Sunday, 1 May 2016

अनुदित लेख: आरक्षण संबंधी कुछ तथ्य जिन्हें नज़रंदाज़ किया जाता है


पी एस कृष्णन

हालाँकि हमारे संवैधानिक आदर्श के रूप में भी आर्थिक असमानता खत्म करना - ग़रीबी बनाए रखते हुए सिर्फ कुछमुट्ठीभर ग़रीबों को नौकरियाँ देना नहीं - एक प्राथमिक उद्देश्य है और इसकी घोर अनदेखी हुई है। फिर भीआर्थिक समानता प्राप्त करने के लिए राज्य से अन्य कार्यक्रमोंयोजनाओं व नीतियों की दरकार है। जैसेमुफ्त व समान शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य सेवाएँमज़बूत और सुलभ सार्वजनिक वितरण व परिवहन व्यवस्थादेश के संसाधनों का देश के लोगों के सामूहिक हित में बंदोबस्त व इस्तेमाल (न कि कम्पनियों के निजी मुनाफे के लिए लोगोंखासतौर से मज़दूरों-आदिवासियों का पुलिसिया दमन और संसाधनों की लूट)भूमिहीनों को ज़मीनें बाँटना (भू-सुधार)सार्वजनिक आवास योजनायें आदि। इसके बदले हुआ यह है कि या तो राज्य ने इन ज़िम्मेदारियों को कभी गम्भीरता से लिया ही नहीं है या फिर पिछले 20-30 सालों में चले निजीकरण-उदारीकरण-भूमंडलीकरण के दबाव में इनका रहा-सहा स्वरूप भी नष्ट किया जा रहा है।
भारत सरकार के पूर्व सचिव श्री पी एस कृष्णन ने आरक्षण को लेकर समाज में, यहाँ तक कि मिडिया के दिग्गजों के बीच भी फैले ग़लत प्रचार को दूर करने के लिए सितंबर 2015 में अंग्रेजी में एक लेख लिखा था, जिसे हम यहाँ 'आरक्षण संबंधी कुछ तथ्य जिन्हें नज़रंदाज़ किया जाता है' शीर्षक से संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैं।                              संपादक 

सामान्य त्रुटियाँ/झूठ  

·         आरक्षण राजनेताओं द्वारा वोट पाने के लिए शुरु किया गया था। 
·         आरक्षण का आविष्कार अंग्रेज़ों ने 'फूट डालो और राज करो' की नीति के तहत किया था।
·         आरक्षण 1950 में भारत के संविधान के बनने के बाद शुरु किया गया था। 
·         आरक्षण सिर्फ अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए था और इसे बाक़ी जातियों के लिए 1990 के बाद राजनेताओं द्वारा बढ़ाया गया। 
·         इसकी जड़ में मंडल आयोग है। 
·         संविधान में आरक्षण का प्रावधान सिर्फ दस साल के लिए था। 

तथ्य/सच 

·         आरक्षण की शुरुआत 1902 में कोल्हापुर के शासक शाहू जी महाराज की पहल पर हुई। उसके बाद 1921 में इसे मैसूर के महाराज ने और मद्रास प्रेसीडेंसी में जस्टिस पार्टी की सरकार ने लागू किया। (जस्टिस पार्टी प्रशासन में उच्च जाति की कब्जेदारी के खिलाफ खड़ी हुई थी।) फिर 1931 में बॉम्बे प्रेसीडेंसी व 1935 में त्रवणकोर तथा कोचीन के महाराजाओं ने भी इसे अपनाया। आज़ादी से पहले लगभग पूरे दक्षिण भारत में यह लागू हो चुका था और यह सिर्फ आज SC/ST माने जाने वाली जातियों के लिए नहीं बल्कि तमाम पिछड़े वर्गों के लिए था। इन सभी फैसलों के पीछे स्थानीय समाज सुधार के आंदोलनों से बने दबाव का हाथ था। 
·         संविधान में दस साल का प्रावधान सिर्फ लोक सभा और विधान सभाओं के लिए प्रस्तावित था। योग्यता का सवाल इसलिए भी बेबुनियाद है क्योंकि सभी सामाजिक विकास के मानकों पर दक्षिण भारत के वो राज्य ही बेहतर स्थिति में हैं जहाँ आरक्षण द्वारा समाज के अधिक बड़े हिस्से को सत्ता व प्रशासन में भागीदारी मिली है। 
·         राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण 1943 में बाबासाहेब की पहल पर शुरु किया गया। उनकी इस पहल ने सुनिश्चित किया कि सामाजिक न्याय का यह प्रावधान आज़ादी के बाद भी संविधान में जारी रहेगा।   

