Saturday, 7 March 2015

मातृभाषा दिवस: कुछ विचार

21 फ़रवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस था। इस बाबत सीबीएसई से एक सर्कुलर जारी होने की खबर अखबारों में आई थी पर न तो उसे वो तवज्जो मिली जो संस्कृत सप्ताह मनाने के निर्देश को मिली थी और न ही सामान्य जानकारी में इस सिलसिले में स्कूलों में हुई गतिविधियों के बारे में सुनने को मिला। वैसे, शिक्षाशास्त्रीय और राजनैतिक दोनों कारणों से इस सर्कुलर का स्वागत किया जाना चाहिए। (जबतक कि ऐसे सर्कुलर्स में सिर्फ किसी अवसर की तरफ ध्यान खींचने का उद्देश्य हो, यह स्पष्ट करने का नहीं कि स्कूलों व शिक्षकों को क्या व कैसे कार्यक्रम आयोजित करने हैं और फिर किस तरह सबूत के तौर पर उनकी रपटें 'उच्च' दफ्तरों/अधिकारियों को भेजनी हैं।)
1999 में यूनेस्को ने 21 फ़रवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस घोषित करके मनाने का निर्णय लिया और संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इसे वर्ष 2000 से मनाया जा रहा है। इस तारीख का इतिहास भारतीय उपमहाद्वीप से जुड़ा है। 1948 में पाकिस्तान सरकार ने उर्दू को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देने का फैसला किया जिसके विरोध में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में बांग्ला भाषा को लेकर तीव्र आंदोलन खड़ा हो गया। इस आंदोलन की मुख्य माँग थी कि बांग्ला को भी राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार किया जाए। 21 फ़रवरी 1952 को ढाका विश्वविद्यालय व ढाका मेडिकल कॉलेज सहित अन्य शिक्षा संस्थानों के विद्यार्थी प्रशासनिक मनाही के बावजूद सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे थे। पुलिस ने इस प्रदर्शन पर गोलियाँ चलाईं जिसके परिणामस्वरूप चार विद्यार्थी मारे गए। लोगों ने दो दिन के भीतर ही उस जगह पर शहीद मीनार नाम से एक स्मारक बना दिया जिसे सरकारी आदेश से तोड़ दिया गया। (बाद में इस स्मारक को फिर बनाया गया मगर 1971 के युद्ध के दौरान इसे दोबारा तोड़ दिया गया। बांग्लादेश के आज़ाद होने के बाद इसका पुनः निर्माण कराया गया।) अंततः 29 फ़रवरी 1956 को बांग्ला को पाकिस्तान की एक राजकीय (ऑफिशियल) भाषा का दर्जा प्राप्त हुआ। आज बांग्लादेश में इस दिन सार्वजनिक अवकाश होता है। लोग शहीदों को याद करते हैं, स्मारक पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और कई स्तरों पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं - जश्न का सा माहौल होता है। हमारे लिए इस पूरे प्रसंग की दो बातें महत्व की हैं। भारत के संविधान निर्माताओं ने संविधान सभा में हुई तीखी व गहरी बहसों के बाद शायद इस घटनाक्रम से भी सबक लेते हुए हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का संवैधानिक दर्जा देने के आग्रह को अस्वीकार करने का उचित फैसला किया। यहाँ तक कि संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं को भी कोई भारी भरकम विशेषण न देकर महज़ 'भाषाएँ' शीर्षक दिया गया। वहीं दूसरी ओर बांग्लादेश राज्य ने बांग्ला को अपने राष्ट्रीय जीवन में वैसा ही एकाधिकारवादी स्थान दे दिया, उर्दू के संदर्भ में जिसकी नाइंसाफी के खिलाफ वहाँ के लोगों ने संघर्ष किया था। इस संदर्भ के मद्देनज़र भी कि बांग्लादेश भाषाई (अस्मिता के) आधार पर बनाया गए राष्ट्र-राज्य होने के नाते एक ख़ास उदाहरण प्रस्तुत करता है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उपमहाद्वीप में भाषा को लेकर राज्य-सत्ता के स्तर पर अन्यथा अनाधुनिक समाजों से कम उदार व इंसाफ़पसन्द रवैया देखने को मिलता है। अपनी मातृभाषा के लिए जो सहज लगाव आंदोलनों में प्रकट हुआ है वह सत्ता के संदर्भ में सफलता प्राप्त करने के बाद स्वाभाविक रूप से दूसरों की मातृभाषाओं के प्रति संवेदनशीलता में नहीं बदला। अगर हमें अपनी भाषा प्यारी है और उसके शैक्षिक निहितार्थ हैं तो इसी तरह अन्यों के हक़-संबंध उनकी अपनी भाषाओं के प्रति हैं। जो लोग या व्यवस्था इस प्राथमिक भाव-तर्क को ग्रहण नहीं कर पाते उनकी नैतिक परिपक्वता के बारे में संदेह किया जा सकता है। 
