फ़िरोज़
यह किसी सुनियोजित शोध का ब्यौरा नहीं है। मगर फिर भी इसे एक व्यवस्थित व व्यापक अध्ययन के लिए संकेत और दिशा के लिए एक शुरुआत, एक मदद माना जा सकता है। इस मायने में यहाँ वर्णित अनुभव काम के हो सकते हैं।
दिल्ली के एक निगम स्कूल का लम्बा अनुभव बताता है कि कुछ वर्षों से पहली कक्षा की तुलना में चौथी व पाँचवीं कक्षा में अच्छे-ख़ासे दाख़िले हो रहे हैं। यह एक बालिका स्कूल है पर इसी इलाक़े के बाल स्कूल में भी प्रवेश लेने वालों की संख्या में इस तरह का रुझान है। निगम के अन्य स्कूलों से भी इस तरह के रुझान की जानकारी मिलती है। स्पष्ट है कि दाखिलों के संबंध में विस्तृत स्तर पर आँकड़े इकट्ठे किये बिना बड़ी तस्वीर के बारे में विश्वास से कुछ भी कहना हिमाक़त होगी। शिक्षकों (व अन्यों) के बीच में इस परिघटना को लेकर जो सामान्य समझ है उसमें दो विरोधाभासी तर्क प्रकट होते हैं। एक तरफ़ मान्यता है कि सरकारी स्कूलों के प्रति अविश्वास के कारण, 'नींव मज़बूत' करने की दृष्टि से कुछ अभिभावक अपने बच्चों को प्रारम्भिक दो-चार साल किसी निजी स्कूल में पढ़ाते हैं। दूसरी तरफ़ यह कहा जाता है कि छठी कक्षा से किसी सरकारी स्कूल में - विशेषकर 'प्रतिभा' सरीखे - प्रवेश प्राप्त कराने के लिए निगम में पढ़ाना ज़रूरी हो जाता है क्योंकि एक सरकारी व्यवस्था से अन्य सरकारी व्यवस्था में प्रवेश सुगम-सुलभ, निश्चित ही नहीं होता बल्कि कहीं-कहीं इसकी पूर्व-शर्त भी होती है। सवाल यह है कि अगर एक स्तर पर सरकारी व्यवस्था पर संदेह है तो अन्य स्तर पर ऐसा क्यों नहीं है? यह भी एक चिंता का बिंदु है कि एक बड़े वर्ग ने यह मान लिया है कि सरकारी व्यवस्था के अच्छे-बुरे होने से उसका इससे अधिक सरोकार नहीं है कि वो एक से, अगर सम्भव हो तो, पीछा छुड़ाए और दूसरे का, फिर सम्भव हो तो, दामन पकड़े। इस परिस्थिति को बदला जाना चाहिए, बदला जा सकता है, इस तरह की चेतना सामान्यतः नहीं दिखती। वैसे, एक प्रकार से यह इतना आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि अब तो सर्वशक्तिसम्पन्न सरकारों व स्वयं राज्य द्वारा भी यही घोषित किया जा रहा है कि सरकारी स्कूल व्यवस्था न सिर्फ़ बेकार है बल्कि उसे बेहतर (समतामूलक तो छोड़िये) बनाना उनके बस (असल में इच्छा) की बात नहीं - और इसी तर्क के आधार पर या तो उन्हें बंद करने का रास्ता बचता है या बेचने का। (और राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, तमाम राज्य सरकारें अपनी नाकामी का जश्न सरकारी स्कूलों की बलि देकर मना रही हैं।) फिर भी हैरानी-परेशानी इसलिए है क्योंकि भले ही ये सत्ताधारियों के हित में हो, हमें तो अपना हित समझकर सरकारी स्कूल व्यवस्था के प्रति उदासीन, भाग्यवादी या अवसरवादी रवैया नहीं अपनाना चाहिए।
