क़रीब 6 महीने पहले दिल्ली के एक सार्वजनिक स्कूल
में पढ़ने वाली कक्षा 4 की एक छात्रा ने स्कूल से घर लौटकर अपनी माँ से कहा कि वह अगले दिन से स्कूल नहीं जाएगी क्योंकि उसके प्रिंसिपल उसे छूते हैं
और उसे अच्छा नहीं लगता| माँ ने अगले दिन स्कूल में शिकायत की और एक-के-बाद-एक कुछ और छात्राओं ने भी प्रिंसिपल की ग़लत हरकतें गिनवाईं| स्थानीय कार्यकर्ताओं, दिल्ली महिला आयोग, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग, स्थानीय विधायक आदि के हस्तक्षेप के चलते 2 महीने बाद एफ़आईआर दर्ज हुई और पुलिस ने प्रिंसिपल को पोक्सो (POCSO) कानून के तहत गिरफ़्तार किया|
बच्चों के साथ होने वाली यौन हिंसा उनके वर्ग और जाति से अछूती
नहीं है। न्याय के लिए प्रशासन और अदालतों के चक्कर लगाने पड़ते हैं, जिसकी क्षमता पीड़िताओं की आर्थिक-सामाजिक हैसियत पर निर्भर करती है| उपरोक्त केस में भी एक पीड़िता बच्ची का स्कूल व शहर छूट गया है तथा बाक़ी छात्राओं के ऊपर इस पूरी घटना के जो मानसिक और
शारीरिक असर हुए व भविष्य में होंगे
उन्हें समझ पाना तो दूर की बात है। मीडिया की गंभीरता भी इस बात पर निर्भर करती है
कि घटना किसी
नामी प्राइवेट स्कूल में घटी है
या सरकारी स्कूल में|
हाल में मीडिया में स्कूलों
में घटी बाल यौन हिंसा की कई रपटें सामने आई हैं; जैसे - हिमाचल प्रदेश के
चंबा में एक दसवीं कक्षा की छात्रा का शिक्षक द्वारा फ़ेल करने की धमकी देकर 1 साल तक बलात्कार; दिल्ली में दृष्टि-बाधित बच्चों के एक स्कूल में दान देने
वाले विदेशी व्यक्ति द्वारा 3 छात्रों का यौन शोषण; गुड़गाँव के एक बड़े प्राइवेट
स्कूल में 7 वर्षीय छात्र के साथ यौन हिंसा की कोशिश और
हत्या आदि|
इन घटनाओं ने ‘बाल यौन हिंसा’ पर प्रशासन, मीडिया और लोगों का ध्यान तो खींचा लेकिन ज़्यादातर प्रतिक्रियाएँ असली समस्या
से जूझने के बजाय ‘सुरक्षा’
का भ्रम पैदा करती हैं| उदाहरण के लिए, इनमें स्कूलों में लैंगिक संवेदनशीलता बढ़ाने, क़ानूनसम्मत समितियाँ खड़ी करने व उनकी जानकारी फैलाने जैसे उपायों का ज़िक्र नहीं
आया है।
सुरक्षा के नाम पर सबसे ज़्यादा ज़ोर सीसीटीवी पर दिया जा रहा है| इस पर इतनी सहमति इसलिए भी है क्योंकि सीसीटीवी लगाने में कोई सामाजिक-राजनैतिक मेहनत नहीं है – एक तरह से, जनता के पैसे को प्राइवेट
कंपनियों को मुनाफ़ा पहुँचाने के लिए ख़र्च करना है| क्या गारंटी है कि ‘बच्चों की सुरक्षा’ के नाम पर लगे इन कैमरों का इस्तेमाल प्रशासन द्वारा शिक्षकों को प्रताड़ित करने के लिए नहीं किया जाएगा या बच्चों व शिक्षकों की रिकॉर्डिंग का दुरुपयोग नहीं होगा? इससे सीखने-सिखाने के माहौल पर विपरीत असर
पड़ेगा| यह विचार भी कि स्कूल में नौकरी देने से पहले
किसी व्यक्ति का साइकोमेट्रिक टेस्ट लेकर यह जाँच की जाए कि वह आगे चलकर बच्चों का शोषण तो नहीं
करेगा, बौद्धिक दरिद्रता दर्शाता है। जिस चीज़ की वैधता को लेकर ख़ुद मनोविज्ञान में विवाद है उस पर आँख मूँदकर विश्वास करना कितना सही है? छात्राओं के स्कूलों में पुरुष शिक्षकों को न रखने की नीति भी भले ही छात्राओं
की सुरक्षा का आसान तरीक़ा प्रतीत होता हो, लेकिन क्या
सभी पुरुष शिक्षकों पर
संदेह करना अन्यायपूर्ण नहीं है? ये सभी प्रस्ताव सरकार द्वारा अपना पल्ला झाड़ने
के लिए, सनसनी के पीछे भागते मीडिया को ख़ुश करने के लिए और बिना संवाद किए उठाए गए क़दम हैं| क्या एक जेल,
होटल और स्कूल के सुरक्षा
इंतज़ामों में कोई फ़र्क़ नहीं होना चाहिए?
