पिछले साल के अंत में सूचना का अधिकार अधिनियम के
तहत दिल्ली सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग में एक अर्ज़ी डाली गई थी।
इसमें दिल्ली सरकार के उक्त विभाग के अंतर्गत चलाई जा रही लाडली योजना से
जुड़ी जानकारियाँ माँगी गई थीं। दिल्ली में लाडली योजना वर्ष 2008 में शुरु
की गई थी और इसके घोषित उद्देश्यों में बालिकाओं की शिक्षा को बढ़ावा देना,
कन्या भ्रूण हत्या रोकना, समाज में लैंगिक भेदभाव कम करना, लड़कियों की
उच्च-शिक्षा को आधार देना, उन्हें सशक्त करना व बालिकाओं के जन्म के
पंजीकरण को प्रेरित करना प्रमुख हैं। यह रोचक किंतु अफ़सोसनाक तथ्य है कि कई
लोग, जिनमें कुछ शिक्षक भी शामिल हैं, यह समझते हैं कि इस योजना से मिलने
वाली राशि बालिका के विवाह के लिए होती है! ज़ाहिर है कि इसमें लड़कियों को
लेकर समाज में व्याप्त लैंगिक पूर्वाग्रह से जुड़ी मान्यताएँ शामिल हैं। मगर
इसके अलावा इस सामाजिक रूढ़ि को कि लड़कियों का भला अंततः उनकी शादी में ही
है, सरकार की योजनाओं के स्वरूप से भी बल मिलता है। कई राज्य सरकारों की
बालिका-कल्याण योजनाओं की तरह दिल्ली की लाडली योजना भी लड़कियों के लिए 18
वर्ष की वो सीमा तय करती है जो क़ानूनी रूप से उनके विवाह की न्यूनतम उम्र
भी है। इससे योजना के घोषित उद्देश्य के विपरीत इसके शादी के ख़र्च से जुड़े
होने का संदेश ही संप्रेषित होता है। इससे भी ख़राब स्थिति यह है कि आज देश
की कई राज्य सरकारें 'ग़रीब' लड़कियों की शादी के ख़र्चे के लिए जनकोष से
सहायता राशि उपलब्ध कराने की 'कल्याणकारी' योजनाएँ चला रही हैं। एक आधुनिक
राज्य की ज़िम्मेदारी यह नहीं है कि वो शादी जैसे वयस्कों के नितांत निजी
फ़ैसलों व उनसे जुड़े आयोजनों को प्रायोजित करे। फिर इस तरह की योजना से
सरकार ख़ुद यह दक़ियानूसी संदेश दे रही है कि विवाह आयोजनों में ख़र्चा करना व
लड़की के परिवार द्वारा उसको वहन करना एक अनिवार्य ही नहीं बल्कि
वांछित तत्व है। निश्चित ही लड़कियों के विवाह से जुड़ी इन योजनाओं की जड़
में पितृसत्ता की वह धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यता है जो लड़की के विवाह को
पिता द्वारा 'कन्यादान' के रूप में देखती है तथा पिता की संपत्ति में उसका
हक़ स्वीकार नहीं करती है। वर्ना, सरकार को इसकी तो फ़िक्र करनी चाहिए कि
उसकी आर्थिक व शैक्षिक नीति सबको पढ़ने के समान व लड़कियों को विशेष सहायता