आरक्षण के तीन प्रकार 

·         राज्य की सेवाओं व पदों में 
·         शैक्षिक संस्थानों में 
·         लोक सभा व विधान सभाओं में  (यह दस साल के लिए प्रस्तावित किया गया था, बाक़ी दो की कोई अवधि घोषित नहीं है)

आरक्षण का मक़सद 

·         यह ग़रीबी मिटाने या ग़रीबों के उत्थान का ज़रिया नहीं है। 
·         यह बेरोज़गारी से निपटने का ज़रिया नहीं है। 
·         यह राजसत्ता, प्रशासन, शिक्षा आदि में भारतीय जाति व्यवस्था से आई घोर असमानता व विकृतियों को खत्म करने के लिए है। 
असल में राज्य सेवाओं में, कई क्षेत्रों में, 'शीर्ष' जाति का ऐसा कब्ज़ा था कि उनके अलावा चंद 'उच्च' जातियों के लोग ही पदों पर थे। इस अन्यायपूर्ण स्थिति के विरुद्ध शांतिपूर्ण आंदोलन के जनदबाव में कोल्हापुर, मैसूर, त्रवणकोर, कोचीन के महाराजाओं ने और जस्टिस पार्टी की सरकार ने आरक्षण के प्रावधान बनाए। 

   संविधान में आरक्षण किसके लिए?

·         अनुसूचित जाति - दलित 
·         अनुसूचित जनजाति - आदिवासी 
·         सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग ('आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग' नहीं) - SEdBC या OBC या BC
आरक्षण किसी अन्य सामाजिक वर्ग के लिए नहीं हो सकता है, महिलाओं व विकलांगों को छोड़कर। सर्वोच्च न्यायालय ने इनके आरक्षण को 'पड़ी लकीर' का आरक्षण और तीन सामाजिक वर्गों के आरक्षण को 'खड़ी लकीर' का आरक्षण कहा है। संविधान व न्यायालय के अनुसार ऐसी ग़रीबी जिसका सामाजिक पिछड़ेपन से कोई लेना-देना नहीं है, आरक्षण का आधार नहीं हो सकती।

तीनों वर्गों की पहचान और उनकी सूची में बदलाव

·         SC - पहचान का आधार है कि ये वो जातियाँ हैं जो 'अस्पृश्यता' का निशाना रही हैं। सूची राष्ट्रपति के आदेश से जारी होती है और इसमें केवल संसद क़ानून द्वारा ही बदलाव कर सकती है। महज़ सरकार या पार्टी या नेता की मर्ज़ी से इसमें फेरबदल नहीं किया जा सकता। अगर कोई समुदाय दावा करता है कि उसे 'अस्पृश्यता' झेलनी पड़ी है, तो इसे राज्य सरकार द्वारा साबित करना होगा और इसकी जाँच रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया का एंथ्रोपोलॉजी (मानव-शास्त्र) विभाग करेगा। जब दोनों सबूतों के आधार पर 'अस्पृश्यता' को दर्ज कर लेंगे और सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय भी मान लगा तब सूची में संसद कानूनन बदलाव कर सकती है। कोई राज्य सरकार अपने आप सूची को बदलने के आदेश जारी नहीं कर सकती। 
·         ST - पहचान का आधार है कुल मिलाकर कठिन परिस्थितियों में अलग-थलग रहने का इतिहास। सूची में बदलाव का तरीका वही है। SC जाति या जनजाति भी हो सकती मगर ST जाति नहीं हो सकती। दावा करने वाले समुदाय को पहले साबित करना होगा कि वो एक जनजाति है, फिर वो परिस्थितियाँ दिखानी होंगी कि वो ST में आता है। कुछ राज्य सरकारें SC, ST की सूचियों में फेरबदल की माँग को प्रस्तावित कर रही हैं, यह जानते हुए कि इनमें कोई क़ानूनी दम नहीं है। यह सरासर बेईमानी है। 
·         S Ed BC - सामाजिक व शैक्षिक, दोनों स्तरों पर पिछड़ापन। इसमें मुसलमान व इसाई समुदाय की कई जातियाँ शामिल हैं। 

