देशभर के स्कूलों में चलाए जाने वाले राष्ट्रीय MR (measles – rubella) टीकाकरण अभियान को लेकर कुछ शंकाओं पर बातचीत करने के लिए कुछ शिक्षक साथी कुछ माह पूर्व एक डॉक्टर से मिलने गए थे| वे बच्चों के इलाज के विशेषज्ञ (pediatrician) हैं और टीकाकरण पर भी उनका लंबा शोध-अध्ययन रहा है। उनसे हुई बातचीत के आधार पर हम चिंता के निम्नलिखित बिंदु व सवाल साझा कर रहे हैं -
1. नैतिक और कानूनी दोनों ही रूप से अभिभावकों को अपने बच्चों को यह टीका लगवाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता| उन्होंने Parental consent पर ज़ोर दिया|
हम यह जानते हैं कि अभिभावकों और शिक्षक साथियों से consent लेना मात्र एक औपचारिकता बनकर रह गया है । अत: ज़रूरी है कि informed consent के निर्माण के लिए हम अपनी भूमिका निभाएं| अगर निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों से consent फॉर्म भरवाए जाते हैं तो क्या फिर सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों से यह औपचारिकता भी नहीं निभाई जाएगी?
2. अगर शिशु सुरक्षा की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के तहत measles वैक्सीन सभी बच्चों को पहले ही दी जा चुकी है तो measles वैक्सीन के इस dose की क्या ज़रूरत है? क्योंकि rubella के साधारण बीमारी होने की वजह से शुद्ध मेडिकल आधार पर इस का यूनिवर्सल टीकाकरण करने के लिए पर्याप्त कारण नहीं हैं, तो क्या फिर इसलिए इस वैक्सीन को measles के साथ जोड़कर दिया जा रहा है?
3. उनके अनुसार rubella एक ऐसी साधारण बीमारी है जिसमें ज़ुकाम, बुख़ार, rash आदि होता है; यहाँ तक कि कई दफ़ा आपको पता भी नहीं लगेगा कि आपको यह हुआ हैI बचपन में लगभग सभी को यह होता है और इसका होना अच्छा है क्योंकि इसके प्राकृतिक रूप से फैलने से शरीर इससे लड़ने के लिए पर्याप्त प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेता है|
4. अगर बचपन में यह बीमारी न हो और इसके खिलाफ़ प्रतिरोधक क्षमता विकसित न हो तो गर्भवती महिला को पहले 3 महीनों में कंजेनिटल rubella से ग्रस्त होने की संभावना हो सकती है जिससे नवजात को कंजेनिटल मोतियाबिंद (एक प्रकार का मोतियाबिन्द) हो सकता है, हालांकि इसकी सम्भावना बहुत ही न्यून है|
5. rubella भारतीय जनसंख्या में इतनी कम मात्रा में है कि इस पर कोई आंकड़े इकट्ठा करने की ज़रूरत नहीं महसूस की गई है और अपने अभियान में भी सरकार इस बीमारी के आंकड़े नहीं बता पाई है|
6. जो कीटाणु अब तक प्राकृतिक रूप से फैलते थे उनके खिलाफ़ हमारे शरीर खुद-ब-खुद प्रतिरोधक क्षमता भी विकसित करते थे; इस टीके के कारण यह स्वत: होने वाली प्रक्रिया रुक जाएगी| तथा जो भी लोग इस टीके से छूट जायेंगे उनके लिए यह साधारण बीमारी गम्भीर रूप ले लेगी|
7. कहने का मतलब है कि rubella जैसी एक साधारण बीमारी को राष्ट्रीय अभियान के तहत टीकाकरण में समाहित करने का एक दुष्परिणाम यह होगा कि rubella के गंभीर परिणाम वाले cases बढ़ जाएंगे|
यह एक दुष्चक्र/चक्रव्यूह जैसा है|
8. डॉक्टर का कहना था कि अगर इस बीमारी से समस्या गर्भवती महिला को हो सकती है तो बेहतर यह होता कि rubella के खिलाफ़ टीकाकरण 13 साल की उम्र के बाद किया जाता ताकि प्राकृतिक बीमारी को फैलने और प्रतिरोधक क्षमता को स्वत: विकसित होने का अवसर मिल चुका होता|
(इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि एक ज़माने में measles भी एक साधारण बीमारी थी लेकिन अब नहीं रही| जब एक प्राकृतिक बीमारी खत्म होती है तो booster डोज़ की आवश्यकता भी बढ़ जाती है।)
9. सामान्यत: इस टीके के दुष्प्रभाव (side effects) नहीं होते लेकिन उत्तर प्रदेश में कुछ बच्चों ने टीके के बाद कुछ दिक्कतों की शिकायत की| और जैसा कि सामान्यत: होता है, इन तथ्यों और खबरों को दबाने की कोशिश की गई है|
10. उनका यह कहना था कि DPT , टेटनस, पोलियो जैसी ख़तरनाक बीमारियों के खिलाफ़ टीके उपयोगी (तथा सस्ते) थे लेकिन Hep B, HIB, रोटा वायरस आदि के नाम पर दिए जाने वाले टीके वैज्ञानिक ज़रूरत (sufficiently useful/essential and cost benefit assessment) पर कम खरे उतरते हैं और दवा कंपनियों के बाज़ारवादी एजेंडा का नतीजा ज़्यादा हैं| सरकार के साथ मिलकर ये कंपनियां लोगों के डर और जानकारी की कमी का फ़ायदा उठा रही हैं|
उनके साथ हुई बातचीत के अतिरिक्त शिक्षक होने के नाते हमारी एक बड़ी चिंता यह भी है कि कैसे स्कूलों को तरह-तरह के अभियानों के लिए इस्तेमाल किया जाता है|
इस वैक्सीन अभियान को सफल बनाने में जब हम शिक्षक सहायता करेंगे तो क्या हम जाने-अनजाने निजी दवा कम्पनियों के एजेंट की भूमिका नहीं निभा रहे होंगे?
