Tuesday, 30 May 2017

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौक़े पर शिक्षक/ शिक्षिकाओं के विचार

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौक़े पर ये विचार एक निगम स्कूल के शिक्षकों ने लिखकर व्यक्त किये थे। विभिन्न कारणों से इन्हें समय पर दर्ज नहीं किया जा सका लेकिन लैंगिक ग़ैर-बराबरी व उत्पीड़न का यह विषय किसी दिन विशेष की चर्चा तक सीमित नहीं किया जा सकता और रोज़-ब-रोज़ हमारे राजनैतिक हस्तक्षेप की माँग करता है। ज़रूरी नहीं कि इन शिक्षकों के सभी विचारों या विश्लेषण से हमारी पूर्ण सहमति हो। फिर भी, एक-दूसरे को सुनना व संवाद बनाये रखना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसपर आज तेज़ी से कुठाराघात हो रहा है। इसलिए भी हमें महिलाओं व छात्राओं के लिए आज़ादी व बराबरी के मूल्यों तथा उद्देश्यों से समझौता नहीं करते हुए अपने साथियों के उन विचारों को भी रखना तो होगा जिन्हें हम प्रतिगामी मानते हैं, ताकि उनकी राजनैतिक-दार्शनिक ज़मीन और उनकी चिंताएँ समझ सकें।

शिक्षिका 

किस प्रकार हमारे समाज ने कुछ आदतों व कामों को stereotype [रूढ़िबद्ध] कर दिया है, यह बात हैरानी की है। "लड़कियों की तरह क्यों रो रहा है?", "तू लड़की है जो झाड़ू लगा रहा है?", "देखो, लड़के जैसे बाल कटवा लिए इसने!", "आदमियों से उन्हीं की तरह बहस करती है!" इत्यादि बातें छोटे बच्चे-बच्चियों के मन-मस्तिष्क में उन्हीं के परिवार के सदस्य इस प्रकार डाल देते हैं मानो बचपन भी इस भेदभाव को झेलने के लायक़ हो। बचपन में ही equal environment [समान वातावरण] छीन लिया जाता है और यही insensitivity [असंवेदनशीलता] आगे चलकर समाज में और घिनौने रूप में स्थापित हो जाती है। मेरी समझ से बचपन से ही कम-से-कम कामों व आदतों का लड़कों-लड़कियों में विभाजन न करने से भावी पीढ़ी में सुधार की कुछ उम्मीद की जा सकती है। 

शिक्षिका 

लैंगिक भेदभाव - एक अभिशाप है...एक दीमक है जो समाज को खोखला बना रहा है। आज आधुनिकता की बात करते हैं, वैज्ञानिक युग की बात करते हैं लेकिन जब बात किसी को अवसर देने की आती है तो प्राथमिकता लड़कों को दी जाती है। भेदभाव तो बचपन से शुरु होकर अंतिम साँस लेने तक होता है। घर से विद्यालय, फिर कॉलेज, फिर शादी-विवाह या फिर नौकरी, हर जगह इस दंश के साथ चलना पड़ता है कि हम एक लड़की, एक महिला, एक स्त्री हैं। आज भी कई क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। ऐसा कहीं सुनते हैं कि फ़लाँ काम पुरुष नहीं कर सकते? लेकिन लड़कियों को कहा जाता है कि तुम एक लड़की हो और यह काम नहीं करना चाहिए, यह तुम्हारे लायक़ नहीं है। ठीक इसके विपरीत यदि कोई लड़का खाना बनाता है तो उसे chef कहकर सम्बोधित करते हैं। कोई make-up करता है तो उसे make-up man कहते हैं।यह तो नहीं कहते कि यह केवल लड़कियों का काम है। 

शिक्षिका 

अभिनेता अमिताभ बच्चन जी ने अपनी सम्पत्ति का आधा हिस्सा अपनी पुत्री श्वेता तथा आधा हिस्सा अपने पुत्र अभिषेक बच्चन को दिया है। 
किन्तु हर शादी-शुदा स्त्री अपने माँ-बाप से यह उम्मीद नहीं करती कि उन्हें भी सम्पत्ति में हिस्सा मिले। वो चाहती है सिर्फ़ -
"मैं हूँ दो घरों का मान और सम्मान।।
दो मुझे सिर्फ़ इज़्ज़त, न दो धन-दौलत और मकान।।"

