पी एस कृष्णन
हालाँकि हमारे संवैधानिक आदर्श के रूप में भी आर्थिक असमानता खत्म करना - ग़रीबी बनाए रखते हुए सिर्फ कुछ, मुट्ठीभर ग़रीबों को नौकरियाँ देना नहीं - एक प्राथमिक उद्देश्य है और इसकी घोर अनदेखी हुई है। फिर भी, आर्थिक समानता प्राप्त करने के लिए राज्य से अन्य कार्यक्रमों, योजनाओं व नीतियों की दरकार है। जैसे, मुफ्त व समान शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य सेवाएँ, मज़बूत और सुलभ सार्वजनिक वितरण व परिवहन व्यवस्था, देश के संसाधनों का देश के लोगों के सामूहिक हित में बंदोबस्त व इस्तेमाल (न कि कम्पनियों के निजी मुनाफे के लिए लोगों, खासतौर से मज़दूरों-आदिवासियों का पुलिसिया दमन और संसाधनों की लूट), भूमिहीनों को ज़मीनें बाँटना (भू-सुधार), सार्वजनिक आवास योजनायें आदि। इसके बदले हुआ यह है कि या तो राज्य ने इन ज़िम्मेदारियों को कभी गम्भीरता से लिया ही नहीं है या फिर पिछले 20-30 सालों में चले निजीकरण-उदारीकरण-भूमंडलीकरण के दबाव में इनका रहा-सहा स्वरूप भी नष्ट किया जा रहा है।
भारत सरकार के पूर्व सचिव श्री पी एस कृष्णन ने आरक्षण को लेकर समाज में, यहाँ तक कि मिडिया के दिग्गजों के बीच भी
फैले ग़लत प्रचार को दूर करने के लिए सितंबर 2015 में अंग्रेजी में एक लेख लिखा था, जिसे हम यहाँ 'आरक्षण संबंधी कुछ तथ्य
जिन्हें नज़रंदाज़ किया जाता है' शीर्षक से संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे
हैं। संपादक
सामान्य त्रुटियाँ/झूठ
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आरक्षण
राजनेताओं द्वारा वोट पाने के लिए शुरु किया गया था।
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आरक्षण
का आविष्कार अंग्रेज़ों ने 'फूट
डालो और राज करो' की
नीति के तहत किया था।
·
आरक्षण
1950 में
भारत के संविधान के बनने के बाद शुरु किया गया था।
·
आरक्षण
सिर्फ अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए था और इसे बाक़ी जातियों के लिए 1990
के बाद राजनेताओं द्वारा बढ़ाया गया।
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इसकी
जड़ में मंडल आयोग है।
·
संविधान
में आरक्षण का प्रावधान सिर्फ दस साल के लिए था।
तथ्य/सच
·
आरक्षण
की शुरुआत 1902 में
कोल्हापुर के शासक शाहू जी महाराज की पहल पर हुई। उसके बाद 1921
में इसे मैसूर के महाराज ने और मद्रास
प्रेसीडेंसी में जस्टिस पार्टी की सरकार ने लागू किया। (जस्टिस पार्टी प्रशासन में
उच्च जाति की कब्जेदारी के खिलाफ खड़ी हुई थी।) फिर 1931
में बॉम्बे प्रेसीडेंसी व 1935
में त्रवणकोर तथा कोचीन के महाराजाओं ने भी
इसे अपनाया। आज़ादी से पहले लगभग पूरे दक्षिण भारत में यह लागू हो चुका था और यह
सिर्फ आज SC/ST माने
जाने वाली जातियों के लिए नहीं बल्कि तमाम पिछड़े वर्गों के लिए था। इन सभी फैसलों
के पीछे स्थानीय समाज सुधार के आंदोलनों से बने दबाव का हाथ था।
·
संविधान
में दस
साल का प्रावधान सिर्फ लोक सभा और विधान सभाओं के लिए प्रस्तावित था। योग्यता का
सवाल इसलिए भी बेबुनियाद है क्योंकि सभी सामाजिक विकास के मानकों पर दक्षिण भारत
के वो राज्य ही बेहतर स्थिति में हैं जहाँ आरक्षण द्वारा समाज के अधिक बड़े हिस्से को सत्ता व प्रशासन
में भागीदारी
मिली है।
·
राष्ट्रीय
स्तर पर अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण 1943
में बाबासाहेब की पहल पर शुरु किया गया। उनकी
इस पहल ने सुनिश्चित किया कि सामाजिक न्याय का यह प्रावधान आज़ादी के बाद भी संविधान में जारी रहेगा।
आरक्षण के तीन प्रकार
·
राज्य
की सेवाओं व पदों में
·
शैक्षिक
संस्थानों में
·
लोक
सभा व विधान सभाओं में (यह दस साल के लिए प्रस्तावित किया गया था, बाक़ी दो की कोई अवधि घोषित नहीं है)
आरक्षण का मक़सद
·
यह
ग़रीबी मिटाने या ग़रीबों के उत्थान का ज़रिया नहीं है।
·
यह
बेरोज़गारी से निपटने का ज़रिया नहीं है।
·
यह
राजसत्ता, प्रशासन, शिक्षा आदि में भारतीय जाति व्यवस्था से आई घोर असमानता व
विकृतियों को खत्म करने के लिए है।
असल में
राज्य सेवाओं में, कई
क्षेत्रों में, 'शीर्ष' जाति का ऐसा कब्ज़ा था कि उनके अलावा चंद 'उच्च' जातियों के लोग ही पदों पर थे। इस अन्यायपूर्ण स्थिति के विरुद्ध शांतिपूर्ण आंदोलन के जनदबाव में कोल्हापुर, मैसूर, त्रवणकोर, कोचीन के महाराजाओं ने और जस्टिस पार्टी की सरकार ने आरक्षण
के प्रावधान बनाए।
संविधान में
आरक्षण किसके लिए?
