मुक्ति अकेले नहीं मिलती,
अगर वह कहीं मिलती है,
तो सबके साथ मिलती है
0 मुक्तिबोध
साथियों ,
सदियों से जातिप्रथा का भयावह दंश झेलने वाले समुदायों से प्रतिरोध के स्वर उभर रहे हैं। यह प्रतिरोध दृढ संकल्प के साथ उपस्थित होता हुआ स्वर है जो अपने साथ चेतना, जागरूकता और निर्माण की गूंज लिए हुए है। भारतीय समाज जातिव्यवस्था के ताने-बाने की सड़ांध में इस तरह लिप्त है कि जैसे ही इस व्यवस्था के खिलाफ कोई आवाज बुलंद होती है तो सदियों से सत्ता पर काबिज वर्ग उन आवाजों को दबाने के लिए एकजुट हो उठते हैं।
विभिन्न जातियों के बीच शक्ति-संबंधों को धार्मिक ग्रन्थों के जरिए सांस्कृतिक वैधता प्रदान की गई। भारत के इतिहास में शिक्षा ने ’उच्च’ जातियों के ग्रन्थों को ‘ज्ञान’ का श्रेष्ठ आधार माना और शोषित जातियों के अनुभव-संसार को हमेशा बहिष्कृृृृृृृृृृृृृत किया। यह त्रासदी है कि लोहार, नाई, धोबी, चर्मकार, बढ़ई, किसान, राजमिस्त्री जैसे मेहनतकश वर्गों ने जिस ज्ञान का सृृृृृृजन व विस्तार किया उसे शिक्षा में जगह ही नहीं दी गई, बल्कि शिक्षा ने एक हथियार की तरह उनके काम, रचनाओं और स्वाभिमान पर लगातार ऐसा प्रहार किया जिससे वे उबरने में आज तक संघर्षरत हैं। आज भी हमारे स्कूलों, कॉलेजों में जो शिक्षा मिलती है वह जाति आधारित ताने-बाने और संस्कारों को मजबूत करती हुई दिखाई पड़ती है।
इस वर्णवादी व्यवस्था के कारण न जाने कितनी जिंदगियां छल और कपट का शिकार होकर मिट जाती हैं। फिर भी अगर किसी तरह कुछ दलित अपनी पहचान बना भी लेते हैं तो उनको कई तरह के हथकंडों से घेरा जाता है। जिस उपेक्षा और छींटाकशी का शिकार उन्हें होना पड़ता है वह उनके आत्मविश्वास को कुचलकर रख देता है, जिसकी परिणति एम्स और आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में दलितों की आत्महत्या जैसी घटनाओं में उभर कर सामने आती है। जहां कहीं भी दलितों ने नाममात्र की जमीन, शिक्षा व नौकरियां प्राप्त की हैं, अक्सर वहां उन्हें रोकने के लिए हिंसा का सहारा लिया जाता है। बथानी टोला, लक्ष्मनपुर बाथे, बंत सिंह, खैरलांजी, गोहाना, मिर्चपुर, भगाना जैसी घटनाएं इसके कुछ उदाहरण हंै।
जातिगत दुर्भाव के एक रूप को सरकारी विद्यालयों में मिलने वाली विभिन्न छात्रवृतियों के संदर्भ में भी देखा जा सकता है, जहां फॉर्म भरने से लेकर छात्रवृृृृृृृŸिा मिलने तक दलित छात्र-छात्राओं को बहुधा असंवेदनशील प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। संविधान के तहत किए गए इन प्रावधानों के प्रति कई बार शिक्षकों व सहपाठियों की समझ एक संकुचित धारणा प्रकट करती है। जबकि स्थिति यह है कि एक तरफ ये अपर्याप्त राशि दलित वर्गांे के अधिकांश हिस्से को तो प्रमाणपत्र के अभाव में मिल ही नही पाती। दूसरी तरफ शिक्षा के बाजारीकरण के इस दौर में हमारे विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रहे हैंै। हमारे विद्यालय समाज का प्रतिबिंब हंै और जो विश्वास व मान्यताएं हम घर-पड़ोस से लेकर आते हैं, वहां उनका पुनर्बलन होता है। हमारी शिक्षा समाज में सही मान्यताओं का संचार करने और भेदभाव मिटाने में काफी हद तक असफल रही है और यह हमारे सामने एक गंभीर चुनौती है।
यहाँ हमें एक और सवाल उठाने की जरुरत है कि क्या इस व्यवस्था में अन्याय सिर्फ दलित छात्र-छात्राओं के साथ हो रहा है या किसी न किसी रूप में सब बच्चे इसका शिकार हो रहे हैं। क्या हमारी शिक्षा एक न्यायसंगत समाज की कल्पना करने का अवसर दे रही है? क्या बराबरी पर आधारित समाज के निर्माण की लड़ाई सिर्फ दलितों की लड़ाई है या पूरे समाज की? आज हमें इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है। जब इंसाफ का सवाल शिक्षा व शैक्षिक संस्थानों के केन्द्र में होगा तो यह दलितों तक ही सीमित नहीं रहेगा बल्कि इसमें महिलाओं, आदिवासियों, विक्लांगों, अल्पसंख्यकों और मजदूरों सभी की साझी लड़ाई शामिल होगी।
