प्रति
शिक्षा मंत्री
दिल्ली सरकार, दिल्ली
विषय : दिल्ली सरकार के स्कूलों
में दाखिलों में आ रही रुकावटों के सन्दर्भ
में
महोदय,
लोक शिक्षक मंच बच्चों के शिक्षा के अधिकार को बाधित कर रहे कुछ कारणों को
आपके संज्ञान में लाना चाहता है। पिछले कुछ समय से हमने दिल्ली के कुछ इलाक़ों में ऐसे बच्चों की
शिनाख़्त की है जिन्हें या तो स्कूल में दाख़िला कभी मिला ही नहीं या फिर विभिन्न
मजबूरी-भरी परिस्थितियों के चलते उनका 'नाम कट गया' और जब उन्होंने दोबारा पढ़ाई
जारी रखने की इच्छा जताई तो उन्हें स्कूल से निराशा हाथ लगी| हम आपके सामने शिक्षा
का अधिकार अधिनियम (2009) जैसे मौलिक हक़ के क़ानूनी वायदे के बावजूद बहुत-से बच्चों को प्रवेश न मिल पाने
के कुछ कारण प्रस्तुत कर रहे हैं -
·
शिक्षा अधिकार
अधिनियम के प्रावधानों के ख़िलाफ़ जाकर: पहली या नर्सरी कक्षा में भी प्रवेश लेना चाह रहे बच्चों के माता-पिता से
बच्चे का जन्म-प्रमाण पत्र जमा कराने की अनिवार्य शर्त
रखी जाती है और प्रवेश लेने के लिए अंतिम तिथियाँ घोषित कर
दी जाती हैं| जिस शहर और देश में बहुसंख्यक लोग असंगठित
क्षेत्रों में असुरक्षित व अस्थाई रूप से काम करते हों तथा जिनका आवास भी स्थाई न हो
बल्कि जो एक जगह से दूसरी जगह लगातार प्रवास करने
को मजबूर हों, उनके बच्चों पर अंतिम तिथि कहकर स्कूल के दरवाज़े बंद करने का क्या मतलब है?
·
ऐसे अनेक माता-पिता हैं जो यह सोचकर ही बच्चे का दाखिला
स्कूल में करवाने नहीं जा रहे हैं कि उनके पास बच्चे का आधार कार्ड नहीं है| पिछले 2-3 सालों के दाखिले की प्रक्रिया के अनुभवों/दुष्प्रचार ने ही उनकी इस
ग़लतफ़हमी को जन्म दिया है पर जिस दौर में सरकारी नीतियों के प्रचार के लिए अक्सर
रेडियो, पीटीएम अथवा एसएमसी मीटिंग्स का इस्तेमाल किया जाता है उस दौर में
अभिभावकों को बिना शर्त दाखिले की बात समझाने के लिए कोई प्रयास होता नहीं दिखाई
देता|
·
ऐसे अनेक बच्चे हैं जिनके पास दिल्ली के पते के पक्के कागज़ न
होने के कारण दाखिले नहीं दिए जा रहे हैं| आज तक ऐसे अभिभावक एफिडेविट/घोषणा पत्र
के आधार पर ही दाखिला लेते आए थे और धीरे-धीरे अन्य कागज़ जमा किया करते थे| परन्तु इस साल सरकार द्वारा
दाखिलों के लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया शुरू की गई है जिसमें
घोषणा/शपथ-पत्र का विकल्प ही नहीं रखा गया है| इसका मतलब यह
हुआ कि जब तक बच्ची स्कूल में दिल्ली की रिहाइश के पक्के कागज़ जमा नहीं करेगी,
उसका दाखिला तो दूर की बात रजिस्ट्रेशन तक नहीं होगा| यह उनके साथ धोखेबाज़ी है|
·
एक बड़ी समस्या यह भी है कि अगर बच्चे अपने रिश्तेदारों –
नानी, दादी, मामा, बुआ, चाचा, मौसी आदि- के घर रहकर सरकारी स्कूल में दाखिला लेना
चाहते हैं तो भी उन्हें ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन में समस्या आ रही है| या अगर वे अपने
माता-पिता के कार्यस्थल के नज़दीक वाले स्कूल में दाखिला लेना चाहते हैं तो भी बिना
घोषणापत्र के विकल्प के उनका दाखिला तकनीकी दांव-पेंच में अटक जाएगा| दरअसल जो
विशिष्ट वर्ग ऐसी नीतियाँ और संबंधित कंप्यूटरीकृत प्रोग्राम बनाता है वह सरकारी
स्कूलों के बच्चों की सच्चाई से कोसों दूर हैं या कोई और ही उल्लू सीधा कर रहा है|
·
ऐसे भी अनेक केस सामने आए जिनमें आधार में बच्चे या
माता-पिता के नाम अथवा बच्चे की जन्म तिथि में कुछ गलती के चलते भी बच्चों के