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अनुसूचित
जाति - दलित
·
अनुसूचित
जनजाति - आदिवासी
·
सामाजिक
व शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग ('आर्थिक
रूप से पिछड़े वर्ग' नहीं)
- SEdBC या OBC
या BC
आरक्षण
किसी अन्य सामाजिक वर्ग के लिए नहीं हो सकता है, महिलाओं व विकलांगों को छोड़कर। सर्वोच्च न्यायालय ने इनके
आरक्षण को 'पड़ी लकीर' का आरक्षण और तीन सामाजिक वर्गों के आरक्षण को 'खड़ी लकीर' का
आरक्षण कहा है। संविधान व न्यायालय के अनुसार ऐसी ग़रीबी जिसका सामाजिक पिछड़ेपन से
कोई लेना-देना नहीं है, आरक्षण
का आधार नहीं हो सकती।
तीनों वर्गों की पहचान और उनकी सूची में
बदलाव
·
SC - पहचान
का आधार है कि ये वो जातियाँ हैं जो 'अस्पृश्यता' का
निशाना रही हैं। सूची राष्ट्रपति के आदेश से जारी होती है और इसमें केवल
संसद क़ानून द्वारा ही बदलाव कर सकती है। महज़ सरकार या पार्टी या नेता की मर्ज़ी से इसमें फेरबदल नहीं किया जा सकता। अगर कोई समुदाय दावा करता है कि उसे 'अस्पृश्यता' झेलनी
पड़ी है, तो
इसे राज्य सरकार द्वारा साबित करना होगा और इसकी जाँच रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया
का एंथ्रोपोलॉजी (मानव-शास्त्र) विभाग करेगा। जब दोनों सबूतों के आधार पर 'अस्पृश्यता' को
दर्ज कर लेंगे और सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय भी मान लगा तब सूची में संसद
कानूनन बदलाव कर सकती है। कोई राज्य सरकार अपने आप सूची को बदलने के आदेश जारी नहीं कर सकती।
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ST - पहचान
का आधार है कुल मिलाकर कठिन परिस्थितियों में अलग-थलग रहने का इतिहास। सूची में
बदलाव का तरीका वही है। SC जाति
या जनजाति भी हो सकती मगर ST जाति
नहीं हो सकती। दावा करने वाले समुदाय को पहले साबित करना होगा कि वो एक जनजाति है, फिर वो परिस्थितियाँ दिखानी होंगी कि वो ST में आता है। कुछ राज्य सरकारें SC,
ST की सूचियों में फेरबदल की माँग को प्रस्तावित
कर रही हैं, यह
जानते हुए कि इनमें कोई क़ानूनी दम नहीं है। यह सरासर बेईमानी है।
·
S Ed BC - सामाजिक व शैक्षिक, दोनों स्तरों पर पिछड़ापन। इसमें मुसलमान व इसाई समुदाय की
कई जातियाँ शामिल हैं।
S Ed
BC की सूची में शामिल होने के लिए तीन चरणों की
प्रक्रिया है।
·
यह
साबित करना होगा कि वो 'सामाजिक
रूप से पिछड़े' हैं।
इसका मतलब है कि भारत की जाति व्यवस्था में वो जाति ऐसे पेशे से जुड़ी रही है जिसे पारम्परिक रूप से कमतर आँका गया है। अगर कोई समुदाय सामाजिक रूप से पिछड़ा
नहीं है तो अगले दो चरणों का सवाल ही नहीं उठता।
·
सामाजिक
पिछड़ापन साबित करने के बाद उसे शैक्षिक पिछड़ापन साबित करना होगा जिसका मानक
सर्वोच्च न्यायालय ने कॉलेज स्तर की पढ़ाई तक (नहीं) पहुँच पाने का दर रखा है। यह दिखाना होगा कि उस समुदाय का
स्तर राज्य/देश की सामाजिक रूप से 'अगड़ी' जातियों से काफी कम है।
·
आरक्षण
के लिए यह साबित करना होगा कि राज्य की सेवाओं व पदों में उस समुदाय का उचित प्रतिनिधित्व नहीं है।
BC की
केंद्रीय सूची व राज्यों की सूचियाँ
SC व ST के लिए हर राज्य के लिए एक सूची है जिसे पहले-पहल
राष्ट्रपति ने जारी किया था। BC के
लिए हर राज्य के लिए एक केंद्रीय सूची है और हर राज्य की एक अपनी सूची भी है।