      S Ed BC की सूची में शामिल होने के लिए तीन चरणों की प्रक्रिया है। 
·         यह साबित करना होगा कि वो 'सामाजिक रूप से पिछड़े' हैं। इसका मतलब है कि भारत की जाति व्यवस्था में वो जाति ऐसे पेशे से जुड़ी रही है जिसे पारम्परिक रूप से कमतर आँका गया है। अगर कोई समुदाय सामाजिक रूप से पिछड़ा नहीं है तो अगले दो चरणों का सवाल ही नहीं उठता। 
·         सामाजिक पिछड़ापन साबित करने के बाद उसे शैक्षिक पिछड़ापन साबित करना होगा जिसका मानक सर्वोच्च न्यायालय ने कॉलेज स्तर की पढ़ाई तक (नहीं) पहुँच पाने का दर रखा है। यह दिखाना होगा कि उस समुदाय का स्तर राज्य/देश की सामाजिक रूप से 'अगड़ी' जातियों से काफी कम है। 
·         आरक्षण के लिए यह साबित करना होगा कि राज्य की सेवाओं व पदों में उस समुदाय का उचित प्रतिनिधित्व नहीं है। 
BC की केंद्रीय सूची व राज्यों की सूचियाँ 

SC ST के लिए हर राज्य के लिए एक सूची है जिसे पहले-पहल राष्ट्रपति ने जारी किया था। BC के लिए हर राज्य के लिए एक केंद्रीय सूची है और हर राज्य की एक अपनी सूची भी है। तमिलनाडु व कर्नाटक को छोड़कर अधिकतर राज्यों में ये दोनों सूचियाँ लगभग एक समान हैं। 

दोनों सूचियों के उद्देश्य 

·         BC की केंद्रीय सूची - केंद्र सरकार व केंद्रीय संस्थानों के पदों में आरक्षण; केंद्र सरकार व केंद्र-समर्थित शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण; सामाजिक न्याय की अन्य केंद्रीय योजनाओं, कार्यक्रमों व नीतियों के लाभ के लिए। 
·         BC की राज्य सूची - राज्य सरकार के स्तर परऊपर के तर्ज पर।

केंद्रीय सूची की तैयारी 
पहले चरण की केंद्रीय सूची 1993 में राज्यों की अपनी सूची व मंडल आयोग द्वारा प्रस्तावित उस राज्य की सूची, दोनों में शामिल जातियों की सूची तैयार करके बनाई गई। 1992 के एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने इस तरीके को सही ठहराया था। उसके बाद NCBC (राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग) ने उन जातियों की अर्ज़ी लेनी शुरु की जोकि पहली सूची से छूट गई थीं। राज्यों की सूची और केंद्र की सूची में शामिल होने का पैमाना एक ही है, मगर तरीका अलग-अलग है। 

  राज्य की सूची में शामिल होने के लिए 
SCBC (राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग) में अर्ज़ी देनी होती है। आयोग को सबूत पेश करने होते हैं कि उक्त जाति सामाजिक-शैक्षिक रूप से पिछड़ी है और प्रशासन में उसका प्रतिनिधित्व भी कम है। अगर आयोग सहमत होता है तो वो राज्य सरकार को सिफारिश करता है, वरना अर्ज़ी ख़ारिज कर देता है। राज्य सरकार को सामान्यतः आयोग का निर्णय मानना होता है। अगर सरकार आयोग के फैसले से सहमत नहीं होती है तो उसे कारण देने होते हैं। 

    केंद्रीय सूची में शामिल होने के लिए 
NCBC को अर्ज़ी देनी होती है। यह आयोग भी उसी तरह जाँच करके केंद्र सरकार को अपना फैसला बताता है, जोकि सामान्यतः मानना होता है। अगर केंद्र सरकार सहमत नहीं होती है तो उसे भी कारण बताने होते हैं। एक-आध मौके छोड़करकेंद्र सरकार ने कभी भी आयोग के फैसले को अस्वीकार नहीं किया है। 2014 के चुनाव से पहले जब सरकार ने जाट समुदाय के लिए आयोग के फैसले को पलटते हुए उसे कई राज्यों की केंद्रीय सूची में शामिल करने का निर्णय लिया भी, तो सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अमान्य घोषित कर दिया। 
NCBC द्वारा अब तक लगभग 350 जातियों/समुदायों की अर्ज़ियाँ सूची में शामिल करने की सिफारिश की जा चुकी है और 470 अर्ज़ियाँ ख़ारिज की जा चुकी 