शिक्षा को बाजार की एक वस्तु मानने वाली ताक़तों के द्वारा यह लगातार प्रचारित किया जा रहा है कि सरकारी स्कूलों में नामांकन गिर रहा है क्योंकि अभिभावक इनके घटिया स्तर के कारण अपने बच्चों को निजी स्कूलों में दाख़िल करा रहे हैं। यह पूछा जा सकता है कि अगर गिरता नामांकन एक तथ्य है तो किसी के इसे रेखांकित करने पर ऐतराज़ क्यों। दरअसल आपत्ति का कारण वो मंशा है जिसके चलते इन 'तथ्यों' को पीटा जा रहा है। उदाहरण के लिए, लड़कियों के ख़िलाफ़ हिंसा को उनकी आज़ादी के अधिकार से जोड़कर देखा जा सकता है तो उनपर पहरे बिठाने से जोड़कर भी देखा जाता रहा है।
उक्त निगम स्कूल की चौथी व पाँचवीं की कुछ कक्षाओं में जाकर यह जानने की कोशिश की शुरुआत की गई कि आख़िर जो छात्राएँ निजी स्कूल से एक सार्वजनिक स्कूल में आई हैं उनके पास इस परिवर्तन के कारणों को लेकर क्या समझ है। चूँकि यह जानकारी एक ही दिन में इकट्ठा की गई, इसे लिखित में दर्ज नहीं किया गया और हर कक्षा में बस लगभग दस मिनट ही रुकना हो पाया, इसलिए यहाँ इस जानकारी को संख्याओं में व्यक्त करना सम्भव नहीं है। सवाल लगभग इन शब्दों में पूछे गए - कौन-कौन इस स्कूल में आने से पहले किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ता था? किसे-किसे पता है कि उनके मम्मी-पापा ने उनका दाख़िला उस स्कूल को छुड़ाकर इस स्कूल में क्यों कराया? दोनों ही सवालों में छात्राओं से हाथ खड़े करवाए गए। दूसरे सवाल के जवाब एक-एक करके पूछे गए। यहाँ उन कारणों को प्रस्तुत किया जा रहा है
1 फ़ीस बढ़ गई थी, हर साल फ़ीस बढ़ा देते थे।
2 लेट फ़ीस देने पर सज़ा देते थे, सबके सामने खड़ा कर देते थे, मम्मी-पापा को सुनना पड़ता था।
3 पापा की नौकरी छूट गई थी, पापा ग़ुज़र गए थे।
4 बेकार पढ़ाई होती थी, अच्छा नहीं पढ़ाते थे।
5 मारते थे, मार पड़ती थी।
6 घर बदलने पर स्कूल दूर हो गया।
यहाँ किसी स्पष्ट तर्क के आधार पर तो इन कारणों को सूचीबद्ध नहीं किया गया है पर शायद पहले दो कारणों का हवाला सबसे ज़्यादा छात्राओं ने दिया हो। चौथा व पाँचवां कारण भी कई छात्राओं ने गिनाया।
एक सवाल, शायद तैयारी न होने के कारण, सिर्फ़ एक ही कक्षा में पूछा गया - कौन-कौन इस स्कूल को छोड़कर वापस उसी प्राइवेट स्कूल में जाना चाहता है? इसके जवाब में केवल एक छात्रा ने हाथ उठाया और आगे पूछने पर उसने वजह अपनी सहपाठिनों से चल रही नाराज़गी बताई। यह संदेह किया जा सकता है कि अगर उक्त सवाल स्कूल में ही, वो भी एक शिक्षक द्वारा पूछे गए तो फिर इनसे उभरती तस्वीर को प्रामाणिक मानना कितना उचित होगा। सिवाय इसके कि उक्त शिक्षक के अनुसार उनके विद्यार्थियों से संबंध डर पर नहीं टिके हैं और सवाल उन्होंने सहज माहौल व भाव में पूछे थे, हम इस शोधमूलक शंका को ख़ारिज नहीं कर सकते।
उक्त शिक्षक का यह भी कहना है कि उनके स्कूल में वो और कुछ अन्य शिक्षक इस बात के प्रति सजग-सचेत रहते हैं कि विद्यार्थियों के बीच खासतौर से स्कूलों के संदर्भ में निजी व सार्वजनिक स्थलों के परस्पर चरित्रों की ओर ध्यानाकर्षित करते रहें। कक्षा में भी, सभा आयोजनों में भी व शिक्षकों के बीच आपसी बातचीत में भी। उनके अनुसार विद्यार्थियों से निजी स्कूलों के संदर्भ में उनके अपने व परिचितों के अनुभवों को आधार बनाकर बात करके, एक लोकतान्त्रिक, बराबरी की राजनैतिक समझ विकसित करने का काम किया जा सकता है। मगर निश्चित ही ऐसा अपने स्वयं के सार्वजनिक कर्मस्थल को गंभीरता से लिए बग़ैर करना बेईमानी होगी - अगर नैतिक रूप से सम्भव भी हो तो।
