यह अनुभव दिल्ली सरकार के स्कूल में पढ़ाने वाली एक शिक्षिका साथी ने साझा किया है। साथी ने अनुरोध किया है कि इसके साथ इनका नाम न दिया जाए। संपादक समिति इनके अनुरोध को स्वीकार करते हुए यह अनुभव साझा कर रही है।
जब स्कूल के सभी बच्चों को सुबह 9.30 बजे से दोपहर 1 बजे तक बिना अपनी मर्ज़ी के डर के मारे एक ही जगह पर बैठे रहना पड़ा तो उन्होंने अपने शिक्षकों से बार-बार पूछा – “मैम टॉयलेट चले जाएं, पानी पी आयें, खड़े हो जाएँ?” जब तक मजबूर शिक्षकों से मना हो सका तब तक उन्होंने मना किया| शिक्षक अधिकारियों के डर से बैठे रहे और शिक्षकों के डर से बच्चे बैठे रहे| फिर इस ‘शिक्षक दिवस’ पर बच्चों ने नया क्या सीखा? राष्ट्रपति की बात अंग्रेज़ी में थी जो ना ज़्यादातर बच्चों को समझ आई और ना ज़्यादातर शिक्षकों को| वे बस यही पूछते रह गए, “मैम, कब ख़त्म होगा?”
‘शिक्षक दिवस’ को प्रधानमन्त्री ने ना सिर्फ अलोकतांत्रिक बना दिया बल्कि एक और दिन को उन्होंने अपने नाम कर लिया| ज़रूर कुछ शिक्षकों को उनकी बातें अच्छी लगी लेकिन जिन्हें अच्छी नहीं लगी उन्हें वहाँ से उठ कर जाने की आजादी क्यों नहीं थी? कक्षा 1 से कक्षा 7 के बेचैन छात्रों को वहाँ से उठ कर जाने की आज़ादी क्यों नहीं थी?
अगर किसी दिन 15 अगस्त का भाषण देखना भारत के हर नागरिक के लिए अनिवार्य हो जाए तो क्या इस देश के लोग इसे तानाशाही मानेंगे? फिर 5 सितम्बर का भाषण सुनना शिक्षकों और विद्यार्थियों का अपना चयन, अपनी चॉइस क्यों नहीं हो सकता? एक ऐसे व्यक्ति जो सिर्फ इस देश के प्रधानमंत्री नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी के नेता भी हैं, गुजरात के दागदार इतिहास के उत्तरदायी भी हैं, किस अधिकार से अपनी बातें सुनने के लिए हमें मजबूर कर सकते हैं?
आज शिक्षा और शिक्षकों के मुद्दों से हटाकर ‘शिक्षक दिवस’ को भी मोदी दिवस बना दिया गया है| यह अनुमान लगाना ज़्यादा मुश्किल नहीं है कि इस प्रोग्राम में बच्चों द्वारा पूछा हर सवाल पूर्व-निर्धारित, पूर्व-प्रशिक्षित होता है| फिर हर साल बच्चों के ज़्यादातर सवाल प्रधानमंत्री का गुणगान ही क्यों कर रहे होते हैं?
इतनी सख्ती से स्कूलों में इस कार्यक्रम को दिखाने की क्या वजहें हो सकती हैं? इसके दो कारण हो सकते हैं| एक, प्रधानमंत्री चाहते हैं कि स्कूलों को उनके भाषण और पहुँच के नियमित स्थल बना दें जहाँ बच्चों को उनकी बातें सुनने की आदत पड़ जाए| दूसरा कारण हो सकता है कि शिक्षक दिवस पर होने वाले विमर्श को पूर्व-निर्धारित कर देना| पूरे विमर्श की सीमाएं और स्वरूप तय कर देना|
आखिरकार प्रधानमंत्री मोदी द्वारा दिए गए हर सवाल का जवाब यही क्यों था कि अगर एक शिक्षक चाहे तो ‘सुपरमैन’ स्वरूपी व्यक्तिगत काबिलियत के आधार पर हर समस्या का हल निकाल सकता है? कम संसाधनों में अटल-अचल पढ़ाती जाऊं तो मैं एक अच्छी शिक्षिका हूँ लेकिन अगर सारे शिक्षक साथ मिलकर ज़्यादा संसाधनों के लिए हड़ताल कर दें तो हम कामचोर शिक्षक हैं! अपनी साड़ी फाड़कर रुमाल बनाती आंगनवाड़ी महिला की कहानी और एक 'मेधावी' छात्र के सवाल ‘आज कोई शिक्षक क्यों नहीं बनना चाहता?’ पर प्रधानमंत्री ने जो जवाब दिया उसमें अच्छे शिक्षक की परिभाषा है ‘वो जो चुप-चाप, बिना सवाल उठाये अपना काम करता जाए|’
अगर इस दिन शिक्षकों को स्वयं अपने सवाल उठाने होते, तो वे कैसे सवाल उठाते? क्या हज़ारों शिक्षक ठेके पर काम करने का सवाल नहीं उठाते, एक कक्षा में 60-70 बच्चों को पढ़ाने का सवाल नहीं उठाते, बिना ताज़े पानी के बच्चों के पढ़ने का सवाल नहीं उठाते, स्कूलों से निकलने वाले बच्चों में सिर्फ मुट्ठीभर बच्चों के लिए उच्च-शिक्षा में सीटों का सवाल नहीं उठाते?
अगर शिक्षकों को यह (या ऐसा कोई भी दिन) अपने हाथ में लेना है तो इस प्रथा को तोड़ना होगा| मँहगी होती शिक्षा, विमुख होती शिक्षा, असलियत से दूर होती शिक्षा और कुछ हाथों में मजबूर होती शिक्षा को बचाने के लिए शिक्षकों का साथ मिलकर लड़ना भी ज़रूरी है|
1 comment:
just read a small book written by dipak kasale and pratima pardeshi named 'khara shikshak din'. it is in marathi language, but simply awesome.
Read, think and then go through it.
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