दाखिले टल रहे हैं|
बावजूद इसके कि माता-पिता घोषणा पत्र में सही जानकारी लिखकर दे रहे
हैं और आधार में सुधार करने का समय मांग रहे हैं, विद्यालय
दाखिले का फॉर्म न ही दे रहे हैं न ही जमा कर रहे हैं|
·
अगर बच्चे यह भी कह रहे हैं कि वे किसी मान्यता प्राप्त
स्कूल से पढ़कर नहीं आए हैं या कभी स्कूल नहीं गए हैं, तब भी उन्हें यह कहकर स्कूल
से लौटाया जा रहा है कि किसी भी तरह पुराने स्कूल से एसएलसी लाओ| यह बच्चों को बाहर धकेलना का एक और बहाना मात्र है|
·
ये सभी बहाने उन स्कूलों में गंभीर रूप ले रहे हैं जिनमें पहले
से ही बच्चों की संख्या ज़्यादा है और कक्षाएं कम हैं| इसमें दो राय नहीं है कि ऐसे
में कक्षाओं और स्कूलों की संख्या बढनी चाहिए| लेकिन अगर किसी स्कूल में कमरों व शिक्षकों की RTE अधिनियम सम्मत संख्या के हिसाब से जगह नहीं है तो भी इसका
समाधान यह नहीं है कि अन्य बच्चों को दाख़िला ही न दिया जाये। कितने ही अभिभावकों ने कहा, "अगर सरकारी स्कूल
दाखिला नहीं देंगे तो बच्चे कहाँ पढ़ेंगे?' या अगर किसी इलाके का निगम स्कूल भी दिल्ली सरकार के स्कूलों की
तरह सीटें भर जाने का तर्क दे, तो फिर इन
बच्चों का दाख़िला कहाँ होगा?
·
दाख़िला
प्रक्रिया को तकनीकी के जाल में लपेटकर इस क़दर जटिल बना दिया गया है कि अक़्सर सदाशयी
शिक्षक व प्रधानाचार्य भी बच्चों के हितों की रक्षा कर पाने की स्थिति में नहीं
होते। ऑनलाइन प्रक्रिया में प्रवेश लेना चाह रहे बच्चों की ऐसी जानकारी को भरना अनिवार्य कर दिया जाता है जोकि क़ानून की
दृष्टि से अनिवार्य नहीं है। कहा जाता है कि इस जानकारी के बिना विद्यार्थी की
पहचान संख्या (आई डी) जारी नहीं हो पायेगा और फिर उसे वज़ीफ़े आदि नहीं मिल पायेंगे।
मगर यह एक ग़लत तर्क है क्योंकि जब दाख़िला ही नहीं मिलेगा तो वज़ीफ़ा कहाँ से आएगा?
सरकारी की उदासीनता और नाकामी की सज़ा बच्चे नहीं भुगत सकते। उपरोक्त बिंदुओं
से लगता है कि सरकार शिक्षा अधिकार अधिनियम के कुछ प्रावधानों का इस्तेमाल करके
इसके मुख्य उद्देश्य और वायदे, एक संवैधानिक
मौलिक अधिकार,
को ही विफल कर रही है। हम मांग करते हैं –
· सरकार स्वयं बच्चों को दाखिले में आने वाली समस्याओं की ज़मीनी हक़ीक़त का
ईमानदारी से पता लगाए और फिर उन कारणों को दूर करे जो बच्चों का हक़ मार रहे हैं। सरकार व बाल अधिकार संरक्षण आयोग को एक निर्पेक्ष व
खुली जाँच कराकर यह पता लगाना चाहिए कि प्रवेश व वज़ीफे-लाभ की कौन-सी व्यवस्था बच्चों के अधिकारों को अधिक आसानी
से सुनिश्चित करती है तथा उनके अभिभावकों के लिए सुलभ-सुगम साबित होती है। इसके
लिए सिर्फ़ स्कूल के अंदर के नहीं, बल्कि ज़मीन पर जाकर उन परिवारों से बात करनी होगी
जिनके बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। साथ ही, पता लगाना होगा कि फ़ीडर स्कूल से आये कितने
बच्चों की नियमित कक्षाएँ एक अप्रैल से लग रही हैं और जिनकी नहीं लग रहीं तो
क्यों।
· हमारा मानना है
कि प्रवेश फ़ॉर्म व प्रक्रिया में 'आधार' और बैंक खाते का कोई उल्लेख ही नहीं होना चाहिए ताकि बच्चों के अधिकार के उल्लंघन की नौबत ही
न आये।
· हमें ज्ञात हुआ
कि स्कूलों पर यह दबाव रहता है कि वो सत्र शुरु होने के बाद, एक समय-सीमा के अंदर सभी विद्यार्थियों के 'आधार' व खातों की सूची विभागीय कार्यालय को भेजें। इस सूची में विलंब अथवा इसके