के अवसर उपलब्ध कराये, लेकिन ये उसकी जायज़ चिंता का विषय नहीं बनता है कि
किसी लड़की ने शादी की या नहीं और उसके माता-पिता उसकी शादी के ख़र्चे को
लेकर कितना परेशान हैं। आख़िर, सिविल अदालतों में ही नहीं बल्कि कई धार्मिक
तरीक़ों में भी बिना किसी ख़र्चे के शादी का आयोजन संभव है। इन योजनाओं से तो
सरकार, जिसका दायित्व कुरीतियों को ख़त्म करना होना चाहिए, सामाजिक
कुरीतियों को बढ़ावा ही दे रही है। ख़ैर! दिल्ली की लाडली योजना की बात करें,
तो इसमें तय की गई उम्र को इस तरह भी व्याख्यायित किया जा सकता है कि 18
साल की होने पर योजना में शामिल किसी छात्रा को लाभ राशि तभी मिलेगी जब
उसका विवाह नहीं हुआ हो। हालाँकि, यह योजना का घोषित उद्देश्य नहीं है मगर
इसमें निहित ज़रूर है। आवेदनकर्ताओं के सामने इस 'शर्त' पर बल देना इसलिए भी
ज़रूरी है ताकि उपरोक्त वर्णित धारणा तोड़ी जा सके और लड़कियों के लिए विवाह
के सापेक्ष शिक्षा की अहमियत को रेखांकित किया जाये। लैंगिक विमर्श से इतर
यह योजना राज्य की शिक्षा नीति से जुड़ा एक सवाल भी खड़ा करती है। आख़िर इस
बात का कि (लड़कियों या लड़कों किसी को भी) पढ़ाई जारी रखने के लिए आर्थिक मदद
की ज़रूरत होगी, मतलब इसके सिवाय क्या है कि सामान्य रूप से शिक्षा मुफ़्त
नहीं होगी तथा बच्चों/युवाओं के परिवारों की आर्थिक स्थिति पर निर्भर
करेगी? अगर शिक्षा सचमुच में सबका हक़ होती और सार्वजनिक ज़िम्मेदारी के रूप
में सबको मुफ़्त उपलब्ध होती तो फिर ऐसी योजनाओं का औचित्य ही क्या रहता?
हाँ, जिस हद तक सामाजिक-आर्थिक रूप से विपन्न वर्गों के परिवारों के लिए
मुफ़्त सार्वजनिक शिक्षा के बावजूद अपने बच्चे, विशेषकर बच्चियों, को पढ़ाना
बाक़ी लोगों की तुलना में अधिक चुनौतीपूर्ण रहेगा, इस तरह के वज़ीफ़ों की
ज़रूरत से इंकार नहीं किया जा सकता है। यह अंतिम तर्क भी ऐसी तमाम योजनाओं
के नामों का जवाब नहीं है। चाहे वो लाडली हो या लक्ष्मी या सुकन्या, इन सभी
योजनाओं के नाम लड़कियों की पारंपरिक छवियों को सुदृढ़ करते हैं। कहीं
लड़कियों के नाज़ुक व कोमल होने का अभिप्राय है तो कहीं ब्राह्मणवादी चित्रण
जो उन्हें विशेष, बल्कि सीमित, अर्थों में दैवी व पूजनीय तो ठहराता है मगर
समान अधिकार रखने वाली आज़ाद इंसान नहीं। ऐसी महिला-विरोधी व पुरातनपंथी
शब्दावली तथा संकल्पना के सहारे ये योजनाएँ लड़कियों को कैसे और कितना सशक्त
बना सकेंगी?
