बाबासाहेब अम्बेडकर ने कहा था
“इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि मैं अपने देश को प्यार करता हूँ। लेकिन
मैं इस देश के लोगों को यह भी साफ़ साफ़ बता देना चाहता हूँ कि मेरी एक और निष्ठा भी
है जिस के लिए मैं प्रतिबद्ध हूँ। यह निष्ठा है अस्पृश्य समुदाय के प्रति जिसमे
मैंने जन्म लिया है। जब कभी देश के हित और अस्पृश्यों के हित के बीच टकराव होगा तो
मैं अस्पृश्यों के हित को तरजीह दूंगा। अगर कोई “आततायी बहुमत” देश के नाम पर बोलता है तो मैं उसका समर्थन नहीं करूँगा। मैं किसी पार्टी का
समर्थन सिर्फ इसी लिए नहीं करूँगा कि वह पार्टी देश के नाम पर बोल रही है। सब मेरी
भूमिका को समझ लें। मेरे अपने हित और देश के हित के साथ टकराव होगा तो मैं देश के
हित को तरजीह दूंगा, लेकिन अगर देश के हित और दलित
वर्गों के हित के साथ टकराव होगा तो मैं दलितों के हित को तरजीह दूंगा।”
(1939 Bombay legislative Council)
बाबासाहेब की बात से साफ जाहिर है कि किसी भी देश का हित उसमें रहने वाली दलित-दमित
जनता के हित से अलग नहीं होता है। क्या
देश में रहने वाले सभी समुदायों के हित एक-जैसे ही होते हैं या इनमें आपस में
टकराव भी होता है? जाहिर सी बात है कि जहां पर भेदभाव, जुल्म होगा, वहाँ पर अधिकारों, आत्मसम्मान और
न्याय की लड़ाई के लिए संघर्ष भी होगा।
जब एक तरफ दमन बढ़ेगा तो उसका प्रतिरोध भी होगा। रोहित वेमूला का संघर्ष और उनकी ‘संस्थानिक हत्या’ इस
बात का प्रमाण है। रोहित के लिए लगातार जातिगत उत्पीड़न और
भेदभाव का शिकार होना इतना भयावह था कि उन्होंने मजबूर
होकर अपनी
जान ले ली| उन्होंने अपने
विश्वविद्यालय के वाईस
चांसलर को ख़त लिखा कि उनके जैसे दलित
विद्यार्थियों को दाखिले के समय ही 10 मिलीग्राम ज़हर या फांसी के लिए रस्सी दे
देनी चाहिए क्योंकि वैसे भी बिना आत्म-सम्मान के वे ज़्यादा दिन यूनिवर्सिटी में जी
नहीं पाएंगे| रोहित की स्कॉलरशिप बंद कर दी गयी थी और वो अपने गरीब परिवार को पैसे नहीं भेज पा रहे थे| एक गरीब दलित विद्यार्थी की स्कॉलरशिप बंद करना उस पर शारीरिक व
मानसिक हमला है।
हाल ही में राजस्थान के जैन आदर्श
टीचर ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट की 17 साल की दलित छात्रा डेल्टा मेघवाल का मृत
शरीर उनके छात्रावास के पानी के टैंक में
मिला| मौत से एक दिन पहले डेल्टा को उनकी हॉस्टल
वार्डन ने एक पुरुष शिक्षक का कमरा साफ करने को कहा था। देखा जाए तो ऐसा आदेश देना ही गलत है लेकिन सच्चाई यह है कि विद्यार्थियों
से इस तरह के काम लेना एक आम बात है और अक्सर दलित विद्यार्थी, खासकर लड़कियाँ चाह कर भी मना नहीं कर पाती हैं।
डेल्टा के साथ बलात्कार होने और मारे जाने की आशंका व्यक्त की गयी है| डेल्टा की हत्या की
जांच अभी चल रही है लेकिन चुनौतियों को पार करके इतने असुरक्षित माहौल में पहुंची
वो अकेली दलित विद्यार्थी नहीं है जिसकी
शिक्षा यात्रा को मौत के अंजाम पर पहुँचा दिया गया हो| हाल के वर्षों में श्रेष्ठतम
उच्च शिक्षा संस्थानों में
25 विद्यार्थियों ने आत्महत्या की है| आखिर क्या वजह है कि इनमें से 23
विद्यार्थी दलित थे?
