हाल
में
दिल्ली
शिक्षा
मंत्रालय
ने
अपनी
सारी
जान
स्कूलों
में
मिशन
बुनियाद
चलाने
में
लगाई
| यह
एक
ऐसा
कार्यक्रम
है
जो
कहता
है
कि
30 जून
2018 तक
कक्षा
3 - 9 के
प्रत्येक
विद्यार्थी
को हिंदी में सरल कहानी पढ़ना, 1-2 वाक्य
लिखना
और
गणित
में
घटा
व
भाग
के
सवाल
हल
करना
आ
जाएगा
| 30 जून तक हर स्कूल को लिखित में certify करना
होगा
कि
उसका
हर
विद्यार्थी
यह
कर
पा
रहा
है
| और
अगर
किसी
स्कूल
में
ऐसा
नहीं
हुआ
तो
उसके प्रधानाचार्य और
शिक्षक
जवाबदेह
होंगे
कि
ऐसा
क्यों
नहीं
हो
पाया
तो
इसमें
समस्या
क्या
है? अगर
प्रत्येक
विद्यार्थी
हिंदी
पढ़ना-लिखना
सीख
जाए
और
घटा-भाग
कर
पाए
तो
इसमें
समस्या
क्या
है?
पहली
समस्या:
मिशन
बुनियाद
‘शिक्षा की
बुनियाद’
कमज़ोर
करता
है
मिशन
बुनियाद
की
रूप
रेखा
तैयार
करने
वालों
ने
यह
कैसे
तय
किया
कि
मौलिक
कौशल
केवल
‘भाषा
और
गणित’ में
तय
होने
चाहिए? उन्होंने
यह
किस
आधार
पर
तय
किया
कि
‘भाग
कर
पाना’ गणित
का
अंतिम
टेस्ट
है? इसके
पीछे
कौन-सी
रिसर्च
है
कि
हल्की-फुल्की
कहानियाँ
पढ़ाना
हिंदी
सिखाने
का
बढ़िया
तरीका
है?
उनके
पास
क्या
अनुभव
है
कि
बच्चे
बिना
हिंदी
लिखे
पर्यावरण
या
इतिहास
का
बोध
विकसित
नहीं
कर
सकते?
अगर
हम
मिशन
बुनियाद
के
तहत
आईं
हिंदी
की
कहानियों
का
विश्लेषण
करें
तो
पाएंगे
कि
ये
1-2 पन्नों
के
अनुच्छेद
‘कहानी’
कहलाने
के
लायक
नहीं
हैं
| अपने
विद्यार्थियों
को
पढ़ाने
से
पहले
हमें
स्वयं
इन
कहानियों
का
विश्लेषण
करने
की
ज़रुरत
है
| क्या
साहित्य
में
कहानी
के
कुछ
मानक
होते
हैं?
अगर
हाँ,
तो
क्या
‘प्रथम’
की
ये
कहानियाँ
उन
मानकों
पर
खरी
उतरती
हैं?
ये
कहानियाँ
संदर्भविहीन
हैं
जिनमें
एक
झूठी
चमक,
मुस्कराहट
पैदा
करने
की
कोशिश
की
जाती
है
| क्या
इन
कहानियों
में
सामाजिक
सच्चाई
की
झलक
मिलती
है?
अगर
ये
कहानियाँ
बच्चों
के
स्मृतिकोष
नहीं
बढाएंगी
तो
ये
खोखली
और
बनावटी
हैं
| हमें
अपने
अनुभव
से
याद
करना
होगा
कि
जीवन
में
श्रेष्ठ
साहित्य
का
क्या
महत्व
है
|
इन
कहानियों
से
क्या
मूल्य
निकलते
हैं?
क्या
ऐसी
कहानियां
पढ़कर
हमारे
विद्यार्थी
सामाजिक
सच्चाई
को
समझने
और
व्यक्त
करने
के
औज़ार
विकसित
कर
पाएंगे
? क्या
ऐसी
सामग्री
उन्हें
उच्चस्तरीय
चिन्तन
और
संवाद
करने
में
मदद
करेगी
? कोई
पाठ
धाराप्रवाह
पढ़ने
का
यह
अर्थ
नहीं
होता
कि
उस
पाठ
का
बोध
भी
हो
जाए
| क्या
घटिया
सामग्री
पढ़ाकर
हम
अपने
विद्यार्थियों
में
साहित्य
के
प्रति
रूचि
जगा
सकते
हैं
? बल्कि
ऐसा
करके
तो
हम
अपने
विद्यार्थियों
को
गहरी
सामग्री
पढ़ने
की
आदत
से
दूर
ले
जाएंगे
| अगर
साथ
में
विज्ञान,
सामाजिक
विज्ञान,
खेल,
कला
की
शिक्षा
चलती
रहती
तो
कौन-सा
समय
निकल
जाता?
