कुछ शिक्षक साथियों ने निजी विद्यालयों द्वारा मनमानी फीस वसूल करने की शिकायत पर लोक शिक्षक मंच को अनिल देव समिति की रपट पढ़ने व उस पर काम करने का सुझाव दिया था| हमने समिति की 9 अंतरिम रपटों में से दोषी स्कूलों की सूची तैयार करके CIE में प्रदर्शित की| इसी कार्यवाही में यह चिठ्ठी शिक्षक संगठनों व शिक्षक साथियों को भेजी गयी थी|
संपादक
वर्ष 2011 में दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के बाद अनिल देव सिंह की अध्यक्षता में एक समिति बनी जिसने अब तक 9 रपटों में दिल्ली के 1,000 से ज्यादा प्राइवेट स्कूलों की जांच प्रस्तुत की है| समिति का काम इस बात की जांच करना था कि 11 फरवरी 2009 के बाद निजी स्कूलों ने, उनके पास उपलब्ध फंड्स के मद्देनज़र, VI वेतन आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने के लिए कितनी फीस बढ़ाई|
अभिभावकों की शिकायत पर बनाई गयी इस समिति ने पाया कि अधिकाँश स्कूलों ने स्कूल कर्मचारियों के वेतन, भत्तों आदि के लिए आवश्यक राशि से काफी ज़्यादा फीस बढ़ाई| उच्च न्यायालय का आदेश था कि अगर स्कूलों ने अभिभावकों से अनुचित ढंग से फीस वसूली है तो अतिरिक्त राशि को 9% ब्याज के साथ लौटाया जाए|
समिति की 9 अंतरिम रपटें दिल्ली शिक्षा विभाग की वेबसाइट पर मौजूद हैं- www.edudel.nic.in
इन रपटों में स्कूलों को कई तरह की अनियमितता का दोषी पाया गया-
1. करीब 500 स्कूलों में जहाँ फीस बढ़ोतरी को आंशिक रूप से या पूरी तरह ग़ैर-वाजिब पाया गया, समिति ने अतिरिक्त वसूली गई फीस को 9% ब्याज के साथ वापस लौटाने का निर्देश दिया।
2. करीब 172 स्कूलों के बारे में समिति ने पाया कि न सिर्फ उनकी फीस बढ़ोतरी आंशिक रूप से या पूर्णतः अनुचित थी, बल्कि उनके रिकॉर्ड भी विश्वसनीय नहीं थे। समिति ने इनके संदर्भ में फीस लौटाने व विशेष जाँच के निर्देश दिए।
3. करीब 170 स्कूलों के रिकॉर्ड अविश्वसनीय, गड़बड़, अधूरे पाए गए और इनकी विशेष जांच के सुझाव दिए गए।
समिति की रिपोर्ट आने के बाद भी बहुत ही कम स्कूलों ने अतिरिक्त वसूली गयी फीस लौटाई है और वे दोषी होते हुए भी पहले की तरह,बिना रुकावट चल रहे हैं|
निजी स्कूलों की यह स्थिति अपवाद नहीं है, बल्कि सामान्य को दर्शाती है; शिक्षा में चल रहे बाज़ार से पर्दा हटाती है; निजी स्कूलों को पारदर्शिता और कुशलता का गढ़ बताये जाने पर सवाल खड़े करती है|
यह रिपोर्ट इसलिए भी महत्वपूर्ण बन जाती है क्योंकि NGO व मुक्त-बाज़ार के पैरवीकारों की प्रायोजित रपटें लगातार सरकारी स्कूलों को बदनाम करने पर आमादा हैं| सरकारें सार्वजनिक स्कूलों को विफल बताकर उन्हें PPP के तहत निजी हाथों में सौंपना शुरू कर चुकी हैं| क्या इसका अर्थ 'शिक्षा के बाज़ार' का विस्तार होगा?
निजी मालिकाने व प्रबंधन के अधीन चल रहे स्कूलों के चरित्र को समझने के लिए यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि इनमें से अधिकतर आज तक शिक्षा अधिकार क़ानून के भाग 12 (1) (c) के तहत प्रथम (अथवा प्रवेश) कक्षा में आर्थिक रूप से वंचित तबकों के लिए निर्धारित 25%दाखिले को लागू करने में आनाकानी/मक्कारी करते हैं। (यह दीगर बात है कि इस प्रावधान को हम आम लोगों के साथ एक छलावे के रूप में ही देखते हैं।)
केंद्रीय शिक्षा संस्थान में हुए कैंपस रिक्रूटमेंट में भी विद्यार्थी इस तरह के निजी स्कूलों के अभिजात, बनावटी व बहिष्करण रूपी चरित्र से परिचित होकर अपमानित होने का अनुभव प्राप्त कर चुके हैं। इनके द्वारा लिए गए साक्षात्कारों में शिक्षा संस्थान के विद्यार्थियों ने भाषा,पहनावा व वर्गीय पृष्ठभूमि के आधार पर एक भेदभावपूर्ण रवैये का स्वाद चखा। विद्यार्थियों की स्कूली पृष्ठभूमि भी नौकरी मिलने-ना-मिलनेका कारक बन ी| वैसे भी ये संस्थायें सामाजिक न्याय के संवैधानिक उसूलों का पालन नहीं करती हैं, जिसके सबूत हम इनमें नौकरी मिलने वालो की पृष्ठभूमियों के विस्तार में जाकर पा सकते हैं। रही-सही कसर हमारे ही संस्थान से पढ़कर निकले उन साथियों के अनुभवों में बयान हो जाती है जिन्हें इन स्कूलों में अपने न्यायोचित व क़ानून-सम्मत वेतन की माँग करने पर नौकरी से निकाल दिया गया/जाता है।
ज़ाहिर है कि एक ओर सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था में ज़रूरत से कहीं कम रिक्तियाँ निकलने व भर्तियाँ होने से (जिनमें भी ठेके पर रखने की नीति तेज़ी से स्थापित होती जा रही है) तथा दूसरी ओर परिवार की चुनौतीपूर्ण सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के चलते, अधिकतर विद्यार्थियों के सामने इन स्कूलों की नौकरियों को नकारने के सार्थक विकल्प नहीं हैं। फिर भी हमें लगता है कि शिक्षक तैयार करने वाले संस्थानों के विद्यार्थियों को इन तथ्यों से परिचित होना चाहिए ताकि वो असमंजस में न पड़ें, धोखा न खायें और समय आने पर जितना हो सके अपने हक़ों के लिए लड़ सकें।
मगर क्या हम अपने संस्थानों में पढ़ाने वाले शिक्षकों से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वो ऐसे स्कूलों को कैंपस रिक्रूटमेंट से बाहर रखकर और उनके साक्षात्कार पैनलों में (मनोबल बढ़ाने वाला व नाम देने वाली) शिरकत न करके अपने संस्थानों, विद्यार्थियों तथा शिक्षा के अनुशासन के पक्ष में अपनी भूमिका अदा करें?
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