विभाग
के नियमों के अनुसार योजना में आवेदन बालिका के जन्म पर तथा पहली, छठी,
नौवीं व बारहवीं कक्षाओं में प्रवेश पर किया जा सकता है। जन्म के अलावा, ये
फ़ॉर्म स्कूलों में ही भरे जाते हैं। हालाँकि, बालिका के कम-से-कम दसवीं
पास करने पर और 18 साल के होने पर ही उसे तबतक की जमा राशि, ब्याज सहित,
प्राप्त हो सकती है। आवेदन करने की मुख्य शर्तों में वार्षिक पारिवारिक आय
का एक लाख रुपये से कम होना, बालिका का दिल्ली का जन्म-प्रमाण पत्र होना व
परिवार के पास दिल्ली में रिहाइश का कम-से-कम तीन साल पुराना सबूत होना
शामिल है। पिछले तीन-चार वर्षों से इसमें बालिका व माता-पिता के 'आधार'
कार्ड की शर्त जोड़ दी गई है। अस्पताल जैसे सांस्थानिक जन्म पर बालिका के
नाम पर 11,000 रुपये व घर पर जन्म होने पर 10,000 रुपये के आवंटन का
प्रावधान है। इसके अतिरिक्त, प्रत्येक चरण की पढ़ाई पूरी करने पर 5,000
रुपये जुड़ते हैं। कुल राशि बालिका के नाम पर सावधि जमा (fixed deposit) के
रूप में उसके खाते में दी जाती है। यह अधिकतम सीमा में ही एक लाख पहुँच
सकती है, अन्यथा अलग-अलग चरण पर आवेदन करने पर प्राप्त राशि भी अलग ही
होगी। सूचना का अधिकार अर्ज़ी में वर्ष 2010-11 से लेकर 2017-18 तक प्रत्येक
वर्ष, क्रमशः जन्म तथा प्रथम कक्षा के स्तर पर प्राप्त व स्वीकृत आवेदनों
की संख्या की जानकारी माँगी गई थी। यह उल्लेखनीय है कि जिस तरह, ई-गवर्नेंस
व डिजिटलीकरण के तानाशाही डाटा केन्द्रीकरण की तमाम कार्रवाइयों के
बावजूद, अन्य विभाग एकीकृत आँकड़े उपलब्ध नहीं कराते हैं, उसी तरह महिला एवं
बाल विकास विभाग ने भी इस अर्ज़ी को ज़िलों के दफ़्तरों को हस्तांतरित कर
दिया। जबकि पिछले कुछ सालों से विभाग स्कूलों पर यह आदेश थोप रहा है कि वो
आवेदनों की सूचियाँ निश्चित सलीक़े से बनाकर लायें और उसकी एक सी डी भी जमा
करें। यहाँ यह सवाल लाज़िमी है कि अगर पारदर्शिता व आधुनिक तकनीकी के 'तेज़'
प्रशासन का दावा करने वाली सरकारें अपनी योजनाओं की समेकित जानकारी ही नहीं
रख पाती हैं तो उन्हें किस बिना पर कुशल व जवाबदेह माना जाये। और अगर वो
ये जानकारी केवल नागरिकों पर नज़र रखने व उन्हें प्रताड़ित करने के लिए
इकट्ठी करती हैं, लोगों को सूचित करने या बेहतर योजना कार्यान्वयन के लिए
नहीं, तो उन्हें लोकतंत्र विरोधी क्यों न माना जाये?
नीचे
एक तालिका में महिला एवं बाल विकास विभाग के दस ज़िला दफ़्तरों से प्राप्त
आँकड़ों को जोड़कर कुल आँकड़े प्रस्तुत किये गए हैं।
प्राप्त फ़ॉर्म स्वीकृत फ़ॉर्म
वर्ष जन्म कक्षा 1 कुल जन्म कक्षा 1 कुल
2010-11 11,484 08,544 25,917 15,199 10,322 25,521
2011-12 10,123 08,214 25,299 14,218 10,926 25,144
2012-13 12,741 09,818 28,887 16,697 11,301 27,998
2013-14 10,623 12,181 27,706 13,344 14,173 27,517
2014-15 07,128 10,387 26,794 11,598 15,017 26,615
2015-16 07,402 08,893 22,562 10,853 11,582 22,435
2016-17 07,074 10,238 23,804 10,023 13,741 23,764
2017-18 06,697 10,520 23,667 08,909 14,422 23,331
यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि
1.
उत्तर-पश्चिम - 1 से मिले जवाब में जन्म एवं प्रथम कक्षा के
प्राप्त आवेदनों की अलग-अलग संख्या नहीं दी गई थी, जबकि वर्ष 2016-17 व
2017-18 के लिए इसका कुल योग दिया गया था (क्रमशः 10,202 व 9,878)।
2.
