फ्रेंच लेखक सैन्तैकजुपेरी की यह बात आज के
समय में काफी सच बैठती है जहाँ सयाने यानि कि वयस्क/बड़े बहुत अजीब बातें करते हैं|
वे सच को सच और झूठ को झूठ नहीं बोलते; जैसे मुनाफा कमाने को कभी ‘विकास’ कहते हैं
तो कभी ‘समाज-सेवा’|
इस पर्चे के माध्यम से हम
एक ऐसी ही विडम्बना के बारे में बात करने जा रहे हैं| हर दौर में कुछ ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने अपना जीवन सामाजिक
गैरबराबरी या कुरीतियों के खिलाफ काम करने में लगा दिया, जैसे बुद्ध, कबीर, सावित्रीबाई फूले आदि| किन्तु आज जो लोग समाज के लिए कुछ करने चाहते हैं
वो अक्सर NGOs का रास्ता अपनाते दिखते हैं| NGOs वो गैर सरकारी संस्थाएं हैं जो समाज
सेवा का काम भी काफी पेशेवर और व्यावसायिक ढंग से करती हैं| भारत में इस बदलाव की जड़ें कुछ 30-40 साल पुरानी हैं| माना जाता है कि आज भारत
में लगभग हर 400 लोगों पर एक NGO है| पिछले 3 दशकों में NGOs का जाल जिस तेज़ी से फैला है उसके कारण समझने ज़रूरी हैं| यह न तो अचानक हुआ और न ही
अपने आप|
1990 के
दशक में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के साथ सरकार का जन-कल्याण कार्यों पर होने वाले खर्च से अपने हाथ खींचना शुरु हुआ| सिर्फ भारत
ही नहीं, दुनिया भर की सरकारों के
ऊपर यह दबाव बनाया गया कि वे नागरिकों के शिक्षा, स्वास्थ्य, साफ़ पानी, रोज़गार जैसे बुनियादी हकों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी कम करें| साफ़
बात थी कि जब सरकारों ने अपने हाथ इनसे खींचे तो ये क्षेत्र निजी
हाथों में चले गए; अब ये जन कल्याणकारी न रहकर मुनाफाखोरी के बाज़ार में बदल दिये
गए।
अंग्रेजों की जड़े
हिल चुकी हैं। वे 15 सालों में चले
जायेंगे, समझौता हो जायेगा, पर इससे जनता को कोई लाभ नहीं होगा। हमारे देश के नेता
जो शासन पर बैठेंगे, वे विदेशी पूँजी को अधिकाधिक प्रवेश देंगे और पूंजीपतियों
को अपनी तरफ मिलाएँगे| पूंजीवादी साम्राज्यवाद नए नए रूप धारण कर निर्बल का
शोषण करता रहेगा|
भगत सिंह
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इस प्रक्रिया को राष्ट्रीय शिक्षा नीति में हुए बदलावों से समझा जा सकता है| 1986 की शिक्षा नीति के अंतर्गत Program of Action लागू
किया गया| इसमें लिखा गया था कि“सरकार और NGOs के गठबंधन
को प्रोत्साहित किया जाएगा| सरकार NGOs को
वो सभी सुविधाएँ और आर्थिक सहायता प्रदान करेगी जिससे वे मौलिक साक्षरता, वयस्क शिक्षा के कार्यक्रम ले सकें”| हम देखते हैं कि जो बात प्रोत्साहन से शुरू हुई वो 2009 के शिक्षा अधिकार कानून तक आते-आते NGOs और उनके दाताओं के
प्रति समर्पण मेँ बदल गयी| 12वी पंचवर्षीय योजना में साफ़ तौर पर लिखा है कि “शिक्षा में सार्वजनिक और निजी
भागीदारी (पीपीपी) मॉडल को बढ़ावा दिया जाना चाहिए”| अर्थात अब ऐसे निजी स्कूलों
की संख्या तेज़ी से बढ़ेगी जिनमें सरकार का नियंत्रण न के बराबर होगा|
इसका मतलब
एक तरफ सरकार ने शिक्षा के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी से हाथ खींचे और दूसरी तरफ NGOs/निजी
खिलाड़ियों की भूमिका मज़बूत की| इसे कैसे समझें?
हक को खैरात में बदलने की साज़िश
जब सरकार की जगह NGOs नागरिक
अधिकार क्षेत्रों मेँ सक्रिय होने लगते हैं तो वो लोगों के हक़ का प्रश्न नहीं रह जाता बल्कि NGOs की दया का प्रश्न बन
जाता है| अच्छी शिक्षा तो हर बच्चे का मौलिक अधिकार है इसलिए NGOs कुछ गरीब बच्चों
को पढ़ाकर उन पर एहसान नहीं कर रहे होते| बल्कि NGOs तो फण्ड या प्रोजेक्ट ख़त्म
होने पर अपना बोरिया-बिस्तरा समेट कर गायब हो जाते हैं क्योंकि
उनकी जवाबदेही जनता के
प्रति नहीं होती| उनकी जवाबदेही तो उन संस्थाओं के प्रति होती है जिनसे उन्हें लाखो-करोड़ों
का फण्ड मिलता है| NGOs को ज़्यादातर पैसा सरकार, निजी कंपनियों, कॉर्पोरेट
घरानों, विश्व बैंक, धन्ना-सेठों आदि से मिलता है| आइए देखते हैं ये कंपनियां NGOs को पैसा क्यों देती हैं?