टीकाकरण से जुड़ी सूचना का अधिकार अर्ज़ी - नादारद जवाब
मीज़ल्स-रुबेला टीकाकरण का दिल्ली चरण 16 जनवरी 2019 से शुरु होना था। जब इस टीका अभियान को लेकर कुछ सवाल उठने शुरु हुए और सरकार के रवैये से उन्होंने आशंकाओं का रूप ले लिया तो शिक्षा निदेशालय के एक आदेश में यह दावा किया गया इस टीकाकरण के राष्ट्रीय अभियान का हिस्सा होने के चलते इसके लिए विद्यार्थियों के अभिभावकों की सहमति लेनी ज़रूरी नहीं है। जबकि उन अभिभावकों से जिनके बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं, सहमति के हस्ताक्षर लिए गए। इस बीच विभिन्न राज्यों से टीकाकरण के बाद बच्चों के अस्वस्थ होने की छिटपुट ख़बरें आ रही थीं। इसमें NDTV पर आई एक रपट भी शामिल थी। स्कूलों को मिले पर्चे में कहा गया था कि टीके के बाद होने वाले किसी भी साइड इफ़ेक्ट (प्रतिकूल प्रभाव) के लिए मेडिकल सहायता के लिए निकट के स्वास्थ्य केंद्र उपलब्ध रहेंगे। ज़ाहिर है कि यह किसी भी प्रकार से अतिरिक्त सहायता का वायदा नहीं था और न ही, विशेषकर कई स्कूलों में बच्चों की बड़ी संख्या के संदर्भ में, किसी भी संभावित आपातकालीन परिस्थिति से निपटने के लिए पर्याप्त इंतेज़ाम।
इस सिलसले में हमने पिछले वर्ष के अंत में दिल्ली सरकार तथा केंद्र सरकार, दोनों के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालयों में सूचना अधिकार अधिनियम (2005) के तहत अर्ज़ियाँ डाली थीं। दोनों से ही निश्चित समय में जवाब प्राप्त नहीं हुए। अलबत्ता, दिल्ली सरकार के उक्त निदेशालय ने हमारी अर्ज़ी विभिन्न अस्पतालों को अग्रेषित कर दी और फिर हमें, लगभग दो महीनों की अवधि के बीच, दिल्ली के 24 सार्वजनिक अस्पतालों से जवाब प्राप्त हुए। इसके अलावा, दिल्ली सरकार के परिवार कल्याण निदेशालय से एक पत्र, दिनांकित 13 फ़रवरी 2019, प्राप्त हुआ। इसमें बताया गया कि दिल्ली में 2016, 2017 व 2018 में मीज़ल्स से क्रमशः 7, 3 और 10 मौतें हुई थीं। ये आँकड़े भी WHO (विश्व स्वास्थ्य संगठन)-NPSP (राष्ट्रीय पोलियो निगरानी परियोजना) के हवाले से दिए गए थे। रुबेला से हुई मौतों के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं होने का जवाब दिया गया, जबकि अभियान पर होने वाले ख़र्चे को यह कहकर शून्य बताया गया कि इसे केंद्र सरकार वहन कर रही है। हमें जिन 24 अस्पतालों/मेडिकल संस्थानों से जवाब मिले उनमें से 13 ने कहा कि उनके पास पिछले तीन सालों में रुबेला का एक भी गंभीर अथवा जानलेवा केस दर्ज नहीं हुआ था; 2 के अनुसार अर्ज़ी की लिखावट साफ़ नहीं थी; 5 ने बताया कि उनके विशेष चरित्र/फ़ोकस के चलते उनके पास ऐसे केस आते ही नहीं हैं (उदाहरण के तौर पर, नेत्र चिकित्सालय); 3 ने कहा कि उनके पास ऐसे कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं हैं; और एक ने अस्पताल आकर संबद्ध फ़ाइलें देखने के लिए निमंत्रित किया। कुल मिलाकर, RTI अर्ज़ी से प्राप्त ये जवाब बताते हैं कि पिछले तीन सालों में दिल्ली में रुबेला का एक भी जानलेवा अथवा गंभीर केस भी दर्ज नहीं हुआ है। इसके बावजूद इस अभियान को बच्चों व स्कूलों पर, उनकी सहमति/असहमति के हक़ का सम्मान किये बिना, जबरन थोपा गया।
