यह खुला पत्र एक विद्यालय में मैदान को खत्म करने के प्रस्ताव के विरोध में उस विद्यालय के कुछ शिक्षकों ने लिखा व शिक्षक साथियों में वितरित किया। यह पत्र इस बात का प्रमाण है कि किस प्रकार शिक्षक अपने विद्यार्थियों के खेलने के अधिकार और पर्यावरण के प्रति जागरूक हैं।
साथियों,
कई
अन्य स्कूलों के मैदानों का जो हश्र हुआ है उसी तर्ज पर हमारे स्कूल के मैदान को भी
सीमेंट अथवा टाइल्स से सपाट बना देने का विचार चर्चा में है। हालाँकि, इस प्रस्ताव (या फिर
निर्देश/आदेश) का स्रोत स्पष्ट नहीं है। हमें इस विचार और इसके संभावित परिणामों
पर ग़ौर करने की ज़रूरत है। सर्वप्रथम, कच्चे मैदान को कंक्रीट में बदल देने से हमारे
विद्यार्थियों के निर्बाध खेल-कूद में बाधा पहुँचेगी। आज इस कच्चे मैदान पर जिस
उन्मुक्त तरीक़े से वो खेल पाते हैं, उस आज़ादी से वो कंक्रीट पर नहीं
खेल सकेंगे। फिर, कंक्रीट पर बहुत-से खेल, विशेषकर देशज क़िस्म के व बच्चों
को सुलभ खेल, जैसे खो-खो, कबड्डी, स्टापू, दौड़, कूद आदि तो वैसे ही नहीं खेले
जा सकेंगे। इस तरह से यह परिवर्तन बच्चों के खेलने के हक़ पर कुठाराघात करेगा। साथ
ही, पक्के फ़र्श पर खेलने से बच्चों के चोटिल होने की संभावना
काफ़ी बढ़ जाएगी।
हम अच्छी तरह जानते हैं कि धरती को लगातार कंक्रीट से पाटना
पर्यावरण व जीवन के लिए किस हद तक घातक है। यह सबक़ तो हमारी शिक्षा व किताबों तक
में शामिल है। पाँचवीं कक्षा की पर्यावरण अध्ययन की पुस्तक के 16वें पाठ 'पानी रे पानी' में 'धरती की गुल्लक' संबोधन इसी संदर्भ में इस्तेमाल
किया गया है। आज हमारे शहर व देश-दुनिया में बढ़ता जल-संकट और ग्लोबल वॉर्मिंग
आमजन से लेकर सरकारों तथा अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों तक के लिए चिंता के विषय और
चुनौती बने हुए हैं। छोटे स्तर पर ही सही, हमारे स्कूल का मैदान भी
पर्यावरण का एक रक्षक है, जिसकी हमें हिफ़ाज़त करनी चाहिए। यह बच्चों के सीखने, उनकी शिक्षा का भी एक बढ़िया
माध्यम है। कंक्रीट बिछाने से बच्चे प्रकृति से और दूर होते जायेंगे और कृत्रिम
आकर्षण के जाल में फँसकर इस विनाशकारी विकास के ख़तरों को समझना उनके लिए और भी
मुश्किल हो जायेगा।
आज शहर में वैसे भी खुली जगहों, मैदानों, पार्कों आदि की कमी होती जा रही
है। अगर यमुना के किनारे के खेतों को छोड़ दें, तो हमारे इलाक़े की बाक़ी रिहाइशी कॉलोनियों के बारे
में तो यह बात और भी सच है। शहर के कई पुराने पार्कों-सार्वजनिक स्थलों में आने-जाने, उठने-बैठने पर रोकटोक बढ़ती जा
रही है, बच्चों का खेलना-कूदना वर्जित किया जा रहा है। जब से दिल्ली यूनिवर्सिटी ग्राउंड को स्टेडियम बनाकर उसका 'विकास' किया गया है तब से वहाँ यूनिवर्सिटी के कर्मचारियों