शिक्षक 

हम 21वीं शताब्दी के भारतीय होने पर गर्व करते हैं जो एक बेटा पैदा होने पर ख़ुशी का जश्न मनाते हैं और यदि एक बेटी का जन्म हो जाए तो शांत हो जाते हैं। लड़के के लिए इतना प्यार कि लड़कों के जन्म की चाह में हम प्राचीन काल से ही लड़कियों को जन्म के समय या जन्म से पूर्व मारते आ रहे हैं। यदि सौभाग्य से वो नहीं मारी जाती है तो हम जीवनभर उसके साथ भेदभाव [करने] के अनेकों तरीक़े ढूँढ लेते हैं। हालाँकि हमारे धार्मिक विचार औरत को देवी का स्वरूप मानते हैं लेकिन हम उसे इंसान के रूप में पहचानने से मना कर देते हैं। हम देवी पूजा करते हैं, पर लड़कियों का शोषण करते हैं। जहाँ तक कि महिलाओं के संबंध में हमारे दृष्टिकोण का सवाल है, तो हम दोहरे मानकों का एक ऐसा समाज हैं जहाँ हमारे विचार और उपदेश हमारे कार्यों से अलग हैं। 
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त "अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी" कहकर सहानुभूति रखने की प्रेरणा देते हैं तो कामायनी के रचनाकार जयशंकर प्रसाद जी ने "नारी केवल तुम श्रद्धा हो" कहकर नारी को श्रद्धेय बताया है। 
लड़की को बचपन से शिक्षित करना अभी-भी एक बुरा निवेश माना जाता है क्योंकि एक दिन उसकी शादी होगी और उसे पिता का घर छोड़कर दूसरे घर जाना पड़ेगा। सिर्फ़ शिक्षा के क्षेत्र में नहीं बल्कि परिवार, खाने की आदतों के मामलों में भी वो केवल लड़का ही होता है जिसे सभी प्रकार का पौष्टिक व स्वादिष्ट, पसंदीदा भोजन प्राप्त होता है। 
अतः उपर्युक्त विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि महिलाओं के साथ असमानता और भेदभाव का व्यवहार समाज में, घर में और घर के बाहर विभिन्न स्तरों पर किया जाता है। लड़कियों को सरकारी स्कूल व लड़कों को बढ़िया-से-बढ़िया [महँगे?] प्राइवेट स्कूल भेजने की सोच उसी दोहरी मानसिकता को दर्शाती है। 
महिलायें शादी के बाद भी अपने मन की कुछ नहीं कर सकती हैं। न जाने वो शादी के बाद कितने अरमानों व इच्छाओं का गला दबाते हुए हँसती हैं व ख़ुश रहने का स्वाँग रचती हैं। वास्तव में देखा जाए तो [औरत] जन्म से लेकर मृत्यु प्राप्त होने तक हर पल समझौता [करती है तथा], क़ुर्बानी व दूसरों को ख़ुशी देती रहती है।      

