Saturday, 30 December 2017

स्कूलों को कंक्रीट बनने से बचाएँ!

यह खुला पत्र एक विद्यालय में मैदान को खत्म करने के प्रस्ताव के विरोध में उस विद्यालय के कुछ शिक्षकों ने लिखा व शिक्षक साथियों में वितरित किया। यह पत्र इस बात का प्रमाण है कि किस प्रकार शिक्षक अपने विद्यार्थियों के खेलने के अधिकार और पर्यावरण के प्रति  जागरूक हैं। 

साथियों,
कई अन्य स्कूलों के मैदानों का जो हश्र हुआ है उसी तर्ज पर हमारे स्कूल के मैदान को भी सीमेंट अथवा टाइल्स से सपाट बना देने का विचार चर्चा में है। हालाँकि, इस प्रस्ताव (या फिर निर्देश/आदेश) का स्रोत स्पष्ट नहीं है। हमें इस विचार और इसके संभावित परिणामों पर ग़ौर करने की ज़रूरत है। सर्वप्रथम, कच्चे मैदान को कंक्रीट में बदल देने से हमारे विद्यार्थियों के निर्बाध खेल-कूद में बाधा पहुँचेगी। आज इस कच्चे मैदान पर जिस उन्मुक्त तरीक़े से वो खेल पाते हैं, उस आज़ादी से वो कंक्रीट पर नहीं खेल सकेंगे। फिर, कंक्रीट पर बहुत-से खेल, विशेषकर देशज क़िस्म के व बच्चों को सुलभ खेल, जैसे खो-खो, कबड्डी, स्टापू, दौड़, कूद आदि तो वैसे ही नहीं खेले जा सकेंगे। इस तरह से यह परिवर्तन बच्चों के खेलने के हक़ पर कुठाराघात करेगा। साथ ही, पक्के फ़र्श पर खेलने से बच्चों के चोटिल होने की संभावना काफ़ी बढ़ जाएगी 
हम अच्छी तरह जानते हैं कि धरती को लगातार कंक्रीट से पाटना पर्यावरण व जीवन के लिए किस हद तक घातक है। यह सबक़ तो हमारी शिक्षा व किताबों तक में शामिल है। पाँचवीं कक्षा की पर्यावरण अध्ययन की पुस्तक के 16वें पाठ 'पानी रे पानी' में 'धरती की गुल्लक' संबोधन इसी संदर्भ में इस्तेमाल किया गया है। आज हमारे शहर व देश-दुनिया में बढ़ता जल-संकट और ग्लोबल वॉर्मिंग आमजन से लेकर सरकारों तथा अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों तक के लिए चिंता के विषय और चुनौती बने हुए हैं। छोटे स्तर पर ही सही, हमारे स्कूल का मैदान भी पर्यावरण का एक रक्षक है, जिसकी हमें हिफ़ाज़त करनी चाहिए। यह बच्चों के सीखने, उनकी शिक्षा का भी एक बढ़िया माध्यम है। कंक्रीट बिछाने से बच्चे प्रकृति से और दूर होते जायेंगे और कृत्रिम आकर्षण के जाल में फँसकर इस विनाशकारी विकास के ख़तरों को समझना उनके लिए और भी मुश्किल हो जायेगा। 
आज शहर में वैसे भी खुली जगहों, मैदानों, पार्कों आदि की कमी होती जा रही है। अगर यमुना के किनारे के खेतों को छोड़ दें, तो हमारे इलाक़े की बाक़ी रिहाइशी कॉलोनियों के बारे में तो यह बात और भी सच है। शहर के कई पुराने पार्कों-सार्वजनिक स्थलों में आने-जाने, उठने-बैठने पर रोकटोक बढ़ती जा रही है, बच्चों का खेलना-कूदना वर्जित किया जा रहा है। जब से दिल्ली यूनिवर्सिटी ग्राउंड को स्टेडियम बनाकर उसका 'विकास' किया गया है तब से वहाँ यूनिवर्सिटी के कर्मचारियों के परिवारों के सदस्यों तक का घूमना-फिरना तो दूर, प्रवेश भी बाधित हो चुका है। इसी तरह कनॉट प्लेस के उस सादे व खुले पार्क के 'विकसित' हो जाने से, जो पहले रात भर बेघरों, मुसाफ़िरों और सभी का स्वागत करता था तथा उन्हें पनाह देता था, आज सूरज ढलते ही थके-हारे व आराम-चैन चाह रहे लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। ज़ाहिर है, बच्चे शारीरिक गतिविधियों और खेल-कूद से वंचित होते जा रहे हैं। छोटी उम्र के बच्चों को तो वैसे भी घर से दूर जाकर खेलने के अवसर नहीं मिल पाते हैं। बढ़ती यौन-हिंसा व सामाजिक रोक-टोक के चलते बहुत-सी लड़कियाँ तो घर की चारदीवारी में ही क़ैद होकर रह जाती हैं। ऐसे में जबकि हमारे क्षेत्र में कोई भी खुला मैदान बच्चों को उनके पड़ोस में उपलब्ध नहीं है, स्कूल का मैदान ही उनके खेल का सहारा है। लड़कियों के लिए स्कूल का मैदान इसलिए और भी महत्व रखता है क्योंकि लड़कों को तो घर से दूर जाकर खेलने के मौक़े मिल भी जाते हैं।  
आज हमारे स्कूल में एक व्यवस्थित बग़ीचा-क्यारी है - जिसके लिए विभाग के सहयोग के अतिरिक्त कुछ शिक्षकों ने जी-तोड़ मेहनत की है - और कुछ हिस्सा टाइल्स एवं फ़र्श से युक्त है। ले-देकर क़रीब आधे क्षेत्र में खेल का मैदान है। देखा जाये, तो इसे हम एक संतुलन की स्थिति भी मान सकते हैं - बग़ीचा, फ़र्श व मैदान। हमें इस संतुलन को बचाने की ज़रूरत है, न कि इसे और एक-तरफ़ा करने या बिगाड़ देने की। 