उत्तर-पश्चिम- 2 और दक्षिण से मिले जवाबों में किसी भी वर्ष के लिए जन्म व
प्रथम कक्षा के स्तर पर प्राप्त आवेदनों की अलग-अलग संख्या नहीं दी गई
थी, जबकि प्रत्येक वर्ष के लिए कुल योग दिया गया था।
3. नई दिल्ली से मिले जवाब में सिर्फ़ 2015-16 व उसके बाद के आँकड़े दिए गए थे।
4. इसी
लिए तालिका में जन्म व प्रथम कक्षा के प्राप्त आवेदनों की संख्या स्वीकृत
आवेदनों से कम प्रकट हो रही है! फिर भला यह कैसे संभव है कि दो मूल आँकड़ों
के बिना विभाग उनका योग उपलब्ध करा दे?
यहाँ हम इन आँकड़ों के आधार पर कुछ सरसरी निष्कर्ष व सवाल साझा कर रहे हैं।
1.
जन्म के स्तर पर प्राप्त आवेदनों में साल-दर-साल नियमित व
उल्लेखनीय गिरावट आई है। इसका मुख्य कारण योजना की जानकारी की कमी के अलावा
शर्तों का दुरुह होना हो सकता है। परिवार द्वारा जन्म के स्तर पर योजना
में आवेदन करने के लिए अस्पतालों व आँगनवाड़ियों की मुख्य भूमिका है। संभव
है कि या तो प्रशासन द्वारा आवेदनों को सीमित करने का एक अघोषित आदेश हो या
फिर बढ़ती ज़िम्मेदारियों व सीमित संसाधनों के चलते ये संस्थान अपने दायित्व
निभा पाने में असहाय महसूस कर रहे हों। स्कूलों की समानांतर स्थिति के
हमारे अपने अनुभव के चलते इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता है। इससे यह
निष्कर्ष भी निकलता है कि ज़रूरी संख्या में व प्रकार की नियुक्तियाँ किये
बिना नई कल्याणकारी योजनाओं को सचमुच में लोगों तक ले जाना एक भ्रम है।
2.
प्रथम कक्षा में प्राप्त आवेदनों की संख्या का रुख़ अनियमित है। यह पहले
बढ़ा, फिर कम हुआ तथा दोबारा बढ़ा है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि स्कूल
में शिक्षकों द्वारा दी जाने वाली जानकारी की सटीकता तथा बच्ची के स्कूल
में प्रवेश करते-करते बन चुके दस्तावेज़ों के चलते आवेदन की संभावना बढ़ जाती
है। वहीं, 2014 के बाद इन आवेदनों में आई गिरावट को 'आधार' से
जुड़ी अतिरिक्त शर्तें थोपने के परिणाम के रूप में भी देखा जा सकता है। फिर
भी, यह ग़ौरतलब है कि पहले तीन वर्षों को छोड़कर बाक़ी सभी में स्कूलों से
प्राप्त आवेदनों की संख्या जन्म पर प्राप्त आवेदनों से कहीं अधिक है।
3.