ऊपर तीन शिक्षिकाओं व एक शिक्षक ने जो विचार व्यक्त किये हैं वो हमें कुछ सोचने व सवाल खड़े करने के लिए भी मजबूर करते हैं। जैसे -
शिक्षक होने के नाते हम यह समझते हैं कि लैंगिक विभाजन कोई प्राकृतिक या नैसर्गिक घटना नहीं है, बल्कि इसके लिए बचपन का पालन-पोषण और सामाजीकरण ज़िम्मेदार है। लेकिन ख़ुद हमारे स्कूलों में ही इस लैंगिक विभाजन के बारे में कितनी बात होती है या इसपर कितने सवाल खड़े किये जाते हैं या कितने प्रगतिशील उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं? कक्षाओं में छात्र-छात्राओं के बैठने, उनकी दोस्तियों को लेकर; सांस्कृतिक कार्यक्रमों, खेल-कूद में भागीदारी को लेकर; इन कार्यक्रमों के स्वरूप को लेकर (उदाहरण के लिए, शामिल किये गए गीतों के बोल); त्योहारों के बारे में चर्चा, लेखन को लेकर आदि। कहीं हमारे स्कूल भी इस विभाजन को मज़बूत नहीं कर रहे?
हम यह भी समझते हैं कि कहीं-न-कहीं यह विभाजन असल में महिलाओं के सस्ते श्रम के शोषण का रूप है और इसे बढ़ाने का काम करता है। इस तरह यह परिवार से लेकर वृहद अर्थ-व्यवस्था तक एक भूमिका निभाता है जिसमें एक के काम की क़ीमत जितनी भी है, दूसरे के उसी काम की क़ीमत उससे कम या नाममात्र की है। ऐसे में हम स्कूलों में थोपे जा रहे वोकेशनल विषयों के अंजाम को किस तरह देखें क्योंकि इनमें भी एक लैंगिक विभाजन साफ़ दिखाई देता है? यानी जो अबतक 'स्कूल-के-बाहर' के जगत की बुराई थी वो स्कूलों में ससम्मानित स्थान पा रही है। ऐसे में स्कूलों की परिवर्तनकामी भूमिका के विचार को कैसे ज़िंदा रखें? फिर, अलग-अलग मौक़ों पर छात्र-छात्राओं के समक्ष बात करते हुए हम किसे किन कामों के उदाहरण देते हैं और किन-के नहीं देते? 
मान को उचित तरजीह देना भी ज़रूरी है लेकिन जब इसके लिए बाक़ी अधिकारों को, बराबरी की माँग को छोड़ने के लिए मजबूर किया जाए तो उसे सम्मान कहेंगे या छल-कपट? क्या हम देवी या गुड़िया बनकर पूजे जाना, लाड़ पाना चाहते हैं, भले ही इसके लिए हमें एक चारदीवारी में क़ैद रहना पड़े, निर्जीव मुस्कान प्रदर्शित करनी पड़े? सम्पत्ति का हक़ तो भारतीय संविधान प्रदत्त अधिकार है, किसी की दया या ख़ैरात नहीं जो हम इसके लिए किसी का एहसान मानें या संकोच करें। फिर आज समाज को बराबरी के इस मुक़ाम तक पहुँचाने में कई पीढ़ियों की महिलाओं ने आंदोलन लड़े हैं, क़ुर्बानियाँ दी हैं; भले ही हमें व्यक्तिगत रूप से इस विषय में कुछ भी फ़ैसला करना हो, हम औरतों के सम्पत्ति के हक़ को हल्के में नकारकर उनके संघर्ष को अपमानित नहीं कर सकते। अगर कल हमें भी यही कहकर कम वेतन पर संतोष करने के लिए कह दिया जाए कि हमें मुआवज़े में मान-सम्मान मिलेगा, तो हममें से कितने ख़ुशी-ख़ुशी नौकरी करते रहेंगे?
नारी के प्रति चिंता दिखाने में क्यों हम घर की मिल्कियत को पति या पिता तक सीमित कर देते हैं? क्या इससे औरत के वजूद की, उसके श्रम की अनदेखी नहीं होती, उसका तिरस्कार नहीं होता? यह हमारी संस्कृति के संकीर्ण और अप्रतिनिधिक होने का ही संकेत है कि बहुत सद्दोश्य होने पर भी हमें राष्ट्रकवियों की पुरुषोक्त सहानुभूति की पंक्तियाँ याद आती हैं क्योंकि वो ही हमें बचपन से जवानी तक श्रेष्ठ साहित्य के नाम पर पढ़ाई गई हैं। कहाँ हैं हमारे पाठ्यक्रमों में, किताबों में, दैनिक सभाओं में, विशेष कार्यक्रमों पर, महिलाओं की अपनी आवाज़, अपनी रचनाएँ? जिनमें दुख है, व्यथा है, तो हँसी-खिलखिलाहट भी है, बहनापे का उल्लास, उसकी ताक़त भी है, ग़ुस्सा है, प्रतिकर है, विश्लेषण है, संघर्ष तथा आंदोलन के रास्ते हैं। 
स्कूलों में भी हमें उपरोक्त सभी चुनौतियों से लगातार जूझना पड़ता है, तभी जाकर हम अपने शिक्षक होने की भूमिका को अर्थ दे पाते हैं। ज़रूरत ये है कि हम इन चुनौतियों से मिलकर जूझें, एक-दूसरे के साथ मिलकर इन सवालों के जवाब तलाशें और गढ़ें।

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