के परिवारों के सदस्यों तक का घूमना-फिरना तो दूर, प्रवेश भी बाधित हो चुका है। इसी तरह कनॉट प्लेस के उस सादे व खुले पार्क के 'विकसित' हो जाने से, जो पहले रात भर बेघरों, मुसाफ़िरों और सभी का स्वागत करता था तथा उन्हें पनाह
देता था, आज सूरज ढलते ही थके-हारे व आराम-चैन चाह रहे लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। ज़ाहिर है, बच्चे शारीरिक गतिविधियों और
खेल-कूद से वंचित होते जा रहे हैं। छोटी उम्र के बच्चों को तो वैसे भी घर से दूर
जाकर खेलने के अवसर नहीं मिल पाते हैं। बढ़ती यौन-हिंसा व सामाजिक रोक-टोक के चलते
बहुत-सी लड़कियाँ तो घर की चारदीवारी में ही क़ैद होकर रह जाती हैं।
ऐसे में जबकि हमारे क्षेत्र में कोई भी खुला मैदान बच्चों को उनके पड़ोस में उपलब्ध
नहीं है, स्कूल का मैदान ही उनके खेल का सहारा है। लड़कियों के लिए स्कूल का मैदान
इसलिए और भी महत्व रखता है क्योंकि लड़कों को तो घर से दूर जाकर खेलने के मौक़े मिल
भी जाते हैं।
आज हमारे स्कूल में एक व्यवस्थित बग़ीचा-क्यारी है - जिसके
लिए विभाग के सहयोग के अतिरिक्त कुछ शिक्षकों ने जी-तोड़ मेहनत की है - और कुछ हिस्सा टाइल्स एवं फ़र्श
से युक्त है। ले-देकर क़रीब आधे क्षेत्र में खेल का मैदान है। देखा जाये, तो इसे हम एक संतुलन की स्थिति
भी मान सकते हैं - बग़ीचा, फ़र्श व मैदान। हमें इस संतुलन को बचाने की ज़रूरत है, न कि इसे और एक-तरफ़ा करने या
बिगाड़ देने की।
यह बात उत्साहवर्धक है कि लगभग सभी शिक्षक-शिक्षिकायें खेल
के मैदान के वर्तमान स्वरूप को बनाये रखने के पक्ष में हैं। हम शिक्षकों का दायित्व है कि
हम बच्चों और लोगों को स्कूल में खेल के मैदान और पर्यावरण के महत्व के बारे में
समझायें व जागरूक करें, न कि अपनी बौद्धिक भूमिका का परित्याग कर दें। यह
एक विडंबना और घोर त्रासदी है कि आज हमारे स्कूलों से मैदानों को ख़त्म किया जा रहा
है और इसे 'विकास' की तरह परोसा जा रहा है। शिक्षक
बनने की प्रक्रिया में जो शिक्षा हमने प्राप्त की है उसमें और देश की तमाम शिक्षा
नीतियों व स्कूल से संबंधित मानकों में यह सिद्धांत समान रूप से स्थापित रहा है कि
खेल के मैदान के बिना एक स्कूल की - प्राथमिक स्तर पर तो और भी - कल्पना ही नहीं की जा सकती। खेल के
मैदानों को खोकर हम अपने स्कूलों को और निर्जीव स्थल बना देंगे तथा अपने
विद्यार्थियों के साथ अन्याय करेंगे।
यह सच है कि आज हमारे स्कूलों के प्रधानाचार्यों व
शिक्षक-शिक्षिकाओं पर स्वच्छता को लेकर अति दबाव की स्थिति है।
यही कारण है कि बच्चों व स्कूल के लिए खेल के कच्चे मैदान का महत्व
मानते हुए भी हममें से कुछ साथी पक्के फ़र्श बिछाये जाने के विचार को मजबूरी में स्वीकार करते