आज जिस तरह भाषा को विकृत करके कई शब्दों के अर्थ पलटे जा रहे हैं उनमें से 'जवाबदेही' महत्वपूर्ण है। कहा जा रहा है कि सार्वजनिक व्यवस्था के कर्मचारी जवाबदेह नहीं हैं जबकि निजी संस्थाओं में कर्मचारियों की जवाबदेही तय होती है। इसलिए सार्वजनिक संस्थाओं को विफल ही नहीं हानिकारक तक बताया जा रहा है। शब्दों के इस धूर्त फेर में यह बात पूरी तरह बिसराने की क़वायद हो रही है कि निजी संस्था अपने चरित्र में ही केवल निजी ग्राहकों के फ़ौरी संतोष के प्रति सचेत रहेंगी। याद रखने योग्य यह है कि उनके लिए खरीदार का भी दूरगामी हित नहीं, ऐसा क्षणिक संतोष ही काम का है जोकि उनके धंधे के मुनाफ़े से मेल खाए। समाज के प्रति जवाबदेही का तो सवाल ही नहीं उठता क्योंकि इन्हें समाज की संकल्पना की ज़रूरत ही नहीं है। वहीं, सार्वजनिक संस्था में कितना भी विकार आ जाए, वो मूलतः दूरगामी सामाजिक हितों से स्वयं का औचित्य सिद्ध करती है। इस संदर्भ में उक्त शिक्षक बताते हैं कि वो और उनके साथी अक़्सर विद्यार्थियों के समक्ष निजी स्कूलों के जनविरोधी, अलोकतांत्रिक, शिक्षाविरोधी आयामों के उदाहरण देते रहते हैं - कैसे उनमें भेदभाव किया जाता है, दिखावा होता है, न्यूनतम मापदंड पूरे नहीं होते आदि। इसी आधार पर यह दावा किया जा सकता है कि सच्चे लोकतंत्र (जोकि समानता पर आधारित होगा) के लिए जिस तरह के मानस की आवश्यकता है वो सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था की माँग करता है, सार्वजनिक संस्थाओं के सार्वभौमीकरण की माँग करता है। जिन बच्चों, लोगों ने सार्वजनिक स्कूल, स्थल, संस्था को अनुभव ही नहीं किया होगा, उनमें हिस्सा ही नहीं लिया होगा, वो भला देश-समाज की राजनीति, राज्य की व्यवस्था को लोकतान्त्रिक मूल्यों पर क्या खड़ा रख पाएँगे। बल्कि निजी स्कूलों, निजी स्थलों-संस्थाओं से निकल रहे, इनमें पल-बढ़ रहे लोग निश्चित ही एक निजी व्यक्तित्व विकसित करके, उसके पोषण की ज़रूरतों को ही देश हित क़रार देते रहेंगे। संक्षेप में कहें तो निजी संस्थाएँ, निजी स्कूल लोकतंत्र के लिए गंभीर ख़तरा हैं क्योंकि ये सार्वजनिक व्यक्तित्व, सार्वजनिक सरोकार, सार्वजनिक मूल्यों के बदले एक निजी संसार को रचते हैं। रही बात सार्वजनिक स्कूल के जनहितकारी उदाहरणों की, तो उसके लिए कुछ भी कहने से बेहतर होगा विद्यार्थियों का इसे अपने अनुभवों से भी आँकना। आख़िर सार्वजनिक स्कूलों की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ शिक्षकों पर नहीं है - उनके लिए राज्य की एक सही नीति व नीयत का होना अनिवार्य शर्त है।
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