जन्म पर स्वीकृत होने वाले आवेदनों की संख्या में भी साल-दर-साल नियमित व
उल्लेखनीय गिरावट दिखाई देती है।4. प्रथम कक्षा के स्तर पर स्वीकृत आवेदनों
की संख्या में एक बार फिर अनियमित रुझान दिखता है। यह पहले बढ़ती है, फिर
कम होती है और पिछले दो वर्षों में दोबारा बढ़ी है। इसकी व्याख्या भी बिंदु 2
के अनुसार की जा सकती है।
अगर हम किसी योजना की
सफलता का एक पैमाना बनायें तो लाभार्थियों की संख्या में वृद्धि निश्चित
ही उसका एक वस्तुनिष्ठ आधार होगा। लेकिन यहाँ हम देखते हैं कि लाडली योजना
में जन्म के स्तर पर आवेदन करने वालों की संख्या में लगातार कमी आई है,
जबकि इस योजना का एक उद्देश्य ही जन्म पंजीकरण को बढ़ाना था! यह कमी 50% के
क़रीब है। वहीं इन वर्षों में प्रथम कक्षा के स्तर पर स्वीकृत आवेदनों की
संख्या में कुल बढ़ोतरी भी 50% से कम ही है। दूसरी तरफ़, वर्ष 2008 से 2015
के नीति आयोग के जो आँकड़े उपलब्ध हैं उनके अनुसार दिल्ली में लिंग अनुपात
में भी कमी आई है (887 से 869)। हालाँकि, यह भी सच है कि इतने कम समय
में लिंग अनुपात जैसे महत्वाकांक्षी स्तर पर सकारात्मक असर डालने के लिए
योजना का आँकलन करना उचित नहीं होगा। एक अन्य आँकड़े के हिसाब से प्रति वर्ष
दिल्ली में लगभग 2 लाख बच्चियाँ जन्म लेती हैं। इसी तरह, जनवरी 2019
में दिल्ली सरकार के स्कूलों की प्रथम कक्षा में पढ़ने वाली छात्राओं की
संख्या 13,000 से भी अधिक थी। निगम के स्कूलों में यह संख्या दो लाख के
लगभग होगी। तो आख़िर क्या कारण है कि संभावित लाभार्थियों की इतनी बड़ी
संख्या के बावजूद इस योजना में बहुत कम आवेदन प्राप्त हो रहे हैं? जन्म के
स्तर पर किये गए आवेदनों की संख्या देखें तो यह शहर में कुल पैदा हुई
बच्चियों के 5% से भी कम है। कई सरकारी योजनाओं की तरह इस प्रक्रिया से
जुड़ा एक तथ्य यह भी है कि आवेदन के रूप में जमा किये फ़ॉर्म्स की रसीद ही तब
मिलती है जब उन्हें स्वीकृत कर लिया जाता है। इसका मतलब है कि विभाग के
पास यह पता करने का कोई प्रामाणिक व सार्वजनिक तरीक़ा नहीं है कि कितने
आवेदन किस-किस वजह से अस्वीकृत हो गए। अगर यह सूचना व्यवस्थित तौर से रखी
जाये तो विभाग भी यह विश्लेषण कर पायेगा कि सुधार की ज़रूरत कहाँ है और
लोगों को क्या समस्या आ रही है। हालाँकि, कई दफ़्तरों में विभाग के कर्मचारी
आवेदन में रह गई कमी को रेखांकित करते हुए उसे दूर करने का अतिरिक्त वक़्त
भी देते हैं। मगर यह व्यक्तिगत मानवीय व्यवहार विभाग की व्यवस्थित
ग़ैर-ज़िम्मेदारी की भरपाई नहीं कर सकता है।
इसी
तरह, हालाँकि विभाग की वेबसाइट पर आज की तारीख में यह दर्ज है कि बच्ची व
उसके माता-पिता के 'आधार' कार्ड की संख्या उनके उपलब्ध होने पर ही देनी है,
मगर इसे माँगने के पिछले 4-5 सालों के आदेशों व विभाग के दफ़्तरों में बनी
समझ के बाद अब यह 'वैकल्पिक' न होकर अनिवार्य के रूप में ही स्थापित हो
