक कई इलाके जैसे
त्रिलोकपुरी, बवाना, ओखला, करबला, बाबरपुर इस तनाव से गुज़रे|
इस तनाव के
कारण कुछ इलाक़ों में तो विद्यार्थियों का स्कूल आना पूरी तरह बंद हो
गया| समाज में व्याप्त ऐसे डर का बच्चों के दिलो-दिमाग़ पर कितना गंभीर असर पड़ता होगा? जब हिंसा और डर के माहौल में स्कूल बंद होते हैं तो सबसे ज़्यादा नुकसान उन इलाकों में हिंसा का शिकार हुए वर्गों के बच्चों का और खासतौर से
लड़कियों का होता है (तमाम तरह की हिंसा का निशाना बनना, बेघर होना, स्कूल का छूटना, उपस्थिति कम होना आदि) | त्रिलोकपुरी
जैसे इलाकों में
हुई हिंसा के बाद जो परिवार पलायन कर गए उनके बच्चों की स्कूली शिक्षा में आये
विराम की ज़िम्मेदारी किसकी है?
क्या हम बच्चों में इन तनावों
से उपजे सवालों, डर और क्रोध से जूझने के लिए तैयार हैं? क्या हम विद्यार्थियों को सहज और
सुरक्षित महसूस कराने के लिए तैयार हैं? क्या हम अपने विद्यालयों में प्रेम और
न्याय के बीज बोने के लिए तैयार हैं? इस पर्चे के माध्यम से हम ऐसे ही कुछ
सवालों व उम्मीदों को साझा करेंगें|
भारत के संविधान से..
अनुच्छेद
51क. मूल कर्तव्य
(ड.)
भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो
धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के
विरुद्ध हैं।
(ज) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास
करे।
अनुच्छेद
25 (धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार)
सभी
व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने,आचरण करने और प्रचार करने का समान हक़ होगा।
अनुच्छेद
28 (शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना
में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता)
(1) राज्य-निधि
से पूर्णतः पोषित किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
(3) राज्य
से मान्यताप्राप्त या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली शिक्षा संस्था में
उपस्थित होने वाले किसी व्यक्ति को ऐसी संस्था में दी जाने वाली धार्मिक
शिक्षा में भाग लेने के लिए या ऐसी संस्था में या उससे संलग्न स्थान में की
जाने वाली धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के लिए तब तक बाध्य नहीं किया
जाएगा जब तक कि उस व्यक्ति ने, या यदि वह
अवयस्क है तो उसके संरक्षक ने, इसके
लिए अपनी सहमति नहीं दे दी है।
|
हमारी ज़िम्मेदारी
1.
व्यक्तिगत तौर पर अलग-अलग पृष्ठभूमियों से आते हुए भी हम शिक्षक एक लोकतान्त्रिक,
धर्मनिरपेक्ष और समतामूलक समाज के निर्माण के लिए कार्यरत हैं| यह हमारे विवेक का
ही परिणाम है कि हम अपने पूर्वाग्रहों से लड़ते हुए विद्यार्थियों को तर्कसंगत एवं निरपेक्ष माहौल
उपलब्ध कराने
की कोशिश करते हैं| यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि भारत के संविधान के मूलभूत आदर्शों (न्याय, स्वतन्त्रता, समता और बंधुत्व) को अपनी कक्षाओं तक लाएं|
2. शिक्षक होने के नाते हमारी ज़िम्मेदारी है कि हमारे शिक्षण और व्यवहार में किसी विशेष जाति, धर्म, लिंग, नस्ल, क्षेत्र आदि को निशाना बनाने वाले प्रसंगों और टिप्पणियों
का कोई स्थान न हो।
3. हमें यह आत्मसात करने की जरूरत है कि भारत एक विविधतापूर्ण देश है| हमें
विभिन्न पृष्ठभूमियों के विद्यार्थियों को मिलजुल कर काम करने के मौके देने
होंगे जिससे वे
सामूहिक प्रगति के लिए प्रयासरत हों| वे सभी सामाजिक रूढ़ियों के पार जाकर सहज दोस्ती करने और एक-दूसरे की संस्कृति
को बिना पूर्वाग्रह के जानने के लिए प्रेरित महसूस करें|
4. शिक्षक होने के नाते हम सभी विद्यार्थियों को बराबर प्यार, ध्यान और सहज माहौल देने की कोशिश करते हैं, पर आज जरूरत इस बात की है कि हम हाशिये पर धकेल दिए गए वर्गों से
आने वाले बच्चों के
प्रति अधिक संवेदनशील हों। बुद्ध, नानक, कबीर, रविदास, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई, भगत सिंह से लेकर अम्बेडकर
तक की विरासत से हमें वो आधारभूत पैमाना हाथ लगता है जिसके अनुसार हम अपनी दिशा तय
कर सकते हैं|
5. आज शिक्षकों को धर्म के सवाल से बचने की नहीं, उसे इतिहास के नज़रिए से समझने की ज़रूरत है| इतिहास से पता चलता है कि राज्य और
धर्म के गठबंधन ने लोगों को मानसिक गुलाम बनाकर उनके हक छीने| रोम के कॉनस्टेनटाइन,
उत्तरी भारत के समुद्रगुप्त, सऊदी अरब के खलीफाओं आदि ने किसी न किसी