सरकार
को
किसको
आंकड़ें
पूरे
करके
दिखाने
थे?
हमें
खोजना
होगा
कि
प्रथम
NGO और
NCERT द्वारा
कहानियों
की
छंटाई
करने
में
क्या
फ़र्क
है
| हर
विषय
का
एक
शिक्षादर्शन
होता
है
जो
उस
विषय
की
पाठ्यचर्या
का
आधार
होता
है
| प्रथम
की
इन
किताबों
का
कोई
शिक्षा
दर्शन
नहीं
है
|
बार-बार
यह
दोहरा
कर
कि
बच्चों
को
कुछ
नहीं
आता
हम
उन्हें
घटिया
शिक्षा
नहीं
परोस
सकते
| शिक्षा
को
नीचे
गिराकर
ऊँचे
अकादमिक
उद्देश्य
नहीं
पा
सकते
| हमारा
यह
सोचना
कि
ऐसी
किताबें
मात्र
2 महीने
पढ़ानी
हैं
हमारी
भूल
होगी
| पिछले
2 सालों
से
हम
प्रगति
की
किताबें
पढ़ा
रहे
हैं
और
आगे
भी
किसी-न-किसी
रूप
में
पढ़ाते
रहेंगे
| केवल
सरल
भाषा
हो
जाने
से
किताब
अच्छी
नहीं
हो
जाती
| बार-बार
यह
कहने
से
कि
सरकारी
स्कुल
के
बच्चे
पढ़
नहीं
पा
रहे
, यह
अफ़वाह
सच
में
नहीं
बदल
जायेगी
| अगर
35-40 बच्चों
की
कक्षा
में
किन्हीं
कारणवश
10-20 बच्चे
अपनी
कक्षा
की
किताब
नहीं
पढ़
पा
रहे
तो
उन
पर
विशेष
ध्यान
देने
की
आवश्यकता
है
लेकिन
उनकी
शिक्षा
के
स्तर
को
गिराकर
हम
उनका
भला
नहीं
कर
रहे
| सरकारों
को
अपने
आंकड़ें
प्रदर्शित
करने
होते
हैं
इसलिए
वे
ऐसे
ही
मानक
चुनते
हैं
जिन्हें
गिना
और
नापा
जा
सके
इसलिए
पूरी
शिक्षा
को
सरल
कहानी
और
भाग
के
प्रश्नों
में
सिकोड़
दिया
गया
है
| हमें
यह
भी
समझना
होगा
कि
ऐसी
घटिया
किस्म
की
शिक्षा
परोसने
की
योजना
में
दिल्ली
सरकार
और
MCD में
कोई
मतभेद
या
टकराव
क्यों
नहीं
है
|
दूसरी
समस्या:
मिशन
बुनियाद
बच्चों
को
अनिवार्यत:
बांटकर
पढ़ाने
की
हिमायत
करता
है
कक्षा
III – IX के विद्यार्थियों
को
नवनिष्ठा,
निष्ठा, प्रतिभा
नाम
के
समूहों
में
बाँटकर
उनकी
कक्षाओं
को
तोड़
दिया
गया
है
| यह
शिक्षा
में
जातिवाद
नहीं
तो
क्या
है
जहाँ
8 – 14 साल के बच्चों को ‘होशियार’ और
‘non readers’ में बाँट दिया गया है | सरकार
अवश्य
हर
सेमिनार
में
यह
कहे
कि
बच्चों
के
अंदर
हीन
भावना
विकसित
न
होने
दें
पर
जैसे
मंत्रियों
द्वारा
कुछ
दलितों
के
घर
खाना
खा
लेने
से
दलित
उत्पीड़न
खत्म
नहीं
हो
जाता, वैसे
ही
शब्दों
के
फ़ेर
बदल
करने
से
यह
संस्थागत
ऊँच-नीच
खत्म
नहीं
हो
जाती
|
पिछले
2-3 सालों
में
कितने
ही
बच्चे
अपने
शिक्षकों
के
सामने
गिड़गिडाएं
हैं
कि
उन्हें
निष्ठा/B
सेक्शन
में
न
डाला
जाए
| उन्होंने
अपने
शिक्षकों
से
धमकियाँ
सुनी
हैं
कि
तुम्हें
‘निष्ठा’ में
डाल
देंगे
| बच्चों
के
मनोविज्ञान
पर
इससे
जो
क्षति
पहुंची
होगी
उसे
अभी
लम्बे
समय
तक
नहीं
समझा
जा
सकता
| कहाँ
गया
वो
शिक्षा
दर्शन
जो
कहता