यह बात उत्साहवर्धक है कि लगभग सभी शिक्षक-शिक्षिकायें खेल के मैदान के वर्तमान स्वरूप को बनाये रखने के पक्ष में हैं। हम शिक्षकों का दायित्व है कि हम बच्चों और लोगों को स्कूल में खेल के मैदान और पर्यावरण के महत्व के बारे में समझायें व जागरूक करें, न कि अपनी बौद्धिक भूमिका का परित्याग कर दें। यह एक विडंबना और घोर त्रासदी है कि आज हमारे स्कूलों से मैदानों को ख़त्म किया जा रहा है और इसे 'विकास' की तरह परोसा जा रहा है। शिक्षक बनने की प्रक्रिया में जो शिक्षा हमने प्राप्त की है उसमें और देश की तमाम शिक्षा नीतियों व स्कूल से संबंधित मानकों में यह सिद्धांत समान रूप से स्थापित रहा है कि खेल के मैदान के बिना एक स्कूल की - प्राथमिक स्तर पर तो और भी - कल्पना ही नहीं की जा सकती। खेल के मैदानों को खोकर हम अपने स्कूलों को और निर्जीव स्थल बना देंगे तथा अपने विद्यार्थियों के साथ अन्याय करेंगे। 
यह सच है कि आज हमारे स्कूलों के प्रधानाचार्यों व शिक्षक-शिक्षिकाओं पर स्वच्छता को लेकर अति दबाव की स्थिति है। यही कारण है कि बच्चों व स्कूल के लिए खेल के कच्चे मैदान का महत्व मानते हुए भी हममें से कुछ साथी पक्के फ़र्श बिछाये जाने के विचार को मजबूरी में स्वीकार करते हैं। प्रशासन अपने ही नियमों के अनुसार उचित संख्या में सफ़ाई कर्मचारियों की नियुक्ति व तैनाती नहीं करता है, बल्कि हम पर दबाव बनाया जाता है कि येन-केन-प्रकारेण सफ़ाई का एक कृत्रिम, दिखावटी चित्र प्रस्तुत करें। हमें उस सोच पर भी सवाल उठाने की ज़रूरत है जो पत्तों और घास तक को कूड़ा मानती है। आख़िर हम जिस भौगोलिक क्षेत्र में रह रहे हैं उसमें श्रेष्ठ प्रयास के बावजूद कुछ धूल-मिट्टी का होना स्वाभाविक ही है। धूल-मिट्टी को पूरी तरह हटाने के लिए जो रासायनिक व यांत्रिक इंतेज़ाम किये जाते हैं वो न सिर्फ़ बहुत महँगे हैं, बल्कि ख़ुद पर्यावरण-विरोधी हैं। चकाचौंध करने वाले कृत्रिम प्रांगण अवैज्ञानिक व अस्वस्थ सोच पर टिके हैं।
तथापि खेल व सफ़ाई में कोई विरोधाभास नहीं है। वैसे तो मूलतः खेल खेलने वालों को सहज आनंद से भर देने का स्रोत हैं, लेकिन इसके अतिरिक्त हम खेल से ईमानदारी (खेल भावना), अनुशासन (नियमबद्धता), सहयोग (टीम तालमेल) व मित्रता के मूल्य भी ग्रहण करते हैं। प्रायः यह देखने में आता है कि खेलों के शौक़ीन बच्चे शारीरिक रूप से ही स्वस्थ नहीं रहते बल्कि ख़ुशमिजाज़ भी होते हैं और अन्य गतिविधियों में भी सक्रिय रहते हैं। इसी कड़ी में विद्यार्थियों में यह भावना विकसित की जा सकती है कि ख़ासतौर से खेलने से पहले व बाद में वो अपने मैदान को तैयार करके खेलने के उपयुक्त बनायें। हमें विद्यार्थियों में खेल के मैदान के प्रति एक लगाव पैदा करना होगा जिससे वो समय-समय पर इसमें फैले हुए कंकड़-पत्थर हटाने को प्रेरित हों। शायद हम भी खेल को उचित तरजीह व समय नहीं दे पाते हैं। ख़ुद अपने कक्षाई स्तर पर भी हमें, मौसम व विद्यार्थियों की उम्र के अनुसार, खेलों को ज़िंदा रखना होगा। (हालाँकि, यह भी सच है कि तरह-तरह की और नित बढ़ती ग़ैर-शैक्षणिक ज़िम्मेदारियों के चलते अब जुटकर पढ़ाना भी दुश्वार होता जा रहा है।) मैदान के आसपास उपयुक्त डिज़ाइन के कूड़ेदान की व्यवस्था करने से भी मैदान को साफ़ रखना आसान होगा। निःसंदेह सफ़ाई का अपना महत्व है और यह मूल्य भी हमारी शिक्षा का अभिन्न अंग है, मगर क्या यह न्यायसंगत होगा कि एक ऊपरी/बनावटी दृश्य के लिए हम बच्चों के खेलकूद व पर्यावरण को दरकिनार कर दें? एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि कच्चे मैदान को कंक्रीट बना देना एक अपरिवर्तनीय प्रक्रिया है। अनुभव गवाह है कि हम बहुत आसानी से इधर से उधर जा सकते हैं लेकिन बाद में संभल कर वापस पलटना बेहद मुश्किल व महँगा होता है। 
तो आइये, हम सब मिलकर अपने स्कूल, बच्चों और पर्यावरण के पक्ष में सोचें और, हम जहाँ भी और जिस पद पर भी होंसमय पड़ने पर सही फ़ैसले लेने में अपनी भूमिका निभायें। 