धर्म को राज्य धर्म बनाकर शासन किया| यह सदियों के संघर्ष की
देन है कि हम आज एक धर्मनिरपेक्ष राज्य
के नागरिक हैं जिसमें हर व्यक्ति धार्मिक और राजनीतिक बराबरी का अधिकारी है|
6. धर्म के
नाम पर फैलने वाली अफवाहों के
उद्देश्यों को समझने की ज़रूरत है कि कैसे इन अफवाहों से आपसी विश्वास और संबंधों
में दरारें उत्पन्न की जाती हैं| इसके लिए हमें चीज़ों को ठहर कर देखने और समझने की ज़रूरत है| यही समझ हमें अपने
विद्यार्थियों में भी विकसित करनी होगी ताकि वे ऐसे परिपक्व नागरिक बन सकें जो न भड़कते हैं, न भड़काते हैं, न गुमराह होते हैं, न गुमराह
करते हैं।
7. हमें ऐसी
कहानियों को खंगालने और साझा करने की ज़रूरत है जिनमें सभी समुदायों ने मिलकर विभाजक ताकतों के खिलाफ़ संघर्ष किया| एक ओर साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ने वालों में भगत सिंह, चंद्रशेखर
आज़ाद और अशफ़ाक़ के क्रांतिकारी उदाहरण हैं तो दूसरी ओर गाँधी, सुभाष, खड़क सिंह, अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान आदि के जनांदोलनकारी उदाहरण भी हैं जिनमें सभी वर्गों की
हिस्सेदारी रही। 1947 के खूनखराबे से लेकर आजतक हुए सभी नरसंहारों में हमें
इंसानियत की लौ जलाए रखने वाले उन लोगों के उदाहरण भी मिलते हैं जिन्होंने निःस्वार्थ भाव से जान की बाज़ी लगाकर दूसरे समुदायों के लोगों की जानें बचाईं,
उन्हें शरण दी और मानवता के सच्चे आदर्शों का पालन किया|
8. हमारी पाठ्यचर्या,
विशेषत: इतिहास की किताबों में अक्सर कुछ
सन्दर्भों/घटनाओं को ऐसे
प्रस्तुत किया जाता है जिससे परस्पर धार्मिक विद्वेष और संकीर्ण पहचान को
मज़बूती मिलती है| यही सोच बाद में समाज के ध्रुवीकरण और सांप्रदायिक हिंसा के लिए
ज़मीन तैयार करती है| वर्षों की कोशिशों के बाद
कहीं-कहीं महिलाओं, दलितों, आदिवासियों व अल्पसंख्यकों की कहानियाँ, चित्र व उदाहरण झलकने लगे हैं| किन्तु यह कोई मोहरबंद उपलब्धि नहीं है|
ऐसे में हमारा
बौद्धिक दायित्व है कि विद्यार्थियों को विभिन्न मुद्दों के विविध पहलुओं से संवेदनशीलता से परिचित
कराएं।
9. हमारे स्कूलों को भी लोकतांत्रिक होने और विविधता को स्थान देने की ज़रूरत
है। क्या सिर्फ
उन्हीं संस्कृतियों से परिचय कराया जाए जिनका स्कूल में वर्चस्व है? अगर किसी स्कूल में एक भी बौद्ध-जैन या आदिवासी नहीं है तो क्या तब भी हमारी ज़िम्मेदारी और बच्चों का हक़ नहीं है कि इनके बारे में जानें? स्कूल धर्म-प्रचार और दकियानूसी विश्वासों के स्थान नहीं हो सकते। हाँ, स्कूल ऐसे स्थल ज़रूर हो सकते हैं
जहाँ हमारे रिश्ते किसी संकीर्ण
विचारधारा के अधीन ना हों|
आज शिक्षा पर कई प्रकार के राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक हमले हो रहे हैं
जिन्हें समझने और जिनसे जूझने के लिए पूरे शिक्षक वर्ग को साथ आना होगा| आज हमें खुद को समाज के दूसरे हिस्सों के संघर्षों
से जोड़ने की ज़रूरत है, वे संघर्ष जो
मेहनतकश द्वारा श्रम के ठेकाकरण तथा अस्थायीकरण के खिलाफ जारी हैं| जिस तरह अलग-अलग श्रेणियों में बांटकर (पैरा/गेस्ट/स्थायी)
शिक्षकों की लड़ाई कमज़ोर की जाती है उसी तरह सांप्रदायिक दरारें डालकर मेहनतकश
वर्गों का संघर्ष भी कमज़ोर किया जाता है। धार्मिक हिंसा के बाद जहाँ मज़दूरों को और
खराब परिस्थितियों में और कम मेहनताने पर काम करने को मजबूर होना पड़ता है, वहीं महिलाओं की थोड़ी बहुत आज़ादी पर भी डर के
ताले लगा दिए जाते हैं।
शिक्षक
साथियों से अपील
·
विद्यार्थियों
को तर्कसंगत एवं निरपेक्ष शैक्षिक माहौल उपलब्ध कराएं जिनमें वे एक-दूसरे के साथ काम करें तथा अन्य संस्कृतियों के
प्रति संवेदनशील बनें।
·
व्यक्तिगत
भाषा एवं व्यवहार में किसी विशेष जाति, धर्म, लिंग, नस्ल, क्षेत्र आदि को निशाना बनाने वाली टिप्पणियों का विरोध करें।
·
विद्यार्थियों के सामने ऐसे आदर्श
प्रस्तुत करें जिनसे वे आपसी मतभेदों और विवादों से निबटने के लिए हिंसा को नहीं संवाद को चुनें।
·
धर्म के सवाल को समझने के लिए संकीर्णता से नहीं, ऐतिहासिक व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से काम लें।
·
विद्यालयों को सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक स्थल बनाएं जहाँ
धार्मिक पर्वों, प्रार्थनाओं पर पुन:विचार किया जाए।
·
शिक्षकों के संघर्ष को समाज के अन्य वर्गों के संघर्षों के
साथ जोड़कर देखें और सामूहिक संघर्ष के लिए प्रयास करें।