था
कि
बच्चे
एक
दुसरे
से
सीखते
हैं, शिक्षा
समतामूलक
होनी
चाहिए
? बच्चों को बाँट कर पढ़ाना उनके बीच ऊँच-नीच पैदा करने से कम नहीं है |
और
तो
और
PTM को
भी
सरकारी
प्रचार
का
प्लेटफार्म
बना
दिया
गया
है
जिसमें
हम
अभिभावकों
को
मिशन
बुनियाद, आधार
संख्या, GST, छोटी
बच्चियों
के
लिए
प्रोविडेंट
फण्ड
आदि
सरकारी
कार्यक्रम
बेच
रहे
होते
हैं
| हमारे
समाज
में
आज
भी
अभिभावक
अपने
बच्चों
के
भले-बुरे
के
लिए
शिक्षक
की
सलाह
पर
विश्वास
करते
हैं
और
शायद
इसलिए
सरकारें
हमेशा
शिक्षकों
का
इस्तेमाल
सेल्सपर्सन्स
की
तरह
करना
चाहती
हैं
|
तीसरी
समस्या
: यह
‘शिक्षकों
की
बुनियाद’
को
कमज़ोर
करता
है
इस
कार्यक्रम
का
एक
असर
यह
भी
हो
रहा
है
कि
शिक्षक
उदासीन
महसूस
कर
रहे
हैं, बोर
हो
रहे
हैं
क्योंकि
उनके
काम
में
कोई
रस, कल्पनाशीलता
तथा
originality नहीं बची है | ऐसे
कार्यक्रम
विद्यार्थियों
के
साथ
शिक्षकों
को
भी
dumbify कर रहे
हैं
| हमारे
हाथों
में
ट्रेनिंग
मैन्युअल
पकड़ा
दिए
गए
हैं
और
हमारा
काम
केवल
उन्हें
कार्यान्वित
करना
है
| एक-एक
स्कूल
की
एक-एक
कक्षा
की
एक-एक
गतिविधि
पर
नज़र
रखी
जा
रही
है; यह
सुनिश्चित
किया
जा
रहा
है
कि
किस
कक्षा
में, किस
दिन, क्या, कितना
तथा
कैसे
पढ़ाया
जाए
| निरीक्षण
का
ऐसा
भय
बिठा
दिया
गया
है
कि
शिक्षक
आकाओं
को
खुश
करने
वाले
बने-बनाए
प्लान
कॉपी-पेस्ट
करने
में
लगे
हैं
|
दुनियाभर
में
एनजीओ
यह
साबित
करने
में
लगे
हैं
कि
स्कूलों
में
DIET, B.El.Ed., B.Ed. आदि कोर्स पढ़कर आए शिक्षकों की नहीं बल्कि ऐसे कर्मचारियों की
ज़रुरत
है
जो
उनके
बनाए
lesson plans deliver कर सकें | एक
दिन
वे
यह
भी
साबित
करेंगे
कि
उनके
action plans इतने फूलप्रूफ हैं कि होटल या बैंक कर्मचारी भी कक्षाओं में कार्यान्वित कर
सकते
हैं
| इसलिए
शिक्षक
कोई
ऐसा
विशेष
मानसिक
श्रम
नहीं
कर
रहे
जिसके
लिए
उन्हें
ज़्यादा
तनख्वाहें
दी
जाएं|
‘बुनियाद’ में
प्रदर्शन
के
आधार
पर
ACR में
प्रविष्टियाँ
दर्ज
करने
और
शिक्षक
दिवस
पर
पुरस्कृत
किये
जाने
की
बात
करना
ऐसे
प्रायोजित
कार्यक्रमों
की
मक्कारी
उजागर
करता
है
| यह
मैच
फिक्स्ड
है| अगर
आप
इस
मॉड्यूल
से
सिखा
नहीं
पाते
हैं
तो
आपके
प्रयास
में
कमी
है
और
अगर
सिखा
देते
हैं
तो
यह
मॉड्यूल
की
सफलता
है
और
फिर
शिक्षा
व
शिक्षकों
की
क़ब्र
खोदने
के
लिए
देशभर
में
इसका
प्रचार-प्रसार
किया
जायेगाI
हमें
भुला
दिया
गया
है
कि
शिक्षक
के
उद्देश्य
कक्षानुसार
या
उससे
भी
ऊपर
होने
चाहियें
| आज
हम
यह
सोच
कर
जश्न
मनाने
लगे
हैं
कि
मेरे
बच्चों