चुका है। बाक़ी महकमों व योजनाओं में भी हमने देखा है कि 'आधार' को
लेकर कैसे, सर्वोच्च न्यायालय के नियमित व अंततः निर्णायक आदेशों के
बावजूद, सभी जगह इसकी अनिवार्यता की मान्यता व प्रशासनिक व्यवहार लागू हो
गया। (निःसंदेह इसमें सरकार की ज़ोर-ज़बरदस्ती और अदालत की तानाशाहीपूर्ण
नाफ़रमानी के साथ ख़ुद अदालत का समझौतापरस्त रवैया भी शामिल रहा जिसने सक्रिय
होकर न कभी लोगों का पक्ष लिया और न ही सरकार के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई
की।)
स्कूल में योजना का दायित्व संभालने के
दौरान इसकी एक अन्य भारी ख़ामी से परिचय हुआ। समाज में जिस 'आदर्श' अथवा
'सामान्य' परिवार का चित्र खींचा जाता है, यह योजना भी उसी को सामने रखती
है। अर्थात, माता-पिता के रूप में महिला-पुरुष की विवाहित जोड़ी और उनकी
'वैध' अथवा 'जैविक' संतान। जबकि आवेदन करने वालों में अक़्सर ऐसी महिलायें
भी होती हैं जिनकी स्थिति इस खाँचे में फ़िट नहीं बैठती। वो जिन्होंने अपने
'आदमी'/'मर्द'/'पति' को छोड़ दिया है या जो ख़ुद छोड़ दी गई हैं; तलाक़शुदा
अथवा बिना क़ानूनी प्रक्रिया के अलग रहने वाली; जो किसी और की जैविक संतान
पाल रही हैं....। ऐसे परिवारों के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ जुटाना एक असंभव काम
है। ये महिलाएँ परिवार की संयुक्त फ़ोटो कहाँ से लायेंगी? कई दफ़ा तो बच्ची
को अकेले दम पर पाल रही महिला उसके जैविक पिता से संबंध की कोई याद दर्ज
करना भी नहीं चाहती है। ऐसे में यह ज़बरदस्ती उसके लिए पीड़ादायक होती है।
विडंबना ये है कि योजना की शायद सबसे ज़्यादा ज़रूरत भी इन्हें ही हो। इसी
तरह, दिल्ली का तीन साल से पुराना निवास प्रमाण लाने में भी उन्हीं
परिवारों को ज़्यादा दिक़्क़त होती है जिनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति ज़्यादा
नाज़ुक है, भले ही वो कितने ही वर्षों से यहाँ रह रहे हों। कुछ परिवार ऐसे
भी होते हैं जिनमें बच्ची की माँ के पास तो तीन साल पुराना निवास प्रमाण
होता है, मगर पिता के पास नहीं, जबकि विभाग के दफ़्तर ऐसे आवेदनों को
स्वीकार करने से मना कर देते हैं। उनके हिसाब से परिवार की रिहाइश के सबूत
का मतलब पिता से ही है, माँ से नहीं! हमारे स्कूलों में कई बच्चियाँ ऐसी
होती हैं जिन्हें उनके नाना-नानी, मौसी, चाची, ताई, बड़ी बहन या बड़ा भाई आदि
पाल रहे होते हैं। उनके लिए इस योजना में आवेदन करना नामुमकिन हो जाता है।
यह परिस्थिति कुछ लोगों को 'झूठे' क़ाग़ज़ व बयान दर्ज करने को मजबूर करती
है, जिससे कि आगे चलकर उनके लिए समस्या और भी उलझ जाती/सकती है। यह समझ
नहीं आता कि जब जन्म-प्रमाण पत्र और स्कूल में नामाँकन के बीच ही कम-से-कम
पाँच साल का अंतर् होता है तथा ये दोनों दस्तावेज़ भी प्रामाणिक हैं, तो फिर
ऐसे में निवास का अतिरिक्त सबूत क्यों माँगा जाता है। इसका उद्देश्य जो भी