अधूरे होने पर स्कूलों (प्रधानाचार्यों/शिक्षकों) से जवाब माँगा जाता है जिससे
बचने के लिए फिर वो प्रवेश से पहले ही बच्चों के माता-पिता पर इन 'वैकल्पिक' दस्तावेज़ों को जमा करने का दबाव बनाते हैं। ज़ाहिर है कि प्रशासन/सरकार की नीति
के चलते ही अभिभावकों व स्कूलों के बीच एक अस्वस्थ रिश्ता व व्यवहार पनप रहा है और
बच्चों की शिक्षा का हक़ मारा जा रहा है। स्कूलों पर यह अनुचित दबाव बनाना बंद किया
जाए|
·
हमारा अनुभव
बताता है कि प्रवेश प्रक्रिया को जबरन ऑनलाइन करने के पूर्व के वर्षों में न सिर्फ़ फ़ीडर स्कूलों के सभी बच्चों का दिल्ली सरकार के स्कूलों की
छठी कक्षा में दाख़िला आसानी से हो जाता था, बल्कि उनकी नई कक्षा की पढ़ाई भी बिना एक दिन की देरी के, एक अप्रैल से ही शुरु हो जाती थी। यह समझ से बाहर है कि
जो बच्चे नियमित स्कूली व्यवस्था (नगर निगम या अन्य मान्यता-प्राप्त स्कूल) से
पढ़कर आ रहे हैं और जिनकी रिपोर्ट कार्ड व SLC जैसे प्रामाणिक दस्तावेज़ पहले-ही पड़ोस के दिल्ली सरकार के स्कूल को भेज दिए जाते हैं, उनके माता-पिता को दोबारा दाख़िले की प्रक्रिया में कई दिनों तक
क्यों उलझाया जाता है। इस प्रक्रिया को पहले की तरह सुलभ
बनाया जाए|
·
इसी तरह, हमारा मानना है कि विद्यार्थियों को वर्दी, किताबें, बस्ते आदि प्रत्यक्ष रूप से दिया जाना इनके बदले राशि देने से (वो भी खातों की
शर्त के साथ) कहीं सरल-सुलभ है। उस व्यवस्था में न किसी बच्चे को प्रशासनिक दबाव
के चलते प्रवेश से वंचित होना पड़ता था और वज़ीफ़े या सामग्री भी, बिना अपवाद और बिना धक्के खाये, सबको मिल जाते थे।
·
सरकार द्वारा
जारी कुछ आदेशों में स्कूल के अंदर अभिभावकों की मदद के लिए हैल्प-डेस्क, बैनर आदि की व्यवस्था करने की बात कही गई है। हमारा अनुभव बताता है कि इनकी
ज़रूरत स्कूल के बाहर भी है। साथ ही, CRC या SMC अदि के नाम से जो समितियाँ या अधिकारी बच्चों के
अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए निर्देशित हैं, उनके नाम,
पते, संपर्क की जानकारी तो हर स्कूल के बाहर तथा स्थानीय जन-प्रतिनिधियों के
दफ़्तरों में प्रमुखता से लगी होनी चाहिए।
·
हमने यह भी पाया
कि जब कहीं और से छठी-सातवीं पढ़कर कोई 14 साल से अधिक उम्र का बच्चा-बच्ची दिल्ली सरकार के स्कूल की आठवीं कक्षा में प्रवेश लेना चाहता/चाहती है
तो उसे शिक्षा अधिकार अधिनियम का ग़लत हवाला देकर, कि उसकी उम्र क़ानून में निर्दिष्ट दायरे से बाहर हो गई है, मना कर दिया जाता है। हमारी जानकारी में उक्त
क़ानून हर बच्चे को आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई पूरी करने का हक़ देता है, चाहे उसकी उम्र 14 से अधिक भी क्यों न हो गई हो। अगर सरकार ने
सचमुच अपने दफ़्तरी आदेशों में ऐसी ग़लत व्याख्या रखी है, तो उसे जल्द-से-जल्द क़ानून सम्मत बनाने की
ज़रूरत है।
एक विद्यालय की एडमिशन इंचार्ज के शब्दों में, 'मैं न्यायपूर्ण ढंग से
दाखिले तभी कर सकती हूँ जब मेरी जवाबदेही सिर्फ बच्चों
के प्रति हो|'
सधन्यवाद
सदस्य, संयोजक समिति सदस्य, संयोजक
समिति
लोक शिक्षक मंच लोक
शिक्षक मंच
प्रतिलिपि :
मानव संसाधन विकास मंत्री, भारत सरकार
नेता विपक्ष, दिल्ली विधान सभा
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग
दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग
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