को
‘भाग’
आ
गया
| ये
तो
कभी
भी
हमारे
मानक
नहीं
थे
! यह
हमारी
शब्दावली
और
सोच
पर
गहरी
चोट
छोड़
देने
वाला
प्रहार
है
| हमें
भुला
दिया
गया
है
कि
सीखना-सिखाना
एक
जटिल
प्रक्रिया
है
जो
फ़ास्ट-फॉरवर्ड
नहीं
की
जा
सकती
|
हमारे
बीच
कुछ
शिक्षक
बीमार
हो
रहे
हैं,
स्ट्रेस
में
हैं
क्योंकि
उनके
सामने
8-9 साल
के
ऐसे
बच्चे
भी
हैं
जो
विभिन्न
कारणों
से
कक्षानुसार
नहीं
सीख
पाएं
; अनुपस्थिति,
विशेष
ज़रूरतों
वाले
बच्चे,
अपनी
दुनिया
में
मस्त
रहने
वाले
बच्चे
आदि
| कहा
जाता
है
कि
शिक्षण
तो
ऐसा
पेशा
है
जिसमें
बच्चे
अपनी
गति
से,
समय
से
सीखते
हैं
लेकिन
मिशन
बुनियाद
इस
सच्चाई
को
नकारता
है
| इसके
अंतर्गत
बच्चों
के
बीच
व्यक्तिगत
विभेद
सराहनीय
नहीं
डरावने
तथा
अवांछनीय
हैं
| अगर
हम
शिक्षकों
को
इतना
स्ट्रेस
है
तो
बच्चों
के
मानस
पर
इसका
क्या
असर
हो
रहा
होगा
? क्या
हम
विद्यार्थियों
से
यह
पूछ
पाने
की
स्थिति
में
हैं
कि
‘क्या
वे
एक
ही
ढंग
से
एक
ही
तरह
की
कहानियाँ
पढ़
कर
बोर
हो
गए
हैं,
रोज़
एक
ही
तरह
के
प्रश्न
करके
बोर
तो
नहीं
हो
गए
?’ अगर
नहीं,
तो
हम
अपने
विद्यार्थियों
के
साथ
अपना
स्वायत्त
रिश्ता
खो
रहे
हैं
| हमारी
हालत
नोटबंदी
के
दौरान
उन
बैंक
कर्मचारियों
की
तरह
हो
गयी
है,
जिन्हें
बैंकिंग
के
अलावा
सरे
अन्य
काम
करने
में
खपा
दिया
गया
था
|
अगर
कोई
शिक्षिका
अपने
विवेक
से
आपत्ति
उठाए
तो
एक
जवाब
अटल
सत्य
की
तरह
तैयार
खड़ा
है ‘हम
सरकारी
नौकर
हैं
इसलिए
आँख
बंद
करके
आदेशों
का
पालन
करना
होगा
| अगर
निरीक्षण
हुआ
तो
आपका
काम
नहीं
आपका
आज्ञापालन
जांचा
जाएगा’ | ऐसे
गुलाम
शिक्षकों
के
बच्चे
क्या
आज़ाद
परिंदे
हो
सकते
हैं? ऐसे
डरे
हुए
शिक्षक
क्या
कक्षा
में
बच्चों
को
भयमुक्त
माहौल
दे
सकते
हैं?
चौथी
समस्या
: मिशन
बुनियाद
अत्यधिक
केन्द्रीकरण और निगरानी पर आधारित है
जैसे अंग्रेजों ने अपनी नीतियाँ सफल
बनाने के लिए वफ़ादार ज़मींदारों की फ़ौज खड़ी की थी, वैसे ही दिल्ली सरकार ने अपनी नीतियाँ
सफ़ल बनाने के लिए मेंटर टीचर्स और TDC आदि की फ़ौज खड़ी की है जिनसे अपेक्षित
है सूक्ष्म निगरानी रखना, योजनाओं को लागू करवाना, शिक्षकों के व्यवहार को संचालित करना,
आकाओं का डर बिठाना आदि |
अगर कोई शिक्षिका अपने विवेक से आपत्ति
उठाए तो एक जवाब अटल सत्य की तरह तैयार खड़ा है
‘हम सरकारी नौकर हैं इसलिए आँख बंद करके आदेशों का पालन करना होगा |
अगर निरीक्षण हुआ तो आपका काम नहीं
आपका आज्ञापालन जांचा जाएगा’ | ऐसे गुलाम शिक्षकों के बच्चे क्या आज़ाद परिंदे हो सकते हैं?
