अर्जुन
युवा कवि व विद्यार्थी
सोमवार का दिन है। आज स्कूल अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक रौशन और जीवंत प्रतीत हो रहा है। ज़्यादातर लोग (अध्यापकगण) पीले वस्त्रों से सुसज्जित हैं। विद्यालय के प्रांगण में पधारने के पश्चात मैं समझ पाया हूँ कि आज सरस्वती के, ज्ञान की देवी के प्रतीक के रूप में, ज्ञान के मंदिर, स्कूल में, पूजन के लिए ये लोग पीले रंग के वस्त्रों से ऊपर से देखने पर एक रंग के तारे जैसे प्रतीत हो रहे हैं। सरस्वती को ज्ञान की देवी के प्रतीक के रूप में स्वीकारने के प्रश्न पर मेरा मस्तिष्क विचलित हो उठता है। मैं किसी भी कीमत पर सरस्वती को ज्ञान की देवी के रूप में स्वीकारे जाने के पक्ष में नहीं हूँ। ऐसा मेरी नास्तिक प्रवृत्ति होने की वजह से नहीं है बल्कि इसकी जड़ें मेरे सामाजिक और जातीय चिंतन में तलाशी जा सकती हैं। मैं इसे केवल दलितों से जोड़कर न देखूँ तो भी यह मुझे आदिवासियों की शिक्षा और शिक्षा के जिस रूप के वर्चस्व को मैं देख पाता हूँ, उन दोनों के बीच निराशा के सिवाय कुछ और दे पाने में असमर्थ है। शूद्र और दलित भारतीय जाति-व्यवस्था के वो अंतिम पायदान हैं जहाँ तक आते-आते केवल और केवल सरस्वती ही नहीं बल्कि दुनिया के किसी भी देवी-देवता की कृपा (अनुकम्पा) शिथिल पड़ जाती है। उन दलितों के लिए जिनकी हज़ारों पीढ़ियाँ तथाकथित शिक्षा व्यवस्था व ज्ञान प्राप्ति से न केवल रोकी गईं - बल्कि मंदिरों पर जाने पर आँखें फोड़ना, मंत्रोच्चारण पर ज़बान काट देना जैसी घिनौनी घटनाओं से साहित्य भरा पड़ा है - सरस्वती को ज्ञान के रूप में प्रदर्शित किया जाना और स्कूल की मुहर लगाकर उसे भारतीय परम्परा का हिस्सा बनाने की प्रक्रिया मुझे इस पीढ़ी के भविष्य की चिंताजनक कल्पना करने को मजबूर करता है। बात सिर्फ दलितों तक सीमित नहीं है। जनजातीय समाज, जिसके लिए ज्ञान के मायनों को भारतीय प्रभुत्वशाली वर्ग ने बिल्कुल बदल दिया है, उनकी संस्कृति, उनके त्यौहार, उनकी शिक्षा के लिए सरस्वती का ज्ञान का प्रतीक होना कहाँ तक सही है? साथ ही, मुस्लिम समुदाय की बात किये बिना ज्ञान और शिक्षा की बात करना विचित्र प्रतीत होता है।
अब इन सब बातों को ध्यान में रखें तो ऐसे धार्मिक वर्चस्व को संस्कृति का नाम देकर स्कूल - जोकि सार्वजनिक और धर्मनिरपेक्ष संस्था होने के लिए वचनबद्ध है - की चारदीवारी के भीतर लाने का विचार और कर्म शिक्षा के सभी सिद्धांतों के खिलाफ प्रतीत होता है। कोई भी ऐसा कार्यक्रम जो इस देश की आबादी के 50% दलित-शूद्रों, 20% मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों, बौद्धों, जैनों और 8-9 % आदिवासियों का प्रतिनिधित्व नहीं करता, स्कूल जैसी संस्था द्वारा उसका प्रचार किया जाना और उसे लगातार पोषित करते जाना मुझे बहुत खतरनाक प्रतीत होता है। इसलिए स्कूलों को, और विशेष रूप से दिल्ली के स्कूलों को जिनमें लगभग सभी धर्मों, वर्गों, सम्प्रदायों के बच्चे पढ़ते हैं, उन्हें किसी एक विशेष धर्म-समुदाय के धार्मिक अनुष्ठानों पर स्कूल की मुहर लगाकर मतारोपण का माध्यम नहीं बनना चाहिए। जब तक स्कूलों में इस तरह की गतिविधियाँ बनी रहेंगी तब तक मेरे जैसे अध्यापक के लिए यह दुःख का कारण होगा।
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