फ़िरोज़
द हिन्दू' के इलाहाबाद संस्करण में 20 जून के दूसरे पृष्ठ पर् 'Roll call to make Ganjam open defecation-free' शीर्षक से एक ख़बर छपी थी। इस रपट के अनुसार नए सत्र से उड़ीसा के गंजाम ज़िले के सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को हाज़िरी देते वक़्त 'यस सर/मैडम' नहीं बल्कि यह बोलना होगा कि उनके घर में शौचालय है कि नहीं। ख़बर में बताया गया कि इस योजना का उद्देश्य खुले में शौच बंद करने के लिए बच्चों को उत्प्रेरक की तरह इस्तेमाल करना है। ज़िला प्रशासन ने इसे गुजरात के नर्मदा ज़िले के उदाहरण से प्रेरित होकर अपनाया है। यह योजना ज़िला प्रशासन व शिक्षा विभाग द्वारा संयुक्त रूप से कार्यान्वित की जाएगी। ज़िला शिक्षा अधिकारी के अनुसार इस 'नवाचार' को 'अामा स्वाभिमान, स्वच्छ गंजाम' अभियान के तहत ज़िले के 683 उच्च-माध्यमिक, 1250 माध्यमिक और 2430 प्राथमिक स्कूलों में लागू किया जाएगा। अख़बार की रपट के अनुसार प्रशासन ने इस बाबत 17 जून को निर्णय लिया और ज़िला शिक्षा अधिकारी को अगले ही दिन से इसे प्रारंभ करने के अादेश जारी कर दिए। इसके पहले ग्रामीण जल अापूर्ति व स्वच्छता विभाग को लेकर एक ज़िला स्तरीय बैठक हुई थी जिसमें ज़िला शिक्षा अधिकारी को भी बुलाया गया था क्योंकि इसमें स्कूली स्वच्छता का मुद्दा भी शामिल था। ज़िला अधिकारी ने कहा कि परिवारों को शौचालय बनाने के लिए मजबूर करने के लिए बच्चे बढ़िया प्रेरणास्रोत हो सकते हैं। ज़िला शिक्षा अधिकारी ने कहा कि इस प्रक्रिया से बच्चों के बीच शौचालय गर्व और प्रतिस्पर्धा का विषय बऩ जाएगा। रपट में यह भी बताया गया कि एक महीने बाद योजना के असर का अांकलन किया जाएगा। रपट के अनुसार गंजाम में इस योजना की नींव पहले ही मौजूद थी और बच्चे इसके लिए तैयार थे क्योंकि यहाँ के स्कूलों में सोमवार को व्यक्तिगत स्वच्छता, मंगलवार को स्कूल व क्लास की सफ़ाई, बुधवार को शौचालय की सफ़ाई व जल संरक्षण, वीरवार को स्कूल परिसर की सफ़ाई, शुक्रवार को घरों को साफ़ रखने की प्रेरणा तथा शनिवार को पड़ोस की सफ़ाई की दिनचर्या पहले-से ही लागू थी।
यह हमारे समय की त्रासदी और चुनौती भी है कि न सिर्फ़ सरकार बच्चों के प्रति ऐसे अपमानजनक प्रस्ताव लाने की हिम्मत कर रही है, बल्कि अपनी उत्कृष्ट पत्रकारिता के लिए जाने जाने वाले अख़बार तक इसे बिना किसी विश्लेषण या अालोचना के, सरकार की कामयाबी की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं। अाख़िर इस तरीक़े को बच्चों के प्रति असंवेदनशील नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? यह सरासर बच्चों को बेइज़्ज़त करके सरकारी योजना की कामयाबी हासिल करने की घटिया कोशिश है। सरकार को कोई हक़ नहीं है कि वो लोगों के घरों में ताँक-झाँक करके उनके हालात या संस्कृति पर बच्चों को शर्मिंदा करे। इससे बच्चों के नाज़ुक मन को आघात तो पहुँचेगा ही, साथ ही भीड़ के दबाव के ख़तरनाक उसूल को भी बल मिलेगा।