बच्चों की
असुरक्षा उस आर्थिक नीति से
भी जुड़ी है जिसके तहत एक तरफ़ सार्वजनिक स्कूलों में पदों पर नियमित भर्तियाँ नहीं की जातीं और दूसरी तरफ़ शिक्षा को मुनाफ़ाख़ोर निजी मैनेजमेंट के हवाले कर दिया जाता है| स्कूलों की विभिन्न सेवाओं
को रोज़ अपने कर्मी बदलने वाली निजी संस्थाओं को आउटसोर्स करके और एनजीओ व
ख़ैराती काम करने वालों को अनुग्रहित होने की हद तक खुली छूट देकर स्कूलों के माहौल
को अनिश्चित बनाया जा रहा है।
दरअसल यौन शोषण का एक मज़बूत आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक आधार है और इस आधार पर चोट किये बिना यौन
शोषण को ख़त्म नहीं किया जा सकता| पितृसत्तात्मक समाज में यौन शोषण महिलाओं को क़ाबू में रखने का सदियों
पुराना तरीक़ा है| ऐसे समाज में महिलाओं और बच्चों को कमज़ोर वर्ग
मानकर उनकी यौनिकता का इस्तेमाल ‘वस्तु’ की तरह किया जाता है| बाल यौन शोषण के संगठित अपराध के रूप में हर साल दमित तबक़ों की लाखों बच्चियों
का वेश्यावृत्ति के व्यापार में धकेल दिया जाना भी हमारे समाज की
एक हक़ीक़त है।
सुरक्षा के नाम पर बचपन से ही छात्राओं को पहरेदारी की सौग़ात मिलती है। बाक़ी समाज की तरह स्कूलों में भी लड़कियों को लड़कों
से कहीं अधिक अनुशासनात्मक पाबंदी में रखा जाता है|
स्कूलों में बच्चों के ऊपर कई प्रकार की हिंसा
मौजूद है और इन सबमें एक निरंतरता है;
जैसे बच्चों के धर्म, संस्कृति, आर्थिक स्थिति, जाति, लिंग व परिवार आदि पर टिप्पणियाँ करना, उनकी 'भलाई' के नाम पर उन्हें डाँटना-मारना आदि| हमें यह जानने की मेहनत करनी होगी कि बच्चों के अपने तर्क और अनुभव क्या हैं, उनके डर और सपने क्या हैं, उन्हें कब अपमानित और कब सुरक्षित लगता है, नहीं तो हम किसी तानाशाह की तरह केवल उनके हितैषी होने का दम भरते रह जायेंगे|
हम अपील करते हैं कि.......
·
बाल यौन शोषण की किसी भी घटना को नज़रंदाज़ न करें और न्यायसम्मत क़दम उठायें।
·
कक्षाओं में लोकतांत्रिक माहौल का निर्माण करें
ताकि विद्यार्थी अपने ख़िलाफ़ हुए शोषण को खुलकर साझा कर पाएँ।
·
आपसी व्यवहार में व विद्यार्थियों के बीच महिला-विरोधी संस्कृति का पुरज़ोर विरोध करें|
·
पोक्सो (POCSO 2012) और महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक
उत्पीड़न (2013) जैसे क़ानूनों पर अपनी जागरूकता बढ़ाएँ और विभाग पर दबाव बनाएँ कि स्कूलों में इनके प्रावधान लागू किए जाएँ|
·
स्कूलों में सभी पदों पर नियमित भर्तियों के लिये संघर्ष करें और निजीकरण-एनजीओकरण का विरोध करें|
लोक शिक्षक मंच
संपर्क: 9911612445, 8527250490
ईमेल: lokshikshakmanch@gmail.com
ब्लॉग: lokshikshakmanch.blogspot.in
अक्टूबर 2017
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