उधर केंद्र सरकार के मंत्रालय में भेजी गई अर्ज़ी में हमने अधिक विस्तृत सूचना माँगी थी। इसमें हमने देशभर में मिलाकर क्रमशः पिछले तीन वर्षों में रुबेला के जानलेवा केसों के आँकड़े, इस टीके के प्रयोग की रपटें, प्रतिकूल प्रभावों के लिए अपनाया जाने वाला मेडिकल प्रोटोकॉल (दिशा-निर्देश), प्रतिकूल प्रभावों के एवज़ में देय हर्जाने/मुआवज़े की राशि के प्रावधान, टीकाकरण के लिए अनिच्छुक व्यक्तियों के ख़िलाफ़ संभावित क़ानूनी कार्रवाइयों का ब्यौरा, टीका बनाने वाली कंपनी का नाम तथा इसकी एक ख़ुराक की क़ीमत की जानकारी माँगी थी। जैसा कि ऊपर बताया गया, केंद्र से जवाब समयावधि के काफ़ी ग़ुज़र जाने तक भी नहीं आया। अंततः 12 फ़रवरी 2019 का दिनांकित एक पत्र मार्च में जाकर मिला जिसमें किसी भी सवाल का उत्तर नहीं दिया गया था, सिवाय इसके कि एक टीके का मूल्य 37.4199 रुपये है। एक मोटे अनुमान के हिसाब से भारत में 15 साल तक की उम्र के बच्चों की संख्या 40 करोड़ से कम नहीं है। इस हिसाब से टीके की ख़रीद पर ही कुल व्यय 1,500 करोड़ रुपये के आसपास बैठता है। यहाँ भी केंद्र सरकार रुबेला के जानलेवा अथवा गंभीर केसों के बारे में कोई आँकड़ा पेश नहीं कर सकी। बिना तथ्यों के योजना बनाना, उसे थोपना, फिर जबरन मनवाना, ये सब आज की सरकारों की तानाशाही का परिचायक हो गया है। इससे लोकतंत्र में उनके आधार और आस्था, दोनों की बची-खुची शिनाख़्त भी हो जाती है। क्या यह उचित है कि सरकारें पहले अपर्याप्त या गडमड आधार पर कोई अभियान/योजना लागू करें तथा फिर उसपर किये गए ख़र्च को जायज़ ठहराने के लिए उसे अनिवार्य बनाकर सब पर थोप दें? उचित हो या अनुचित, वैश्विक पूँजी की ग़ुलाम सरकारों के लिए आज यह संभव ज़रूर है। संभव ही नहीं, बल्कि उनकी सामान्य परिपाटी का हिस्सा। आख़िर, 'आधार' के मामले में भी तो सरकार ने यही किया है।
जनवरी में दिल्ली के एक बड़े निजी स्कूल, डीपीएस, के कुछ विद्यार्थियों द्वारा इस टीकाकरण की अनिवार्यता को अदालत में दी गई चुनौती के संदर्भ में उच्च न्यायालय ने सरकार को नोटिस जारी करते हुए इस पर तब तक रोक लगा दी जब तक वो घोषित सहमति लेने और संभावित दुष्परिणामों की जानकारी देने को अपनी योजना में शामिल न कर ले। इसके पूर्व दिल्ली सरकार ने, इसके राष्ट्रीय अभियान होने और अन्य राज्यों में संपन्न चरणों का हवाला देते हुए अभिभावकों की मूक/मान्य सहमति निहित होने का तर्क दिया था। न्यायालय में यह भी बताया गया कि कैसे देश के विभिन्न राज्यों में 22 करोड़ से अधिक बच्चों को यह टीका पहले ही लगाया जा चुका है। न्यायालय ने मूक सहमति के इस तर्क को मानव अधिकार व शरीर की निजता का उल्लंघन क़रार देते हुए ख़ारिज कर दिया। अख़बारों के अनुसार दिल्ली-गुड़गाँव के सैकड़ों निजी स्कूलों की तरफ़ से अभियान को लेकर आपत्ति/असहयोग दर्ज किया गया था। यह स्पष्ट नहीं है कि दिल्ली सरकार ने इस फ़ैसले के बाद नई योजना बनाने पर काम किया है या इसे चुनौती दी है। वैसे, चुनौती देने का संकेत ख़बरों में था। कुछ भी हो, तब से लेकर अब तक इस बारे में सरकार की ओर से कोई ताज़ा आदेश नहीं आये हैं। मगर हम इस मुग़ालते में नहीं हैं कि कहानी का अंत हो गया है। हमें पता है कि नए संस्करण में सरकार अपनी योजनाएँ और वीभत्स रूप में