एक बार फिर बच्चों, शिक्षकों व स्कूलों
के प्रति घोर असंवेदनशीलता का परिचय देते हुए शिक्षक दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री
के कार्यक्रम का सीधा प्रसारण दिखाना अनिवार्य कर दिया गया। बल्कि इस बार तो
राष्ट्रपति द्वारा कक्षा लिए जाने के कार्यक्रम को दिखाना भी अनिवार्य
करके प्रशासन ने
शिक्षा के प्रति अपनी सतही समझ को हमारे सामने सार्वजनिक कर दिया है। अगर इन कार्यक्रमों के औचित्य को मान भी लिया जाए
तो भी बच्चों की उम्र व शारीरिक जरूरतों को नज़रअंदाज़ करके उन्हें जबरन एक आदेशात्मक कार्यक्रम में घंटों बिठाए रखना उन्हें सत्ता की निरंकुशता
का ही पाठ पढ़ाएगा। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि शिक्षक दिवस अपने आप में कोई राजपत्रित
दिवस नहीं है और न ही इसे लेकर संसद में कोई क़ानून पारित हुआ है। परिणामस्वरूप
देशभर के शिक्षक, बच्चे व स्कूल इसे कब और कैसे मनाने के लिए तो स्वतंत्र हैं ही, इसे नहीं मनाने के
लिए भी आज़ाद हैं।
अबतक अधिकतर स्कूलों में इस दिन उच्च कक्षाओं
के विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों की भूमिका निभाने की परम्परा रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि बच्चों व शिक्षकों द्वारा इस दिन को अपने ढंग से मनाने की परंपरा को
दफ्न करने का प्रयास किया जा रहा है। स्कूलों पर इस प्रकार के कार्यक्रम लाद देना स्कूलों के बौद्धिक चरित्र पर सीधा
अतिक्रमण है। स्कूल मुख्यतः अकादमिक स्थल हैं, और एक स्वस्थ समाज
के निर्माण के लिए स्कूलों के इस चरित्र को बरकरार रखना आवश्यक है।
आदेशों के अनुसार इस दिन सुबह के सभी स्कूलों
की दिनचर्या बदल दी गई और उन्हें सीधे प्रसारण दिखाने के इंतज़ाम
करने का आदेश दिया गया। संसाधनों की कमी का रोना रोती सत्ता को ऐसे तुग़लकी
व शिक्षा-विरोधी फरमानों का पालन कराने के लिए संसाधनों को लुटाने में कोई संकोच
नहीं होता है। स्पष्ट है कि ऐसे कार्यक्रमों को आयोजित करके सत्ता
शिक्षकों व शिक्षा व्यवस्था की मूलभूत समस्याओं से लोगों का ध्यान भटकाना चाहती है।
मगर इन परिस्थितियों
में भी विभिन्न स्कूलों से प्राप्त बच्चों के विरोध दर्ज करने के उदाहरण भविष्य के
प्रति उम्मीद जिलाए रखते हैं।