ऐसे में जबकि नवउदरवाद के तहत प्रशासन की परिभाषा को तेज़ी से 'लोगों के हक़ों के लिए, लोगों के अधीन' से 'लोगों का प्रबंधन' में बदला जा रहा है, इस तरह के आदेशों का आना अप्रत्याशित भी नहीं है। मगर यह बात ज़रूर चिंता बढ़ाती है कि उस शिक्षा विभाग ने भी इसका विरोध नहीं किया जिसपर बच्चों की शिक्षा की ज़िम्मेदारी है। शिक्षा विभाग को तो हमेशा अपने स्कूलों के विद्यार्थियों के अधिकारों के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। यह रोचक है कि जहाँ इस योजना की प्रेरणा तथाकथित रूप से गुजरात से ली गई है, कुछ समय पहले मध्य-प्रदेश से भी इस तरह की ख़बर आई थी कि एक ज़िला प्रशासन ने सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को सीटियाँ दी थीं जिसे बजाकर उन्हें खुले में शौच करने वालों को शर्मिंदा करना था। ज़ाहिर है कि जिस देश का प्रशासन नैतिकता के मूल्यों से इस क़दर अनभिज्ञ हो उससे लोकतान्त्रिक आचार-व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह भी स्पष्ट है कि प्रशासन ने किसी उच्च पद पर अधीष्ठित साहब के प्रिय राग-अलाप को येन-केन-प्रकारेेण लागू करने को ही अपनी तमाम ज़िम्मेदारी का निर्वाह मान लिया है। इसके लिए किसी संविधान, क़ानून, नियम, उसूल, नैतिकता, संवेदनशीलता या मानवाधिकारों को अाड़े नहीं अाने दिया जाएगा। देश के कमज़ोर, वंचित-उत्पीड़ित लोगों के लिए यह बेहद ख़तरनाक स्थिति है। गंजाम का यह उदाहरण यह भी बता रहा है कि किसी अभियान के नारे की तुकबंदी को ही उसके औचित्य व उद्देश्य का पर्याप्त अाधार मानने की तानाशाही प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इस संदर्भ में विद्यार्थियों व लोगों को इस खोखली व जनविरोधी नारेबाज़ राजनीति के प्रति शिक्षित करना भी ज़रूरी है।
सफ़ाई को लेकर स्कूलों की साप्ताहिक योजना को देखकर भी यही शक होता है कि एक तो यहाँ सफ़ाई कर्मचारी तैनात ही नहीं हैं और दूसरे स्वच्छता के नाम पर इन बच्चों की शिक्षा की क़ीमत पर इनसे बाल-मज़दूरी कराई जा रही है। यह समझना मुश्किल है कि इतनी मेहनत और काम के बाद उन्हें पढ़ने का वक़्त व उसके लिए ऊर्जा कैसे मिलती होगी। विडम्बना तो यह है कि मेहनतकश वर्गों से आने वाले इन बच्चों के लिए स्कूल की स्वच्छता में न्योछावर होने का अनुभव शैक्षिक रूप से कोई उपयोगी अर्थ भी नहीं रखता है। अधिक संभावना यही है कि इनमें से ज़्यादातर बच्चे घरेलू कामकाज और पारिवारिक मज़दूरी से इतना अधिक परिचित हैं कि उनके लिए स्कूल में इसी तरह की दिनचर्या में धकेल दिया जाना सिवाय उत्पीड़न के और कोई अर्थ नहीं दे सकता। छात्राओं के लिए तो अनुभव की यह तारतम्यता और अधिक क्रूर होगी। क्या प्रशासन द्वारा ऐसी दिनचर्या निजी स्कूलों में लागू की जाएगी? आख़िर सरकारी स्कूलों के अधिकतर विद्यार्थी ऐसी वर्गीय पृष्ठभूमि से आ रहे हैं जहाँ उपभोग न्यूनतम स्तर पर है, जबकि यह महँगे निजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ने भेजने वाला वर्ग है जिसके उपभोग, संसाधनों की बरबादी और कूड़ा पैदा करने का स्तर यह माँग करता है कि वो सफ़ाई की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी उठाए।
इस तरह के आदेशों के अमल से स्कूल मुक्ति के स्थल न होकर वर्गीय असमानता को पुनरूत्पादित करने को समर्पित संस्थान हो जाएँगे। शायद यही इन अादेशों की मंशा भी है। ऐसे में जबकि विद्यार्थियों की गरिमा व हकों पर निर्लज्ज हमला किया जा रहा है, यह हम शिक्षकों की ज़िम्मेदारी बनती है कि हम उनके पक्ष में खड़े होकर प्रशासन से सवाल पूछें, उसका विरोध करें। यह अपने विद्यार्थियों के साथ हमारे जीवन्त रिश्तों की माँग तो है ही, शिक्षक की हमारी उस भूमिका का भी अंग है जिसके तहत हम ख़ुद को बुद्धिजीवी कहते हैं। प्रशासन के नैतिक दिवालियापन तथा मेहनतकश लोगों के प्रति हिक़ारत के रवैये के दौर में हमारी ज़िम्मेदारी पहले से बहुत अधिक बढ़ जाती है।
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