ऐसे डरे हुए शिक्षक क्या कक्षा में
बच्चों को भयमुक्त माहौल दे सकते हैं?
अक्सर यह सुनने में आता है कि बहुत से
शिक्षक अपने काम को लेकर ईमानदार नहीं हैं, ठीक से पढ़ाते नहीं है और उनकी वजह से
ऐसे कार्यक्रम शुरू करने पड़ते हैं | पर सवाल यह उठता है कि कामचोर लोग तो
हर पेशे में होते हैं; नेता, प्रशासक, डॉक्टर आदि तो क्या उन्हें केंद्र में रखकर पेशे के उद्देश्य दोयम
दर्जे के बनाना सही है? क्या इसकी कल्पना भी की जा सकती है कि शिक्षित-प्रशिक्षित डॉक्टरों को कोई एनजीओ यह
बताये कि वो इलाज कैसे करें? तो फिर हम प्रशिक्षित शिक्षकों को क्यों ये एनजीओ बताने पर तुले हैं
कि कैसे पढ़ाएँ?
जैसे पितृसत्ता व सामंती ताक़तें
बलात्कार की पीड़िता को ही दोष देती हैं, उसी तर्ज पर यह संदेश दिया जा रहा है
कि अगर बच्चे नहीं सीख पा रहे हैं तो यह उनका दोष है और अगर शिक्षक सिखा नहीं पा
रहे हैं तो यह उनकी कमी हैI इसमें व्यवस्था की ख़ामियों, भाषाई भेदभाव,
आर्थिक असमानता जैसी चुनौतियों को
सत्ता की सहूलियत के लिए विश्लेषण से दोषमुक्त कर दिया जाता हैI
पांचवी
समस्या
: समानांतर संस्थाएं खड़ी करना
आख़िर ‘प्रथम’ की
शैक्षिक योग्यता क्या है और फिर अगर ऐसी संस्थाओं के आसरे ही शिक्षा नीति तैयार
करनी है तो फिर NCERT,
SCERT जैसे समर्पित अकादमिक संस्थानों का
औचित्य ही क्या रह जाता है? इस
दौर में सरकारें ऑटोनोमस संस्थाओं को कमज़ोर कर, बिना वैधानिक अथवा अकादमिक रूप से अनिवार्य प्रक्रियायें अपनाए अपनी
विचारधारा के तहत शिक्षा को तोड़ने-मोड़ने का काम कर रही हैं | देश-भर में कहीं इतिहास की किताबें
बदली जा रही हैं,
कहीं व्यक्ति का महिमामंडल करती
प्राइवेट पब्लिशर की किताबें अनिवार्य की जा रही हैं, कहीं शिक्षा दर्शन का मज़ाक उड़ातीं प्रगति
किताबें पढ़वाई जा रही हैं | आज
PPP
मात्र स्कूल-कॉलेज की इमारतें बनाने, उनमें ‘सुविधाएं’ देने
या ठेके पर नौकरियाँ देने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इस मक्कारी ने शिक्षा की आत्मा - पाठ्यचर्या - पर भी अपने पंजे
गड़ा दिए हैं|
क्या सरकार को ये सब नहीं पता ?