तमिलनाडु व कर्नाटक को छोड़कर अधिकतर राज्यों में ये दोनों सूचियाँ लगभग एक समान
हैं।
दोनों सूचियों के उद्देश्य
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BC की
केंद्रीय सूची - केंद्र सरकार व केंद्रीय संस्थानों के पदों में आरक्षण; केंद्र सरकार व केंद्र-समर्थित शैक्षिक संस्थानों में
आरक्षण; सामाजिक
न्याय की अन्य केंद्रीय योजनाओं, कार्यक्रमों
व नीतियों के लाभ के लिए।
·
BC की
राज्य सूची - राज्य सरकार के स्तर पर, ऊपर के तर्ज पर।
केंद्रीय सूची की तैयारी
पहले चरण
की केंद्रीय सूची 1993 में
राज्यों की अपनी सूची व मंडल आयोग द्वारा प्रस्तावित उस राज्य की सूची, दोनों में शामिल जातियों की सूची तैयार करके बनाई गई। 1992
के एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने इस
तरीके को सही ठहराया था। उसके बाद NCBC (राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग) ने उन जातियों की अर्ज़ी लेनी
शुरु की जोकि पहली सूची से छूट गई थीं। राज्यों की सूची और केंद्र की सूची में
शामिल होने का पैमाना एक ही है, मगर
तरीका अलग-अलग है।
राज्य
की सूची में शामिल होने के लिए
SCBC (राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग) में अर्ज़ी देनी होती है। आयोग को
सबूत पेश करने होते हैं कि उक्त जाति सामाजिक-शैक्षिक रूप से पिछड़ी है और प्रशासन
में उसका प्रतिनिधित्व भी कम है। अगर आयोग सहमत होता है तो वो राज्य सरकार को सिफारिश
करता है, वरना
अर्ज़ी ख़ारिज कर देता है। राज्य सरकार को सामान्यतः आयोग का निर्णय मानना होता है। अगर सरकार आयोग के फैसले से सहमत नहीं होती
है तो उसे कारण देने होते हैं।
केंद्रीय सूची
में शामिल होने के लिए
NCBC को
अर्ज़ी देनी होती है। यह आयोग भी उसी तरह जाँच करके केंद्र सरकार को अपना फैसला
बताता है, जोकि
सामान्यतः मानना होता है। अगर केंद्र सरकार सहमत नहीं होती है तो उसे भी कारण
बताने होते हैं। एक-आध मौके छोड़कर, केंद्र सरकार ने कभी भी आयोग के फैसले को अस्वीकार नहीं
किया है। 2014 के
चुनाव से पहले जब सरकार ने जाट समुदाय के लिए आयोग के फैसले को पलटते हुए उसे कई राज्यों की केंद्रीय सूची में शामिल करने का निर्णय लिया
भी, तो
सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अमान्य घोषित कर दिया।
NCBC द्वारा अब तक लगभग 350 जातियों/समुदायों
की अर्ज़ियाँ सूची में शामिल करने की सिफारिश की जा चुकी है और 470 अर्ज़ियाँ ख़ारिज की जा चुकी
झूठ:
आरक्षण के कारण अगड़ी जातियों के युवाओं को नौकरियां नहीं
भारत में
राज्य सरकारों व केंद्र सरकार के तहत कुल मिलाकर 1,74,74,703
(लगभग पौने दो करोड़) नौकरियाँ हैं। इनमें से
अगर 3% लोग
हर साल सेवानिवृत होते हैं और इतने ही नौकरी पाते हैं, तो यह संख्या 5,24,241 (लगभग सवा पाँच लाख) हुई। अगर इनमें 50% आरक्षण
है (जिसका कि पालन नहीं होता है) तो यह संख्या 2,62,120
(ढाई लाख से कुछ ज़्यादा) हुई। भारत में कुल शिक्षित बेरोज़गार 3,81,52,000
(पौने चार करोड़ से कुछ अधिक) हैं। इसका मतलब
हुआ कि कुल शिक्षित बेरोज़गारों में से सिर्फ 0.69%
(एक प्रतिशत से कम) को आरक्षण मिलता है। तो यह
कहना कि आरक्षण की वजह से सामाजिक रूप से 'अगड़ी' जातियों
के शिक्षित युवाओं को नौकरियाँ नहीं मिल रहीं, एक बेबुनियाद दलील है। जहाँ तक 'अगड़ी' जाति
के ग़रीब
विद्यार्थियों का
सवाल है तो उन्हें भी वजीफों आदि की ज़रूरत है।