 झूठ: आरक्षण के कारण अगड़ी जातियों के युवाओं को नौकरियां नहीं
भारत में राज्य सरकारों व केंद्र सरकार के तहत कुल मिलाकर 1,74,74,703 (लगभग पौने दो करोड़) नौकरियाँ हैं। इनमें से अगर 3% लोग हर साल सेवानिवृत होते हैं और इतने ही नौकरी पाते हैं, तो यह संख्या 5,24,241 (लगभग सवा पाँच लाख) हुई। अगर  इनमें 50% आरक्षण है (जिसका कि पालन नहीं होता है) तो यह संख्या 2,62,120 (ढाई लाख से कुछ ज़्यादा) हुई। भारत में कुल शिक्षित बेरोज़गार 3,81,52,000 (पौने चार करोड़ से कुछ अधिक) हैं। इसका मतलब हुआ कि कुल शिक्षित बेरोज़गारों में से सिर्फ 0.69% (एक प्रतिशत से कम) को आरक्षण मिलता है। तो यह कहना कि आरक्षण की वजह से सामाजिक रूप से 'अगड़ी' जातियों के शिक्षित युवाओं को नौकरियाँ नहीं मिल रहीं, एक बेबुनियाद दलील है। जहाँ तक 'अगड़ी' जाति के ग़रीब विद्यार्थियों का सवाल है तो उन्हें भी वजीफों आदि की ज़रूरत है। 




पत्र : अनिल देव समिति रिपोर्ट के आधार पर


कुछ शिक्षक साथियों ने निजी विद्यालयों द्वारा मनमानी फीस वसूल करने की शिकायत पर लोक शिक्षक मंच को अनिल देव समिति की रपट पढ़ने व उस पर काम करने का सुझाव दिया था| हमने समिति की 9 अंतरिम रपटों में से दोषी स्कूलों की सूची तैयार करके CIE में प्रदर्शित की| इसी कार्यवाही में यह चिठ्ठी शिक्षक संगठनों व शिक्षक साथियों को भेजी गयी थी| 
                                                                                           संपादक 

वर्ष 2011 में दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के बाद अनिल देव सिंह की अध्यक्षता में एक समिति बनी जिसने अब तक 9 रपटों में दिल्ली के 1,000 से ज्यादा प्राइवेट स्कूलों की जांच प्रस्तुत की हैसमिति का काम इस बात की जांच करना था कि 11 फरवरी 2009 के बाद निजी स्कूलों नेउनके पास उपलब्ध फंड्स के मद्देनज़र, VI वेतन आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने के लिए कितनी फीस बढ़ाई|

अभिभावकों की शिकायत पर बनाई गयी इस समिति ने पाया कि अधिकाँश स्कूलों ने स्कूल कर्मचारियों के वेतनभत्तों आदि के लिए आवश्यक राशि से काफी ज़्यादा फीस बढ़ाईउच्च न्यायालय का आदेश था कि अगर स्कूलों ने अभिभावकों से अनुचित ढंग  से फीस वसूली है तो अतिरिक्त  राशि को 9% ब्याज के साथ लौटाया जाए|

समिति की 9 अंतरिम रपटें दिल्ली शिक्षा विभाग की वेबसाइट पर मौजूद हैं- www.edudel.nic.in

इन रपटों में स्कूलों को कई तरह की अनियमितता का दोषी पाया गया-

1. करीब 500 स्कूलों में जहाँ फीस बढ़ोतरी को आंशिक रूप से या पूरी तरह ग़ैर-वाजिब पाया गयासमिति ने अतिरिक्त वसूली गई फीस को 9% ब्याज के साथ वापस लौटाने का निर्देश दिया। 
2. करीब 172 स्कूलों के बारे में समिति ने पाया कि न सिर्फ उनकी फीस बढ़ोतरी आंशिक रूप से  या पूर्णतः अनुचित थीबल्कि उनके रिकॉर्ड भी विश्वसनीय नहीं थे। समिति ने इनके संदर्भ में फीस लौटाने व विशेष जाँच के निर्देश दिए। 
3. करीब 170 स्कूलों के रिकॉर्ड अविश्वसनीयगड़बड़अधूरे पाए गए और इनकी विशेष जांच के सुझाव दिए गए। 