Monday, 25 December 2017

स्कूलों के खेल के मैदानों को ख़त्म करने की नीति के विरोध में पत्र

यह पत्र लोक शिक्षक मंच ने निगम स्कूलों में मैदान को खत्म करने की नीति के विरोध में अध्यक्ष, शिक्षा समिति उत्तरी दिल्ली नगर निगम को दिया गया ।

Øe lañ लो॰शि॰मं॰/01/दिसम्बर/2017                                                         fnukad %20 दिसम्बर,2017                                                          

प्रति
   अध्यक्ष, शिक्षा समिति
   उत्तरी दिल्ली नगर निगम
   दिल्ली  

विषय: निगम स्कूलों के खेल के मैदानों को ख़त्म करने की नीति के विरोध में
महोदय,
      लोक शिक्षक मंच सार्वजनिक शिक्षा और शिक्षा के अधिकार के लिए प्रतिबद्ध शिक्षकों, विद्यार्थियों और शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वालों का संगठन है। हम आपके समक्ष निगम स्कूलों व उनके विद्यार्थियों की एक गंभीर समस्या रखना चाहते हैं। ऐसा देखने में आ रहा है कि एक तरफ़ निगम के कई स्कूलों में खेल के मैदान की भी जगह नहीं है, वहीं न सिर्फ़ कई नए स्कूलों के प्रांगणों में सारी खुली जगह को कंक्रीट से पक्का रूप दिया जा रहा है बल्कि कई पुराने स्कूलों में मौजूद खेल के कच्चे मैदानों को भी टाइल्स या सीमेंट से पाटा जा रहा है। स्पष्ट है कि जब स्कूलों में खेल के कच्चे या घास के मैदान नहीं बचेंगे तो वहाँ पढ़ने वाले बच्चे कई तरह के खेल (उदाहरण के लिए, खो-खो व कबड्डी जैसे देशज खेल और कूद, दौड़ जैसे एथलेटिक खेल) खेलने से वंचित हो जायेंगे। फिर पक्के फ़र्श पर खेलने से बच्चों के चोटिल होने की संभावना भी बढ़ जाती है। ऐसे में जबकि हमारे शहर में बच्चों के खेलने की खुली व सुरक्षित जगहें लगातार सिकुड़ती जा रही हैं, हमारे स्कूलों के मैदान मेहनतकश तबक़ों के बच्चों के बचपन का सहारा हैं। विशेषकर छात्राओं के लिए उनके स्कूल के मैदान ही वो स्थल हैं जहाँ वो खुलकर खेल पाने के अवसर पाती हैं। निगम के स्कूलों में खेलकूद की एक गौरवशाली परंपरा रही है। निगम से पढ़े/निकले खिलाड़ियों ने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तरों तक निगम का नाम रौशन किया है, जिसमें ओलंपिक पदक विजेता पहलवान सुशील कुमार जैसे खिलाड़ी भी शामिल हैं। खेल के मैदान ख़त्म करने से स्कूलों के इस सुंदर व अनिवार्य अंग पर विराम लग जाएगा।
देश की तमाम शिक्षा नीतियों, शिक्षाशास्त्र व सभी शिक्षाविदों के अनुसार भी मैदान व खेलकूद के बिना एक स्कूल की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि बच्चों के खेलकूद से उनके स्वास्थ्य व शिक्षा की बेहतरी का भी सीधा संबंध है। खेल बच्चों का अधिकार है, स्कूलों की पाठ्यचर्या का अभिन्न हिस्सा है और खुशहाल बचपन व सुंदर स्कूल के लिए एक अनिवार्य शर्त है।
उपरोक्त चिंताओं के अलावा, स्कूल के मैदानों/स्थलों को पक्का करना पर्यावरण की दृष्टि से भी विनाशकारी है। इससे जनता के बहुमूल्य संसाधनों का दोहन होगा, भूजल संकट बढ़ेगा, शहर के स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि होगी और स्कूल का वातावरण निर्जीव व कृत्रिम हो जाएगा। अंततः, इन सबका खामियाज़ा मासूम बच्चों को अपने स्वास्थ्य की बलि देकर भुगतना पड़ेगा।
इस संदर्भ में हम आपसे अपील करते हैं कि निगम के स्तर पर एक ठोस नीति का क्रियान्वयन करके यह सुनिश्चित करें कि सभी स्कूलों में खेल के लिए कच्चे मैदान उपलब्ध हों और किसी भी स्कूल में खेल के कच्चे मैदान को पक्का न किया जाए।          

सकारात्मक कदम की उम्मीद के साथ 

Wednesday, 29 November 2017

नशा


दीपक कटारिया 
                   एम. एड. प्रथम वर्ष 
    (केंद्रीय शिक्षा संस्थान, दिल्ली विश्वविद्यालय)       

शास्त्री पार्क रेड लाइट के पास ज्यों ही माल से भरा एक रिक्शा कार के ऊपर पलट कर गिरा, त्यों ही एक साहब बाहर निकले और निकलते ही रिक्शे वाले को ऐसा तेज़ थप्पड़ मारा कि उसका होंठ फट गया और अमीरों के पीने की सबसे पसंदीदा चीज़ उसके फटे होंठ से बहने लगी। थप्पड़ मारते ही साहब बोले, 'साले चरसी, इतना बोझ ले जाया नहीं जाता तो भरते क्यों हो रिक्शे में? अभी भी गांजे के नशे में लग रहा है। लेक्चर के लिए यूनिवर्सिटी जाना है, उसके लिए भी लेट हो गया', प्रोफ़ेसर साहब ने झुंझलाकर कहा। 
उधर से रिक्शे वाले ने कहा, 'साहब, गांजा पीते हैं क्योंकि इतना वज़न खींचने के कारण पूरे शरीर में दर्द रहता है! और इतना बोझ इसलिए ले जा रहा हूँ ताकि अपनी बच्ची के लिए किताबें ला सकूँ और वो अगली जमात में पढ़ सके। पर, अगर पढ़ाई इस तरह का नशा देती है जिसमें एक इंसान दूसरे इंसान को इंसान ही न समझे तो इससे भला तो हमारा गांजे का ही नशा है।'
                   