आज भी भारत के बहुत से गाँवों में दलित विद्यार्थियों
को कक्षा में बैठने, पानी पीने, मिड-डे-मील परोसने, शारीरिक व मानसिक
प्रताड़ना देने आदि स्तरों पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। ऐसे में यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि दलित विद्यार्थियों के स्कूल छोड़ने का दर सामान्य विद्यार्थियों से कहीं ज़्यादा है।
इसके कई सामाजिक-आर्थिक कारण भी हैं जिनमें जल-जंगल-जमीन से बेदखल किया जाना
प्रमुख है। ज़्यादातर दलित बच्चे अपने घर-खानदान-मोहल्ले
से पढ़ने वाली पहली पीढ़ी के होते हैं| हम कल्पना कर सकते हैं कि अगर इतिहास में ज्योतिबा, सावित्री बाई और डॉ अंबेडकर की अगुवाई में लोगों
ने संघर्ष ना किया होता तो हमारे
सामने स्थिति और कितनी भयावह होती।
शिक्षा के इतर भी जाति व्यवस्था अपने संकीर्ण
व क्रूरतम रूप में काम करती है। मार्च, 2016 में एक और अंतर्जातीय प्रेम विवाह में तमिलनाडु के त्रिपुर जिले में दलित
लड़के शंकर और
सवर्ण लड़की कौशल्या पर जानलेवा हमला किया गया। कौशल्या के परिवार वालों ने जाति के झूठे सम्मान को बचाए रखने के लिए इंजिनियरिंग के विद्यार्थी शंकर को मौत के घाट उतार दिया। शादी के आठ महीनों बाद यह हमला तात्कालिक गुस्से का परिणाम नहीं हो सकता| यह जातिगत सर्वोच्चता का अहंकार ही है जो अपने से निम्न माने जाने वाली
जातियों से इस हद तक नफरत कराता है कि लोग अपने बच्चों की खुशियों की बलि और उनकी जान
तक ले लेते हैं। पिछले तीन सालों में अकेले तमिलनाडु में ऐसी 80 हत्याएं
हो चुकी हैं, जिनमें 80% मौतें महिलाओं
की हुई| यह हमारी शिक्षा
की भी विफलता है कि हमारा समाज आज भी डॉ अंबेडकर के और भारत के संविधान में दिये
गए बराबरी, बंधुत्व, इंसाफ और आज़ादी के मूल्यों को आत्मसात
नहीं कर पाया है।
तमाम तरह के भेदभाव के बावजूद संघर्ष करके जब कुछ
दलित विद्यार्थी पढ़-लिखकर कामयाब होते हैं, और समाज में सम्मान और गरिमा के साथ जीने की कोशिश करते हैं तो उन्हें खैरलांजी, मिर्चपुर, धर्मपुरी हत्याकांड जैसी जातिगत
हिंसा का शिकार होना पड़ता है। जब वे अपने हकों की आवाज़ उठाते हैं, जायज़ मजदूरी की मांग करते हैं, शादी-बारात में घोड़ी पर चढ़ते हैं तो उन पर रणवीर सेना जैसी निजी सेनाएं हमला करती हैं। ऐसी
दमनकारी शक्तियों को समय-समय पर सत्तापक्ष का संरक्षण मिलता रहा है। आज जब दलित
शिक्षित और संगठित होकर संघर्ष कर रहे हैं तो सत्ता
पर काबिज तबका यह बर्दाश्त
नहीं कर पा रहा है और उन पर तरह-तरह के राज्य संचालित हमले कर रहा है।
ये भेदभाव सब जगह दिखाई
पड़ता है। कहीं दलितों को पुलिस थाने और राशन की दुकानों में घुसने नहीं दिया जाता, तो कहीं स्थानीय हाट में सामान नहीं बेचने दिया
जाता। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कानून, शिक्षा, सत्ता, संपत्ति पर केवल कुछ वर्गों का ही कब्जा है। गाँव हो या शहर, सफाई – सड़कें-नालियाँ-घर-दफ्तरों
में शौचालय, मैला ढोना - ऐसा काम है जो सिर्फ और सिर्फ दलित ही करते हैं| 10 लाख
से ज्यादा मैला ढोने वालों में 95% दलित हैं| वो वर्ग जो संसाधनों का दोहन करने और कूड़ा पैदा करने में अगुवाई दिखाते हैं, वो कूड़ा साफ़ करने में आगे क्यों नहीं रहते? हरियाणा में पंचायती चुनाव में उम्मीदवार बनने के लिए जब ऋणमुक्त होने की शर्त के साथ दलित
महिला की न्यूनतम शिक्षा पाँचवीं पास और दलित
पुरुष की आठवीं पास रखी गयी तो 68% दलित महिलाएं और 41% दलित पुरुष पंचायती चुनाव में खड़े होने के लिए ही अयोग्य हो गए| यह कैसा लोकतन्त्र है जो हमेशा से दबाए गए तबके को हाशिये पर रखता है और फिर
उन्हें अयोग्य बताकर अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेता है तथा उन्हें ही उनकी स्थिति
का दोषी घोषित कर देता है?