हैं। प्रशासन अपने ही नियमों के
अनुसार उचित संख्या में सफ़ाई कर्मचारियों की नियुक्ति व तैनाती नहीं करता है, बल्कि हम पर दबाव बनाया जाता है
कि येन-केन-प्रकारेण सफ़ाई का एक कृत्रिम, दिखावटी चित्र प्रस्तुत करें। हमें उस सोच पर भी सवाल उठाने की ज़रूरत है जो पत्तों और घास
तक को कूड़ा मानती है। आख़िर हम जिस भौगोलिक क्षेत्र में रह रहे हैं उसमें श्रेष्ठ
प्रयास के बावजूद कुछ धूल-मिट्टी का होना स्वाभाविक ही है। धूल-मिट्टी को पूरी तरह
हटाने के लिए जो रासायनिक व यांत्रिक इंतेज़ाम किये जाते हैं वो न सिर्फ़ बहुत महँगे
हैं, बल्कि ख़ुद पर्यावरण-विरोधी हैं। चकाचौंध करने वाले कृत्रिम
प्रांगण अवैज्ञानिक व अस्वस्थ सोच पर टिके हैं।
तथापि खेल व सफ़ाई में कोई विरोधाभास नहीं है। वैसे तो मूलतः खेल खेलने वालों को सहज आनंद से भर देने का स्रोत
हैं, लेकिन इसके अतिरिक्त हम खेल से ईमानदारी (खेल भावना), अनुशासन (नियमबद्धता), सहयोग (टीम तालमेल) व मित्रता
के मूल्य भी ग्रहण करते हैं। प्रायः यह देखने में आता है कि खेलों के शौक़ीन बच्चे
शारीरिक रूप से ही स्वस्थ नहीं रहते बल्कि ख़ुशमिजाज़ भी होते हैं और अन्य
गतिविधियों में भी सक्रिय रहते हैं। इसी कड़ी में विद्यार्थियों में यह भावना
विकसित की जा सकती है कि ख़ासतौर से खेलने से पहले व बाद में वो अपने मैदान को तैयार करके
खेलने के उपयुक्त बनायें। हमें विद्यार्थियों में खेल के मैदान
के प्रति एक लगाव पैदा करना होगा जिससे वो समय-समय पर इसमें फैले हुए कंकड़-पत्थर हटाने को प्रेरित
हों। शायद हम भी खेल को उचित तरजीह व समय नहीं दे पाते हैं। ख़ुद अपने कक्षाई स्तर
पर भी हमें, मौसम व विद्यार्थियों की उम्र के अनुसार, खेलों को ज़िंदा रखना होगा। (हालाँकि, यह भी सच है कि तरह-तरह की और
नित बढ़ती ग़ैर-शैक्षणिक ज़िम्मेदारियों के चलते अब जुटकर पढ़ाना भी
दुश्वार होता जा रहा है।) मैदान के आसपास उपयुक्त डिज़ाइन के कूड़ेदान की व्यवस्था
करने से भी मैदान को साफ़ रखना आसान होगा। निःसंदेह सफ़ाई का अपना महत्व है और यह
मूल्य भी हमारी शिक्षा का अभिन्न अंग है, मगर क्या यह न्यायसंगत होगा कि
एक ऊपरी/बनावटी दृश्य के लिए हम बच्चों के खेलकूद व पर्यावरण को दरकिनार कर दें? एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि
कच्चे मैदान को कंक्रीट बना देना एक अपरिवर्तनीय प्रक्रिया है। अनुभव गवाह है कि
हम बहुत आसानी से इधर से उधर जा सकते हैं लेकिन बाद में संभल कर वापस पलटना बेहद मुश्किल व
महँगा होता है।
तो आइये, हम सब मिलकर अपने स्कूल, बच्चों और पर्यावरण के पक्ष में
सोचें और, हम जहाँ भी और जिस पद पर भी हों, समय पड़ने पर सही फ़ैसले लेने में अपनी भूमिका निभायें।