Sunday, 5 November 2017

बदलते समाज में बदला पुस्तकालय का स्वरुप

सनुज यादव 
लेखक केंद्रीय शिक्षा संस्थान में एम. एड के विद्यार्थी हैं 

मैं दिल्ली के ढाका गाँव में रहता हूँ । यह मुख़र्जी नगर से यह लगभग दो किलोमीटर दूर है, जो मुख्यतः सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कराने के लिए कोचिंग संस्थानों का गढ़ माना जाता है । पिछले कुछ समय से मैं यहाँ एक नए तरीके की संस्था का उदय देख रहा हूँ, जिसके मूल में केवल बाजारवाद है । यह है पुस्तकालय या लाइब्रेरी ।
वैसे तो पुस्तकालय को हम अपने विद्याथी(स्कूली) जीवन से सुनते आ रहे हैं और उसकी एक छवि हमने अपने मन में संजोये हुए हैं । पर जिस तरीके से बाज़ार ने इस संस्था का स्वरुप और संरचना में परिवर्तन ला रहा है यह मेरे लिए विचारणीय बिन्दु है । शिक्षा संकाय का विद्यार्थी होने के नाते ऐसे संस्थानों की संकल्पना में हो रहे बदलाव को जानना और उनमें हो रहे परिवर्तन को समझना मेरे लिए आवश्यक हो जाता है। एस.आर.रंगनाथन, जिन्हें भारत में पुस्तकालय विज्ञान के पिता के रूप में हम जानते हैं, उनके शब्दों में कहूँ तो “देश की सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक विकास में पुस्तकालयों का योगदान अहम होता है । ” परन्तु आज़ादी के बाद विकास के नाम पर जिस तरीके से सार्वजनिक पुस्तकालयों का गला घोटा जा रहा है ये एक चिंता का विषय है ।
आज हमारे आस-पास सार्वजनिक पुस्तकालय विरले ही देखने को मिलते हैं । जो हैं भी उनकी स्थिति काफी दयनीय है या वे आतिक्रमण का शिकार है । जब मुझे अपने कुछ दोस्तों से यह पता चला कि वे दिल्ली विश्वविद्यालय में नामांकन केवल कॉलेज की लाइब्रेरी की सुविधा(बैठकर पढने के लिए)लेने के लिए लेते है तो मुझे शुरुआत में उन दोस्तों पर गुस्सा आया पर जब इस पर विचार किया तो पाया कि अन्य सभी कारणों में एक कारण उनके घर के आस-पास सार्वजनिक पुस्तकालयों ना होना भी हो सकता है । इनकी जगह यह नए तथाकथित पुस्तकालय अपनी जगह बना रहे हैं, जो पुस्तकालय के नाम पर एयर कंडीशन, वाई-फाई सुविधा, लड़के-लडकियों के अलग स्टडी रूम, चाय-कॉफ़ी की सुविधा, कैमरे से निगरानी इत्यादि सुविधा देने का प्रचार करते हैं ।
क्या हम इन्हें सही मायने में लाइब्रेरी कह सकते हैं या नहीं ? मेरे अनुसार पुस्तकालय वह जगह होती है, जो आपको अपनी स्वेच्छा से पढने, लिखने,पुस्तकों के चुनाव की स्वतंत्रता, स्वछन्दता प्रदान करती है । विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, शोध संस्थानों में पुस्तकालयों की भूमिका कितनी अहम है, यह हम सभी अच्छी तरह से जानते हैं । इनकी बढती संख्या से मेरे मन में दो सवाल उठते हैं । पहला, इन इलाकों में इस प्रकार के पुस्तकालयों की स्थापना के पीछे क्या सोच रही होगी ? मेरे विचार से जिस तेजी से शिक्षा का बाजारीकरण हुआ या हो रहा है, उस परिस्थिति में मुख़र्जी नगर और आस-पास के इलाको में दिल्ली के दूरदराज़ के इलाकों से आने वाले प्रतियोगियों की संख्या में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी हुई है, जिसका एकमात्र कारण सरकारी नौकरी पाने की लालसा है । वहाँ ऐसी निजी दूकान प्रतियोगियों को यह विश्वास दिला पाती हैं कि वह अगर वे उन सुविधाओं का उपभोग करें जो वे मुहैया करा रहे हैं, तब वह अपनी तय्यारी को अन्य प्रतियोगियों से अलग कर पाएंगे और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे ।
ऐसी स्थिति में जब अर्थव्यवस्था ढलान पर है और नौकरियों की भारी कमी से हमारा देश जूझ रहा है, वहाँ पढने वाले छात्र-छात्राएँ सरकार से सार्वजनिक पुस्तकालयों की बदहाली पर बिना कोई सवाल किये इस नवउदित व्यवस्था का हिस्सा बनाते जा रहे हैं । उनकी आँखों के सामने सार्वजनिक पुस्तकालयों का दायरा सिकुड़ता जा रहा है ।
दूसरा अहम सवाल यह है कि इन तरीकों के पुस्तकालय किस तरह के ज्ञान का सृजन कर रहे है ? कर भी रहे हैं या नहीं ? आज हम सूचनाओं के दौर में जी रहे हैं । इन सूचनाओं से ज्ञान का सृजन और उस ज्ञान से बुद्धिमत्ता तक का सफ़र एक जटिल प्रक्रिया है । समाज में हरेक समुदाय के ज्ञान की सृजनशीलता को सराहना और उसको बाकियों से साझा करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए पुस्तकालय एक सशक्त माध्यम है । परन्तु यह पुस्तकालय किताबों को छोड़कर सारी सुख-सुविधा दे रहे हैं तब ज्ञान का उत्पादन भी संकीर्ण मायने में ही रहता है । जिसका लाभ गिने-चुने लोगो को मिलता है । मेरी समझ में एक बेहतर समाज की संकल्पना वह हो सकती है, जब हम पुस्तकालय जैसे सामाजिक संस्था को उसके वास्तविक स्वरुप में बचा पाएंगे क्योंकि पुस्तकालय आधुनिक समाज की रीढ़ की तरह है और इस रीढ़ तोड़ने वाली व्यवस्था को बाज़ार के हवाले करने की साजिश को बेनकाब करना ही होगा । 