दरअसल इन सब निर्णयों के पीछे न तो कोई
शिक्षा दर्शन है,
न कोई रिसर्च और न ही शिक्षाविद्द
अनुभव |
यह एजेंडा भारत या दिल्ली सरकार ने
नहीं वैश्विक पूंजीवादी संस्थाओं ने बहुत पहले ही तय कर दिया था | नवउदारवादी दौर में सरकारें इन
संस्थाओं की एजेंट मात्र बनकर काम कर रही हैं |
विश्व बैंक ने 1980 के दशक में ही यह
तय करके विभिन्न देशों की सरकारों को बताना शुरू कर दिया था कि उसे जो सस्ते मज़दूर
चाहिए उन्हें इतनी भाषा आती हो कि वे मालिकों के दिशानिर्देश समझ पाएं, जिस तरफ बताया जाए उस तरफ़ मशीन के
पुर्ज़े घुमा सकें,
विज्ञापनों में जो बेचा जाए उसे समझ
सकें |
ऐसी संस्थाओं ने भारत जैसे देशों पर
कर्ज़े चढ़ाकर और यहाँ के मालिकों से हाथ मिलाकर यह तय किया कि ऐसे ‘साक्षर लेकिन अशिक्षित मज़दूर’ तैयार करने का काम स्कूलों को दिया जाए, विशेषकर सरकारी स्कूलों को जहाँ
मजदूरों व छोटे किसानों के बच्चे पढ़ते हैं, जो बिना प्रश्न उठाए काम करते जाएं| |
वे चाहते हैं कि भाषा को संदर्भविहीन
करके पढाया जाए जिसका सीधा-सीधा मतलब है भाषा की शिक्षा से’ ज्ञान और चिंतन’ खत्म
कर देना|
यह शिक्षा नहीं, प्रति-शिक्षा है; कौश्लीकरण नहीं अकुशल बनाना है; सोचने-समझने वाले दिमागों को खाली
बर्तनों में तब्दील करना है| शिक्षा
के उद्देश्यों को हल्का करके स्कूलों को मात्र साक्षरता/ट्यूशन केंद्र बनाना है |
चाहे
पूर्व-आधुनिक
काल
हो
या
औपनिवेशिक
काल
शासक
वर्ग
हमेशा
शिक्षा
के
उद्देश्यों
को
अपने
फ़ायदे
के
अनुसार
तय
करता
है
| ब्राह्मणों
ने
कहा
उनके
अलावा
कोई
वेद
नहीं
सीख
सकता, अंग्रेज़ों
ने
कहा
हिन्दुस्तानी
क्लर्कगिरी
से
ज़्यादा
कुछ
नहीं
सीख
सकते
और
अब
नव
उदारवादी
सरकारें
यह
साबित
करने
में
लगी
हैं
कि
ये
मज़दूरों
के
बच्चे
जो
सरकारी
स्कूलों
में
पढ़
रहे
हैं, सरल
हिंदी
और
गणित
से
ज़्यादा
कुछ
नहीं
सीख
सकते
| दिल्ली सरकार ने जिन संस्थाओं के साथ
क़रार किया है उनमें प्रथम, टीच
फ़ॉर इंडिया और सेंटर स्क्वायर फाउंडेशन शामिल हैं I इनके दस्तावेज़ व कार्यक्रम ख़ुद बयान करते हैं कि इनके वैचारिक व
वित्तीय तार वैश्विक पूँजी के हितों से जुड़े हैं I
आज सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के
बच्चों के लिए शिक्षा के उद्देश्य बदल चुके हैं| बड़े,
प्राइवेट स्कूलों के बच्चों को
उच्चशिक्षा के ज़रिये वाइट कॉलर नौकरियां करनी हैं, जबकि सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को सस्ते, अनुशासित श्रमिक बनाना है|चाहे वो किताबों के पाठ काटकर कोर्स
आधा करना हो,
मौलिक कौशल के नाम पर कोर्स हल्का करना
हो या फिर सरकारी स्कूलों के बच्चों पर जबरन वोकेशनल कोर्स थोपना हो, इन सबका उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से
ग़ैर-बराबरी बनाये रखना हैI
इस फैक्ट्री व्यवस्था में 30 जून तक हर
बच्चे को मशीन से तय माल की तरह तैयार होकर निकालना है | अगर हम मिशन बुनियाद को
शिक्षा के लिए ख़तरनाक मानते हैं तो हमें इसे नकारने के लिए रचनात्मक और सशक्त
तरीके ढूँढने होंगे| हमें याद करना होगा कि जोतिबा फूले, सावित्री बाई, गिजूभाई, रबिन्द्रनाथ टैगोर, अम्बेडकर, भगत सिंह, गांधी, पॉल फ्रेरे, जॉन टेलर जैसे चिंतकों ने शिक्षा से किस ज़िम्मेदारी की उम्मीद की थी ? हमें रेखांकित करने की ज़रूरत है कि शिक्षा क्या है और क्या नहीं |
मिशन बुनियाद और केंद्र और दिल्ली सरकार की अन्य शिक्षा विरोधी
नीतियों के खिलाफ अभियान जारी रहेगा | कृपया अपने विचार/टिप्पणियाँ साझा करके इस
आलोचना को और मज़बूत करने में हमारी मदद करें |
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