                                 भाषा जैसे शिक्षाशास्त्रीय व राजनैतिक रूप से महत्वपूर्ण मुद्दे पर स्कूलों का व्यवहार भी उपरोक्त वर्णित संकीणर्ता का परिचायक है। प्रवेश देते समय भाषा रजिस्टर में बच्चों की भाषा को दर्ज करते हुए सामान्यतः ईमानदारी से नहीं भरा जाता है। इसी तरह छठी कक्षा में किसी आधुनिक भारतीय भाषा को तृतीय भाषा के रूप में पढ़ने के हक़ के साथ भी नाइंसाफी होती है। दोनों स्तरों पर विद्यार्थियों या अभिभावकों की भाषाई पहचान या रुचि को लेकर क़ानून व शिक्षा के न्यायसम्मत प्रावधानों के तहत बर्ताव नहीं किया जाता है। इससे भला किसी शिक्षक, प्रधानाचार्य या अभिभावक को क्या समस्या हो सकती है कि स्कूल में चालीस विद्यार्थियों द्वारा किसी भाषा को पढ़ने की इच्छा जताने पर राज्य पर उस भाषा का शिक्षक उपलब्ध कराने की वैधानिक ज़िम्मेदारी लागू हो? इसके बावजूद सार्वजनिक शिक्षा की स्थिति निजी संस्थानों से कहीं बेहतर है। इसका प्रमाण मुंबई के प्राथमिक सार्वजनिक तंत्र के स्कूलों में लगभग दस भाषाओं की उपस्थिति है। इसी तर्ज पर दिल्ली के निगम स्कूलों में हिंदी व अंग्रेजी को छोड़कर तीन भाषाओं को स्थान मिला हुआ है। तेज़ी से बाज़ारवाद के मूल्यों के हवाले किये जा रहे स्कूलों से हम इस संवेदनशीलता की भी उम्मीद नहीं कर सकते। भारत की भाषाओं की लड़ाई सार्वजनिक स्कूली व्यवस्था को मज़बूत करके, निजीकरण के सभी अवतारों - स्कूलों को बेचना, बंद करना, 'गोद' देना आदि - को खारिज करके ही जीती जा सकेगी। ये दोनों लड़ाइयाँ एक-दूसरे का हिस्सा हैं और इन्हें जुदा करके लड़ना आत्मघाती होगा। शिक्षकों को भी शिक्षा विभागों के लिखित-अलिखित ग़ैर-शिक्षणशास्त्रीय व क़ानूनविरुद्ध आदेशों के खिलाफ एकजुट होकर आवाज़ उठानी होगी। पिछले कुछ अर्से से कुछ 'विशेष' स्कूलों या उनके भीतर कुछ 'ख़ास' कक्षाओं को अंग्रेजी माध्यम बनाकर शिक्षाशास्त्रीय सिद्धांतों के साथ खिलवाड़ किये जाने की नीति अपनाई जा रही है। एक ओर निजी स्कूलों के अंग्रेजी माध्यम बाज़ार का फैलता घटिया माहौल है और दूसरी ओर राज्य के संसाधन व चिंता को विशिष्ट जातियों-वर्गों की भाषाओं की सेवा में लगाने वाली जनविरोधी व्यवस्था है। भले ही यहाँ कुएँ और खाई वाली कहावत चरितार्थ होती दिखे फिर भी राजकीय व्यवस्था में जनदबाव परिलक्षित होने की जो संभावना है वह निजी क्षेत्र में नहीं है। 
 भारत की सभी भाषाएँ समान हक़ रखती हैं और किसी को दूसरों पर उनकी अनचाही भाषा (व संस्कृति) थोपने का हक़ नहीं है। क्या स्कूलों के बहुभाषी संदर्भों में शिक्षकों के लिए दो आधुनिक भारतीय भाषाओं की न्यूनतम जानकारी अनिवार्य करना उचित होगा? बहुत से शिक्षक तो स्वयं पहले-से ही बहुभाषी होते हैं। हालाँकि यह भी सच है कि जबतक प्रशासन, अदालतों, उच्च-शिक्षा आदि में जनभाषाओं को जगह नहीं दी जाएगी तबतक केवल स्कूली शिक्षा में मातृभाषा की लड़ाई न सिर्फ बेमानी होगी बल्कि बहुत से, खासतौर से वंचित-शोषित-दलित समुदायों से ताल्लुक़ रखने वाले, लोगों के साथ बेईमानी भी होगी। यहाँ हम उन विचारकों की दलील को नकार नहीं सकते जो मातृभाषा की पैरवी की यह कहकर आलोचना करते हैं कि यह उस वर्तमान व्यवस्था में जिसमें ताक़त व प्रतिष्ठता का रास्ता अंग्रेजी से होकर जाता है ग़ैर-बराबरी को बनाए रखने का साधन है। अंततः यह तर्क शिक्षा के सवाल को राजनैतिक व्यवस्था के अन्य पक्षों से जोड़कर देखने और साझी लड़ाई खड़ी करने को आमंत्रित करता है। शुरुआत हमारी कक्षाओं को अधिक संवेदनशील, न्यायसम्मत व संघर्षशील बनाने से भी हो सकती है।   

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