हम अपील करते हैं कि-
-वर्णवाद पर आधारित गैरबराबरी का पुरजोर विरोध करें।
-समानता पर आधारित समाज के निर्माण में सहयोग दें।
ओमप्रकाश वाल्मिकीः साहित्य में दलित विमर्श स्थापित करने वाले साहित्यकार
लेखन की दुनिया में कदम रखने के कारणों को बताते हुए उनके लेख मेरे लिखने का कारण के कुछ अंश-
- हजारों सालों की घुटन, अंधेरे में गुूंजती चीत्कारों और भीषण यातनाओं से मुक्त होकर जब कोई खुली हवा में सांस लेने की कोशिश करता है तो उसके सामने सिर्फ चमत्कृत कर देने वाली चकाचैंध ही नहीं होती, उसकी अपनी अस्मिता का सवाल और पहचान भी उतनी ही तीव्र होती है। अज्ञानता और उत्पीड़न की परतों को तोड़कर जब पुस्तकों में छपे ‘शब्दों‘ से साक्षात्कार हुआ, तो मेरे जैसे अनेक दलित लेखकों की अपनी अपनी अभिव्यक्ति फूटकर बाहर आयी, मूक वेदनाएं तड़प उठी और आक्रोशित चेतना साहित्य की एक ऐसी धारा के रूप में प्रवाहित हुयी जिसमें मुक्ति-संघर्ष की अनुभूतियों को प्रचंड, दग्ध आवेग तो है ही, संवेदनाओं की सूक्ष्म प्रस्तुति भी है। इसमें यथार्थवादी जटिलताएं और मानवीय भावनाओं का महीन कसाव है, जो कलास्वादों और प्रतिमानों के पारंपरिक स्वरूप से भिन्न है। कल्पना के आधार पर सृजित गंभीर चिंतन से पूरित रचनाएं दलित पीड़ा को कभी उद्वेलित नहीं कर पायी।
- हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित साहित्यकारों, मानवीय अनुभूतियों और संवेदनाओं की व्याख्या करने वाले विद्धानों व समीक्षकों के अंतः-करण जब संकीर्णताओं और घिनौनेपन से भरे हों, तब चुप कैसे रहा जा सकता है? ‘वसुधैवकुटुम्बकम‘ सूत्र वाक्य दोहराने वाले अपने ही धर्म और समाज के एक हिस्से को नारकीय स्थिति में पहुंचाकर उनके मानवीय अधिकार तक छीन लें तो महानता और शब्दों का खोखलापन स्वयं नंगा नाच हो जाता है। अशिक्षित
- हिंदी साहित्य में जो सहज और सामान्य दिखाई पड़ता है वह सिर्फ बाह्य रूप है। भीरत ही भीतर ऐसा बहुत कुछ है जो ‘उन्हें‘ और ‘हमें‘ अलग अलग खेमों में बांटकर देखता है, यह एक भयानक ़त्रासदी है। तरह तरह के साहित्यिक आंदोलनों को समावेश कर लेने वाले हिंदी जगत को चारण काल, भक्ति काल, नवजागरण काल, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कहानी, नई कविता, जनवादी साहित्य, वामपंथी साहित्य, माक्र्सवादी साहित्य, गांधीवादी साहित्य, ललित साहित्य, वैदिक साहित्य, लौकिक साहित्य आदि कहने से कोई एतराज नहीं है, लेकिन दलित साहित्य या अंबेडकरवादी साहित्य कहने से उनकी भवें तन जाती है। सारी संवेदनाएं सूखे रेत की मानिंद मुठ्ठी से फिसल जाती हैं। वैचारिक असहमति को स्वीकार करने की परंपरा सिर्फ दिखावा है।
- कुछ लोग अतीत पर गर्व कर सकते हैं, मेरे लिए अतीत एक भयावह स्याह रात है, जिसके गर्भ में असंख्य एकलव्य और शंबूक चीख रहे हैं, कितने ही कर्ण अपने जीवन रूपी धंसे रथ के कीचड़ से बाहर निकालने के संघर्ष में दिन-रात मारे जा रहे हैं।
- दलितों को अस्पृश्य, अंत्यज बनाकर समाज से अलग कर देने के लिए इस देश में न तो कोई बाबर आया था, न कोई अंग्रेज। यहीं के हमारे अपने तथाकथित महान संस्कृति के लोग थे, जिन्होंने गत तीज हजार वर्षों में, जितने जुल्म ढाए, जितना शोषण किया, उतना तो विदेशाी शासक भी नहीं कर पाए। यह पीड़ा बार-बार उकसाती है, और मेरे लिखने का कारण बनती है।
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