parcha: Break the Silence on Child Sexual Harassment

Break the Silence on Child Sexual Harassment!

More than six months back, a class IV student of a government school in Delhi returned home only to tell her mother that she would not like to go to her school again because the Principal touches her in a way she doesn’t like. The mother went to the school the next day which started a chain reaction. A few other girl students also came forward to complain against the wrongdoings of the Principal. It was only after the intervention of some local activists, DCW (Delhi Commission for Women), National Commission for Protection of Child Rights (NCPCR), MLA etc that an FIR got registered after a period of two months and police arrested the Principal under the POCSO (The Protection of Children from Sexual Offences) Act, 2012.

Sexual offences against children are not unaffected by the factors of class and caste of the victims. In order to fight for justice victims have to run around administration and courts which in turn depends upon their socio-economic conditions. In the case mentioned above, one of the affected girl children had to leave her school and the city. We are not even equipped to understand the mental and physical repercussions of the whole incident on the girls; which may have happened or happen in future. Media’s seriousness in reporting such cases is again determined by the fact that whether the incident has happened in a big private school or in a government school.

Recently, many cases of sexual harassment in schools have been reported in media; a Class X girl was raped by a teacher for a year on the threat of failing her in exams in Chamba in Himachal Pradesh; a British man who used to give funds to a school in Delhi sexually harassed three of its blind children; a seven year old boy was killed in an attempt to rape him in a big private school in Gurgaon.

Text Box: Administrative Responses to Child Sexual Abuse
• Installing CCTVs at every nook and corner 
• Increasing restrictions on all visitors, including parents
• Conducting Police verification and Psychometric tests of all employees 
• Not appointing male staff in all –girls’ schools
Though many of these incidents were successful in drawing attention of the administration, media, and public on the issue of ‘child sexual harassment’, however most of the measures suggested as solutions only create an illusion of ‘security’ instead of addressing the real problem. For instance, there is no mention of the need of increasing gender sensitization in schools, building legal committees and raising awareness about the same.

CCTV has garnered maximum force in the hit list of ‘security measures’. It requires no social-political effort to install CCTVs. Administration only has to spend public money to benefit the private companies in buying these cameras. What is the surety that the CCTVs installed in the name of ‘protection of children’ will not later be used to harass teachers or that the recordings will not be misused for peeping-eye purposes? The teaching-learning environment shall also get adversely affected by the same.

It is a reflection of the intellectual poverty of our times that schools will be taking psychometric tests of the prospective employees to determine whether children would be safe with them or not. How can we blindly believe something which itself is a matter of debate in the discipline of Psychology? Another such proposed measure is ‘not to hire male teachers in girls’ schools’. Though it may appear as an easy way out to protect girl children in schools but is it not unjustified to put all male teachers under suspicion? All these measures are basically kneejerk reactions from an administration which wants to appease the sensational media and not indulge in any dialogue with the affected parties. Should there be no difference in the manner in which we secure/take security measures in a jail, a hotel and a school?

The safety of children is also linked with that economic policy under which on one hand posts in government schools are not filled with regular appointments and on the other hand education is handed over to the profiteering private management. By outsourcing various school services to private bodies which change their employees on a regular basis and allowing free hand to the NGOs and philanthropic actors, conditions in schools are being made more uncertain.      

In fact, sexual exploitation has a strong socio-politico-economic basis without attacking which it cannot be put to end. In patriarchal societies, sexual exploitation has been used as an age-old means to subjugate women. In such societies, women and children are considered as lesser beings and their sexuality is used as an ‘object’. The reality of our society is that child sex-abuse exists as an organized crime under which every year lakhs of young girls from the marginalized sections are forced into the exploitative business of prostitution.
Text Box: According to the POCSO Act 
Under the POCSO (Protection of Children from the Sexual Offenses) Act, child sexual violence not only includes penetration of any organ or object into different organs of the child, but also recognizes touching the private parts of the child or making her/him touch the parts of the perpetrator as sexual assault. The exhibition of body parts and the use of words and gestures with sexual intent, stalking, staring, transmitting images for pornographic purposes are also recognized as heinous crimes. This law imposes more stringent penalties when the convict is from institutions like police, military and school. A teacher can be punished for 6 months and a Principal for one year for not reporting an incident of child sexual abuse. Revealing the identity of the victim child is also punishable.
What girl-students do receive in the name of safety through their childhood years is in fact the gift of surveillance and restrictions. Like the wider society, even in schools, much harsher disciplinary restrictions are imposed upon girls than boys.

There is a continuity across various forms of violence upon children which exists in schools; such as, passing disparaging comments on their religion, culture, economic condition, caste, gender and family or scolding and beating them for ‘their own good’ etc. We will have to work hard to know the logic and experiences of children, their fears and dreams, to find out when they feel humiliated and when secure, for otherwise we will only remain filled with the false pride of a dictator who claims to mean well.  