कॉर्पोरेट कंपनियां CSR (corporate social responsibility) के नाम पर अपना
व्यावसायिक प्रचार करती हैं,
काली करतूतों पर पर्दा डालती हैं और इसमें भी मुनाफा कमाने के रास्ते खोज लेती हैं| उदाहरण के
तौर पर पिछले 10 सालों से प्रथम नामक NGO द्वारा
संचालित ‘असर’ (Annual Status Of Education
Report) का डाटा यह दिखाने की साज़िश कर रहा है कि सरकारी स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता
गिरती चली जा रही है| यह देखने वाली बात है कि
इन आंकड़ों
का सबसे ज्यादा फ़ायदा दूसरे बड़े NGOs उठाते हैं ताकि वे सरकारी स्कूलों के बने-बनाये ढाँचे और व्यवस्था में घुस सकें| मतलब
जाँच भी इनकी और इलाज भी इन्हीं का|
क्या यह बात किसी खतरे का
संकेत नहीं है कि मुंबई, हरियाणा से लेकर दिल्ली
तक में कई NGOs ने सरकारी स्कूलों को अपने कब्जे मे लेना शुरू कर दिया है?
इसके लिए वे झूठी रपटें बनाते हैं, झूठे इल्ज़ाम लगाते
हैं, शिक्षकों व बच्चों की अपमानजनक छवियां
बेचते हैं, शिक्षकों की गरिमा पर चोट करते हैं और इस भ्रम का प्रचार करते हैं कि
सरकारी शिक्षा तंत्र पूरी तरह से विफल हो चुका है और इसे बचाने का एक ही रास्ता है ‘निजीकरण’| जबकि सच तो यह है
कि प्राइवेट शिक्षा एक खरीद की वस्तु होती है – पैसा दो, शिक्षा लो|
इस तरह NGOs समाज कल्याण के
नाम पर निजी पूँजी के लिए नए-नए बाज़ार खोलते चलते हैं| जब
शिक्षा को इस तरह की निजी शक्तियाँ अपने हाथ मे लेंगी तो शिक्षा का चरित्र उनके
हितों के प्रति गिरवी रहेगा, जो
कि हमें किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं है|
NGOs से समाज
में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं होता
NGOs गैर बराबरी की व्यवस्था पर सवाल
नहीं उठाते बल्कि जो सवाल उठते हैं या उठने चाहिए उनको भी दबा देते हैं| जैसे आज भारत में जितने बच्चे कक्षा
1 में दाखिला लेते हैं, उसमें से मुट्ठीभर बच्चे
ही 12वीं पूरी कर पाते हैं| ऐसे में
सवाल उठता है कि क्या यह कमी इन हज़ारों-लाखों बच्चों की है या शिक्षा व्यवस्था की?
अगर हर बच्चा 12वी पास कर भी जाए तो क्या उसके पढ़ने के लिए कॉलेजों में सीटें और रोज़गार
के उचित अवसर हैं?
लेकिन आज बहस मूलभूत परिवर्तन की ना होकर मुट्ठीभर
EWS यानि ‘गरीब बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में दाखिले’ की बन गयी है|
इसे छलावा नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? बढ़ती गैरबराबरी के सन्दर्भ में तो समाज में
सवाल और बेचैनी बढ़नी
चाहिए लेकिन यहाँ भी NGOs एक अहम भूमिका निभाते हैं| वे लोगों के सवालों की धार को
कम करने का काम करते हैं जिससे लोग बंटकर अपने निजी
फायदों के बारे में ही सोचने और लड़ने तक सिमट जाते हैं। परिणामस्वरूप लोगों के एकजुट होकर पूरे समाज के बदलाव
के लिए संघर्ष की संभावना कम हो जाती है|
इस साज़िश का शिकार बनता है युवा
तबके का एक बड़ा हिस्सा जो सामाजिक गैरबराबरी से परेशान तो होता है पर अपने सवालों
के जवाब नहीं ढूंढ पाता| वो NGOs में अपनी उर्जा तो झोंक देता है पर समस्या की जड़ पर
चोट नहीं कर पाता| दूसरी तरफ NGOs स्वयंसेवा के नाम पर इनकी मजदूरी और कौशल का
सस्ते दाम पर इस्तेमाल करते हैं|
आज युवा वर्ग को सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह की विरासत से सीखने की ज़रूरत है| वो विरासत जो सच को सच
और झूठ को झूठ देखना और बोलना सिखाती है| उनकी शहादत को विशेष रूप से याद करने की
जरूरत इसलिए भी है क्योंकि उन्होंने आज़ादी की लड़ाई को सिर्फ अंग्रेज़ों के खिलाफ
लड़ाई न मानकर साम्राज्यवाद-पूंजीवाद के खिलाफ संग्राम की तरह देखा था| आज भी तो हमारे
सामने यही लड़ाई है|
आज साम्राज्यवाद अपने पुराने औपनिवेशिक रूप
मे हमारे खिलाफ खड़ा नही दिखता है बल्कि इसने हमारी नीतियों को निर्धारित करके, CSR-NGOs के
लुभावने तौर तरीकों से हमारी व्यवस्था के भीतर घुसपैठ कर दी है। सबसे खतरनाक तो यह
है कि आज साम्राज्यवादी, पूंजीवादी धन्नासेठों/ कंपनियों ने सिर्फ
व्यवस्था को ही अपने शिकंजे मे नहीं ले लिया है बल्कि समाज को भी भ्रमित कर दिया है।
शिक्षक होने के नाते हम भगत सिंह से बराबरी, इंसाफ और तर्कशीलता के साथ अपने समय और आसपास की
परिस्थितियों व उनमें आ रहे बदलावों को समझने और संगठित होकर उनका मुकाबला करने की
प्रेरणा भी पाते हैं। जब तक हम भगत सिंह के विचारों, उनके संघर्ष के क्रांतिकारी तत्वों को आज के संदर्भों में पहचान नहीं लेते तब
तक उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि नहीं दी जा सकती।