आज दलित समाज जान चुका है कि उसे संस्थागत व हिंसक तरीके से रोकने की हर संभव
कोशिश की जाएगी लेकिन वह यह भी जानता है कि इन संघर्षों से गुज़रकर ही वह अपनी जगह बना पाएगा| दलित विमर्श देश
को शिक्षित कर रहा है, तमाम संघर्षों को एकजुट कर रहा है, लोकतंत्र को मजबूत
कर रहा है और हमारे सामने कुछ नए सवाल खड़े कर रहा है जिनके जवाब हमें मिलकर ढूँढने हैं।
आप सादर आमंत्रित हैं
कार्यक्रम: फिल्म प्रदर्शन और चर्चा
तिथि:
24 अप्रैल [रविवार], 2016
समय:
दोपहर 3:30 बजे
स्थान: सत्य विहार
चौपाल, बुराड़ी
1 comment:
शिक्षित बनो, संघर्ष करो, संगठित रहो
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बुद्ध ने मनुष्य की चेतना में क्रांति पैदा की। इसके लिए उन्होने तीन समादेश जारी किए :-
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1.) बुद्धं शरणं गच्छामि
2.) धम्मं शरणं गच्छामि
3.) संघं शरणं गच्छामि
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जिन्हें बाबासाहेब अंबेडकर ने :- शिक्षित बनो, संघर्ष करो, संगठित रहो कहा.
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तथा जिसको मान्यवर कांशीराम ने Dalit Shoshit Samaj Sangharsh Samiti (DS-4), BAMCEF और Bahujan Samaj Party (BSP) बनाकर कार्यान्वित किया।
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मगर पढे-लिखे दलितों ने इन समादेशों में उलटफेर कर उनको शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो कर दिया।
लल्लुओं ने यह अर्थ निकाला कि शिक्षित होने के बाद आदमी संगठित होता है तथा उसके बाद ही संघर्ष किया जा सकता है।
यदि ऐसा होता तो बाबासाहेब अंबेडकर आगरा में शिक्षित दलितों की अहसान फरामोशी से फूट-फूट कर क्यों रोते।
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आज भी दलित कर्मचारियों के पॉकेट संगठनों के Letter Head में उपरोक्त क्रम गलत लिखा मिलेगा। अंबेडकरवाद में शिक्षित होने के बाद दलित कुदरती तौर पर आंदोलित हो जाता है और संगठन अपने आप बनता है।
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भारत में सिर्फ मान्यवर कांशीराम ने BAMCEF के लेटर हेड में इसका सही क्रम लिखा। इसलिए वे कामयाब भी रहे।
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इस सम्बंध में देखें लेखक की अन्य पुस्तक :- “बाबासाहेब के तीन उपदेश और उनका सही क्रम”।
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SOURCE - प्रो॰ रामनाथ, "भारतीय नारी मनु की मारी", सम्यक प्रकाशन, दिल्ली
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