लाएगी। इसमें सहमति, मानवाधिकार, निजता, गरिमा, अंतःकरण जैसे कोमल शब्दों व मूल्यों को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। फिर चाहे वो उसी संविधान के मूलमंत्र हों जिसके आगे शीश नवाकर उसके बहुरूपिये स्वांग रचते हैं। इस बीच, पिछले कुछ हफ़्तों में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से मीज़ल्स के केसों में बढ़ोतरी होने की ख़बरें आई हैं। इसमें वो देश प्रमुखता से शामिल हैं जहाँ टीकाकरण का दर 80-90% से भी ज़्यादा है और धार्मिक (अंतःकरण की) आज़ादी के आधार पर टीका नहीं लगवाने वालों को मिलने वाली अपवादजनक छूट के अलावा कई सार्वजनिक सेवाओं के लिए टीका लगवाना अनिवार्य तक है। फिर भी इन रपटों में उस मेडिकल शंका का रत्तीभर ज़िक्र नहीं था जिसके अनुसार सार्वभौमिक टीकाकरण से आबादी की प्रतिरोधक क्षमता व छूट गए लोगों में गंभीर केसों की संख्या में इज़ाफ़ा हो सकता है। इसके उलट, सभी अख़बारी रपटों में यह 'सुखद' निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया कि टीकाकरण के दर को और बढ़ाने व 100% तक लाने की ज़रूरत है! इससे इन रपटों के मासूम होने के प्रति शंका होती है। क्या गारंटी है कि ये दवा कंपनियों के किसी वैश्विक अजेंडे को बढ़ाती प्रायोजित रपटें न हों? हमें याद रखना चाहिए कि ये सभी रपटें मीज़ल्स की हैं। यानी, इनके आधार पर भी रुबेला के टीके की ज़रूरत के बारे में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। उधर, दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के बारे में आई रपटों में, बिना किसी अधिकृत हवाले से, भारत में रुबेला के गंभीर केसों की वार्षिक संख्या 40,000 बताई गई थी। लेकिन कुछ देशों से मीज़ल्स के बढ़ते केसों की आई हालिया रपटों ने इच्छुक तत्वों (स्वास्थ्य संगठन, बहुराष्ट्रीय दवा निर्माता कंपनियों, अधिकारियों आदि) को अपने अजेंडा को बढ़ाने के लिए एक स्वागतयोग्य संदर्भ उपलब्ध करा दिया है। अब वो जन-स्वास्थ्य के लिए इस उभरते 'ख़तरे' (मीज़ल्स) की आड़ में रुबेला के टीकाकरण की ज़रूरत के गुण और बढ़-चढ़कर गा सकते हैं। और इस तरह, सच्चाई, जन-संसाधन व जन-स्वास्थ्य की क़ीमत पर, निजी स्वार्थों की पूर्ति को अंजाम दे सकते हैं। हमें यह पूछने की ज़रूरत है कि अगर संकट मीज़ल्स का है तो आप उसमें रुबेला का टीका क्यों जोड़ देते हैं और आख़िर रुबेला के आँकड़े सार्वजनिक क्यों नहीं किये जा रहे हैं। ये सब सवाल पूछते हुए हमें याद रखना होगा कि आज हमें एक ऐसे युग में धकेला जा रहा हैं जिसमें शिक्षा का अर्थ विवेक-समर्पण, मीडिया का अर्थ प्रायोजित व झूठी ख़बरें, कला का अर्थ राज-प्रशस्ति गान, लोकतंत्र का अर्थ तानाशाह व दमनकारी सरकार का चुनाव तथा चुनाव का अर्थ धोखाधड़ी, प्रशासनिक दबंगई व आर्थिक शक्ति प्रदर्शन से सत्ता हथियाना होगा। हमारे पास कोई कारण नहीं है कि ऐसे में हम स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी पूँजी का हित साधती कंपनियों और उनकी चाकरी करती सरकारों की योजनाओं, अभियानों व नीतियों को शक से न देखें। और जब सवाल अनुत्तरित रह जाएँ तो अपने लब खोलें, आवाज़ बुलंद करें, विरोध करें। वर्ना, ज़ंजीरों के अलावा खोने के लिए कुछ नहीं बचेगा।