Appeal

·         Do not ignore any incident of child sexual-abuse and take just action.  Develop a democratic environment in classrooms so that students feel confident to share their experiences of abuse or otherwise.
·         Oppose elements of anti-women culture amongst ourselves and students.
·         Increase awareness on laws such as POCSO (2012) and Sexual Harassment of Women at Workplace (2013) and put pressure on the Department to implement all their measures in schools.
·         Wage struggle for the regular filling of all posts in schools and resist privatisation-NGOisation.   


Wednesday, 18 October 2017

जय हिंद: आकर्षण-विकर्षण के बीच

लेखक प्राथमिक शिक्षक हैं 

13 सितंबर को The Hindu में छपी एक ख़बर के अनुसार मध्य-प्रदेश के स्कूली शिक्षा मंत्री विजय शाह ने प्रधानाचार्यों को कहा है कि वो विद्यार्थियों को निर्देश दें कि 1 अक्टूबर से वो कक्षा में हाज़िरी का जवाब 'जय हिंद' से दें। रपट में यह स्पष्ट नहीं है कि ये आदेश किस स्तर पर लागू होंगे, क्योंकि इसका पहला वाक्य केवल सतना ज़िले के स्कूलों का ही ज़िक्र करता है। रपट के अनुसार इसका उद्देश्य सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों में 'देशप्रेम' बढ़ाना है। रपट में मंत्री को हाज़िरी के दौरान 'yes sir', 'yes madam' या 'present' जैसे अंग्रेज़ी जवाबों की उपयोगिता पर सवाल खड़ा करते हुए उद्धृत किया गया है। 
इस रपट को पढ़कर मुझे दो-चार बातें याद हो आईं। चूँकि मेरे पिता फ़ौज में थे, तो 'जय हिंद' के संबोधन से मेरा कुछ नज़दीकी जुड़ाव रहा है। बाद में, जब कुछ बड़े होकर यह पढ़ा कि किन परिस्थितियों में और किन उद्देश्यों से इसे आज़ाद हिंद फ़ौज ने अपने सदस्यों की आपसी सलामी के रूप में अपनाया था तो इसके प्रति मेरा लगाव कुछ और बढ़ गया। इसकी संक्षिप्त पृष्ठभूमि ये है कि जब सुभाष चंद्र बोस ने ब्रिटिश हुकूमत की सेवा में निर्मित व लगी भारतीय फ़ौज के उन अफ़सरों व सिपाहियों को जोड़कर आज़ाद हिंद फ़ौज बनाना शुरु किया जोकि जर्मन हिरासत में थे तो उनका सामना इसकी जड़ों में पड़े क्षेत्रीय, जातिगत व धार्मिक आधार से हुआ। (आज भी भारतीय फ़ौज की टुकड़ियाँ का एक बड़ा आधार पहचान के यही स्वरूप हैं जिन्हें हम सिख रेजिमेंट, राजपुताना राइफल्स, डोगरा रेजिमेंट आदि नामकरणों में देख सकते हैं।) तो अलग-अलग पृष्ठभूमि के फ़ौजियों का आपसी अभिनंदन भी अलग-अलग था, जैसे 'राम-राम', 'सलाम-अलै-कुम', 'सत स्री अकाल' आदि। इस मद्देनज़र आज़ाद हिंद फ़ौज को देशव्यापी पहचान पर गठित करने के लिए और साम्प्रदायिक आधार पर बनी टुकड़ियों की संस्कृति से परे जाने के लिए 'जय हिंद' की सलामी को चुना गया। बहुत-से इतिहासकारों का मानना है कि इस नारे को चंपकरामन पिल्लई ने गढ़ा था और आज़ाद हिंद फ़ौज के लिए आबिद हसन के प्रस्ताव पर 1941 में सुभाष ने मंज़ूर किया था। बाद में इसे राष्ट्रीय नारे के रूप में और भारत की आज़ादी के बाद देश की फ़ौज ने भी अपनी सलामी के रूप में अपनाया। हालाँकि दक्षिणपंथी राजनैतिक ताक़तों ने हमेशा ही 'वंदे मातरम' को इस नारे के ऊपर तरजीह दी। ज़ाहिर है कि इसका प्रमुख कारण एक की साम्प्रदायिकता-विरोधी जड़ें और दूसरे की साम्प्रदायिक-नफ़रत फैलाने के लिए उपयोगिता है। इसके लिए हमें बंकिम के उपन्यास 'आनंदमठ' को पढ़ना होगा। ख़ैर, पढ़ने-लिखने की ज़हमत उठाना कभी भी दक्षिणपंथियों की कमज़ोरी नहीं रही है। 
कुछ साल पहले मेरे स्कूल में एक युवा साथी पढ़ाते थे जो बाद में हरियाणा के सरकारी स्कूल में नियुक्ति पाकर दिल्ली से चले गए। हमारी अच्छी घनिष्ठता थी और वैचारिक धरातल पर भी बढ़िया आदान-प्रदान होता था। मैंने पाया कि उनकी कक्षा के विद्यार्थी हाज़िरी का जवाब 'जय हिंद' से देते थे। उनके जाने के बाद मुझे उनकी उसी कक्षा को पढ़ाने का मौक़ा मिला तो भी काफ़ी विद्यार्थियों ने वो सिलसिला जारी रखा। मुझे याद आता है कि उनके उदाहरण के पश्चात मैंने ख़ुद स्कूल की दैनिक सभा में एक-आध बार विद्यार्थियों को हाज़िरी का जवाब 'जय हिंद' से देने के लिए उकसाया/प्रेरित किया है। जब मैंने पढ़ाना शुरु किया था तो अपने विद्यार्थियों को हमेशा