हो, परिणाम तो बड़ी संख्या में ज़रूरतमंद आवेदकों को योजना से बाहर रखने में
ही नज़र आता है।
अंत में इस योजना के उस पहलू पर
भी नज़र डालना ज़रूरी है जो समाज कल्याण के नाम पर चलने वाली अधिकतर सरकारी
योजनाओं का चरित्र है। यही हमें ऐसी योजनाओं की असल सीमा और मक़सद जानने का
ज़रिया उपलब्ध कराएगा। बजट की हर सरकारी योजना की तरह इसके लिए भी एक
निश्चित राशि आवंटित की जाती है। इस लिहाज़ से, चाहे कितने भी लोग ज़रूरतमंद
हों या आवेदन करें, इन योजनाओं में सीमित संख्या से ज़्यादा लोगों को लाभ
नहीं पहुँचाया जा सकता है। जैसे, जब यह तय है कि अमुक राज्य सरकार केवल
अमुक संख्या के लोगों को ही राशन उपलब्ध करायेगी तो फिर इससे कोई फ़र्क़ नहीं
पड़ता कि उस राज्य में असल में कितने लोग ज़रूरतमंद हैं और हर साल कितने
नए आवेदन माँगे/भरे जा रहे हैं। सरकार नियमों व प्रक्रिया में ही ऐसे उपाय
बिठा देगी कि लाभार्थियों की संख्या सीमित रहे। एक तरफ़ सरकारें इस तरह की
क्षुद्र लॉटरी निकालकर जनता में अपनी नीतियों के कल्याणकारी होने का ढोल
पीटती हैं, दूसरी तरफ़ नियम-आदेशों-शर्तों के माध्यम से वो लोगों में यह
संदेश देती हैं कि लाभ न मिलने का कारण योजना/नीति की ख़ामी नहीं है,
बल्कि लोगों द्वारा किये गए आवेदन में किसी कमी का होना है। यही कारण है कि
आवेदक पूछते रहते हैं कि विभाग की तरफ़ से उनके घर पत्र कब आएगा या क्यों
नहीं आया है, लेकिन स्थिति स्पष्ट करने का कोई तरीक़ा नहीं होता है। जहाँ
बहुत से परिवार लगातार अपना निवास बदलने पर मजबूर हैं, वहाँ इस तरह की
प्रशासनिक बाध्यताएँ जन-विरोधी भूमिका निभाती हैं। कई परिवारों से यह भी
सुनने में आता है कि जन्म-प्रमाण पत्र बनवाने के लिए उन्हें कई हज़ार तक की
रिश्वत देनी पड़ी। इसके बाद भी यह भरोसा नहीं दिलाया जा सकता है कि उनके
आवेदन स्वीकृत होंगे और उन्हें अंततः लाभ मिलेगा ही। यह कहना मुश्किल है कि
आज तक इस योजना से कितनी छात्राओं को कुल कितनी राशि उपलब्ध कराई जा चुकी
है। विभाग द्वारा योजना के अन्य आँकड़ों व उद्देश्यों की समीक्षा
उपलब्ध नहीं होने की बात ऊपर की जा चुकी है। ऐसे में, प्रश्न यह उठता है कि
पूँजीवाद के नवउदारवादी संस्करण में प्रमाण-आधारित प्रबंधन के महिमामंडित
हवाले से कर्मचारियों व सार्वजनिक संस्थानों पर थोपी जाती नीतियों की अपनी
प्रामाणिकता क्या है। बेहतर तो यह होता कि कम-से-कम सरकारी व निगम स्कूल
में पढ़ने वाली प्रत्येक छात्रा को हर साल एक निश्चित वज़ीफ़ा राशि दी जाती।
अनुसूचित जाति/जनजाति, पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक समुदायों व विकलाँग (cwsn)
पृष्ठभूमियों के छात्र-छात्राओं को मिलने वाले वज़ीफ़ों से अलग। इससे लाभ
सार्वभौमिक रहता, सुनिश्चित होता, इसको कार्यान्वित करने का प्रशासनिक
ख़र्चा भी न्यूनतम रहता और भ्रष्टाचार की गुंजाइश भी समाप्त हो जाती।
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