समिति की रिपोर्ट आने के बाद भी बहुत ही कम स्कूलों ने अतिरिक्त वसूली गयी फीस लौटाई है और वे दोषी  होते हुए भी पहले की तरह,बिना रुकावट चल रहे हैं

निजी स्कूलों की यह स्थिति अपवाद नहीं है, बल्कि सामान्य को दर्शाती हैशिक्षा में चल रहे बाज़ार से पर्दा हटाती हैनिजी स्कूलों को पारदर्शिता और कुशलता का गढ़ बताये जाने पर सवाल खड़े करती है

यह रिपोर्ट इसलिए भी महत्वपूर्ण बन जाती है क्योंकि NGO व मुक्त-बाज़ार के पैरवीकारों की प्रायोजित रपटें लगातार सरकारी स्कूलों को बदनाम करने पर आमादा हैंसरकारें सार्वजनिक स्कूलों को विफल बताकर उन्हें PPP के तहत निजी हाथों में सौंपना शुरू कर चुकी हैंक्या इसका अर्थ 'शिक्षा के बाज़ारका विस्तार होगा

निजी मालिकाने व प्रबंधन के अधीन चल रहे स्कूलों के चरित्र को समझने के लिए यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि इनमें से अधिकतर आज तक शिक्षा अधिकार क़ानून के भाग 12 (1) (c)  के तहत प्रथम (अथवा प्रवेश) कक्षा में आर्थिक रूप से वंचित तबकों के लिए निर्धारित 25%दाखिले को लागू करने में आनाकानी/मक्कारी करते हैं। (यह दीगर बात है कि इस प्रावधान को हम आम लोगों के साथ एक छलावे के रूप में ही देखते हैं।)  

केंद्रीय शिक्षा संस्थान में हुए कैंपस रिक्रूटमेंट में भी विद्यार्थी इस तरह के निजी स्कूलों के अभिजातबनावटी व बहिष्करण रूपी चरित्र से परिचित होकर अपमानित होने का अनुभव प्राप्त कर चुके हैं। इनके द्वारा लिए गए साक्षात्कारों में शिक्षा संस्थान के विद्यार्थियों ने भाषा,पहनावा व वर्गीय पृष्ठभूमि के आधार पर एक भेदभावपूर्ण रवैये का स्वाद चखा।  विद्यार्थियों की स्कूली पृष्ठभूमि भी नौकरी मिलने-ना-मिलनेका कारक बनवैसे भी ये संस्थायें सामाजिक न्याय के संवैधानिक उसूलों का पालन नहीं करती हैंजिसके सबूत हम इनमें नौकरी मिलने वालो की पृष्ठभूमियों के विस्तार में जाकर पा सकते हैं। रही-सही कसर हमारे ही संस्थान से पढ़कर निकले उन साथियों के अनुभवों में बयान हो जाती है जिन्हें इन स्कूलों में अपने न्यायोचित व क़ानून-सम्मत वेतन की माँग करने पर नौकरी से निकाल दिया गया/जाता है। 

ज़ाहिर है कि एक ओर सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था में ज़रूरत से कहीं कम रिक्तियाँ निकलने व भर्तियाँ होने से (जिनमें भी ठेके पर रखने की नीति तेज़ी से स्थापित होती जा रही है) तथा दूसरी ओर परिवार की चुनौतीपूर्ण सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के चलतेअधिकतर विद्यार्थियों के सामने इन स्कूलों की नौकरियों को नकारने के सार्थक विकल्प नहीं हैं। फिर भी हमें लगता है कि शिक्षक तैयार करने वाले संस्थानों के विद्यार्थियों को इन तथ्यों से परिचित होना चाहिए ताकि वो असमंजस में न पड़ें, धोखा न खायें और समय आने पर जितना हो  सके अपने हक़ों के लिए लड़ सकें। 

मगर क्या हम अपने संस्थानों में पढ़ाने वाले शिक्षकों से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वो ऐसे स्कूलों को कैंपस रिक्रूटमेंट से बाहर रखकर और उनके साक्षात्कार पैनलों में (मनोबल बढ़ाने वाला व नाम देने वाली) शिरकत न करके अपने संस्थानोंविद्यार्थियों तथा शिक्षा के अनुशासन के पक्ष में अपनी भूमिका अदा करें