यही कहता था कि वो हाज़िरी का जवाब इस तरह से दें कि मुझे मालूम हो जाए कि वो आये हैं। मैंने उनसे कहा कि इसके लिए वो प्रचलित शब्दों के अलावा 'हाज़िर हूँ' या 'आया/आई हूँ' आदि भी बोल सकते हैं। बल्कि भाषा व सांस्थानिक अनुशासन के बनावटी स्वरूप के विरुद्ध रुझान रखने के कारण शायद मैंने हमेशा ही इन सीधे, सरल जवाबों को दक़ियानूसी जवाबों से ज़्यादा प्रोत्साहित किया है। आख़िर हाज़िरी का मक़सद विद्यार्थियों की उपस्थिति दर्ज करना ही तो है। फिर उस समय एक कक्षा में संख्या भी ख़ासी होती थी। बल्कि पहली कक्षा के ही 200 से अधिक विद्यार्थियों को 'पढ़ाने' के अनुभव के संदर्भ में मुझे समझ में आया कि जब शिक्षक को पता है, उसने देख लिया है कि आज अमुक विद्यार्थी आई है तो फिर उसका नाम पुकारने की ज़रूरत ही क्या है। हालाँकि अर्धावकाश के बाद नाम बुलाकर हाज़िरी लेने की आदत का मैंने अधिकतर पालन किया है क्योंकि इससे विद्यार्थियों को भी समझ में आता है कि उनकी उपस्थिति महत्व रखती है और यह उनके साथ शायद हमारी 'सुरक्षा' के लिए भी ज़रूरी है। इस तरह हाज़िरी के प्रति एक तटस्थ परंतु सजग समझ बरतते हुए पिछले कुछ वर्षों में मैं इस आदत पर पहुँचा हूँ कि अपनी नई कक्षा में या नए विद्यार्थियों को यह स्पष्ट कर देता हूँ कि नाम पुकारे जाने पर वो किसी भी तरह से मुझे अपनी उपस्थिति के बारे में अवगत करा दें - यस सर, प्रेजेंट, जी, हाज़िर हूँ, आई हूँ आदि - लेकिन 'जय हिंद' के प्रति अपनी तरफ़दारी भी जता देता हूँ। पिछले डेढ़ महीनों से पहली कक्षा पढ़ा रहा हूँ, जिसके औसतन 25 उपस्थित विद्यार्थियों में से 5 'जय हिंद' बोलती हैं जबकि इस बार मैंने इसके बारे में ज़्यादा बात नहीं की है। (कई प्रसंगों में बच्चे, हमारी ही तरह, देखा-देखी अपने साथियों या 'प्रभावी माहौल' का महज़ अनुसरण भी करते हैं।) ऊपर मैंने अपने पिता की फ़ौजी पृष्ठभूमि का ज़िक्र किया। मेरा छोटा भाई भी फ़ौज में है और मुझे याद है कि एक-दो साल पहले मैंने ही उसे इस बात पर टोका था कि वो पद में अपने से कनिष्ठ फ़ौजियों के 'जय हिंद' का जवाब मेरे हिसाब से पर्याप्त ऊँची आवाज़ में न देकर महज़ सर हिलाने की औपचारिकता निभा रहा था। उसने कुछ कहा तो नहीं लेकिन छोटे भाई के प्रति नरम होकर सोचने पर मुझे भी लगा कि शायद इतने सलामों का जवाब देते-देते उदासीन हो जाना स्वाभाविक ही हो। आख़िर, मैं ये भी देखता हूँ कि बहुत-से शिक्षक ही उन्हें मिलने वाले संबोधनों का जवाब देना तो दूर, उन छोटी उम्र के विद्यार्थियों की उपस्थिति तक दर्ज नहीं करते जो प्यार या जोश में उन्हें 'नमस्ते' से लेकर बहुत-से अभिनंदन व्यक्त करते हैं।  एक सवाल यह भी है कि आख़िर वो कौन-सी नैतिकता है जो यह माँग करती है कि पहले उम्र या पद या प्रतिष्ठा में 'छोटा' ही 'बड़े' के लिए अभिनंदन का इस्तेमाल करे और 'बड़ा' हद-से-हद, अगर चाहे तो, उसका जवाब देने की कृपा करे। ख़ैर, क्योंकि यह सवाल हमें मूल बिंदु से ज़रा दूर ले जा रहा है, इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं। 
मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे वो दोस्त जोकि अपनी कक्षा में हाज़िरी के लिए 'जय हिंद' के जवाब को प्रोत्साहित करते थे मंत्री के इस निर्देश से सहमत नहीं होंगे। मैं ख़ुद, ऊपर दर्ज अपने ब्यौरे के बावजूद, न सिर्फ़ इससे सहमत नहीं हूँ बल्कि इसका विरोध करता हूँ। यह सच है कि मेरा अपना व्यवहार व अनुभव गवाही देता है कि कई बार बड़ी निरंकुशता या तानाशाही आपको अपनी छोटी सत्ता की ज़ोर-ज़बरदस्ती की तरफ़ ध्यान दिलाने में सहायक होती है। फिर भी यह आदेशात्मकता अन्य कारणों से भी ग़ैर-मुनासिब है। एक तो यह शिक्षकों व विद्यालयों की अपनी स्वायत्तता पर कुठाराघात है। जब मैं अपनी कक्षा को मैदान में खेलने ले जाता हूँ तो मुझे अपने बौद्धिक कर्म व कर्ता होने का बोध होता है। अगर कल से मुझे यही काम एक केंद्रीकृत आदेश के तहत करना पड़े, तो मैं इसे पसंद नहीं करूँगा। यह आदेश स्कूलों में मंत्रियों व सरकारों की बढ़ती हुई अनुचित व अनाधिकृत दख़लंदाज़ी का एक और नमूना है। दूसरी बात यह है कि हाज़िरी कोई अनिवार्य नैतिकता का पाठ पढ़ाने की चीज़ है ही नहीं - ये तो स्कूलों की औपचारिक परिपाटी का हिस्सा है। इसे किसी भी तरह से तोड़-मरोड़ कर क्षणिक तौर पर सिर्फ़ एक कृत्रिम दृश्य या अनुभूति पैदा की जा सकती है, कुछ स्थाई भाव नहीं। इसका एक सबूत ख़ुद वो लोग हैं जो सबसे ऊँची आवाज़ में 'देशभक्ति' के नारे लगाकर हुड़दंग और क्रूर हिंसा करते हैं। यह कहना भी मुश्किल है कि आज वो विद्यार्थी जो 'जय हिंद' से हाज़िरी का जवाब देते थे, अपने अन्य साथियों के मुक़ाबले देश से ज़्यादा प्रेम करते हैं या फिर अगर करते भी हैं तो इसमें उनकी हाज़िरी का कितना योगदान है। तीसरी बात यह है कि किसी भी नारे को अनिवार्य करना एक कर्मकांड की संस्कृति को बढ़ावा देता है। ख़ासतौर से तब जब उसके पीछे सत्ता का डंडा हो। 'जय हिंद' के धर्मनिरपेक्ष व साम्प्रदायिकता-विरोधी इतिहास के बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह एक फ़ौजी सलाम है और राष्ट्रीय नारा होने के बाद भी इसे न तो नागरिक जीवन पर थोपा गया है और न ही इसके संदर्भ में किसी दंड का विधान है। धर्मनिरपेक्षता व साम्प्रदायिक-विरोध हमारे स्कूलों के लिए अवश्य ही आदर्श हैं लेकिन फ़ौजी माहौल या ज़ोर-ज़बरदस्ती के उसूल स्कूलों के वृहत उद्देश्यों को विकृत करते हैं और विद्यार्थियों की शिक्षा को कमज़ोर करते हैं। पता नहीं सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे मेहनतकश वर्गों व दलित-दमित तबक़ों के बच्चों को ही देशभक्ति का पाठ पढ़ाने की इतनी आतुरता क्यों है? जबकि इस देश के संसाधनों को लूटने, प्रकृति को तबाह करने, आदिवासियों-किसानों को जल-जंगल-ज़मीन से बेदख़ल करने तथा श्रम का निर्बाध शोषण करने के कृत्यों से इन बेबस-मासूमों का दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता है। या शायद इसीलिए हमें और इन्हें देशभक्ति के इन पाठों की ज़रूरत होती है कि इस अफ़ीम को चाट कर सब दुःख-दर्द भूल जाएँ और गाँधी के नेक बंदर बन जाएँ।         
कुछ माह पहले सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश जारी किया था कि सभी सिनेमा हॉलों में फ़िल्मों से पहले राष्ट्रगान चलाया जाये जिसपर सब उपस्थित दर्शकों के लिए खड़े होना अनिवार्य हो। इस आदेश का उद्देश्य भी लोगों में देशभक्ति की भावना बढ़ाना था। यह रोचक है कि अदालत ने इस प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया कि उसकी ख़ुद की दैनिक कार्यवाही राष्ट्रगान से शुरु हो। (हालाँकि यहाँ इसकी गहराई में नहीं जाया गया है, लेकिन यह कहना ज़रूरी है कि देशप्रेम व देशभक्ति में फ़र्क़ है और पहला भाव अहिंसा व आज़ादी के कोमल, सहज एहसासों के क़रीब है, जबकि दूसरे में अतार्किकता व एकाधिकारवाद के हिंसक बीज छुपे हैं। कुछ इसी तरह का फ़र्क़ देश व राष्ट्र की अवधारणाओं के बीच भी किया जा सकता है।) लोगों में देश के प्रति एक उदात्त भावना का संचार भले ही हुआ हो या न हुआ हो, इस आदेश का एक परिणाम यह ज़रूर हुआ कि राष्ट्रगान से (ख़ासतौर से राष्ट्रगीत के अधिक संकुचित इतिहास की तुलना में) स्नेह व सहानुभूति रखने वाले एक वर्ग में भी इसके प्रति एक झुंझलाहट पैदा हो गई और जगह-जगह से हिंसक हमलों व केस दर्ज होने की ख़बरें आने लगीं। मेरी जानकारी में ही कई लोगों ने सिनेमा हॉलों में फ़िल्में देखने जाना इसलिए छोड़ दिया है क्योंकि उन्हें यह विचार बेहूदा लगता है कि तय समय-स्थान-मौके पर देश के प्रति अपनी निष्ठा दिखाने के लिए उन्हें एक तयशुदा कर्मकांड से ग़ुज़रने की अग्नि-परीक्षा देनी होगी। जैसे कि आप किसी आज़ाद देश के बाशिंदे न होकर एक psychopath की गिरफ़्त में क़ैद हों। 
          आज मैं पाता हूँ कि स्कूल की दैनिक सभा के आस-पास उपस्थित अभिभावकों तक को राष्ट्रगान पर खड़े न होने के लिए टोकने वाले अध्यापक को यह देखकर अपनी पूर्व समझ पर अफ़सोस होता है कि राष्ट्रगान के दौरान बच्चे एक-दूसरे को छेड़ रहे हैं, उल्टे-सीधे बोल गा रहे हैं; शिक्षक अपनी आपस की अधूरी बात उन्हीं 52 सैकंड में पूरी करना चाह रहे हैं; माताएँ बैठी-बैठी राष्ट्र-राज्य के प्रति अपना लैंगिक विरोध नहीं तो निर्लिप्तता तो ज़रूर जता रही हैं; सफ़ाई कर्मचारी सरकार व सवर्ण समाज द्वारा अपने वक़्त और मेहनत के मामूली मोल का भाव भाँपते हुए झाड़ू किये जा रहे हैं; पेड़ हिल रहे हैं और पंछी उड़े जा रहे हैं। मैं सावधान खड़ा अपने से पूछ रहा हूँ, 'कब तक? और कब तक?'